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श्रीमद्भगवद्गीता (उत्पत्तिः) अमावः (नाशः ) भयं च अभयं एव च अहिंसा समता तुष्टिः तपः दानं यशः अयशः भूतानां ( एते ) पृथविधाः भावः मत्तः एव भवन्ति ॥ ४॥५॥
अनुवाद। बुद्धि, ज्ञान, असंमोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, उत्पत्ति, नाश, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तपः, दान, यश, अयश, प्रभृति, प्राणियों के लिये नानाविध भाव हमहीसे उत्पन्न होता है ॥ ४ ॥५॥ ___ व्याख्या। "बुद्धि" अन्तःकरणकी उस शक्तिको कहते हैं जिससे सत. असत्का विचार करके सूक्ष्म पदार्थको समझा जा सकता है, अर्थात् निश्चयात्मिका वृत्ति है।
"ज्ञान" =(हम अ० १म श्लोक ) विचारपूर्वक बुद्धिसे जो निश्चय किया हुआ है, उसमें प्रवृत्तिका नाम ज्ञान है।
"असंमोह"-"अ" = नास्त्यर्थ + "सं” = सम्यक् + “मोह” = अविद्या-वृत्ति। अविद्या वृत्ति जिस अवस्थामें सम्यक् मिट जाता है, उसी अवस्थाको असमोह अवस्था कहते हैं। . ... "क्षमा" =दूसरेसे पूजित या तिरस्कृत हो करके प्रतिकार करनेवाली शक्ति रहने पर भी जो उपेक्षा करण शक्ति है वही क्षमा है।
निम्कपट हो करके पराया हित करनेका नाम 'सत्य' है। "दम" - बायेन्द्रिय निग्रह। "शम".-अन्तःकरणके निग्रह। ..
. "सुख”–सुसुन्दर, खं = शून्य, अर्थात् उद्वगराहित्य । "दुःख"-तद्विपरीत। "भव”–जन्म, "अभाव =मरण ।। "भय" = मृत्यु-आशङ्का करके उद्वग।
"अभय” तद्विपरीत। "अहिंसा" = प्राणी-पीड़नाभाव। "समता" =रागद्वषादि-राहित्य । "तुष्टि" =सन्तोष। "तप" =माया-विकार को ज्ञानाग्निसे भश्म करनेवाली चेष्टा ।