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दशम अध्याय उसे कमी ( क्रियाशील ) बिना कर्मके फल भोक्ता जो देव-अवस्था है, अथवा कामातुर मूढ़ दानव-अवस्थामें जाना जा नहीं सकता।
और वह समस्त अवस्थारूप ऐश्वर्य समूहमें ही प्रतिष्ठित रहनेसे तुम भगबान हो ॥ १४ ॥
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेब जगत्पते ॥ १५ ॥ अन्वयः। हे पुरुषोत्तम ! भूतभावन ! भूतेश ! देवदेव । जगत्पते ! त्वं स्वयं एव आत्मना आत्मानं वेत्थ (जानासि ) ॥ १५॥ .
मनुवाद। हे पुरुषोत्तम ! हे भूतभावन ! हे भूतेश । हे देवदेष ! हे जगत्पते । तुम आपही अपनेसे अपने को जानते हो ॥ १५ ॥
व्याख्या। "भूतभावन" =भूतोके भरण करनेवाला, "भूतेश” = भूतोंके नियन्ता, "देवदेव” - देवतोंके देवता, "जगत्पति" =जगत्के स्वामी, "पुरुषोत्तम" प्राकृतिक आवरण ही पुर है, प्राकृतिक आवरण युक्त अवस्थायोंके भीतर जो सबसे ऊंची अवस्था है, जिसके ऊपर
और अवस्था नहीं है, वही पुरुषोत्तम है। ऐसा पुरुष ! यह सब ही तुम हो। हरि ! हरि ! ऐसे तुमही “मैं” हूँ ! इसलिये कहता हूँ कि, आपही ज्ञाता, पापही झेय और आपही ज्ञान हो ॥१५॥
वक्तुमहस्यशेषेण दिव्याह्यात्मविभूतयः।
यामिविभूतिभिर्लोकानिमास्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥ १६ ॥ अन्वयः। त्वं इमान् लोकान् याभिः विभूतिभिः व्याप्य तिष्ठसि, ( ताः) दिव्याः ( अद्भु ताः ) आत्मविभूतयः हि अशेषेण वक्त अर्हसि ॥ १६॥
अनुबाई । तुम इन ( दृश्य जो कुछ ) सब लोक को जिन विभूतियांसे भीतर बाहर प्रेरे रहे हो, उन दिव्य आत्मविभूति समूह अशेष रूपसे मुझको कहो ॥ १६ ॥ - व्याख्या। वह जो ऊपरवाले कैवल्य भाव, वह जो सर्वभूतात्मभूतात्मा विश्वव्यापक भाव है, नीचेमें उतर आकर उसे कहा नहीं जा