Book Title: Anuyogdwar Sutra Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 924
________________ अनुयोग/न्द्रका टीका सत्र २५० शास्त्रप्रशस्तिः शास्त्रपशस्ति:सौराष्ट्र देशे विमले, श्रावकैः समलंकृते । उपलेटानगरेऽस्मिन् , शुद्धभावसमाश्रिते ॥१॥ विक्रमाब्दे द्वि सहस्र, नवसंख्याधिके शुभे। वैशाखे प्रथमे मासे, पूर्णिमायां तिथी कुजे ॥२॥ सोऽनुयोगद्वाराख्ये भव्यकल्याणकारिणी । एषा सम्पूर्णतां याताऽनुयोगचन्द्रिका शुभा॥३॥ अत्रत्यः सुखदः कृयासमुदयः श्रीजैनसंघो मिय:, प्रेमाबद्धविधेयपद्धतिमिलद्दीनतिरक्षापरः । शुदस्थानकवासिधर्मनिरतो रत्नत्रयाभ: शुभः, श्रद्धावाभिगमे जिनप्रवचने श्रेयस्करे शोभते ॥४॥ देवे गुरौ धर्मपथे च भक्ति येषां सदाचाररुचिहि नित्यम् । ते श्रावका धर्मपरायणाश्च सुश्राविकाः सन्ति गृहे गृहेऽत्र ॥५॥ ॥शुभमस्तु ॥ श्रीरस्तु ॥ का कारण है। इस प्रकार जो साधु सर्वनय ग्राही होता है, वही भावसाधु होता है, और जो आवसाधु होता है, वह ज्ञान क्रियावाला ही होता है। इसलिये 'तं सवनयविसुद्धं' इत्यादि गाथोक्त चात व्यवस्थित हो चुकी। इस प्रकार सभेद नय का यह निरूपण किया। (से तं नए-अणुभोगद्दारा सम्मत्तो) इसके निरूपित होते ही सम्पूर्णनय द्वार निरूपित हो चुका। इस प्रकार उपक्रम आदि चारों भी अनुयोग द्वार प्ररूपित हो चुके । इसके प्ररूपित हो जाने पर यह अनुयोग द्वार सूत्र समाप्त हुआ ॥ २५० ॥ अनुयोगद्वार सूत्र समाप्त જે સાધુ સર્વનય ગ્રાહી હોય છે, તેજ ભાવસાધુ હોય છે, અને જે ભાવ साधु डाय छ, त ज्ञान यापन डाय छ. मेथी 'तं सव्वनयविसुद्ध' ઈત્યાદિ ગાથોક્ત વાત વ્ય સ્થિત રીતે સ્પષ્ટ થઈ ગઈ છે. આ પ્રમાણે સદ नयनु ा नि३५४४ थयु(से तं नए अणुओगद्दारा सम्मता) सेना नि३५थी સંપૂર્ણનય નિરૂપિત થઈ જાય છે તેમ સમજવું. આ પ્રમાણે ઉપક્રમ વગેરે ચાર ચાર અનુગદ્વાર પ્રરૂપિત થઈ ગયાં છે. આના પ્રરૂપણથી અહીં આ અનુયાગદ્વાર સૂત્ર સમાપ્ત થાય છે. ૨૫૦ અનુગારસૂત્ર સમાપ્ત ॐ शान्ति:-रान्ति:

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