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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशष्टान्तेन नयप्रमाणम् दीनां पश्चानां प्रदेशद्वयादिनिष्पन्नः, तस्य प्रदेशो देशमदेश इति । धर्मास्तिकाया दिषु प्रदेशस्य सामान्येन सत्वात् षण्णां प्रदेश इत्युक्तम् । विशेषविवक्षायां तु षर प्रदेशा इति वक्तव्यम् । एवं वदन्तं नैगमं ततो निपुणः संग्रहनयो भणति, यत् भणसि-पण्णां प्रदेश इति, तन्न भवति-अन्न युज्यते । कस्मात्तन्न युज्यते । स्कंध है इस स्कन्ध का जो प्रदेश है स्कंधप्रदेश है । धर्मास्तिकायादिक इन पांच द्रव्यों के दो आदि प्रदेशों से जो निष्पन्न होता है, उसका नाम देश है । इस देश का जो प्रदेश है, वह देशप्रदेश है। धर्मास्ति कायादिकों में सामान्य रूप से प्रदेश की सत्ता रहती है इसलिये 'षण प्रदेश' ऐसा नैगमनय ने कहा हैं। और जब विशेष विवक्षा होती हैतब वही नैगमनय षण्णां प्रदेशा' षट् प्रदेशाः' ऐसा बहुवचनान्त प्रयोग भी करता है । तात्पर्य कहने का यह है कि-'नैगमनय सामान्य और विशेष इन दोनों को ग्रहण करनेवाला होता है । अतः जब धर्मास्तिकायादिक द्रव्यों में प्रदेश सामान्य की विषक्षा से प्रदेश व्यवस्था की जाती है, तब नैगम नय षट् प्रदेश शब्द का समास 'षण्णां प्रदेशः षट् प्रदेशः' ऐसा एकवचनान्त शब्द परक करता है और जब प्रदेश विशेष विवक्षा की जाती है, तब 'षण्णां प्रदेशाः प्रप्रदेशा, ऐसा बहवचनान्त शब्द परक करता है। (एवं वयं णेगम संगही भणइ) नैगमन के इस कथन को सुनकर निपुण संग्रहनय ने उससे કંધ છે. આ કપને જે પ્રદેશ છે તે સકંધ પ્રદેશ છે. ધર્માસ્તિકાયાદિક આ પાંચ દ્રવ્યોના બે વગેરે પ્રદેશથી જે નિષ્પન્ન થાય છે, તે દેશ કહેવાય છે. આ દેશને જે પ્રદેશ છે, તે દેશ પ્રદેશ છે. ધર્માસ્તિકાયાદિકોમાં સામાન્યરૂપથી प्रहशनी सत्ता २७ छे, मेथी "षण्णां प्रदेशः" मावु नैगमनये छ. मग यारे विशेष विवक्षा डाय छ, त्यारे नैशभनय "पण्णां प्रदेशाः षद् प्रदेशाः" એ બહુવચનાત પ્રગ કરે છે, તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે
ગમનય સામાન્ય અને વિશેષ એ બંનેને ગ્રહણ કરનાર હોય છે, એથી જ્યારે ધર્માસ્તિકાયાદિક દ્રવ્યમાં પ્રદેશસામાન્યની વિવક્ષાથી પ્રદેશવ્યવસ્થા ४२मा सावे छे, त्यारे नेशमानय ५८ प्रशन समास "षण्णां प्रदेशः षट् प्रदेशः" पाम से वयनात १०६ ५२४ २ . भने ज्या प्रदेश विशेषनी विक्षा ४२वामा भाव छ, त्यारे "षण्णां प्रदेशाः षट् प्रदेशाः" माम पहुक्य. नन्त श. ५२४ ४२ मा छे. (एवं वयं णेगमं संगहो भणह) नैरामनयना मा ४थन सामान निपु नये तर यु. (ज भणसि
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