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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र २१२ ओघतो वैक्रियादिशरीरसंख्यानिरूपणम् ३९७ द्विविधानि-प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि-च मुक्तानि च। तत्र. खलु यानि तानि बद्धानि तानि खलु स्यात्सन्ति, स्यामसन्ति । यदि सन्ति जघन्येना एकं वाढे-वा जो मुक्त क्रिय शरीर है, वे सामान्य से अनत है। अनंत उत्सपिनी अवसर्पिणी के एक-एक-समय पर यदि उन्हें प्रक्षिप्त किया जावे तब कहीं जाकर उन पर समा सकते हैं। यह काल की अपेक्षामुक्त क्रिय का प्रमाण है। बाकी का इस संबन्धी कथनः मुक्त, औद्वातिक शरीफ के जैसा जानना चाहिये । ये वैक्रिय शरीर. वारक और देवों के सर्वदा ही बद्ध रहते हैं । परन्तु मनुष्य और तिर्यञ्चों के कि जो वैक्रिय लब्धिमली हैं, उत्तरविक्रिय करने के समय में ही.,ये वैकियशरीर बद्ध होते है। इस प्रकार चारोंगतियों के जीवों के पद्धवैक्रियशरीर असंख्यात होते हैं। ..... ........ : + pr .: . अब सूत्रकार आहेध की अपेक्षा आहारक शरीरों का निरू-पण करते हैं- ... ... ... ...:. .... ... .. . ...
.. (केवड्या णं भंते ! आहारगसरीस पण्णत्ता) हे, भदन्त ! आहा. रक शरीर कितने कहे गये हैं..? (गोयमा आहारमहरीरा. दुबिहा पण्णता) हे गौतम !- आहारक शरीर को प्रकार के कहे गये हैं। (बद्धेल्लया य मुक्केल्लयाः व्य) एक बडू और दूसरे मुक्त क्षण जे ते 'पदेल्लया, ते णं सिय अस्थि:सिया नत्थि) इसमें जो बद्ध आहारक મુકત વૈક્રિયશરીર છે, તે સામાન્યથી અનંત છે અનંત ઉત્સર્પિણી અને અવસNિણીના એક એક સમય ઉપર જે તેમને પ્રક્ષિત કરવામાં આવે ત્યારે જ તેઓ તેમની ઉપર સમાવિષ્ટ થઈ શકે છે આ કાલની અપેક્ષાથી મુકત
लय भा. मा पनि मुस्ता मोहा शहीर.म sanel :- न य रीनाम.देवास
. समय: सन.तिय::सान-
AAQual:-तया अरती मत, १६ सायरी.म . सा. प्रभारी रारतिसाना वाना म..यश२ मा भ्यालय छ .... २, माधनी अपेक्षा आहा२५. शरीरानुन३५५ रे छ.
। (केवइया, णं;: भंते ! आहारगलरीरा पण्पाचा) asraeभाडा२४. शरीर hai Hi RI०या छ.१ (गोथमा ! आहारगसासरा, दुविधा, पणत्ता) है गीतमाला शरी२, RURAISIS HIGN:(बग्रेल्लया य. साके
या योजने की भुत तस्थ पंजे के बोल्लया, तेणं घिय अत्थि सिंयं नास्थि) भा' ! शरीश यातु" "मी -सिवाय लीm