Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 02
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar

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Page 399
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईसं 372 ईसधर ग-कारं कत्वा एवं वुत्तन्ति दहब्बं, अप, अट्ठ. 2.251; सब्बवेदविदू जातो, वागीसो वादिसूदनो, अप. 2.147; सुवण्णपीळकाकिण्णं, मणिदण्डविचित्तकं को सो परिसमोगरह, ईसं खग्गं पमुञ्चति, जा. अट्ठ. 7.64; स. उ. प. के रूप में, अरियदेसी., ओसधी., जनपदे., नक्खत्ते., मनुजे., लङ्के, लोके., वङ्गी., वागी. के अन्त. द्रष्ट... ईसं अ., निपा., क्रि. वि. [ईषत], 1. आसानी से, बिना किसी प्रयास के, सरलतापूर्वक - ईस-दु-सु-सदादीहि सब्बधातूहि खप्पच्चयो होति भावकम्मेसु ईसंसयनं ईसस्सयो, दुवसयनं दुस्सयो, ... ईसं कम्मं करीयतीति इस्सक्कर क. व्या. 562; 2. थोड़ा सा, ज़रा सा, अपूर्ण रूप में, हल्केफुल्के ढङ्ग से - ईस किञ्चि मनं अप्पे, अभि. प. 1148; आतो गमु ईसमधिवासने, आगमेति .... सद्द. 2.558; म्हि ईसंहसने, म्हयते उम्हयते विम्हयते, सद्द. 2.454; ईसं कालं वसन्ता ते मिच्छादिट्टिकपापिका, चू, वं. 96.24. ईसकं अ., निपा., क्रि. वि. [ईषत्क], जरा सा, थोड़ा सा, कुछ सीमा तक, कुछ मात्रा में, आंशिक रूप में, अपूर्ण रूप में - वङ्क वा उजुकं अतिउजुकं वा ईसकं पोणं करोति, उभोपि न मुच्चन्ति, पारा. अट्ठ. 2.51; यस्स पन किञ्चि किञ्चि अङ्गपच्चङ्ग ईसकं वङ्क तं पब्बाजेतुं वट्टति, महाव. अट्ठ. 293; ईसकं पन खञ्जत्ता खञ्जदेवो ति तं विदु, म. वं. 23.78; पल्लङ्कतो ईसकंपाचीननिस्सिते उत्तरदिसाभागे ठत्वा, जा. अट्ठ. 1.86; काक-कुलल-सोण-सिङ्गालादीहि मुखतुण्डकेन वा दाठाय वा ईसकं फालितमत्तेनापि, पारा. अट्ठ. 1.302; एत्थ क्वसद्देन ईसकं समानसुतिको सत्तमियन्तो को सद्दो दिस्सति, सद्द. 1.128; करण्डमुखं ईसकं विवरित्वा पहारं वा दत्वा, पारा. अट्ठ 1.291; अच्चाधायाति अतिआधाय, ईसकं अतिक्कम्म ठपेत्वा. स. नि. अट्ठ. 1.71- 72 द्वारबाहं फुसित्वा पिहितमत्तेपि वति, ईसकं अफुसितेपि वट्टति, पारा. अट्ठ. 1.225; तानि पन अत्तनो गमनहानं ईसकम्पिन विजहन्ति, सद्द. 2.359; अनोलग्गोति लोभवसेन ईसकम्पि अलग्गो, चरिया. अट्ठ. 23; अनुग्घातीति न उग्घाति, अत्तनो उपरि निसिन्नानं ईसकम्पि खोभं अकरोन्तोति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 27; सीलखण्डनभयेन ईसकम्पि चित्तस्स विकाराभावो, धनं लभापेमीति, चरिया. अट्ठ. 119; - फुकृत्त नपुं., भाव., केवल व्याकरणों में प्रयुक्त [ईषत्स्पृष्टत्व], अपूर्ण या अल्प स्पर्श वाला (य, र, ल, व के रूप में चार अन्तःस्थ वर्ण) - त्तं द्वि. वि., ए. व. - सद्दसत्थविदुनो वग्गानं फुट्टतं य-र-ल वानं ईसकंफट्टत्तं वदन्ति, सद्द. 3.607; - कग्गपवेल्लित त्रि., किनारों पर कुछ कुछ धुंघराला (केश) - ता पु., प्र. वि., ब. क. - दीघस्सा केसा असिता, ईसकग्गपवेल्लिता, जा. अट्ठ. 6.287; इसकग्गपवेल्लिताति ईसक अग्गेस ओनता, इसकग्गपवेल्लिता वा नेत्तिंसाय अग्गं विय विनता. जा. अट्ठ. 6.287; - कत्थवाचक त्रि., अपूर्णता या अल्पता के अर्थ को कहने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - आदिसु सकिंसद्दो ईसकत्थवाचको अप्पमत्तकत्थवाचको ..., सद्द. 3.868; - पोण त्रि., कुछ कुछ उन्नत, थोड़ा सा ऊपर की ओर उठा हुआ -- णे नपुं., सप्त. वि., ए. व. - सेय्यथापि, आनन्द, ईसकंपोणे पदुमपलासे उदकफुसितानि पवत्तन्ति, म. नि. 3.362; ईसकंपोणेति रथीसा विय उट्ठहित्वा ठिते, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.264; - कायतगीव त्रि., ब. स., कुछ कुछ लम्बी गर्दन वाला, थोड़ी सी लम्बी गर्दन वाला - वो पु., प्र. वि., ए. व. - ईसकायतगीवोति च, सब्बेव अतिरोचती ति, जा. अट्ठ. 2.125; ईसकायतगीवो रथीसा विय आयतगीवो, जा. अट्ठ. 2.125-126. ईसति' ईस का वर्त., प्र. पु., ए. व. [ईष्टे], आधिपत्य, स्वामित्व या प्रभुत्व स्थापित करता है, ईश्वरभाव दरसाता है, अभिभूत या वशीभूत करता है, दूसरे का अतिक्रमण कर लेता है - ईस इस्सरिये, इस्सरियं इस्सरभावो, ईसति वङ्गीसो जनपदेसो मनुजेसो, सद्द. 2.451; सब्बसत्ते वा गुणेहि ईसति अभिभवतीति परमिस्सरो भगवा नाथो ति वुच्चतीति, सद्द० 2.365; तत्र सुरो ति सुरति ईसति देविस्सरियं पापुणाति विरोचति चाति सुरो, सद्द. 2.429. ईसति ईस का वर्त., प्र. पु., ए. व., हिंसा करता है, गति करता है-ईस हिंसा-गति-दस्सनेस. ईसति, ईसो, सद्द. 2.446. ईसत्त नपुं., भाव. [ईशत्त्व], आधिपत्य, स्वामित्व - त्तं प्र. वि., ए. व. - ईसत्तं नाम सयंवसिता, वजिर. टी. 38. ईसधर पु., व्य. सं. [बौ. सं., ईसाधार], सिनेरु (सुमेरु) पर्वत के चारों ओर विद्यमान सात पर्वतों में से एक - रो प्र. वि., ए. व. - युगन्धरो ईसधरो करवीको सुदस्सनो, नेमिन्धरो विनतको अस्सकण्णो कुलाचला, अभि. प. 2627; सुदुस्सनो करवीको, ईसधरो युगन्धरो, नेमिन्धरो विनतको, अस्सकण्णो गिरी ब्रह्म, जा. अट्ठ. 6.150; - तो प. वि., ए. व. - ईसधरस्स अनन्तरे युगन्धरो नाम, सो ईसधरतो उच्चतरो, जा. अट्ठ. 6.150. For Private and Personal Use Only

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