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दशम अध्याय भूतोंका अधिपति । अर्थात् अहंकारसे तन्मात्रा, तन्मात्रासे आकाशादि उत्पन्न हुए हैं। इसलिये सर्वभूतोंके आशय वा अधिपतिका नाम “आत्मा” है। आशथ कहते हैं स्थान को; जहां जो रहता है उसका आशय वही है, जैसे जलका आशय समुद्र है; तैसे भूतका आशय “मैं” हूँ। हमसे ही भूतोकी उत्पत्ति है; पुनः हममें ही भूतों का अन्त है। पुनः इस उत्पत्ति और अन्तके बीच में जो स्थित है वह भी हममें है। इस कारण इस जगत्के उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय मेरे ऊपर “मैं” से “मैं” में ही होता है ॥ २० ॥
भादित्यानामहं विष्णुर्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिमरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥२१॥ अन्वयः। अहं श्रादित्यानां (द्वादशादित्यानां मध्ये ) विष्णुः, ज्योतिष (प्रकाशकानां मध्ये ) अंशुमान् ( रश्मिमान् ) रविः, मरुतां ( वायुनां मध्ये ) मरीचिः अस्मि; नक्षत्राणां ( मध्ये ) अह शशी ( चन्द्रमा अस्मि ) ॥ २१ ॥
अनुवाद। आदित्योंके भीतर विष्णु, ज्योतिः समूहके भीतर अंशुमाली सूर्य्य, मरुद्गणके भीतर मरीचि और नक्षत्रोंके भीतर चन्द्रमा मैं हूँ ॥ २१॥ . व्याख्या। "आदित्य"-जिससे अभावका पूरण होता है, वही आदित्य है; महत् और अव्यक्तके संक्रम-स्थलमें जो प्रतिफलित चैतन्यज्योति प्रकाश पाता है, वही प्रथम माया विकाश है, इसलिये उसको आदित्य कहा जाता है। इस आदित्यको शाम्भवीका प्रयोग करनेसे द्वादश अंशमें देखा जाता है; यथा-भग, अंश, अर्यमा, मित्र, वरुण, सविता, धाता, विवस्वान् , त्वष्टा, पुषा, इन्द्र और विष्णु । इन द्वादश के भीतर विष्णु हो "सवितृमण्डलमध्यवत्तीर्नारायणः हिरण्मयवपुः” है। उस अन्तरादित्यके हृदयमें अर्थात् ठीक बीचमें तारक नक्षत्र फट जा करके जो अष्टदल कमल खिल उठता है, उसी कमलके ऊपर में वह हिरण्मय पुरुष दर्शनमें आता है। गले हुए सोनेका घुमते