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श्रीमद्भगद्गीता
होनेके सबब से आत्मावस्थाकी ज्योति (प्रकाश) से उन सबके अन्तःकरण छाय जाता है ॥ ११ ॥
अर्जुन उवाच ।
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥ १२ ॥ आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
सितो देवलो व्यास स्वयचैव ब्रवीषि मे ॥ १३ ॥
अन्वयः । अर्जुनः उवाच ! भगवान् परं ब्रह्म, परं धाम परमं पवित्रं च ( यतः ) सर्वे ऋषयः, देवर्षिः नारदः, तथा असितः, देवलः व्यासः च त्वां शाश्वतं दिव्यं पुरुषं आदिदेवं अजं विभुं आहुः, (त्वं) स्वयं च एव मे त्रवीषि ॥ १२ ॥ १३ ॥
अनुवाद | अर्जुन कहते हैं, तुम परमब्रह्म, परमधाम, और परम पवित्र हो; (जिस हेतु ) भृगु प्रभृति ऋषिगण; देवऋषि नारद, असित, देवल, और व्यास सब ही तुमको शाश्वत दिव्य पुरुष आदिदेव, अज, और विभु कह करके कहते हैं; स्वयं तुम मुझको इस प्रकार कहते हो ।। १२ ।। १३ ॥
व्याख्या । ( १२ से १८ पर्य्यन्त ७ श्लोकों में अर्जुन भगवान्को स्तव करके उनका विभूति-तत्व विस्तार रूपसे जानने के लिये प्रश्न करते हैं) । जो विद्या परपार में ले जाती है, उसीको परं कहते हैं । " ब्रह्मविदाप्नोति पर" अर्थात् जो ब्रह्मविद् है वही इस परंमें आय पड़कर समझ सकेंगे, यह किस प्रकार अवस्था है । अवधि - रहित महानको ब्रह्म कहते हैं, यह भी एक अवस्था है। क्योंकि, अवस्था न कहने से इन सभको समझानेमें तथा समझने में सुभीता नहीं होता । जो विद्या पारपार ले जाती है, उसी विद्याके विश्राम स्थानको "परं धाम" कहते हैं; अर्थात् - ब्रह्मानन्द भोगावस्था है । "पवित्र" = ग्लानि शून्यं, यह भी एक अवस्था है । "परमं" कहते हैं ब्रह्माजीके श्रायुष्कालके शेषमें ( कल्पक्षय में ) विश्राम स्थानको; यह भी अवस्था विशेष ह । “पुरुषं "