Book Title: Anuyogdwar Sutra Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 890
________________ अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५० नयस्वरूपनिरूपणम् गमयति-अभ्युपगच्छति स्वीकरोतीति ऋजुसूत्रः, अतीतानागतयो विनष्टानुत्पबत्वेनासत्चात् । असदभ्युपगम एव कुटिलता । वर्तमानकालिकवस्तुन एक सूत्रणात्-स्त्रीकरणादयमृजुमूत्र इत्युच्यते इति भावः । अथवा-ऋजुश्रुत इतिच्छाया। ऋजु-अकुटिलं श्रुतमस्येति विग्रहः । इतरज्ञानर्मुख्यतया तथाविधपरोपकारासाध. नादयं नय एक श्रुतज्ञानमेवेच्छतीत्यर्थः। उक्तंच "सुयनाणे य निउत्तं, केवले तयणंतरं । अप्पणो य परेसिं च, जम्हा तं परिभावगं"। छाया-श्रुतज्ञाने च नियुक्त, केवले तदनन्तरम् । आत्मनश्च परेषां च, यस्मात्तत् परिभावकम् ॥इति॥ पर्याय को कहनेवाला-माननेवाला यह नय होता है । ऋजु' सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः' ऐसी यह व्युत्पत्ति है। अतीत और अनागत ये दोनों अवस्थाएँ क्रमशः विनष्ट और अनुत्पन्न होने के कारण असत् रूप होती हैं । असत् का अभ्युपगम यही कुटिलता है । इस कुटिलता का परिहार करके केवल वर्तमान कालिक वस्तु को ही यह स्वीकार करता है-इस लिये इसका नाम ऋजुसूत्र ऐसा पडा है। अथवा 'उज्जुस्तुओं की संस्कृत छाया 'ऋजुश्रुत' ऐसी भी होती है। जिसका श्रुत-ऋजु-सरल-अकुटिल है, ऐसा इसका अर्थ है । इतरज्ञानों से मुख्यपने तथाविध परो. पकार का साधन नहीं होता है, जैसा कि श्रुतज्ञान से होता है। इस लिये यह नय एक श्रुतज्ञान को ही मानता है। उक्तं च 'सुयनाणे य निउत्तं केवले तयणतरं । अप्पणो य परेसिं च जम्हा तं परिभावगं' ३ वतमान क्षती पर्याय ना२ मानना२ मा नय खाय छे. 'माणु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः' वी ते व्युत्पत्ति छे अतीत भने अनागत स -2 અવસ્થાઓ ક્રમશઃ વિનટ અને અનુત્પન્ન હોવા બદલ અસત્ રૂપ હોય છે. અસત અભ્યપગમ જ કુટિલતા છે. આ કુટિલતાને પરિહાર કરીને ફકત વર્તમાન કાલિક વસ્તુને તે સ્વીકાર કરે છે. એથી આનું નામ ઋજુ સૂત્ર मे छे. अथवा 'उज्जुसुओ' नी सकृत छाया 'ऋजुतमेवी पण थाय छे. જેનું શ્રત આજુ-સરલ અકુટિલ છે. એ એનો અર્થ છે. ઈતર જ્ઞાનથી સુખ્યતયા તથાવિધ પરોપકારનું સાધન થતું નથી, જેવું કે શ્રુતજ્ઞાનથી थाय छ, मेथी मानय ४ श्रुतज्ञान मान छ. 'सुयनाणे य निउत्तं केवले तयणतरं । अपणो य परेसिंच जम्हा तं परिभावगं' मी 'परिभाषक' शहना

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