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आहुनेय्यभावादिसिद्धिकथा
286
इक्कास
सक्कारो, आहनं अरहन्तीति आहनेय्या मातापितरो हि पुत्तानं बहूपकारताय आहुनं अरहन्ति - इति अनुदहनढेन आहुनेय्यग्गीति वुच्चन्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.160; स. प. के अन्तः, - आहुनेय्यग्गिगहपतग्गिदक्खिणेय्यग्गीस, विसुद्धि. महाटी. 1.264. आहुनेय्यभावादिसिद्धिकथा स्त्री., विसुद्धि के उस स्थल
का शीर्षक जिसमें लोकोत्तर प्रज्ञा से होने वाले सांसारिक लाभों का वर्णन है, विसुद्धि. 2.350-352. आहुनेय्यवग्ग पु., अ. नि. का एक वग्ग, अ. नि. 2(2).
1-6. आहुन्दरिक त्रि., अप्रिय, दुर्गम्य, पार न करने योग्य, कठिन, सरलता से दिखलाई न देने योग्य, चारों ओर से घिरा, बाधाओं से भरपूर - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. --- "आहुन्दरिका समणानं सक्यपत्तियानं दिसा अन्धकारा, न इमेसं दिसा पक्खायन्तीति, महाव. 100; दसमे - आहुन्दरिकाति सम्बाधा, पाचि. अट्ठ. 201; “दसमे आहुन्दरिका ति पठन्ति किर, वजिर. टी. 348; - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यस्मा पन पुरिमभवे नामरूपं असेसं निरुद्धं इध अझं उप्पन्न, तस्मा तं ठानं आहुन्दरिक अन्धतममिव होति सुदुद्दसं दुप्पओन, पटि. म. अट्ठ. 1.294; आहुन्दरिकन्ति समन्ततो, उपरि च घनसञ्छन्नं सम्बाधवानं, विसुद्धि. महाटी. 2.45. आहूय आ + Vहु का पू. का. कृ., आह्वान करके, बुलाकर, पुकार कर - आहूय सब्बं पादासि रज्जं पुत्तेहि अत्तनो, चू. वं. 45.8; इच्चेते पञ्च आहूय पेसले, चू. वं. 87.17.
लोपं कत्वा .... अप. अट्ठ. 1.136; - रे सप्त. वि., ए. व. - निपातभूतस्स पन इतिसद्दस्स इकारे नटेपि सो अत्थो विआयतेव ..., सद्द. 1.43; - रेसु ब. व. - ... द्वीसु इकारेसु परस्स इकारस्स लोपो कातब्बो, सद्द. 1.43; - लोप पु., तत्पु. स., केवल व्याकरण में प्रयुक्त [इकारलोप], इकार का लोप, 'इ' वर्ण की समाप्ति - पो प्र. वि., ए. व. - सुइदन्ति सुदं सन्धिवसेन इकारलोपो वेदितब्बो, पारा. अट्ठ. 1.144; - पं द्वि. वि., ए. व. - इवाति ओपम्मवचनं, इ-कारलोपं कत्वा व-इच्चेव वुत्तं, सु. नि. अट्ठ. 1.12; - रागम पु., व्याकरण में प्रयुक्त, तत्पु. स. [इकारागम], 'इ' स्वर का आगम, दो ध्वनियों के मध्य में इकार का अतिरिक्त रूप में आ जाना - मो प्र. वि., ए. व. - इकारागमो असब्बधातुकम्हि, क. व्या. 518; असब्बधातुके इकारागमो, सद्द. 3.835; यथागमं सब्बधातूहि सब्बपच्चयेसु इकारागमो होति, क. व्या. 607; स. उ. प. में सेकारा. के अन्त. द्रष्ट.; टि., शब्द में प्रयुक्त किसी भी वर्ण के पूर्व में अथवा पश्चात् किसी अन्य वर्ण का मित्र के समान आकर बैठ जाना ही व्याकरण-शब्दावली में आगम कहलाता है - मित्रवदागमः; - रादेस पु., तत्पु. स. [इकारादेश], किसी अन्य वर्ण के स्थान पर इकार को रख देना, अन्य ध्वनि के स्थानापन्न के रूप में इकार - सो प्र. वि., ए. व. - यज इच्चेतस्स धातुस्स आदिस्स इकारादेसो होति येप्पच्चये परे, क. व्या. 505; टि., किसी शब्द में पहले से विद्यमान किसी एक ध्वनि या वर्ण को हटा कर उसके स्थान पर अन्य वर्ण को रख दिया जाना ही आदेश कहलाता है - शत्रुवदादेशः.. इक्क/अच्छ/इस्स/ईस पु.. [ऋक्ष], भालू, रीछ ---
च्छो प्र. वि., ए. व. - अच्छो इक्को च इस्सो तु, कालसीहो इसोप्यथ, अभि. प. 612; अच्छो इक्के पुमे वुत्तो, पसन्नम्हि तिलिङ्गिको, अभि. प. 1025; - क्का/च्छा ब. व. - कक्कटा कटमाया च, इक्का गोणसिरा बहू, जा. अट्ठ. 7.306; तथा कम्मारसालासु, अच्छा कूटानि पातयु, म. वं. 5.31. इक्कट पु.. [इक्कट], एक प्रकार की माला का गुच्छा, स. प. के अन्त., - पीतकसिणे मालागच्छन्ति
इक्कटादिमालागच्छ विसुद्धि. महाटी. 1.184. इक्कास पू./न., अर्थ एवं व्यु. संदिग्ध [प्रा. इक्कास]. 1.
साटने या चिपकाने वाला पदार्थ, गोंद, लस, रस, 2. निर्यास, अर्क, सार, काढ़ा - सं पु., द्वि. वि., ए. व. - "अनुजानामि, भिक्खवे, इक्कासं पिट्ठमद्दन्ति, चूळव. 2773;
Vइ गति अथवा अध्ययन के अर्थों को प्रकाशित करने वाली एक धातु [इण गतौ], जाना, अध्ययन करना - इ अज्झने गतिकन्तिसु, मो. धा. पा. 288; इ अज्झाने गतिम्हि च, धा. मं. 96; इ अज्झयने, सद्द. 2.322; क्रि. रू. के लिए। 'एति' के अन्त. द्रष्ट. (आगे); सोपसर्ग प्रयोगों के लिए
उपेति, अन्वेति, अज्झेति आदि के अन्त. द्रष्ट.. इकार पु., [इकार], पालि-वर्णमाला में प्रयुक्त आठ स्वरों में तालुस्थानीय ह्रस्व स्वर 'इ' – रो प्र. वि., ए. व. - यथागममिकारो, क. व्या. 607; सद्द. 3.858; - रं द्वि. वि., ए. व. - ... इकारञ्च दंकारञ्च दुकारञ्च खंकारञ्च ईसकं विच्छिन्दित्वा..., सद्द. 1.42-43; - स्स ष. वि., ए. व. - ... निरुत्तिनयेन इ-कारस्स अत्तं पुत्त-सहस्स च
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