Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 02
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar
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आसन्नसन्निवेसववत्थित
आसन्नसन्निवेसववत्थित त्रि. कर्म. स. सुव्यवस्थित पारस्परिक क्रम विन्यास में विन्यस्त, एक दूसरे के साथ अत्यन्त निकट होकर कतारों में स्थित तानं पु, ष. वि., ब. व. - तत्थ आसन्नसन्निवेसववत्थितानं रुक्खानं समूहो वनं, खु. पा. अट्ठ. 152. आसन्नसोमनस्स त्रि०, ब० स०, अत्यन्त समीपवर्ती सौमनस्य से युक्त सं नपुं. प्र. वि., ए. व. - करोति पनिदं चितं, रूपामारम्मणं यतो आसन्नसोमनरसज्य थूलसन्तविमोक्खतो अभि. अ. 986 - पच्चत्थिक त्रि. समीपस्थ सौमनस्य का प्रत्यर्थी अथवा विरोधी कं नपुं. प्र. वि., ए. व. आसन्नसोमनस्सञ्चाति यतो ततियज्झानस्स आसन्नताय आसन्नसोमनस्सपच्चत्थिकञ्च, अभि. अव. (अभि.टी.) 2.191; तस्मिं झाने "इमं मया निब्बिण्णं रूपं आरम्मणं करोतीति च, आसन्नसोमनस्सपच्चत्थिकन्ति, विसुद्धि० 1.317. आसन्नाकुसलारिक त्रि. ब. स. वह जिसमें अकुशल के प्रतिपक्षभूत कुशल धर्म समीप में ही विद्यमान हों, समीप में विद्यमान कुल धर्मों वाला रिका स्त्री. प्र. वि. ए. व. यस्मा अयं समापत्ति आसन्नाकुसलारिका, अभि. अव.
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आसन्नानन्तर त्रि, एकदम निकटवर्ती, अत्यधिक समीप में स्थित, बिना किसी व्यवधान के जुड़ा हुआ रंनपुं. प्र. वि., ए. व. - द्वे अनन्तरानि आसन्नानन्तरञ्च दूरानन्तरञ्च, स.नि. अ. 2.244.
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आसप्पना स्त्री. आ + √सप्प से व्यु प्रायः परिसप्पना के साथ प्रयुक्त [आसर्पण]. शा. अ. रेंग कर पास पहुंचना, फिसलते हुए चलना, फिसलन, ला. अ., अविश्वास, शङ्का, सन्देह, अनिश्चय, विचिकित्सा, "यह ठीक है अथवा ठीक नहीं है इस प्रकार की अनिश्चयपरक मनोवृत्ति, प्र. वि., ए.व. आसप्पना परिसप्पना, सद्द. 2.330; या कङ्क्षा कङ्क्षायना संसयो अनेकंसग्गाहो आसप्पना परिसप्पना अपरियोगाहणा छम्भितत्तं चित्तस्स मनोविलेखो .... अयं दुच्चति "विधिकिच्छा, विभ. 286: यस्मा पन बुद्धानं एकड म्मेपि आसप्पना परिसप्पना नत्थि, दी. नि. अट्ठ. 1.65; या एवरूपा कङ्क्षा... द्वेधापथो संसयो अनेकंसग्गाहो आसप्पना परिसप्पना इदं कथं कथासल्लं, महानि. 307 ; निच्छेतुं असक्कोन्ती आरम्मणतो ओसक्कतीति आसप्पना, महानि, अट्ठ. 349; परिसप्पना स्त्री०, द्व० स० [ आसर्पण परिसर्पण] सन्देह एवं अविश्वास नं द्वि. वि. ए. व. -- एवं विचिकिच्छापि बुद्धो नु खो, न
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आसभसदिसत्त
बुद्धोति आदिना नयेन पुनप्पुनं आसप्पनपरिसप्पनं अपरियोगाहनं .... दी. नि. अट्ठ 1.174; अरज्ञ पविट्ठस्स आदिम्हि एव सप्पनं आसप्पनं परि परितो, उपरुपरि वा सप्पनं परिसप्पनं, दी. नि. टी. (लीन.) 1.230. आसम' त्रि, प्रायः 'वाचा' (वाणी) एवं 'ठान (स्थान) के विशे. के रूप में प्रयुक्त [ आर्षभ], ऋषि से सम्बद्ध, आर्यपुद्गल से सम्बद्ध, अर्हत् से सम्बद्ध भी स्त्री. प्र. कि.. ए. व. अथ किं चरहि ते अयं सारिपुत्त, उळारा आसभी वाचा भासिता, दी. नि. 3.74; आसभीति उसभस्स वाचासदिसी अचला असम्यवेधी दी. नि. अड्ड. 3.56 - मिं स्त्री. द्वि. कि.. ए. व. आसभि वाचं निच्छारेसि, पारा. अड. 1.96 आसभिञ्च वाचं भासति म. नि. 3.165; आसभि वाचं निच्छारेन्तो, जा. अड. 1.64; आसभचम्मं सहसतेन सुविहतं विगतवलिक म. नि. 3.148 मं नपुं. प्र. वि., ए. व. यथापि आसभ चम्मं पथव्या वितनीयति, जा. अट्ट 6.283 - मं द्वि. वि., ए. व. येहि बलेहि समन्नागतो तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, अ० नि० 2 (2).120; भगवा पन अप्पटिसमद्वेन आसभं ठानं पटिजानाति, स. नि. अह 1.72; आसभं ठानन्ति सेद्वद्वानं उत्तमद्वान् स. नि. अट्ठ. 2.41; - भो पु०, प्र. वि., ए.व. आसभसदिसत्ता आसभो नराने आसभो नरासभो, अप. अड. 1.246 - भा ब. व. आसभा वा पुब्बबुद्धा, तेसं ठानन्ति अत्थो, म. नि. अड. ( मू.प.) 1(1).339 स. उ. प. के रूप में, नरा, पुरिसा के अन्त द्रष्ट - द्वानद्वायी त्रि. उत्तम स्थान को ग्रहण करने वाला, प्रमुखता की स्थिति को प्राप्त यिनो पु०, प्र. वि. ब. व. आसभट्टानद्वायिनो सीहनादनादिनो, म० नि० अट्ठ. ( मू०प.) 1(1).10; द्वाननिच्चल त्रि, उत्तम स्थान पर अडिग रूप से स्थित
भं प्र०
लो पु०, प्र. वि., ए. व. आनुभाववसिप्पत्तो, आसभण्डाननिच्चलो. ना. रू. प. 1108 पाठा. द्वान: भूत त्रि. उत्तम स्थिति को प्राप्त त पु सम्बो.. ए. व. नरासभ नराने आसभभूत, अप, अड. 2.82. आसभ' नपुं,, उसभ का भाव, उत्तमता, उच्चता वि., ए. व. उसभस्स भावो आसभ, क. व्या. 404; उसभस्स इदं ठानन्ति आसभ, सर. 3.807. आसमसदिसत्त नपुं, भाव, अर्हत् आदि आर्य अथवा निष्पाप जनों के समान होना, उत्तम व्यक्तियों से समानता- त्ता प.वि., ए. व. आसभसदिसत्ता आसभो, अप. अट्ठ
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