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भगवती सूत्र शतक १-गौतम स्वामी की जिज्ञासा
किन्हीं आचार्यों का मत है कि 'जायसड्ढे जायसंसए आदि बारह ही पद एकार्थक हैं किन्तु विवक्षित अर्थ की प्रकर्षता बतलाने के लिए इन पदों का प्रयोग किया है । शास्त्रकार स्तुति परायण होने के कारण इन पदों का बारम्बार प्रयोग होने पर भी पुनरुक्ति दोष नहीं है ।
इन विशेषणों से युक्त गौतम स्वामी अपने स्थान से उठकर श्रमण भगवान् महावीर स्वानी के पास आये और भगवान् की दाहिनी तरफ से तीन बार प्रदक्षिणा करके भगवान् को वन्दना' नमस्कार' किया । वन्दना नमस्कार करके भगवान् की अवग्रह भूमि को छोड़कर, न अति समीप और न अति दूर रहकर भगवान् के वचनों को सुनने की इच्छा से भगवान् के सम्मुख विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले। .
(३) अवाय-हितविशेषनिर्णयोऽवायः' । अर्थ-ईहा द्वारा जाने हुए पदार्थ में विशेष का निर्णय हो जाना 'अवाय' है । 'यह मनुष्य दक्षिणी होना चाहिए,' इतनामान ईहा द्वारा हो चुका था। उसमें विशेष का निश्चय होजाना 'अवाय' है। यह मनुष्य दक्षिणी ही है।
(४) धारणा-'सएव दृढतभावस्थापन्नो धारणा' । अर्थ-अवाय ज्ञान जब अत्यन्त दृढ़ होजाता है तब वही अवाय 'धारणा' कहलाता है । धारणा का अर्थ संस्कार है । हृदयपटक पर यह शान इस प्रकार अङ्कित हो जाता है कि कालान्तर में भी वह जागृत हो सकता है । इसी ज्ञान से 'स्मरण होता है।
जैसा कि कहा है-'वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन्, यत्पदमसकृद ते तत् पुनरुक्तं न दोषाय' । अर्थात् हर्ष, भय आदि से आक्षिप्त (अस्वस्थ) मन वाला होकर बोलता हमा तया स्तुति करता हआ और निन्दा करता हा पुरुष समान वाले पदों को यदि अनेक बार बोल देता है, तो भी वह पुनरुक्ति दोष का भागी नहीं होता है।
प्राचीन धारणा में चन्दक की दाहिनी तरफ से प्रदक्षिणा करने की धारणा है और टीका में वंदनीय की दाहिनी तरफ से प्रदक्षिणा करना लिखा है।
-'बन्द' का अर्थ है-वचनों द्वारा स्तुति करता है। -'णमंसई' का अर्थ है-काया द्वारा प्रणाम करता है।
-अवग्रह भूमि'-गुरु महाराज के चारों तरफ शरीर प्रमाण (साढ़े तीन हाप प्रमाण) भूमि अवग्रह भूमि कहलाती है । गुरु महाराज की आज्ञा बिना शिष्य को उसमें प्रवेश नहीं करना चाहिए। *गुरु महाराज के पास धर्म श्रवण किस प्रकार करना चाहिए ? इसके लिए कहा है
.णिद्दा-विगहा परिवज्जिएहि, गुहि पंजलिउहि ।
भत्तिबहुमाणपुटवं, उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ॥ अर्थ-निद्रा और विकया का त्याग करके, मन, वचन, काया को गुप्त (नियन्त्रित) रख कर, मजलिपुट करके अर्थात् दोनों हाथ जोड़ कर ललाट पर स्थापित करके भक्ति और बहुमान पूर्वक उपयुक्त (दत्तचित्त) होकर गुरु महाराज के पास प्रवण करना चाहिए।
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