Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 02
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar
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781.
इतर
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इतरीतर उक्खेपकानं उक्खेपने, इतरेसञ्च असञ्चिच्च आपत्तिया व. - सत्था पुन दिवसे इतरस्स इतरस्साति पटिपाटिया अदस्सने आदीनवं वत्वा ..., जा. अट्ठ. 3.429; 1.ग. ब. व. सब्बेसं घरानि अगमासि, ध. प. अट्ठ. 2.288; - रेन तृ. के अधिकतर प्रयोगों में, दूसरे, अन्य, शेष, बचे हुए - रे वि., ए. व. – वासिफरसुको जेट्ठभातिकस्स अग्गिं करोति, पु., प्र. वि., ब. व. - इतरेपि द्वे एवमेव आहंसु, पारा. अट्ठ. इतरेन भेरितले पहटे हत्थी पलायन्ति, जा. अट्ठ. 2.84; स. 1.294; इतरे द्वे सहायकत्थेरा जनपदचारिकं चरन्ता उ. प. के रूप में इतरी., उत्तरी., उत्तरे., दुद्दसे., वामे. के अञ्जतरस्मिं आवासे समागन्त्वा .... पे. व. अट्ठ. 12; इतरे अन्त. द्रष्ट.. तयो सक्कायदिट्ठिया बलवत्ता अत्तनो पटिपक्खभूतं सत्तं इतरत्र अ., सप्त. वि., प्रतिरू. प्रकार-बोधक अथवा स्थानसूचक अपस्सन्ता न भायन्तीति, ध. प. अट्ठ. 2.28-29; "स्वे निपा. [इतरत्र], अन्यथा, उससे भिन्न रूप में, अन्यत्र, उपोसथदिवसो ति अत्वा इतरे तयो आह .... जा. अट्ट दूसरे स्थलों में – एस नयो इतरत्रापि, सद्द. 3.704; 7563; 3.44; - रा स्त्री., द्वि. वि., ब. व. - तं सुत्वा सकुणो इतरा द्वे गाथा अभासि, जा. अट्ठ. 3.23; - रेसु पु., सप्त. इतरथत्त नपुं., इतरथा से व्यु., भाव. [इतरथात्व], अन्य वि., ब. व. - इतरेसु पन तीस कायसञ्चेतना कायसङ्घारो रीति से अथवा दूसरी तरह से होने की अवस्था - त्ता प. ...., विसुद्धि. 2.160; - रेसं नपुं.. ष. वि., ब. व. - वि., ए. व. - सब्बनामेहि था-तथा पकारवचने... इतरथा पथवीकसिणे पन पठमं झानं समापज्जित्वा तत्थेव इतरेसम्पि उभयथा, तेन पकारेन ततत्था ... तयुगपच्चयो पसिद्धो तं समापज्जन अङ्गसङ्कन्तिकं नाम, विसुद्धि. 2.3; इतरेसन्ति यथा, तथा भावो तत्थत्तं, एवं अञत्थत्तं ... इच्चादि एत्थ च, अवसिद्धरूपावचरज्झानानं, न हि अरूपज्झानेसु असङ्गसङ्कन्ति सद्द. 3.805; थत्ताप्पच्चयो च होति - सो विय पकारो अत्थि, नापि तानि पथवीकसिणे पवत्तन्ति, विसुद्धि, महाटी. तथत्ता, एवं यथत्ता, अअथत्ता, इतरथत्ता, सब्बथत्ता, क. 2.3-4; - रानि नपुं, प्र. वि., ब. व. - सद्धिन्द्रियं बलवं व्या. 400. होति इतरानि मन्दानि, ततो वीरियिन्द्रयं पग्गहकिच्चं .... इतरथा अ., निपा., इतर + था के योग से व्य. विसुद्धि. 1.126; कसिणकम्मद्वानिको कसिणं कत्वा यथासुखं प्रकारबोधक क्रि. वि. [इतरथा], 1. अन्य रीति से, दूसरी भावेति, एवं इतरानि कम्मट्ठानानि सुलभानि, विसुद्धि. तरह से, और तरीके से - इतरथा वस्तुं न देमाति आह, 1.180-81; 1.घ. यदा कदा ए. व. में प्रयुक्त होने पर भी विसुद्धि. 1.94; “पटिपत्तिया च पूजियमानो पूजितो होति न समाहार अथवा बहुत्व का द्योतक - रं नपुं.. प्र. वि., ए. इतरथा ति, विसुद्धि. 1.128; 'अहमेतं लाभग्गयसग्गप्पत्तं व. - नाझं सुचरितं राज... तायते मरणकाले एवमेवितरं करोन्तो पब्बजित्वाव कातुं सक्खिस्सामि, न इतरथा ति, धनं, जा. अट्ठ. 3.185; 2. 'जन' अथवा 'पजा' शब्दों के जा. अट्ठ. 4.339; कथिता येव सोभति न इतरथा, सद्द, साथ अन्वित रहने पर, सामान्य, साधारण, नासमझ, गंवार, 1.144; 2. नहीं तो, अन्यथा, विपरीत रूप में, दूसरी ओर तुच्छ, नीच - रो पु., प्र. वि.. ए. व. - तमहं सारथिं ब्रूमि, - इतरथा एवं कातुं न सक्खिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 6.257; रस्मिग्गाहो इतरो जनो, ध. प. 222; - रा स्त्री.. प्र. वि., इतरथा न पुब्बेन वा परं, न परेन वा पुब्बं युज्जति, बु. वं. ए. व. - अप्पका ते मनुस्सेसु, ये जना पारगामिनो, अथायं अट्ठ. 38; इतरथा हि पुब्बे वुत्तदोसप्पसङ्गो एव सिया, तस्मा इतरा पजा, तीरमेवानुधावति, ध. प. 85; "अत्थाय इतरा यथानुसिट्ठमेव गहेतब्द, खु. पा. अट्ठ. 10. पजा, पुञभागाति मे मनो, सङ्घातुं नोपि सक्कोमि, इतरीतर त्रि., [इतरेतर], 1. पारस्परिक, अन्योन्य, एक मुसावादस्स ओत्तपान्ति, स. नि. 1(1).182; अत्ता हवे जितं दूसरा, एक एक, प्रत्येक - स्स पु., ष. वि., ए. व. - सेय्यो, या चायं इतरा पजा, अत्तदन्तस्स पोसस्स. निच्च अञमञस्स भोजका, इतरीतरस्स भोजका, मो. व्या. सञतचारिनो, ध. प. 104; सो सचे धम्म चरति, पगेव 1.56; 2. भिन्न-भिन्न प्रकृति एवं स्वरूप वाला, छोटा से इतरा पजा, जा. अट्ठ. 5,231; 3. अगला, अनुवर्ती, आगे छोटा, हर प्रकार का - रा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - मही आने वाला, परवर्ती, द्वितीय, दूसरा - रं स्त्री., वि. वि., यथा जगति समानरत्ता, वसुन्धरा इतरीतरापतिठ्ठा, जा. ए. व. - अथरस वचनं सुत्वा पुरोहितो इतरं गाथमाह, जा. अट्ठ. 5.420; वच्छदन्तमुखा सेता, तिक्खग्गा अद्विवेधिनो, अट्ठ. 5.97; सा तस्स आगमनूपायं आचिक्खन्ती इतरं पणुन्ना धनुवेगेन, सम्पतन्तुतरीतरा, जा. अट्ठ. 6.2773; गाथमाह, जा. अट्ठ. 5.191; - रस्स/रस्सा ष. वि., ए. सम्पतन्तुतरीतराति एवरूपा सरा इतरीतरा सम्पतन्तु
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