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दशम अध्याय मायामय पुरमें जो सोते रहते हैं, वही पुरुष हैं। "शाश्वत" - अविनाशी। "दिव्यं" श्राकाश सदृश स्वरूपको कहते हैं। आकाश जैसे धारणामें नहीं आता, तैसे तुम्हारा उस तुम-अवस्थाको भी पकड़ा जा नहीं सकता; इसलिये तुम "दिव्यं” हो।
"आदिदेव”–जहाँसे प्रथम प्रारम्भ होता है वही श्रादि है। इस जगतका प्रारम्भ भी तुमसे होता है, इसलिये तुम आदिदेव हो।
"प्रज" कहते हैं जो कभी जन्मता नहीं। वह भी तुम हो। "विभु" कहते हैं सर्वमूर्त-संयोगीको, अर्थात् जो सर्वव्यापी है, वह भी तुम हो। ___ यह समस्त अवस्था तुमही में प्रतिष्ठित है, इसलिये तुम "भवान्" हो। अर्थात् यह समस्त ही जो तुम हो, उसे मैं उसी अवस्थामें जान सकता हूँ जिस अवस्थामें कारण, मूत्ति और अर्थके साथ प्रत्येक शब्दका परिज्ञान होता है; वही ऋषि-अवस्था है। सर्वेसर्व ऋषिगण। . "देवर्षि नारद”। नार शब्दमें विष्णु, द शब्दमें दान करना है । जो विष्णुको मिलाय देते हैं, उन्हींको नारद कहते हैं ( १०म मा २६वां लोक देखो)।
"असित”-अनास्ति, सित - बद्ध; जो बद्ध नहीं है, उन्हींको असित कहते हैं । अर्थात् मुक्त प्रवत्या ही असित अवस्था है। - "देवल" - देव-देवता, और लं= पृथिवीका बीज है। जिस अवस्थामें अन्तःकरण पार्थिव जगत्का देवता लेकर खेलता रहता है (साकार उपासनामें व्याप्त रहता है) उसीको “देवल" अवस्था कहते हैं।
"व्यास” =भेदज्ञान; अर्थात् वेद रूप ज्ञानसिन्धुको जीवजगत्के. कल्याणके लिये जो ( साम, ऋक् , यजु और अथर्व नामसे ) विभाग