________________
दशम अध्याय
१६ सत्यप्रकाशके भीतर स्थिरता व चपलताका समावेश है; यही ज्ञानका पूर्ण विकाश है। इसलिये वेदोंके भीतर सामवेद ही
___ "वासव"-वस+अव, अर्थात् जो स्वर्गमें वास करता है, वही बासव है। स्वर्ग कहते हैं स्तरको । जगत्में दो प्रकारका स्तर है। एक प्रकार बद्ध और एक प्रकार मुक्त। इन दोनोंके बीच में चित्त नाम करके एक आलबाल है। चित्तके नोचे स्तर में त्रिगुणकी प्रवलतासे बद्ध जीवत्व है और ऊपर स्तरमें ज्ञानकी प्रवलता हेतु करके मुक्तत्व । चित्तकी नीची दिशामें जो जितना परिमाण चित्तावरणके निकट अग्रसर होता है; वह उतना परिमाण जीवत्व छोड़कर मुक्तत्व भोग करता है। चित्तके ऊपर भी पुनः दो स्तर हैं । चित्त और विवस्वान् के बीचमें एक स्तर, और विवस्वान्के ऊपर एक। चित्तके ऊपरवाले स्तरमें वशी लोगोंका निवास है। कोई चित्तवशी, कोई प्रकृतिवशी, कोई मायावशी, ऐसे ऐसे हैं । यह सब लोग चित्तके ऊपर नीचे दोनों स्तरमें ही समान रूपसे अपनी इच्छाशक्तिका प्रयोग करनेमें सक्षम हैं परन्तु जीवके सदृश बद्ध नहीं होते; किन्तु विवस्वान्के ऊपरवाले स्तरका अधिकार नहीं रखते। और चित्तके नीचे जो लोग हैं, उनके भीतर अहंकार-बुद्धि-मन-इन्द्रिय-विषयादि स्तरके अधिष्ठातृयोंको भी स्वर्गवासी कहते हैं-जैसे विषयमें विषयी, मनमें मुनि, बुद्धिमें बौद्ध, अहंकारमें अहंकारी ( सोऽहं वादी) इत्यादि। इन लोगों के भीतर जो पुनः चित्तमें हैं, अथच चित्तके ऊपर उठनेवाली शक्ति भी पाकरके थोडासा श्रेष्ठ भी हुए हैं, उन्हींको इन्द्र वा "वासव" कहते हैं । आज्ञा के ऊपरमें कमविहीन फलभोग अवस्था ही देव-अवस्था है। "मैंके" जितने प्रकार देव-अवस्था है उनके भीतर वह बासव-अवस्था ही प्रधान है; देव-अवस्थाके भीतर वासवमें हो "मैंकी" ( मेरी) पूर्ण विकाश है। इसलिये कहा गया देवतोंके भीतर मैं वासव हूँ।