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आचरियकुल
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आचरियनय आचरियकुल नपुं., तत्पु. स. [आचार्यकुल], एक ही आचार्य आचरियचतुक्क नपुं.. [आचार्यचतुष्क], आचार्य एवं से शिक्षा प्राप्त शिष्यों की परम्परा या उनका समूह, आचार्य अन्तेवासिक के परस्पर-सम्बन्ध-विषयक चार विनय-नियम का परिवार, एक मतवाद अथवा एक शाखा के अनुयायियों -क्के सप्त. वि., ए. व. -- आचरियचतुक्केपि एसेव नयो, का समूह, धार्मिक शाखा या निकाय - लानि प्र. वि., ब. परि. अट्ठ. 171. व. - अट्ठारस निकायातिपि, अट्ठारसाचरियकुलानीतिपि आचरियट्ठान नपुं., तत्पु. स. [आचार्यस्थान], आचार्य का एतेसंयेव नामं, प. प. अट्ठ 102; - ले सप्त. वि., ए. पद, आचार्य की पदवी अथवा स्थिति – ने सप्त. वि., ए. व. - ... किमञत्र असितत्ताति आचरियकुले असंवृद्धा, व. - उदको रामपुत्तो सब्रह्मचारी मे समानो आचरियडाने दी. नि. अट्ठ. 1.206; सिक्खितोति दस द्वादस वस्सानि म ठपेसि, म. नि. 1.226. आचरियकुले उग्गहितसिप्पो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) आचरियदक्खिणा स्त्री., तत्पु. स. [आचार्यदक्षिणा], आचार्य 1(1).364; - लं द्वि. वि., ए. व. - ... नगर पविसित्वा को देय दक्षिणा - णं द्वि. वि., ए. व. - आचरियधनन्ति आचरियकुलं गन्त्वा आचरियं वन्दित्वा ..., जा. अट्ठ. 5. आचरियदक्खिणं आचरियभाग, अ. नि. अट्ठ. 3.67. 455; एवं अम्हाक आचरियकुलं निस्साय निय्यानिक आचरियधन नपुं., तत्पु. स. [आचार्यधन]. आचार्य को भविस्सति, चूळव. अट्ठ. 112; - स्स ष. वि., ए. व. - मा दक्षिणा के रूप में देय धन - नं द्वि. वि., ए. व. - मे आचरियकुलस्स अवण्णो अहोसी ति, अ. नि. 1(2).129. अतित्थिया आचरियस्स आचरियधनं परियेसिस्सन्ति, म. आचरियकुलवादकथा स्त्री., म. वं. के पांचवें परिच्छेद की नि. 2.17; आचरियधनं परियेसिस्सन्तीति अतिथिया हि प्रारम्भिक तेरह गाथाएं, जिसमें सम्राट अशोक के काल तक यस्स सन्तिके सिप्पं उग्गण्हन्ति तस्स, सिप्पग्गहणतो पुरे विकसित बौद्ध भिक्षुसंघ की अट्ठारह शाखाओं का उल्लेख वा पच्छा वा अन्तरन्तरे वा गेहतो नीहरित्वा धनं देन्ति, म.
है - आचरियकुलवादकथा निहिता, म. वं. (पृ.) 56. नि. अट्ट (म.प.) 2.11; "पच्छा धम्मेन भिक्खं चरित्वा आचरियकेवट्ट पु., ब्रह्मदत्त के पुरोहित का नाम - Zो प्र.. आचरियधनं आहरिस्सामी ति, जा. अट्ठ. 4.201. वि., ए. व. - आचरियकेवट्टोपि केवलं नलाटे वणं कत्वा आचरियधनु नपुं., कर्म. स., अत्यन्त उत्तम कोटि का धनुष, चरति, जा. अट्ठ. 6.235.
दृढ़ धनुष - नुं द्वि. वि., ए. व. -- दळ्हधम्मिनोति आचरियगरुत्त नपुं., भाव. [आचार्यगुरुत्व], आचार्यों की दळ्हधनुनो, उत्तमप्पमाणं आचरियधनु धारयमाना, स. नि. महिमा, आचार्यों की श्रेष्ठता - त्ता प. वि., ए. व. - अट्ठ. 1.236.
आचरियगरुत्ता कथिकं न परिभवति, महानि. अट्ठ. 7. आचरियधम्मपाल पु., कर्म. स., प्रसिद्ध अट्ठकथाकार, आचार्य आचरियगाथा स्त्री., तत्पु. स. [आचार्यगाथा], आचार्यों के धम्मपाल - लो प्र. वि., ए. व. - बदरतित्थविहारवासी मुख से निकला वचन, परम्परागत सिद्धान्त को प्रकाशित आचरियधम्मपालो पन, सद्द. 1.230. करने वाला कथन - य तृ. वि., ए. व. - इमाय आचरियधम्मपालत्थेर पु., कर्म. स., उपरिवत - रेन त.
आचरियगाथाय तमत्थं साधेन्ति, स. नि. अट्ट. 2.236. वि., ए. व. - आचरियधम्मपालत्थेरेनेव पनेत्थ इदं वृत्तं, आचरियगुण पु., तत्पु. स. [आचार्यगुण], आचार्य में पाए सारत्थ. टी. 1.33; आचरियधम्मपालत्थेरेन वृत्तं यावदेवाति जाने योग्य गुण, ऐसे गुण, जो किसी भी आचार्य में अवश्य इमिना समानत्थं यावदेति इदं पदन्ति, सारत्थ. टी. 1.37; होने चाहिए – णा प्र. वि., ब. व. - आचरियानं पञ्चवीसति आचरियधम्मपालत्थेरेनपि नेत्तिपकरणट्ठकथायं एवमेतस्स आचरियगुणा, तेहि गुणेहि आचरियेन सम्मा पटिपज्जितब्ब सुत्तङ्गसङ्गहोव कथितो. सारत्थ. टी. 1.84. मि. प. 105.
आचरियनय पु., तत्पु. स. [आचार्यनय], स्थविरवादी परम्परा आचरिगुत्तिल पु., कर्म स., (वीणा-वादन आदि) गन्धर्व- के आचार्यों की वह पद्धति, जो व्याख्यानों के स्रोत के रूप शिल्पों में दक्ष आचार्य, एक आचार्य, जो वीणा वादन जैसे में पिटकों एवं अट्ठकथाओं की पद्धतियों के अतिरिक्त गन्धर्व शिल्प में दक्ष थे - लो प्र. वि., ए. व. - सारिपुत्त तीसरी ग्राह्य पद्धति है - येन तृ. वि., ए. व. - थेरो बुद्धघोसाचरियो आचरियगुत्तिलो ति वा महोसधपण्डितो, अट्ठकथामुत्तकेन पन आचरियनयेन अपरापि छ पत्तियो, सद्द. 3.751; इतो किर सत्तमे दिवसे आचरियगत्तिलो च प. प. अट्ट, 27, 28; पाळिमुत्तकेन पन अट्ठकथानयेन अन्तेवासिकमूसिलो च..., जा. अट्ठ. 2.210.
अपरापि छ पत्तियो, प. प. अट्ठ. 26.
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