________________
श्रीमद्भगद्गीता
परन्तु अति संक्षेपसे वर्णन किया हुआ है इस कारण यदि सर्व संशय दूर न हो, इसलिये भगवान् अपने भक्त अर्जुन के हितार्थ पुनराय परमात्मनिष्ठ वाक्य कहते हैं ॥ १ ॥
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । श्रहमादिहिं देवानां महर्षीणाञ्च सर्वशः ॥ २ ॥
अन्वयः । सुरगणाः मे प्रभवं (उत्पति ) न विदुः ( जानन्ति ), महर्षयः अपि न ( बिदुः ); हि ( यतः ) अहं देवानां महर्षीणां च सर्वशः ( सर्वप्रकारैः ) श्रादिः ( कारणं ) ।। २ ।।
अनुवाद | सुरगण हमारी उत्पत्ति नहीं जानते, महर्षिगण भी नहीं जानते; क्योंकि सर्व प्रकार से ही देवतागण के और महर्षिगणके आदि हूँ ॥ २ ॥
व्याख्या । वह जो विवस्वान के ऊपर पीठके "मैं" है, उनको देवता लोग नहीं जानते, क्योंकि, वे लोग कर्मफलके भोक्ता हैं, कम्म नहीं हैं। जो लोग त्रिकालज्ञ, जगत प्रपञ्चके वेत्ता हैं, उनको महर्षि कहते हैं, वह लोग भी हमारी उस "मैं" अवस्थाको नहीं जानते । क्यों नहीं जानते, अब उसे तुम देखो। कालत्रय और संखार-विचार | लेकर रहनेसे तुमको चित्तधर्मका धम्र्मी होकर रहने होवेगा, ऊपरमें उठ नहीं सकोगे। ऊपर में उठ जानेसे कम्मफल- भोग और विचारशक्ति आदि चित्त क्षेत्र में पड़े रहते हैं। जब तुम "मैं" से मायाकी अपसारण, "मैं" और मायाके बीच विच्छेद-भूमिमें विवस्वानके प्रकाश, और विवस्वानसे चित्त में विम्बपात, - यह सब अनुभव किये हो, तब चित्त-धर्म में वह सब जो नहीं रहता सो तुम समझे हो । क्योंकि यह सब चित्तकी बहुत ऊंचेवाली बात है । पुनः असल “मैं” इन सबसे भी ऊंचे में है। तुम कम्मी हो, इसलिये तुम्हारे कम्म (क्रिया) से यह सब अनुभव में आये थे; परन्तु महर्षिलोग सर्वदा • जगत् के कल्याण तत्पर रहनेसे मेरे ऊपरवाले उस "मैं" अवस्थाको