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आरम्मणसमतिक्कमन
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आरम्मणाधिपति
आकासानञ्चायतनं सन्ततो मनसि करित्वा..... मो. वि. टी. 189. आरम्मणसमतिक्कमन नपु, तत्पु. स. [आलम्बनसमतिक्रमण], उपरिवत् - मत्त नपुं., आलम्बनों का उल्लंघन-मात्र, केवल आलम्बनों का अग्रहण - त्तं प्र. वि., ए. व. - झानस्स आरम्मणसमतिक्कमनमत्तं तत्थ होति, विसुद्धि. 1.230. आरम्मणसम्पटिच्छन नपुं., आलम्बनों का ग्रहण - मत्तक नपुं., आलम्बनों का ग्रहण मात्र - कं प्र. वि., ए. व. - विपाकमनोधातया आरम्मणसम्पटिच्छनमत्तकमेव, ध. स. अट्ठ. 309; - समत्थ त्रि., आलम्बनों के ग्रहण में समर्थ या सक्षम - त्था स्त्री, प्र. वि., ए. व. - दूरेपि आरम्मणसम्पटिच्छनसमत्था दिब्बा पसादसोतधातु होति, पटि. म. अट्ठ. 1.283. आरम्मणसारग्गाह पु., तत्पु. स. [आलम्बनसारग्राह]. आलम्बनों के सारतत्त्व का ग्रहण - हो प्र. वि., ए. व. -
आरम्मणसारग्गाहो.... एतं जिनपत्तानं करणीय मि. प. 173. आरम्मणाकार पु., तत्पु. स. [आलम्बनाकार], रूप आदि आलम्बनों का आकार अथवा स्वरूप-रं द्वि. वि., ए. व. - नीलादिवसेन आरम्मणाकारं गहेत्वा, विसुद्धि. 2.64. आरम्मणातिक्कम पु., तत्पु. स., आलम्बनों का अतिक्रमण या त्याग, आलम्बनों पर विजय, कम्मट्ठानों या रूपध्यान के आलम्बनों को पारकर जाना - तो प. वि., ए. व. - आरम्मणातिक्कमतो चतस्सोपि भवन्तिमा, ध. स. अट्ठ. 253; - भावना स्त्री., आलम्बनों के अतिक्रमण से प्राप्त ध्यानभावना, आलम्बनों पर विजय से सहगत ध्यानभावना, स. प. के रूप में, - विसुद्धिभावनानुक्कमवसेन हि लोकुत्तरं अप्पनं पापणाति आरम्मणातिक्कमभावनावसेन आरुप विसद्धि. 1.230. आरम्मणाधिगहितुप्पन्न त्रि, तत्पु. स., चार प्रकार के उप्पन्नों में से एक, आलम्बनों के अधिगृहीत हो जाने के कारण इसके उत्तरकाल में उत्पन्न - न्नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - पुब्बभागे अनुप्पज्जमानम्पि किलेसजातं आरम्मणस्स अधिग्गहितत्ता एवं अपरभागे एकन्तेन उप्पत्तितो आरम्मणाधिग्गहितुप्पन्नन्ति वुच्चति, विसुद्धि. 2.328; एवं आरम्मणाधिग्गहितुप्पन्नम्पीति तिविधस्सापि भूमिलद्धेन एकसङ्गहता वुत्ता, विसुद्धि. महाटी. 2.473. आरम्मणाधिपति पु. कर्म. स. [आलम्बनाधिपति]. चौबीस प्रकार के प्रत्ययों (पच्चयों ) में से तृतीय के रूप में
उपदिष्ट अधिपति-पच्चय के दो प्रभेदों में से एक, अधिपति (अधिक प्रबल प्रत्यय) भूत आलम्बन-प्रत्यय, चित्त एवं चैतसिकों का वह कुशल आलम्बन अथवा विषय जो अन्य आलम्बनों की अपेक्षा अधिक दृढ़ता के साथ चित्त को अपनी ओर खींचता है, जिस कुशल आलम्बन को अधिक गुरु (महत्वपूर्ण) बना कर चित्त-चैतसिक अनुचिन्तन करें, वह आलम्बन उन चित्त-चैतसिकों के उदय में आरम्मणाधिपति-प्रत्यय बन जाता है - ति प्र. वि., ए. व. - आरम्मणाधिपति - दानं दत्वा सीलं समादियित्वा उपोसथकम्म कत्वा, तं गरुं कत्वा पच्चवेक्खति, पुब्बे सुचिण्णानि गरुं कत्वा पच्चवेक्खति, झाना वुट्ठहित्वा झानं गरु कत्वा पच्चवेक्खति, सेक्खा ..., वोदानं ..., सेक्खा मग्गा वुढहित्वा मग्गं गरु कत्वा पच्चवेक्खन्ति, पट्ठा. 1.157-59; 350-351; 417-419; 469; 511-512; यं पन धम्म गरुं कत्वा अरूपधम्मा पवत्तन्ति, सो नेसं आरम्मणाधिपति, विसुद्धि. 2.163; एत्थ च सत्तधा सहजाताधिपति, सत्तधा आरम्मणाधिपति वेदितब्बो, विसुद्धि. महाटी. 2.255; - तिं द्वि. वि., ए. व. - अधिपतिं करित्वाति आरम्मणाधिपतिं कत्वा, ध, स. अट्ठ. 387; --- ना त. वि., ए. व. - आरम्मणाधिपतिना सद्धिं नानत्तं अकत्वाव विभत्तो, विसुद्धि. 2.165; - वसेन अ.. क्रि. वि., किसी एक कुशल आलम्बन को अधिक महत्त्वपूर्ण बनाकर - अत्तना पटिविद्धमग्गं गरुकत्वा पच्चवेक्षणकाले आरम्मणाधिपतिवसेन मग्गाधिपतिनो..., ध. स. अट्ठ. 432; स. उ. प. के रूप में, किरिया.- पृ., आरम्मणाधिपतिपच्चय का एक प्रभेद - कामावचरादिभेदतो पन तिविधोपि किरियारम्मणाधिपति लोभसहगताकुसलस्सेव आरम्मणाधिपतिपच्चयो होति. प. प. अट्ठ. 361; कुसला.पु., कामावचर, रूपावचर एवं अरूपावचर भूमियों के कुशलचित्तों का आरम्मणाधिपति, प्रत्यय (पच्चय) - म्हि सप्त. वि., ए. व. - रूपावचरारूपावचरेपि कुसलारम्मणाधिपतिम्हि एसेव नयो, प. प. अट्ठ. 360; विपाका.- पु., विपाक चित्तों का आरम्मणाधिपति प्रत्यय (पच्चय)- लोकुत्तरो पन विपाकारम्मणाधिपति कामावचरतो
आणसम्पयुत्तकुसलकिरियान व आरम्मणाधिपतिपच्चयो होति, प. प. अट्ठ. 361-62; स. पू. प. के रूप में -
पनिस्सय पु., द्व. स., आरम्मणाधिपति एवं आरम्मपनिस्सय पच्चय, अधिपति-प्रत्यय तथा उपनिस्सयप्रत्यय के रूप में रूप आदि आलम्बन - येहि तृ. वि., ए.
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