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- श्रीमद्भगवद्गीता यहां भी वही बात है। काम करती है प्रकृति, बन्धनमें आ गया "मैं" ( जीव ); क्योंकि मैं कुरुक्षेत्र में हूँ। मणिपुरसे मूलाधार पर्यन्त साधन-मार्गका कुरुक्षेत्रांश है ( ३य अः १४।१५वा श्लोककी व्याख्या देखो ); जिस साधकका मणिपुरसे मूलाधार पर्य्यन्त काम, क्रोध और लोभको लेकरके खेल चल रहा है वही “कुरु" शब्द वाच्य है; उनके भीतर आज्ञा चक्रके ऊपर भी जिनको अधिकार मिला, अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सरताको भी छोड़ नहीं सकते, इस पर भी आत्मावारे (आत्मलक्ष्यमें ) दर्शन-श्रवण-मनन-निदिध्यासन लेकरके भी है, वही श्रेष्ठ है; इसलिये ऐसे अवस्थापन्नको कुरुश्रेष्ठ कहा गया।
वह जो हमारा दिव्य आत्म-ऐश्वर्य अर्थात् जलमें अनन्त तरंग फेन-बुबुद् सदश विश्वसाजमें आत्म विकाश है, उसका अन्त नहीं है क्योंकि मैं अनन्त हूँ, हममें जिसका बोधन होगा वह भी अनन्त विस्तर है। उनके भीतर जो बड़े बड़े हैं उनमेंसे थोड़े अब मैं तुमसे कहता हूँ ॥ १६ ॥
अहमात्मा गुड़ाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यच्च भूतानामन्त एव च ।। २०॥ अन्वयः। हे गुड़ाकेश। अहं सर्वभूताशयस्थितः ( सर्वेषां भूतानां प्राशयेषु. अन्तःकरणेषु स्थितः) प्रात्मा, अहं भूतानां प्रादि च मध्यं च अन्तः एव च ॥ २० ॥
अनुवाद। हे गुड़ाकेश ! मैं सर्वभूतोंके अन्तर स्थित भात्मा हूँ। मैं ही. भूत समूहके आदि अर्थात् स्रष्टा, मध्य अर्थात् पालनकत्ता, और अन्त अर्थात् संहत्ता हूँ॥२०॥
व्याख्या। "गुडाकेश गुड़ाका = निद्रा, ईश=नियन्ता; निद्राजयी। निद्रा जिस साधकको आक्रमण नहीं कर सकती, जो साधक सदाकाल जागरूक है, वही गुड़ाकेश है। "अह" = मैं, आत्मा=सर्व
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