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श्रीमद्भगवद्गीता समय जिस प्रकार रंग देखनेमें आता है, उस पुरुषका रंग ठीक उसी प्रकार है; इसलिये हिरण्मय है । यह पुरुष हिरण्यश्मश्रु और हिरण्यकेश है; इसके नखाग्रसे केशाग्र पय्यन्त समुदय सनेका वरण है; * यही पुरुष विष्णु है। वह विष्णु ही “मैं” अर्थात् पुराणी महामायाके प्रथम आकारधारी विकार हूं। - ज्योतिष्क गणके भीतर जो अंशुमाली रवि है ( "र" = प्रकाशे, "इ" = शक्ति, "व" = शून्य । शून्यमय प्रकाश शक्ति ); सो भी 'मैं' हूँ। मरुत् ( मृ= मरना+ उत् ) अर्थात् जो कुपित होनेसे मृत्युको मिलाय देते हैं। इन मरुतोंके भीतर मरीचि अर्थात् प्राण मैं हूँ।
"नक्षत्र" =जिसका कमी क्षय नहीं है अर्थात् अमृत । यह अमृत शशीमें ही प्रतिष्ठित है इसलिये मैं शशी हूं ॥ २१ ॥
बेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः । इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूवानामस्मि चेतना ॥ २२ ॥
अन्वयः। (अहं ) वेदानां सामवेदः अस्मि, देवानां वासवः अस्मि, इन्द्रियाणां मनः च अस्मि, भूतानां चेतना अस्मि ॥ २२ ॥
अनुवाद। वेदोंके भीतर सामवेद मैं हूं, और देवतोंके भीतर वासव, इन्द्रियोंके भौतर मन और भूतोंके भीतर चेतना रूपसे अवस्थित मैं हूँ ॥ २२ ॥
व्याख्या। वेद-शान, जाननेका विषय जो कुछ है, वही वेद है। वेदोंके भीतर साम सन्धि-माया-ब्रह्मका संयोग है। इसका स्थान आज्ञाचक्र है (२य अ:४५वां श्लोककी व्याख्या)। यहां पूर्ण
___ * "अथ यदेव तदादित्यस्य शुक्लं भाः संव साथन्नीलं परः कृष्णं तदमस्तत् सामाथ यः एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते हिरण्य श्मश्रु हिरण्यकेश आप्रणखात् सर्व एव सुवर्णः।"
छान्दोग्योपनिषत् १म प्रपाठकः ।।