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आदायक
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सरं किं विचिकिच्छसे तुवं, जा. अट्ठ. 4.243; एतं पत्तसहितं सरं चापे आदाय सन्नव्हित्वा, जा. अदु. 4.243. आदायक त्रि. आ + √दा से व्यु [आदायक], लेने वाला. ग्रहण करने वाला का पु. प्र. वि. ब. व. मच्छरिनोति अज्ञसं अदायका, जा. अट्ठ. 6.129; पाठा. आदायका; स. उ. प. के रूप में; तदा.- त्रि.. उसका (पूर्वनिर्दिष्ट का ) आदान या ग्रहण कराने वाला परपरिग्गहितसञ्ञिनो तदादायक उपक्कमसमुट्ठापिका थेय्यचेतना अदिन्नादानं, स. नि. अड. 2.128, मूला. त्रि. कायिक एवं वाचिक, इन दो प्रकार की आपत्तियों (अपराधों ) के मूल को ग्रहण करने वाला का पु. प्र. वि. ब. क. सियापि मूलादायका भिक्खू पुनकम्माय उक्कोटेव्यु चूळव, 473. आदायछक्क नपुं., महाव. के कठिनखन्धक में संगृहीत एक वत्थु का शीर्षक महाव, 334-335. आदायपन्नरसक नपुं०, महाव. के कठिनखन्धक के एक वत्थु का शीर्षक, महाव. 336.
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आदायसत्तक नपुं महाव के कठिनखन्धक की एक विनयवस्तु महाव. 332.
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आदायी त्रि., [आदायिन् ], लेने वाला, ग्रहण करने वाला, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त, अदिन्ना. नदी हुई वस्तु को ले लेने वाला यिनो पु. प्र. वि. ब. व. - अदिन्नं आदियन्तीति अदिन्नादायिनो, स० नि० अट्ट. 2.127; दिन्ना. केवल दी हुई वस्तु, धन आदि को लेने वाला - यी पु. प्र. वि. ए. व. अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो होति दिन्नादायी दिन्नपाटिकङ्क्षी, म. नि. 1.240; वरा. - त्रि, उत्तम वस्तु या भाव को ग्रहण करने वाला यी पु. प्र. वि. ए. व. सारादायी च होति वरादायी च कायस्स, अ. नि. 2 (1).74; ततियो वरादायीति उत्तमस्स
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सार
वरस्स आदायको, अ० नि० अट्ठ. 3.31; सारा. - त्रि.. तत्त्व को ग्रहण करने वाला यी पु. प्र. वि. ए. व. - सारादायी च होति वरादायी च कायस्स् अ. नि. 2 (1).74. आदायिवल्ली स्त्री०, एक लता का नाम हि तृ. वि., व. कदम्बपुप्फमादाय वल्लीहि विततं अहु म. वं. 17.31; आदायिवल्ली ति हियवल्ली वुच्चति, म. वं. टी. 339 (ना.); पाठा. आदारिवल्ली.
ब.
आदास पु. [ आदर्श ], दर्पण, आईना, मुंह देखने का शीशा
सो प्र. वि., ए. व॰ दीपो पदीपो पज्जोतो, पुमे त्वादास-दप्पना, अभि. प. 316 तं किं मज्जति, राहुल, किमत्थियो आदासोति ?, म० नि० 2.85; 'यतो च खो,
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आदास
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महाराज, आदासो सिया, आभा सिया, मुखं सिया, जायेय्य अत्ताति. मि. प. 54 - सं द्वि. वि. ए. व. - ततो आदासमादाय सरीरं पच्चवेक्खिस, थेरगा. 169 से सप्त. वि., ए. व. अथेकदिवस केवट्टो आदासे मुख ओलोकेन्तो, जा. अट्ठ 6.237; स्सष. वि., ए. व. अथ खो यतो कुतोचि छाया आगन्त्या आदासरस आपातमुपगच्छति मि. ए. 275 सेहि तृ. वि. द. व. - अथ नं राजा आदारोहि परिक्खिपापेसि, म. नि. अड. (म.प.) 2.272 स. प. के अन्त कञ्चना. पु. तत्पु. स० [काञ्चनादर्श], सोने से मढ़ा हुआ आईना, सुनहरी पट्टियों से सज्जित दर्पण, सुनहरा आईना अनुलिम्पित्वा सुपरिमज्जित कञ्चनादाससन्निभोति दस्सेतुं हेमवण्ण नित. थेरीगा. अड्ड 261 मुखं जालाभिहतपदुमं विय मलग्गहितकञ्चनादासमण्डलं विय च विरूपं होति. जा. अट्ठ 1.481 स. उ. प. के रूप में सब्बकायिका. - .पु.. कर्म. स. सम्पूर्ण शरीर को दिखलाने वाला आईना सं द्वि. वि. ए. व. अथस्सा दिव्बं सब्बकायिकादासं पुरतो उपविसु स. नि. अड. 3.248; काव्या. - पु.. तत्पु. स., काव्यरूपी आईना, संस्कृत अलङ्कारशास्त्र का आचार्य दण्डी द्वारा रचित "काव्यादर्श' नामक एक ग्रन्थसप्त. वि. ए. व. काव्यादासे च त्वंमुखं कमलेनेव तुल्यं नाञ्ञेन केनची "ति, सद्द० 1.289; धम्मा. - पु०, धर्मरूपी आईना या दर्पणसं द्वि. वि. ए. व. धम्मादासन्ति धम्ममयं आदासं, येनाति येन धम्मादासेन समन्नागतो, स. नि. अट्ठ 3.311; पसन्ना - पु., कर्म. स. [ प्रसन्नादर्श], स्वच्छ दर्पण, साफ-सुथरा आईना से सप्त, वि., ए. व.
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तस्स दानस्स फलेन इध निब्बत्तोति पसन्नादासे मुखनिमित्तं विय सब्बं पुरिमजातिकिरिय, जा. अट्ठ 3.361; विमला. पु.. कर्म. स. [विमलादर्श] दागों, मलों या ब्बों से रहित आईना, निर्मल एवं स्वच्छ दर्पण - संद्वि. वि. ए. व. इस पन महाराज, सिनिद्धसमसुमज्जित सम्प भासविगलादासं सहसुखुमगेरुकचुण्णेन अपरापरं मज्जेष्णुं मि. प. 136: सुवण्णा. पु., तत्पु० स० [सुवर्णादर्श], सुनहरा आईना, सोने की तरह चमचमाता आइना सो गन्त्वा बोधिसत्तस्स सुवण्णादासफुल्लपदुमसस्सिरिकं मुखं दिस्वा... जा. अट्ठ. 3.145; स० पू० प० के रूप में, – तल • नपुं., तत्पु० स० [आदर्शतल], आईना की ऊपरी सतह, दर्पण का ऊपरी तल लं प्र. वि., ए. व. तथा आदासतलं विय चक्खुधातु मुखं विय रूपधातु विभ. अट्ट.
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