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श्रीमद्भगवद्गाता
" इन्द्रियाणां मनश्वास्मि ” - इन्द्रिय समूहके भीतर मनही मैं हूँ । इन्द्रिय ग्यारह हैं, पांच ज्ञानेन्द्रिय; यह सब बाहरवाले शब्द - स्पर्श-रूपरस-गन्धादिका ज्ञान “मैं” के पास लाता है । पाँच कर्मेन्द्रियः यह सब रूपरसादि - विषय - चावल "मैं" को बाहर दिशामें कर्म्म करनेके लिये दौड़ाता है । इनको छोड़ दूसरा एक जो इन्द्रिय है उसको "मन" कहते हैं । वह मन "मैं को" विषय अनुभव भी कराता है, पुनः कर्म भी कराता है; अर्थात् भीतर में इच्छा अनुभूति चिन्ता - इन सब क्रियाओंको कराकर बाहर के कार्य में भी दौड़ाता है । इस उभयात्मक इन्द्रियका स्वरूप जो है वही प्रकृत मन है, वही "मैं" हूँ ।
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मन – म = मैं + न = नहीं अर्थात् मैं नहीं । इन्द्रिय समूहके भीतर जो मैं है, वही भूल मैं है । परन्तु इन सबके भीतर "मैं नहीं" रूप जो मन है वही प्रकृत "मैं" है । अब देखना चाहिये कि इन्द्रिय समूह के भीतर "मैं नहीं" वा मन कौन है ?
इन्द्रिय: [= इ + न्द्र+इ+य । इ = शक्ति, न्द्र = अग्नि, इ = शक्ति, य = स्वरूप | इन्द्रिय के भीतर शक्ति अग्नि और शक्ति-स्वरूप मिल गये । शक्ति अग्निका धर्म्म यह है कि जो कुछ अग्निमें पड़े उसीको अग्नि अपने रूप और गुणमें परिवर्तित कर देता है। जिसमें ही अग्नि लगे, अग्नि उसको पहले आलोकित करती है, तत्पश्चात्
को उत्तप्त करती है, अन्त में उसका परिणाम कृष्ण चिह्न और भश्म होता है । इन्द्रियकी शक्ति-अग्नि में भी जो विषय आ पड़ता है, पहले वह अन्तरमें प्रकाशित होता है, पश्चात् एक ताप वा चलन अनुभूत होता है, तत्पश्चात् उसी विषयका एक संस्कार मात्र अवशिष्ट (बाकी) रहता है । इन्द्रियके भीतर एक अंश "इन्द्र" वा शक्ति अग्निका कार्य्य दिखा गया है । इन्द्रियका दूसरा अंश " इ + य" वा शक्ति-स्वरूपका का अब देखना चाहिये ।