Book Title: Anuyogdwar Sutra Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 887
________________ ८७४ मनुयोगद्वारस्त्र उपाचः, अतएव पिण्डिनः एकजातिमापन्नोऽर्थों विषयो यस्य तत्तथाभूतं संग्रह बचनं-संग्रहस्य वचनं समासतः संक्षेपतो त्रुवन्ति । अयं भाव-संग्रहनयो हि सामान्यमेव इच्छति न तु विशेषान, अत एव संग्रहस्य वचनं संगृहीतसामान्यार्थअव भवति । तत एव संगृहाति-सामान्यरूपतया सर्व पदार्थ कोडीकुरुते इति संग्रहस्य व्युत्पत्तिरुक्तंति । तथा-व्यवहारो नयः सद्रव्येषु सकलद्रव्यविषये विनिश्रयात् निःशब्द आधिक्ये, चयनं चय=पिण्डीभवनम्-अधिकश्चयो निश्चय!= सामान्य, विगतो निश्चयो विनिश्चया=सामान्याभावः, तदर्थ तन्निमित्तं व्रजति उसे कहता हूं। (संहियपिडियत्यं संगहवयर्ण समालो विति, वचन, विनिच्छियस्थं बहारो सव्वदशेसु) सम्यक गृहीत अतएव जाति को प्राप्त ऐसा अर्थ-विषय है, जिसका ऐसा संग्रह का वचन है इस प्रकार तीर्थंकर गणधर आदि संक्षेप से कहते हैं इसका तात्पर्य यह है कि-'संग्रहनथ, सामान्य को ही विषय करता है। विशेषों को नहीं। इसलिये संगृहीत सामान्य विषयवाला ही संग्रह का वचन होता है। इसलिये 'सामान्यरूपतया मर्व पदार्थं संगृहाति-क्रोडीकरोति इति संग्रह यह संग्रह की व्युत्पत्ति कही गई है। तथा व्यवहारनय सर्वद्रव्यों के विषय में विनिश्चय के निमित्त प्रवृत्त होता है । विनिश्वय शब्द का अर्थ सामान्याभाव होता है। यह इस प्रकार से-यहां 'नि:शब्द का अर्थ आधिक्य है और चाय का अर्थ पिण्डीभवन एक रूप होना है। इस प्रकार अधिक जो चय है वह निश्चय अर्थात् सामान्य है क्योंकि सामान्य ही विशेषरूपों की ओर उदासीनता रखकर अधिक छ. सामा-(संगहिय मिडियत्थं संगहवयणं खमाओ चिंति वच्चर विणिच्चय त्थं ववहारो सव्वव्वेसु) सभ्य५ गडीत सतमेव थे जतिन प्रारत सेवा અર્થ-વિષય છે. જેને એવું સંગ્રહનું વચન છે, આ પ્રમાણે તીર્થકર ગણધર વગેરે સંક્ષેપમાં કહે છે, આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “સંગ્રહ નય સામાન્યને જ વિષય બનાવે છે. વિશેષેને નહિ. એથી સંગૃહીત સામાન્ય વિષય थत सपन यन डाय छे. थेटमा भाट 'सामान्यरूपतया सर्व पदार्थ संग्रहाति-क्रोडी करोति इति संग्रहः' मा सहनी व्युत्पत्ति छ. तथा व्यq. હાર નય સર્વ દ્રવ્યના વિષયમાં વિનિશ્ચય નિમિત્ત પ્રવૃત્ત થાય છે. વિનિશ્રય શબ્દને અર્થ સામાન્યાભાવ હોય છે. આ પ્રમાણે અહીં શબ્દનો अथ ाधिश्य छ भने 'चय' न। अर्थ ( 4 वन ४३५ थ छे. मा પ્રમાણે અધિક જે ચય છે તે નિશ્ચય એટલે કે સામાન્ય જ છે કેમકે સામાન્ય જ વિશેષ રૂપ પ્રત્યે ઉદાસીનતા રાખીને અધિક ચય કરે છે, “ઉ” નો અર્થ વિગત

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