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श्रीमद्भगवद्गीता सकता; अथच उस मैं-भावका विभोरताका नशा भी कटता (टूटता) नहीं। ऐसी अवस्थामें असीममें ससीमता मिलानेमें भूल जाकर ( पुर्वजात संस्कारके बलसे ) श्रापही श्राप कैसे (अनजान भावसे ) मैं में 'तुम' बन जाता है। जिसमें साधकको बाध्य हो करके कहने पड़ता है कि, वह जो तुम्हारा आकाश-व्यापी विभूति है, जिस विभूतिसे तुम इस जगतके सब कुछ को "तुम" सजा लेकर व्यापमान हो रहे हो, उन सबको अशेष प्रकारसे मुझसे कहो, एक को भी बाकी मत छोड़ो। अर्थात् प्रत्येक वस्तुकी प्रत्येक अवस्थाको साधक अपने भीतरके अवस्थाके साथ मिला लेकर संशयच्छेद करनेके लिये प्रस्तुत होता है ॥ १६ ॥
कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सदा परिचिन्तन् ।
केषु केषु च भावेष चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥ १७ ॥ अन्वयः। हे योगिन् । सदा कथं (कैविभूतिभेदैः) परिचिन्तयन् ( अहं ) त्वां विद्या ( जानीयां ); हे भगवन् ! त्वं केषु केषु भावेषु च ( वस्तुषु ) मया (चिन्तनीयः ) असि ? ।। १७ ॥ ... अनुवाद। हे योगिन् ! सर्वदा में किस प्रकार भावसे चिन्ता करके तुमको जान सकूगा? हे भगवन् ! किस किस भावमें ( वस्तुमें ) तुम हमारे चिन्तनीय होचोगे ? ॥ १७॥
व्याख्या। किस प्रकारसे सर्वदा चिन्ता करके मैं तुम्हारा उस योगीभावको जान सकूगा ? साधनामें देखा जाता है कि जबतक चित्त-धर्म रहता है, तबतक वह योगी-भाव नहीं आता। भाव शब्द के अर्थ में भी तो वह योगी-अवस्थाही प्रकाश पाता है। परन्तु हे भगवन् ! कैसे करके, किस प्रकारसे, भावके साथ मैं चिन्ताको मिलाऊंगा? भावके पास चिन्ता तो पहुँच ही नहीं सकती। तब तुम किस किस भाबमें मेरे चिन्ताका विषय होगे?॥१७॥