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आरञ्जकत्
वन के एकान्त में रहकर साधना करने वाला (तापस, भिक्षु आदि), ग्रामवास त्याग कर आरञ्ञिक नामक 'धुतङ्ग' का ग्रहण एवं उसका पालन करने वाला ( भिक्षु) – को पु०, प्र० वि., ए. व. - रुक्खमूले वसतीति, रुक्खमूलिको, आरञ्ञिको, सोसानिको लोके विदितो लोकिको, मो. व्या० 4.32; आरञ्ञिको साततिको, थेरगा 851; गामन्तसेनासनं पटिक्खिपित्वा आरञ्ञिकङ्गसमादानेन आरञ्ञिको, थेरगा. अट्ठ. 2.274; - कं पु०, द्वि० वि०, ए. व. आरञ्ञिकं भिक्खु सन्धाय, विसुद्धि. महाटी. 1.91; अञ्ञतरं आरञ्ञिकं भिक्खु दिस्वा..., ध. प. अ. 2.302; - केन पु., तृ. वि., ए. व. आरञ्ञिकेन गामन्तसेनासनं पहाय ., विसुद्धि. 1.70; - स्स पु०, ष. वि., ए. व. – आरञ्ञिकस्स भिक्खुनो उपज्झायो, विसुद्धि. 1.71; अस्स आरञ्ञिकस्स चित्तं विसुद्धि० महाटी. 1.91 - का पु०, प्र० वि०, ब०व० - पञ्च आरञ्ञिका, पु० प० 180; - कानं पु०, ष. वि., ब. व. -- एतदग्गं, भिक्खवे, मम सावकानं भिक्खून आरञ्ञकानं यदिदं रेवतो खदिरवनियो, अ० नि० 1 (1).32; आरञ्ञकानन्ति अरञ्ञवासीनं, अ. नि. अट्ठ० 1.174; - ङ्ग नपुं०, कर्म, स., तेरह अथवा आठ धुतङ्गों में एक, वन में रहते हुए ग्राह्य एवं पालनीय धुतङ्ग – प्र. वि., ए. व. अट्ठ धुतङ्गानि - आरञ्ञिकङ्ग, पिण्डपातिकङ्ग, पंसुकूलिकङ्ग तेचीवरिकङ्ग, सपदानचारिकङ्ग, खलुपच्छाभतिकङ्ग, नेसज्जिकङ्ग, यथासन्थतिकङ्ग, महानि० 47; - धुतङ्ग नपुं. उपरिवत् – ङ्गं द्वि. वि., ए. व. - आरञ्ञिकधुतङ्गं समादाय सब्बेपि भिक्खू याव जीवन्ति ताव आरञ्ञिका होन्तु, पारा.
अट्ठ. 2.170.
आरञ्जिकसुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 2 (1).204.
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आरत त्रि, आ + √रम से व्यु, भू. क. कृ. [आरत], किसी
से विरत हो जाने वाला, अलग हो जाने वाला, विराम ले लेने वाला, हट जाने वाला - तो पु०, प्र. वि., ए. व. - आरतो विरतो पटिविरतो निक्खन्तो... विहरतीति, महानि.
तं द्वि. वि., ए. व. तं मं अकिञ्चनं ञत्वा, सब्बपापेहि आरतं, जा. अट्ठ. 4.335. आरति / आरती स्त्री०, आ + √रम से व्यु० [आरति ], विराम, विलगाव, हटाव, परित्याग, विरति, उचटाव ति / ती प्र. वि., ए. व. - थियं वेरमणी चेव विरत्यारति चाप्यथ, अभि. प. 160; आरती विरति, पापा, मज्जपाना च संयमो, सु. नि. 267; आरति नाम पापे आदीनवदस्साविनो
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आरद्ध
मनसा एव अनभिरंति, सु. नि. अट्ठ. 2.22; - प्पयोग पु., व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में प्रयुक्त, विराम अथवा बिलगाव के अर्थ वाले शब्दों में (प. वि. का) प्रयोग - गे सप्त. वि., ए. व. - आरतिप्पयोगे गामधम्मा कुसलधम्मा असद्धम्मा आरति विरति पटिविरति, सद्द. 3.706.
आरत्त नपुं॰, भाव, व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द, 'आर' प्रत्यय से युक्त होने की स्थिति अञ्ञस्वारतं,
आरत्तग्गहणेन कत्थचि अनियमं दस्सेति, क. व्या. 200; सत्थु पितुआदीनं अन्तो यो अङ्गादिसु वचनेसु आरतं आपज्जति वा, स६० 3.668.
आरदन्त नपुं, तत्पु० स० [आरदन्त], पीतल का दांत न्ते द्वि. वि., व आरदन्ते पि खादन्ति, पञ्च. ग. दी. 32 (रो.).
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आरद्ध' त्रि. आ + √रभ से व्यु., भू. क. कृ. [आरब्ध], 1. कर्तृ. वा. में, प्रारम्भ कर चुका, प्रारम्भ किया हुआ, क. निमि. कृ. के साथ अन्वित - द्धो पु०, प्र. वि., ए. व. - पण्णानि खादितुं आरद्धो, जा० अ० 1.169; अस्सारोहो
अञ्ञ अस्सं सन्नहितुं आरद्धो, जा० अट्ठ. 1.179; - द्वा' स्त्री. प्र. वि., ए. व. - तस्स पन गतदिवसतो पट्ठाय ब्राह्मणी अतिचरितुं आरद्धा, जा० अट्ट. 1.473; - द्वे सप्त. वि., ए. व. - तस्मिहि अधीयितुं आरद्धे तेपि अधीयन्ति, ध. स. अट्ठ. 157; - द्धार पु०, प्र. वि., ब० व॰ - अथ नं राजपुरिसा नीहरितुं आरद्धा, जा० अट्ठ 1.176; ख. द्वि. वि. में अन्त होने वाले नाम के साथ - द्वापु०, प्र. वि., ब. इमे भिक्खू विवाद आरद्धा, म. नि. अट्ठ (मू०प०) 1 (2). 288; ग. 'इति' के साथ, द्धा पु०, प्र. वि., ब.व.
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• बाह्मणा... यञ्ञ यजित्वा पटिकम्मं करोमाति आरद्धा ति आह, स. नि. अ. 1.126; 2. कर्म वा. में, क. वह, जिसे तैयार कर दिया गया है अथवा हाथ में ले लिया गया है, व्यवस्थित कर लिया गया, बना लिया गया, सम्पादित, ख. सुदृढ़ अथवा अशिथिल बना दिया गया, पुष्ट कर दिया गया, समुत्तेजित अथवा जागृत कर दिया गया, सबल बना दिया गया - द्धो पु०, प्र. वि., ए. व. - अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो आरद्धो, स. नि. 3 (1).22; द्धा स्त्री. प्र. वि., ए. व. - योनि चस्स आरद्धा होति आसवानं खयाय, स. नि. 2(2). 179; आरद्धा होतीति कारणञ्चस्स परिपुण्णं होति, स. नि. अड. 3.66; द्धं नपुं. प्र. वि., ए. व. आरद्ध खो पन मे, ब्राह्मण, वीरियं अहोसि असल्लीन, पारा 4;
आरद्ध अहोसि, पग्गहितं असिथिलप्पवत्तितन्ति वृत्तं होति,
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