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आरद्धवीरियगाथावण्णना
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आरभति
भाव., सुदृढ़ रूप से चार सम्यक् प्रधानों को भावना करने वाले साधकों के साथ सत्संगति – ता प्र. वि., ए. व. - एकादस धम्मा वीरियसम्बोज्झङ्गरस उप्पादाय संवत्तन्ति ... आरद्धवीरियपुग्गलसेवनता, तदधिमुत्तताति, अ. नि. अट्ठ. 1.379-80; आरद्धवीरियपुग्गलसेवनताति... भावनारम्भवसेन आरद्धवीरियानं दळहपरकमानं पुग्गलानं कालेन कालं उपसङ्कमना, विसुद्धि. महाटी. 1.147; - भाव पु., सुदृढ़ पराक्रम से युक्त होना - वेन तृ. वि., ए. व. - आरद्धवीरियभावेन नचिरस्सेव अग्गफले पतिद्विता ति, अ. नि. अट्ठ. 1.273. आरद्धवीरियगाथावण्णना स्त्री., तत्पु. स., सु. नि. तथा अप. की गाथाओं की अट्ठकथा का शीर्षक जिनमें सु. नि. के खग्गविसाणसुत्त की गाथा में आए हुए आरद्धवीरियो आदि पदों की व्याख्या की गई है, सु. नि. अट्ट, 1.95-97; अप. अट्ठ. 1.199-200. आरद्धवीरियता स्त्री., आरद्धवीरिय का भाव., सुदृढ़ पराक्रम से परिपूर्ण रहने की स्थिति, उद्योगशीलता, चार सम्यकप्रधानों का दृढ़ अभ्यास होना - तं द्वि. वि., ए. व. - एतमहं, ब्राह्मण, आरद्धवीरियतं अत्तनि सम्परसमानो, म. नि. 1.25; 'आरद्धवीरियतञ्च दरसेन्तो..., थेरगा. अट्ठ. 2.292; - य तृ. वि., ए. व. - तथा आरद्धवीरियताय थिनमिद्ध, विसुद्धि. 1.181; तथा आरद्धवीरियतायाति ...
पग्गहितवीरियताय, विसुद्धि. महाटी. 1.198. आरद्धवीरियसोणत्थेरी स्त्री., एक भिक्षुणी का नाम - री प्र. वि., ए. व. - एवं पच्छा आरद्धवीरियसोणत्थेरीति पाकटा जाता, अ. नि. अट्ठ. 1.272. आरद्धसद्धाभियोग पु., तत्पु. स., प्रबल श्रद्धा के साथ लगाव - गो प्र. वि., ए. व. - पुरिमवयसि येवारद्धसद्धाभियोगो, दाठा. 4.7(रो.). आरद्धा आ + Vरभ का आलद्धा के मि. सा. पर निर्मित पू. का. कृ. [आरभ्य], प्रारम्भ करके - आरब्भा आरद्धा
आरभित्वा, सद्द. 3.857. आर कामत्त नपुं., आर काम का भाव., प्रारम्भ करने की कामना वाला होना - त्ता प. वि., ए. व. - पभाते युद्धमारद्धकामत्ता न पटिग्गहि, चू. वं. 72.114. आरनाळ नपुं.. [आरनालक], कांजी, खट्टा दलिया - लं प्र. वि., ए. व. --- सोवीरं कजियं वृत्तं आरनाळ थुसोदक, अभि. प. 460; विलङ्ग वुच्चति आरनालं बिलङ्गतो निब्बत्तनतो, दी. नि. टी. 2.329; तुल. अमर. 2.9.39.
आरप्पयोग पु., केवल व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में प्राप्त,
दूर अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग (होने पर प. वि. होती है) - गे सप्त. वि., ए. व. - दिसायोगे विभत्ते आरप्पयोगे सुद्धत्थे.... क. व्या. 277; सद्द. 3.705. आरब्म आ + रभ का पू. का. कृ. [आरभ्य], शा. अ., प्रारम्भ करके - आगम्म, ... आरभ, आरभित्वा, आरद्ध, आरभित्वा, क. व्या. 602; प्रायोगिक अ., क. उत्पन्न कर के, प्रवर्तित करके, क्रियाशील बना कर - उपेक्खमारभ समाहितत्तो, सु. नि. 978; उपेक्खमारब्भ समाहितत्तोति चतुत्थज्झानुपेक्खं उप्पादेत्वा समाहितचित्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.265; नयिदं सिथिलमारभ, नयिदं अप्पेन थामसा, निब्बानं अधिगन्तब्ब, स. नि. 1(2).252; सिथिलमारब्भाति सिथिलवीरियं पवत्तेत्वा, स. नि. अट्ठ. 2.208; ख. के विषय में, के सन्दर्भ में, के बारे में, की अपेक्षा से, को ध्यान में रख कर, 1. वि. वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ प्रयुक्त - पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमूत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि, दी. नि. 1.11; आरम आगम्म पटिच्च, दी. नि. अट्ठ. 1.90; बोधिसत्तस्स मग्गं आरब्भ सतिसम्मोसो अहोसी ति, मि. प. 267; 2. ष. वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ प्रयुक्त - तञ्च पन न सब्बेसं जिनपुत्तानं येव आरभ भणितं, मि. प. 173; 3. के आलोक में, पद्धति का अनुसरण करके, की दृष्टि से (वसेन के साथ अन्वित होने पर) - तत्रायं खन्धवसेन आरमविधानयोजना, विसुद्धि. 2.244; ग. आलम्बन बना कर, आधार बना कर - हेट्ठा वत्तेसु रूपारम्मणादीस रूपारम्मणं वा
आरभ, आरम्मणं कत्वाति अत्थो, ध. स. अट्ठ. 152. आरब्मते आ + रभ, कर्म. वा., वर्त, प्र. पु., ए. व. [आरभ्यते, प्रारम्भ किया जाता है - अत्थवण्णना आरभते. खु. पा. अट्ठ. 132; - मानो पु.. वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - आरममानोयेवाति कुरुमानोयेव, स. नि. अट्ठ. 3.184; - नं नपुं.. वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - सब्बं विभावयितुं
आरब्भमानं विस्सज्जनं अधिप्पेतञ्चेव अत्थं न साधेय्य, विसुद्धि. 1.83. आरभति' आ + रभ का वर्त०, प्र. पु., ए. व. [आरभते], 1.शा. अ., प्रारम्भ करता है, आरम्भ करता है - नं कत्तुं
आरभति, करोतियेव वा, पारा. अट्ठ. 1.169; यागु सयमेव पातुं आरभति, पाचि. अट्ठ. 105; - न्ति ब. व. -- कल्याणचित्ते उप्पन्ने दातुं आरभन्ति, पाचि. अट्ठ. 69; - न्तस्स वर्त. कृ. पु, ष. वि., ए. व. - सम्मासम्बोधिं अधिगन्तुं
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