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श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। मृगुप्रमृति सात जन, और सनक प्रमृति पहलेवाले चार जन महर्षि तथा स्वायम्भुव प्रमृति मनुलोग हमारी ही शक्ति सम्पन्न और मानससे उत्पन्न हैजिन लोगोंसे जगत्में यह सब प्रजा सृष्टि हुई है ॥ ६ ॥
व्याख्या। मायामें उपहित चैतन्यको अर्थात् ईश्वरको महत् कहते हैं। साधन-बलसे जो पुरुष इस महत् पदको लाभ किये हैं, उन्हींको महर्षि कहते हैं। इस वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में उस पद को सात जन पा चुके हैं, उन सबके नाम मरीचि, अत्रि, अगिरा, पुलस्त, पुलह, ऋतु, वशिष्ठ है। पुनः कहों कहीं कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाजको भी वैवस्वतका महर्षि कहते हैं। और पहले वाले चार जन हैं-सनक, सनन्दन, सनत्कुमार,
और सनातन। मनु चौदह हैं; यथा-स्वायम्भुव, स्वरोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत ( यह वैवस्वत मन्वन्तर अब चल रहा है ), सावर्णि, दक्षसावणि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावणि, देवसावर्णि। यह सब हमारे मन-आवेगके कल्पना-प्रसूत हैं; अर्थात् मेरी भावावस्थामें मानस * नाम करके जो वृत्ति-विशेष उत्पन्न होती है, उसी मानसमेंसे इन सबकी उत्पत्ति हुई है। ये लोग मद्भावविशिष्ट अर्थात् मेरे वैष्णवी (विश्वव्यापी) सामर्थ्य युक्त हैं। यह सब प्रजापति हैं। इन्हींसे इस जगत्में दृश्यमान प्रजा समूहका विस्तार हुआ है ॥ ६ ॥
एता विभूति योगच मम यो वेत्ति तत्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥७॥ अन्वयः। यः मम एतां विभूति ( विस्तारं ) योगं च ( योगैश्वर्य्यसामर्थ्य ) तत्त्वतः वेत्ति, सः अधिकम्पेन ( निःसंशयेन ) योगेन ( सन्यग्दर्शनेन ) युज्यते ( युक्तो भवति ); अत्र संशयः न ( अस्ति ) ॥ ७॥
* मानस= मान लो वही; कोई कुछ मान लेना ही मानस-इच्छाशक्ति