Book Title: Anuyogdwar Sutra Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 913
________________ २०० अनुयोगद्वारसूत्र 'मुबहुंपि सुयमहीयं, किं काही चरणविप्पमुकत्स? । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥ नाणं सविसनिययं, न नाणमित्तेण कन्जनिप्फत्ती । मग्गण्णू दिलुतो, होइ सचिद्रो अचिट्ठो य ॥२॥ जाणतो वि य तरिउ, काश्य जोगं न जुंजई जो उ। सो वुज्झइ सोएणं, एवं नाणी चरणहीणो ॥३॥ जहा खरो चंदणभारवाही.' ॥ छाया-सुवह्नपि श्रुतमधीतं किं करिष्यति चरणविषमुक्तस्य । अन्धस्य यथा प्रदीमा दीपशवसहस्रकोटिरपि ॥१॥ ज्ञानं स्वविषयनियतं न ज्ञानमात्रेण कार्यनिष्पत्तिः । मार्गज्ञो दृष्टान्तो भवति . सचेष्टोऽचेष्टश्च ॥२॥ साधक होने से क्रिया में ही मुख्यता आती है इस प्रकार का जो क्रिया प्रधान उपदेश है, वह क्रियानयरूप है । इस पक्षकी सिद्धि करनेवाली युक्ति इस प्रकार से है । 'क्रियेव पुरुषार्थसिद्धि प्रति मुख्य कारणं अत. एव तीर्थंकर गणधरैनिष्क्रियाणां ज्ञानस्थ नष्फल्यमुक्तं' पुरुषार्थसिद्धि के प्रति कारण क्रिया ही है-इसलिये-तीर्थकरगणधरादिकों ने निष्क्रियमनुष्यों के ज्ञान को निष्फल कहा है। जैसे-सुबहु पिसुयमहीयं' इत्यादि' बहुत अधिक श्रुत का अध्ययन करके भी जो चारित्ररूप क्रिया से रहित होता है उस व्यक्ति का वह अधीत श्रुत क्या कर सकता है। जिस प्रकार जलती हुई लाखों दीपों की पंक्ति अधेि को प्रकाश नहीं दे सकती है ॥१॥ ज्ञान अपने विषय में नियत होता है-एतावता ज्ञानमात्र से कार्य की निष्पत्ति नहीं होती है। मार्ग को जाननेवाला होता हुआ भी उसमें पक्षी सिद्धि नारी युति मा प्रभारी क्रियैव पुरुषार्थसिद्धि प्रति मुख्य कारण अतएव तीर्थ करगणधरै निष्क्रियाणां ज्ञानस्य नष्फल्यमुक्तम्' ५३षा સિદ્ધિનું મુખ્ય કારણ કિયા જ છે, એથી તીર્થકર ગણધાદિકે એ નિષ્ક્રિય मनुष्याने ज्ञान भे नि ४ा छ २म 'सुबहु पि सुयमीयं इत्यादि જ શ્રાધ્યયન કર્યા પછી પણ જે ચારિત્ર રૂપ ક્રિયાથી રહિત હોય છે, તેનું તે અધીત શ્રત શું કરી શકે છે? જેમ સળગતી લાખ દીપપતિએ આંધળાને પ્રકાશ આપી શકતી નથી ૧ જ્ઞાન પિતાના વિષયમાં નિયત હોય છે, એતાવતા જ્ઞાનમાત્રથી કાર્યની નિષ્પત્તિ થતી નથી. માર્ગને જાણનાર હોવા છતાં એ તેમાં સચેષ્ટ, સક્રિય

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