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दशम अध्याय विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिव्च जनाईन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ १८ ॥ अन्वयः। हे जनाईन ! भूयः प्रात्मनः योगं ( योगैश्वर्य) विभूति व विस्तरेण कथय, हि ( यतः ) अमृतं ( त्वन्मुखनिःसृतवाक्यरूपं ) शृण्वतः मे तृप्तिः म अस्ति ।। १८॥
अनुवाद। हे जनाईन ! फिर तुम अपना योगैश्वर्य्य और विभूतिको विस्तारित रूप करके मुझसे कहो, क्योंकि तुम्हारा मुख निःसृत अमृतमय वाक्य श्रवण करके मैं तृप्तिलाभ कर सकता नहीं ॥ १८॥ .. व्याख्या। वह जो आत्मा, वह जो शुद्ध, वह जो स्वयं-ज्योति, वह जो निराकृति थोगावस्था है, हे जन्ममरणवारि! अपना उस ऐश्वर्य और विभूतिको अशेष प्रकारसे मुझसे फिर कहो, फिर समझावो। उस अवस्थाको भोग करके मेरी तृप्ति होती ही नहीं ॥१८॥ . . श्रीभगवानुवाच ।
.. हन्त ते कथयिष्यामि दिव्याह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥ १६ ॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हन्त कुरुश्रेष्ठ! ते दिव्याः ( दिवि भवाः ) प्रात्मविभूतयः प्राधान्यतः ( प्राधान्येन) कथयिष्यामि हि (यस्मात् ) विस्तरस्य (विभूतिविस्तरस्य ) मे ( विभूतीनां ) अन्तः न अस्ति ॥ १९॥ .
अनुवाद । श्रीभगवान् अनुकम्पा प्रदर्शन पूर्वक कहते हैं-हे कुरुश्रेष्ठ। मैं अपने प्रधान प्रधान दिव्य विभूतियोंको तुमसे कहता हूँ। क्योंकि, हमारे विभूति विस्तर (विभूति ) का अन्त नहीं है ॥ १९ ॥
व्याख्या। पुनः निजबोध ज्ञानसे पूर्व कथित प्रश्नकी मीमांसा होती है; अर्थात् साधक आपही आप अपने प्रश्नका उत्तर करते हैं। __"कुरुश्रेष्ठ"। कुरु शब्दके अर्थ किसी काम करनेके लिये कहना है। उद्देश्य, एक कोई काम करे और दूसरा उसका फलभागी हो;