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22/जैन समाज का वृतद इतिहास
सन् 1950 तक समाज पर जिन व्यक्तियों का नेतृत्व छाया रहा उनमें इन्दौर के सर सेठ हुमकचन्द जी कासलीवाल, अजमेर के रायबहादुर टीकमचन्द जी सोनी, जयपुर के श्री गोपीचन्द जी ठोलिया, पं. चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ, सेठ बैजनाथ जी सरावगी - कलकत्ता, बा. छोटेलाल जी - कलकत्ता, पं. राजेन्द्र कुमार जी न्यायतीर्थ - मथुरा, गणेशप्रसाद जी वर्णी व ब्र. शीतलप्रसाद जी, पं. मक्खनलाल जी शास्त्री, मुंशी प्यारेलाल जी कासलीवाल - जयपुर, धन्नालाल जी कासलीवाल - बम्बई, बैरिस्टर चम्यतराय जी के नाम उल्लेखनीय है।
20वीं शताब्दी मध्यकालोत्तर समाज (सन 1951 से 1970 तक):
भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना : जैन समान इन सपाको में स-स्टिगों से निरन्तर आगे बढ़ता रहा। शिक्षा, साहित्य, सामाजिकता एवं संगठन की दृष्टि से कभी आगे बढ़ता रहा तो कभी पीछे भी चला गया। इस दशक की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि साह परिवार द्वारा देहली में भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना रही। अब तक साहित्य प्रकाशन की कोई उच्चस्तरीय संस्था नहीं थी। समाज की भी बहुत वर्षों से मांग थी। फरवरी सन् 1944 में साहू शान्तिप्रसाद जी एवं उनकी पत्नी रमारानी द्वारा स्थापित भारतीय ज्ञानपीठ साहित्य प्रकाशन के क्षेत्र में निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर है। प्रारम्भ में ज्ञानपीठ ने पुराण साहित्य का प्रकाशन किया जो बहुत रूचिकर रहा। इस दशक में दिगम्बर जैन संघ - मथुरा की
ओर से कषाय पाहुड जयधवला टीका का प्रकाशन भी उल्लेखनीय कार्य रहा। वैसे इस दशक के प्रारम्भ में ही सन् 1951 में सर सेठ हुकमचन्द जी का सार्वजनिक अभिनन्दन एवं उनको अभिनन्दन ग्रंथ का समर्पण किया गया। किसी श्रेष्ठी का इस प्रकार का अभिनन्दन किये जाने का प्रथम अवसर था । समाज सेठ साहब को अनभिषिक्त सम्राट कहा करती थी।
सन 1957 में आचार्य वीर सागर जी महाराज का तथा सन् 1968 में आचार्य शिवसागर जी महाराज का समाधिमरण इन दो दशकों में हुआ। दोनों ही आचायों के प्रति समाज में गहरी आस्था थी।
सन् 1959 में देहली में आयोजित साहू शान्ति प्रसाद जी की अध्यक्षता में एक जैन कन्वेन्शन का . आयोजन हुआ। जिसमें महासभा को समाज की प्रतिनिधि संस्था मानते डुये कितने ही प्रस्ताव पास किये गये। जिससे समाज में एकता की आशा बंधी।
जयपुर में आचार्य शिवसागर जी के सानिध्य में अक्टूबर 1963 में एक बार वाद-विवाद के रूप में चर्चा हुई। खानियों में चर्चा सम्पन्न होने के कारण इसे खानियाँ तत्वचर्चा कहा गया। वाद-विवाद के दोनों पक्षों में एक पक्ष सोनगढ़ के विद्वानों का तथा दूसरा आर्षमार्गानुयायी विद्वानों का था। आठ दिन तक चलने वाले इस तत्व चर्चा पर समाज का ध्यान तो अवश्य आकृष्ट किया लेकिन कोई प्रतिफल नहीं निकल सका।