________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आकासानिलप्पभेद
15
आकिञ्चञ
नामक प्रभेद, दस कसिणों में से एक - आकासञ्च तं अनन्तञ्चाति आकासानन्तं, कसिणग्घाटिमाकासो, अभि. ध. वि. टी. 93; आकासो अनन्तो आकासानन्तो, पटि. म. अट्ठ 1.77. आकासानिलप्पभेद त्रि., ब. स. [आकाशानिलप्रभेद].
आकाश एवं वायु के प्रभेदों वाला (शब्द)- दो पु., प्र. वि., ए. व. - आकासानिलप्पभेदो देहनिस्सितो चित्तजसद्दो येव वण्णत्तमुपगतो सद्दो, सद्द. 3.603-04. आकासाभिमुख त्रि., [आकाशाभिमुख], आकाश की ओर अभिमुख, आसमान की ओर देख रहा -खो पु., प्र. वि., ए. व. - तथा हि गावो नववुढे देवे भूमिं घायित्वा घायित्वा आकासाभिमुखो हुत्वा वातं आकड्वन्ति, स. नि. अट्ठ. 3.109. आकासारम्मण त्रि., ब. स. [आकाशालम्बनक], वह ध्यान भावना, जिसमें चित्त का आलम्बन आकाश रहता हो - णं नपुं. प्र. वि., ए. व. - ... आकासारम्मणं आकासानञ्चायतनं विसुद्धि. 1.330. आकासुक्खिपिय पु., व्य. सं., एक स्थविर का नाम, जो आकाश की ओर पुष्पों को फेंक देता था - इत्थं सदं आयस्मा आकासुक्खिपियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.244. आकासुपनिस्सय पु., तत्पु. स. [आकाशोपनिःश्रय], शब्द के आधार या आश्रय के रूप में आकाश, आकाश का आश्रय - सोतायतनं निस्साय इट्ठसम्मतं सद्दायतनं आलम्बित्वा आकासपनिस्सयं लभित्वा मनोधातावज्जनानन्तरं एव उप्पज्जति ... सोतविणं, रूपा. 153, 155 (रो.). आकिञ्च नपुं.. संभवतः आकिञ्च का अप., अकिंचनता की मनोदशा, अरूपध्यान का तृतीय चरण – ञ्चं द्वि. वि., ए. व. - आकिञ्च नेवसञञ्च, समापज्जि यथक्कम, अप. 2.209. आकिञ्चञ 1. नपुं॰, भाव. [आकिञ्चन्य], शा. अ., कुछ भी शेष न रहने की अवस्था, अकिंचनता, समस्त धनसम्पत्ति से रहित होना - अं द्वि. वि., ए. व. - आकिञ्चनं पत्थयानो, ब्राह्मणो मन्तपारग सु. नि. 982; आकिञ्चजन्ति अकिञ्चनभावं परिग्गहूपकरणविवेकन्ति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.271; ला. अ. 1. अरूपावचर-ध्यान की तीसरी अवस्था, जिसमें ध्यान करने वाले साधक का चित्त अधिक सूक्ष्म हो जाता है तथा उसे अनन्त आकाश
एवं अनन्त विज्ञान के रूपरहित आलम्बन स्थूल प्रतीत होने लगते हैं, इस अवस्था में साधक 'नहीं हैं', 'नहीं हैं, 'शून्य है, शून्य है', 'खाली है, खाली है, इस प्रकार की अनुपश्यना करते हुए अनन्त-विज्ञान के विषय में 'कुछ नहीं है' या 'नत्थि किञ्चि' की भावना करता है। दूसरे शब्दों में 'विज्ञाणञ्चायतन' के विज्ञान का अभाव है, अन्तर्धान है तथा कुछ भी नहीं है, यह देखता है। इस ध्यान में उपेक्षा एवं एकाग्रता, ये दो ध्यानाङ्ग ही रहते हैं - एत्थ पन नास्स किञ्चनन्ति अकिञ्चनं ... अकिञ्चनस्स भावो आकिञ्चनं आकासानञ्चायतनविाणापगमस्सेतं अधिवचनं, ध. स. अट्ट. 250; तत्थ आकिञ्चायतनं किञ्चनं आरम्मणं अस्स नत्थीति आकिञ्चज. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).249; नास्स पठमारुप्पस्स किञ्चनं अप्पमत्तकं अन्तमसो भङ्गमत्तम्पि अवसिढ़ अस्थीति अकिञ्चनं तस्स भावो आकिञ्चनं पठमारूप्पविआणाभावो, अभि., ध. वि. टी. 93; नत्थि किञ्चीति नत्थि नत्थि, सुझं सुझं विवित्तं विवित्तन्ति एवं मनसिकरोन्तोति वुत्तं होति, विसुद्धि. 1.324; ला. अ. 2. निर्वाण, जिसमें किसी भी प्रकार के क्लेश चित्त में शेष नहीं रह जाते, चार आर्यमार्ग एवं आर्यफल - निब्बानम्पि आकिञ्चनं स. नि. अट्ठ. 3. 137; मग्गफलानि... किलेसानं नत्थिताय आकिञ्चआनि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).249; 2. त्रि., अकिंचनता के साथ जुड़ा हुआ, किसी भी प्रकार के आलम्बनों से रहित, क्लेशरहित, बाधारहित - जा' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आकिञ्चञा चेतोविमुत्ति, म. नि. 1.378; आरम्मणकिञ्चनस्स अभावतो आकिञ्चआ, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).248; - झं द्वि. वि., ए. व. - यदेव तत्थ सच्चं तदभिजाय आकिञ्चजयेव पटिपदं पटिपन्नो होति, अ. नि. 1(2).205; आकिञ्च येव पटिपदन्ति किञ्चनभावविरहितं निप्पलिबोध निग्गहणमेव पटिपदं ..., अ. नि. अट्ठ. 2.358; - जा प्र. वि., ब. व. - आकिञ्चञा चेतोविमुत्तियो, म. नि. 1.379; आकिञ्चजा चेतोविमुत्तियो नाम नव धम्मा
आकिञ्चआयतनञ्च मग्गफलानि च, म. नि. अह. (मू.प.) 1.(1)249; - चे तो विमुत्ति स्त्री., कर्म. स. [आकिञ्चन्यचेतोविमुक्ति], चार लोकोत्तर मार्ग, चार आर्य फल एवं आकिञ्चन्यायतन नामक अरूपध्यान की अवस्था वाले कुल नौ धर्म - आकिञ्चजा चेतोवित्तियो नाम नव धम्मा आकिञ्चायतनं मग्गफलानि च, स. नि. अट्ठ. 3.136; पाठा. आकिञ्चन, चेत्तोविमुत्ति; - सम्भव पु..
For Private and Personal Use Only