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आविकत
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आविज्झति
आविकत त्रि., आवि + Vकर का भू. क. कृ. [आविष्कृत], पूरी तरह सुस्पष्ट कर दिया गया, सुप्रकाशित, अच्छी तरह से अभिव्यक्त - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - न च नो केवलं परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं होति उत्तानीकतं, दी. नि. 3.90; वुत्तत्ता तदाकारसन्निहानं एवंसद्देन आविकतं, उदा. अट्ठ.8; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - 'आविकता हिस्स फासु होती ति, महाव. 131; थेरगा. अट्ठ. 2.100; दिट्ठि
आविकता होति, परि. अट्ठ. 222. आविकत्तु पु.. [आविष्कर्तृ], सुस्पष्ट करने वाला, प्रकाशित करने वाला, सभी के सामने प्रकाश में लाने वाला उद्घाटित करने वाला - त्ता प्र. वि., ए. व. - यथाभूतं अत्तानं आविकत्ता सत्थरि वा विसु वा सब्रह्मचारीसु, दी. नि. 3.189; यानि खो पनस्स होन्ति साठेय्यानि कूटेय्यानि जिम्हेय्यानि वड्डेय्यानि, तानि यथाभूतं सारथिस्स आविकत्ता होति, अ. नि. 3(1).32; यथाभूतं आबाधं नाविकत्ता होति, महाव. 394; अ. नि. 2(1).135. आविकम्म नपुं.. [आविष्करण], प्रकाशन, उद्घाटन, सुस्पष्टीकरण- म्म प्र. वि., ए. व. - गुरहस्स हि गुरहमेव साधु, न हि गुरहस्स पसत्थमाविकम्म, जा. अट्ठ. 6.211; 217; स. उ. प. के रूप में, अना., दिट्ठा., दुब्बल्ला . के
अन्त. द्रष्ट.. आविकरण नपुं.. [आविष्करण], सुस्पष्ट करना, भली भांति व्याख्या करना, पूरी तरह से खुलासा करना - णत्थं क्रि. वि., सुस्पष्ट करने हेतु - तस्स लद्धिया आविकरणत्थं एक कारणं आहरितुं इदमारद्धं, दी. नि. अट्ठ. 1.254. आविकरोति आवि + कर का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आविष्करोति], क. सुस्पष्ट करता है, साफ तौर पर बतलाता है, उद्घोषित करता है, कहता है - मि उ. पु., ए. व. - ते आविकरोमि सक्खिपुट्टो, सु. नि. 84; सत्तम्यत्थे च तुरहं चस्स आविकरोमि, क, व्या. 279; - हि अनु., म... पु., ए. व. - त्वं आविकरोहि भूमिपाल, जा. अट्ठ. 6.209%; अथ मे आविकरोहि मग्गदूसिं. सु. नि. 85; - न्तो वर्त. कृ ., पु.. प्र. वि., ए. व. - भगवा पुग्गलानं नागयोनीहि उद्धरणत्थं नागयोनियो आविकरोन्तो इमं सुत्तमाह, स. नि. अट्ठ. 2.312; - न्ती स्त्री., प्र. वि., ए. व. - एवं थेरेन पुच्छिता सा देवता अत्तानं आविकरोन्ती, वि. व. अट्ट, 63; ख. भावों को अभिव्यक्त करता है अथवा प्रकट करता है। -- ति वर्त., प्र. पु., ए. व. - कुद्धोपि सो नाविकरोति कोपं. जा. अट्ठ. 7.148; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. -
धम्मदेसनं सुत्वा पसन्नो पसादं आविकरोन्तो, स. नि. अट्ठ. 1.120; ग. रहस्य को उद्घाटित करता है, अपराध या पाप को स्वीकारता है - रोहि अनु., म. पु.. ए. व. - विपस्सिनं जानमुपागमुम्हा परिसासु नो आविकरोहि कप्पं. सु. नि. 351; सु. नि. अट्ठ. 2.74; निग्रोधकप्पं आविकरोहि पकासेही ति, थेरगा. अट्ठ.2.450; - रेय्य विधि०, प्र. पु.. ए. व. - आविकरेय्य गुरहमत्थं, जा. अट्ठ. 6.209; यस्स सिया आपत्ति सो आविकरेय्य महाव. 130; सो आविकरेय्याति सो देसेय्य, सो विवरेय्य, महाव. 131; - कातब्बं सं. कृ., नपुं., प्र. वि., ए. व. - आविकरणं युत्तं आविकातब्ब, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.93; - तब्बा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सन्ती आपत्ति आविकातब्बा, महाव. 131; - कारापेत्वा प्रेर०, पू. का. कृ., पाप या अपराध का स्वीकरण करवा कर - अतेकिच्छो नाम आविकारापेत्वा विस्सज्जेतब्बो ति, चूळव. अट्ठ. 27; घ. 'अत्तानं' के साथ प्रयुक्त रहने पर, आत्मान्वेषण करता है, स्वयं को खोजता है -रोन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - थेरस्स अत्तानं आविकरोन्तो कामरागेनाति आदिमाह, स. नि. अट्ट, 1.239; - न्तं पु.. द्वि. वि., ए. व. - एवं अत्तानमाविकरोन्तं भगवन्तं दिस्वा, थेरगा. अट्ठ. 2.262; ङ. 'दिट्टि' के साथ प्रयुक्त होने पर, अपनी दृष्टि को बतलाता है या प्रकट करता है - ति वर्त., प्र. पु., ए. व. - अनापत्तिया दिद्धिं आवि करोति, परि. 347; 348; गरुकापत्तिया दिहिं आविकरोति, परि. अट्ठ. 222. आविज्झति/आविज्जति/आविज्ञति/ आविञ्जति/आविञ्छति व्य., संदिग्ध, संभवतः आ + विध एवं आ + विच अथवा आ + विजि के परस्पर व्यामिश्रण के फलस्वरूप अनेक रूपों में उपलब्ध [आविध्यति, भिन्नार्थक], क. गोल चक्कर में घूमता है या घुमाता है, चक्कर काटता है, चारों ओर चक्कर लगाता है, चक्राकार रूप में घूमता है, चक्राकार गति को प्राप्त करता है, चारो ओर से घेर लेता है, अपने अन्दर समाहित कर लेता है - अति वर्त., प्र. पु., ए. व. - ... सो नागो रत्तिं तं सधातुकट्ठानं अनुपरियाति आविञतीति अत्थो, म. वं. टी. 342; - ज्झन्ति ब. व. - आविज्झन्ति च चेलानि सम्बोधिं परिवारिता, दी. वं. 16.26; अथ नं पादे गहेत्वा आविञ्छन्ति, अ. नि. अट्ठ. 2.3; - ऊछेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - गावि तरुणवच्छंविसाणतो आविञ्छेय्य, ... उदक कलसे आसिञ्चित्वा मत्थेन आविञ्छेय्य, म. नि. 3.181; -
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