Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 02
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar
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आवरण
230
आवरणविरहित
कामगुणा च वन्ता, वन्ते अहं आचमितुं न उस्सहे, थेरगा. 1128; आवमितुं न उस्सहेति एवं ते छडिते पुन पच्चावमित
अहं न सक्कोमि, थेरगा. अट्ठ. 2.400. आवरण 1. नपुं., आ + Vवु से व्यु., क्रि. ना. [आवरण,
नपुं.], शा. अ., ढक देने वाला या आच्छादित कर देने वाला ढक्कन, आच्छादन, पर्दा, बाधा, रुकावट, रोक, विघ्न, शरण, पानी को रोककर रखने वाला बांध, घेराबन्दी करने वाली दीवार, दुर्ग की भित्ति - णं' प्र. वि., ए. व. - न तरसावरणं अस्थि, बु. वं. 12-28; आवरणन्ति पटिच्छादनं तिरोकरणं, बु. वं. अट्ठ. 225; - णं द्वि. वि., ए. व. - इत्थिसोतानि सब्बानि, सन्दन्ति पञ्च पञ्चसु तेसमावरणं कातुं यो सक्कोति वीरियवा, थेरगा. 739; नगरस्स समन्ततो कत्वानावरणं मग्गे, चू. वं. 70.152; - णेन तृ. वि., ए. व. - रोहिणिं नाम नदिं एकेनेव आवरणेन बन्धापेत्वा सस्सानि करोन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.147; -- णे' सप्त. वि., ए. व. - पलालतिणमत्तिकाहि आवरणे कते, अ. नि. अट्ठ. 3.26; - णे/णानि द्वि. वि., ब. व. - छिन्ने आवरणे चाहारस चेव महीपति, चू. वं. 79.83; भूमिन्दो कन्दरागङ्गानदीसु च तहिं तहिं सुभिक्खं कारयी रटुं बन्धेत्वावरणानि, चू, वं. 60.52; नासेन्ता सब्बथा सब्बमातिकावरणानि च, चू, वं. 61.65; पच्चत्थिके विनासेन्तो मग्गे आवरणे बहू, चू. वं 70.159; - बन्धनकाल पु., तत्पु. स., बांध के बांधने का समय - लो प्र. वि., ए. व. - नदियं उदकप्पवत्तनकालो विय भवङ्गवीथिष्पवत्तनकालो. ... आवरणबन्धनकालो विय, ध. स. अट्ठ. 307; ला. अ., 1.5 प्रकार के नीवरण, (कामच्छन्द, व्यापाद, थीन-मिद्ध, उद्धच्च-कुक्कुच्च तथा विचिकिच्छा), जो ध्यान के क्रम में चित्त को एकाग्र एवं शान्त नहीं रहने देते तथा साधक सबसे पूर्व इनका प्रहाण करता है, चित्त को विक्षिप्त एवं अशान्त करने वाली पांच अकुशल चित्तवृत्तियां- अत्थो नीहरणे चेवावरणादो च नी सिया, अभि. प. 1167; - णं प्र. वि., ए. व. - उपादानं आवरणं नीवरणं. महानि. 6,21; कुक्कुच्चे सति आवरणं होति, मि. प. 238; एवं निसीदनं चम्म नत्थि आवरण नभे, दी. वं. 1.60; आकासे आवरणं नाम नत्थि, जा. अट्ठ. 4.208; अविज्जन्धकारो, सोव सभावावगमननिवारणेन आवरणं एतस्साति अविज्जन्धकारावरणो, पटि. म. अट्ठ. 2.14; - णेन तृ. वि., ए. व. - आवटयेव तेन आवरणेन पिहितं, पटि. म. अट्ठ. 2.250; - तो प. वि., ए. व. - द्वे सरगमग्गानं आवरणतो आवरणानि, पटि. म. अट्ठ. 2.10;
- णा प्र. वि., ब. व. - पश्चिमे नीवरणा अरियरस विनये आवरणातिपि वुच्चन्ति, दी. नि. 1.223; अनावरणा अनीवरणा चेतसो अनुपक्किलेसा, स. नि. 3.114; 116; आवरणा नीवरणा चेतसो अज्झारुहा, अ. नि. 2(1).59; आवरणवसेन आवरणा, अ. नि. अट्ठ. 3.26; - णानि वि. वि., ब. व. - पहाय पञ्चावरणानि चेतसो, उपक्किलेसे ब्यपनुज्ज सब्बे, सु. नि. 66; पञ्चावरणानीति पञ्च नीवरणानि एव, ... तानि पन यस्मा अब्भादयो विय चन्दसुरिये व चेतो आवरन्ति तस्मा "आवरणानि चेतसो, अप. अट्ठ. 1.197; - णट्ठ पु., तत्पु. स., आच्छादित करने का अर्थ-द्वेन त. वि., ए. व. - सब्बेपि अकुसला आवरणद्वेन नीवरणाति वुत्ता, पटि. म. अट्ठ. 2.66; ला. अ. 2. Vकर के क्रि. रू. के साथ प्रयुक्त, वर्जित करता है, नियन्त्रित करता है, रोक देता है - णं करोन्ति वि. वि., ए. व. - सामणेरानं मुखद्वारिकं आहारं आवरणं करिस्सन्ति, महाव. 107; न भिक्खवे मुखद्वारिको आहारो आवरणं कातब्बोति, महाव. अट्ठ. 279; स. उ. प. के रूप में, अना., अविज्जन्धकारा., आदिच्चरंसा., कम्मा., किलेसा., तदा०, दन्ता., दूरा., निय्याना., निरा., पण्डरा., पहीनसब्बा., मातिका., मुखा., मोक्खमग्गा., रक्खा., रक्खागुत्तिः, वाता., विपाका., सग्गा., मोक्खा., समन्ता. के अन्त. द्रष्ट.. आवरणगाथा स्त्री., सु. नि. के खग्गविसाणसुत्त की एक गाथा का सु. नि. अट्ठ द्वारा दिया गया शीर्षक, इस गाथा में चित्त के 5 नीवरणों के प्रहाण का बुद्धोपदेश विद्यमान है - पहाय पञ्चावरणानि चेतसो, सु. नि. 66. आवरणता स्त्री., आवरण का भाव., केवल स. उ. प. में ही प्राप्त, आच्छादन होना, बाधक होना, रुकावट के रूप में विद्यमान रहना, स. उ. प. के रूप में, कम्मा., किलेसा., विपाका. के अन्त. द्रष्ट.. आवरणतासुत्त/आवरणसुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त
का शीर्षक, अ. नि. 2(2).136-137. आवरणनिवरण नपुं.. रुकावट एवं बाधा, आवरण एवं नीवरण, स. प. के अन्तः, - उदकं गङ्गाय नदिया पासाण सक्खर ... आवरणनिवरणमूलकसाखासु परियोत्थरति, मि. प. 189. आवरणविरहित त्रि., तत्पु. स. [आवरणविरहित], नीवरणों से मुक्त, चित्त के मलों से मुक्त - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व, क्रि. वि. - विसुद्धत्ता आवरणविरहितं हत्वा मज्झिमं समथनिमित्तं पटिपज्जति, विसुद्धि. 1.143.
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