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श्रीमद्भगवद्गीता
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जो ग्रह सबसे अधिक सूर्य्यके निकट ( भिड़ा ) सर्वदा रहता है, वही बुध है; अर्थात् महा प्रकाशके पास सर्वदा जो रहता है । इसलिये बुध सूर्य ज्योति ( महा प्रकाश ) सर्वदा अधिक से अधिक पड़ता है। तैसे जिन्होंने विवेक ज्ञानसे सर्वदा परमात्म-सन करते हैं वह भी बुध - विवेकी हैं। इस विवेकी पद प्राप्त होनेसे साधक प्रत्यक्ष अवगत होते हैं कि, मैं ही सबका प्रभव - उत्पत्तिका हेतु हूँ, और सर्वभूत में बुद्धि, ज्ञान, असंमोह इत्यादि जो कुछ भाव प्रवतित होता है, वह सब इस "मैं" से ही होता है; मैं ही सबके एकमात्र आश्रय और चालक हूँ । इस प्रकारकी समझ ( ज्ञान ) होनेसे ही ( साधक ) आत्मभाव में युक्त होते हैं और एकमात्र मैका ही भजन करते हैं, अर्थात् उस “मैं” बिना और किसीको श्राश्रय करनेकी इच्छा नहीं करते, केवल मन-प्राणके साथ उसी मैं में मिल जानेकी चेष्टा करते हैं ॥ ८ ॥
मच्चित्ता मगतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ६ ॥
अन्वयः । मच्चिताः मगतप्राणा: ( ते बुधाः ) परस्परं (अन्योन्यं ) बोधयन्तः नित्यं मां कथमन्तः च तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ९ ॥
अनुवाद | ( वह बुधगण ) मचित्त और मद्रतप्राण होकर के परस्परको मेरे विषय समझा देकरके और नित्य मेरे विषयकी बात कह करके सन्तोष तथा सुख लाभ करते हैं ॥ ९ ॥
व्याख्या । प्रलयकालमें मायामें चितृत्व नहीं रहता, हम ('मैं' ) मैं आ पड़ता है; इसलिये जगत्-जीवन जो प्राण है, वह भी उख चित्-त्वके साथ हम ( मैं ) आ पड़ता है, क्योंकि, तब और मायाकी क्रिया शक्ति नहीं रहती । इस कारण करके परस्पर रूप द्वैतभाव मिट जाता है। यदि तब कोई कहनेको रहे, और वह कहे, तो अकेले है