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इङ्गुदी
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इच्छता
द्वारा मन की बातों का खुलासा - नं द्वि., ए. व. - राजा परिसाय इङ्गितसझं अदासि, जा. अट्ठ. 2.163; - य तृ. वि., ए. व. - भवितब्बमेत्थ कारणेनाति इङ्गितसआय दासियो पटिक्कमापेत्वा ..., जा. अट्ठ. 6.197; - ताकार पु., [इङ्गिताकार], संकेत, इशारा, चेष्टा, इङ्गित, अङ्गविक्षेपादि के द्वारा अथवा विभिन्न अंगों की चेष्टा के द्वारा आन्तरिक भावों का प्रकटीकरण-रं द्वि. वि., ए. व. - कोकालिकस्स
इङ्गिताकारं दस्सेत्वा, पारा. अट्ठ. 2.173. इङ्गुदी स्त्री., [इङ्गुदी], एक औषधि का वृक्ष, हिंगुपत्र, हिंगोट
का वृक्ष, मालकंगनी, प्र. वि., ए. व. - इङ्गुदी तापसतरु,
अभि. प. 565; तुल., इङ्गुदी तापसतरु, अमर. 2.4.46. इड अ., निपा., संभवतः वैदिक तद + ई + घ का
संक्षिप्तीकृत रूप, अनुरोध, निवेदन, प्रेरणा तथा प्रबोधन के अर्थों में प्रयुक्त; अच्छा तो, कृपा करके - चोदने इघ हन्दाथ, अभि. प. 1157: इन हन्द इच्चेते चोदनत्थे, सद्द. 3.898; इङ्घ, भन्ते, सरापेहीति एत्थ इङ्घाति चोदनत्थे निपातो, पारा. अट्ठ. 1.236; इवाति चोदनत्थे निपातो, उदा. अट्ठ. 252; प्रयोग, वाक्य के प्रारम्भ में ही निम्नलिखित रूपों में प्रयुक्त; 1. प्राचीनतम प्रयोगों में (सु. नि. तथा जा. अट्ठ की गाथाओं में) 'त' के उपरान्त कहने, सुनने एवं देखने अर्थ वाली धातुओं के अनु., म. पु. ए./ब. व. के क्रि. रू. के पूर्व में प्रयुक्त - "किं ते नटुं किं पन पत्थयानो, इधागमा ब्रह्मे तदिङ्घ ब्रूही ति, जा. अट्ठ. 3.303; तदिच मह वचनं सुणाथ, जा. अट्ट. 4.147; 2. सामान्य प्रकृति की संरचनाओं में अनु०, म. पु., ए./ब. व. तथा संबो. में प्राप्त ना. प. से पूर्व में प्रयुक्त - इङ्घ पस्स महाराज, सञ्ज अन्तेपुरं तव, जा. अट्ठ. 6.285; इज पस्स महापञ्ज, मोग्गल्लान महिद्धिक, ध. प. अट्ठ. 2.315; 3. कहीं-कहीं इसके तुरन्त बाद में संबो. में अन्त होने वाले ना. प. के प्रयोग के उपरान्त अनु., म. पु., ए./ब. व. का क्रि. प. प्राप्त - इङ्घ, मद्दि, निसामेहि चित्तरूपंव दिस्सति, जा. अट्ठ. 7.270; 4. कुछ प्रयोगों में इङ्घ + मे त्वं + सम्बो., ए. व. में ना. प. प्रयुक्त - इङ्घ मे त्वं, आनन्द, पानीयं आहर, पिपासितोस्मि, दी. नि. 2.98; 5. कहीं-कहीं इङ्घ + द्वि. आदि वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ प्रयुक्त - इङ्घ मं सावेहीति, मि. प. 128; 6. कुछ प्रयोगों में परवर्ती पुष्टिसूचक 'ताव के साथ प्राप्त - "इङ्घ ताव कारणेन में सञआपेही ति, मि. प. 126; इड ताव आयस्मा कायिक सिक्खस्सूति, चूळव. 409; 7. बहुत कम स्थलों में इङ्घ + अनु., उ. पु., ब. व. में अन्त
होने वाले क्रि. प. के साथ भी प्राप्त - इङ्घस्स पुरिमं साखं
मयं छिन्दाम वाणिजा, जा. अट्ठ. 4.313. इच्च Vइ का पू. का. कृ. [इत्य], जा कर, पहुंच कर, प्राप्त
कर - इच्चाति गमनुस्सुक्कवचनमेत, प. प. अट्ठ. 393. इच्चेव अ., इति + एव के योग से व्यु. [इत्येव], यह ही, ऐसा ही, तुरन्त पूर्व में कहा गया ही - इच्चेव वत्वान यमस्स दूता, वि. व. 864; तत्थ इच्चेव वत्वानाति इति एव "उद्वेही ति आदिना वत्वा, वचनसमनन्तरमेवाति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 188. इच्चेवं अ., निपा., इति + एवं के योग से व्यु. [इत्येवं], इस प्रकार से, जो कुछ पूर्व में कहा गया है उसके आलोक में, ऐसे - इच्चेवं सब्बथापि द्वादसाकुसलचित्तानि समत्तानि, अभि. ध. स. 2; तत्थ इति-सद्दो वचनवचनीय समुदायनिदस्सनत्थो, एवं-सद्दो वचनवचनीयपटिपाटिसन्दस्सनत्थो..., इच्चेवं यथावत्तनयेन..., अभि. ध. वि. 82. इच्छ त्रि., [ईप्सु/इच्छु/इच्छ], चाहने वाला, इच्छा करने वाला - च्छो पु.. प्र. वि., ए. व. - अयं वुच्चति, भिक्खवे - 'भिक्खु इच्छो विहरति लाभाय, अ. नि. 3(1).120; अयं वुच्चतावुसो, 'भिक्खु इच्छो विहरति लाभाय, अ. नि. 3(1).148... इच्छक त्रि., केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, इच्छा
करने वाला, सुखि.- सुख की इच्छा करने वाला - का पु.. प्र. वि., ब. व. - नुयुत्ता होन्ति सब्बेपि, बुद्धिकामा सुखिच्छका, अप. 2.105; यदि.- जिस किसी की भी इच्छा करने वाला - कं नपुं., प्र. वि., ए. व., क्रि. वि. - यत्थिच्छकं यदिच्छकं यावतिच्छकं समापज्जतिपि वट्ठातिपि, दी. नि. 2.55; यत्थिच्छकन्ति ओकासपरिदीपनं, यत्थ यत्थ ओकासे इच्छति, दी. नि. अट्ठ. 2.93; यदिच्छकन्ति समापत्तिदीपनं, यं यं समापत्ति इच्छति, तदे. येनि.- जहां चाहे वहां, अपनी इच्छा के अनुसार - येनिच्छकं गच्छति गोचराय, सु. नि. 39; येनिच्छकं गच्छति गोचरायति येन येन दिसाभागेन गन्तुमिच्छति, तेन तेन दिसाभागेन गोचराय गच्छति, सु. नि. अट्ठ. 1.66; इदं पुरे चित्तमचारि चारिक,
येनिच्छकं यत्थकामं यथासुखं थेरगा. 77. इच्छता स्त्री., इच्छा का भाव., इच्छा का होना, स. उ. प.
में ही प्राप्त, महिच्छ.- अत्यधिक इच्छा का होना - य त. वि., ए. व. - ... दुप्पोसताय महिच्छताय असन्तुद्विताय ..... अवण्णं भासित्वा, महाव. 51; ब्राह्मणी पन महिच्छताय
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