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अनुयोगद्वारसूत्र यदा हि सर्वभूतेषु साम्यग्दृष्टिर्भवति तदैव श्रमणत्वग्रुपलभ्यते, एवंविध एव साधुः श्रमणो भण्यते इत्याह-'जह भषण' इत्यादि। यथा मम दुःख-वधताडना. दिजनितं प्रियं न भवति, एवमेव सर्बजीयानामपि दुःख पियं न भवति, इति ज्ञात्वा -मनसि विचार्य यः समस्तानपि प्राणिनो न स्वयं हन्ति, न चान्योतयति, चस्योपलक्षणत्वाद् तथान्यानपि नानुमोदते, प्रत्युत समस्तमपिजीवजातसं-समं =स्वात्मतुल्यं अतिमन्यते, तेन हेतुना स समण इभ्युच्यते ॥३॥ इत्थं समं मन्यते सनिपि जीवान् यः स श्रमण इत्येवं निर्वचनेन एक पर्यायम् उक्त्वा सम्पति किया है। (जह मम ण पियं दुक्ख, एमेव सव्वजीवाणं, न हणइ, न हणावेद य समणई तेण सो समणो) जब समस्त भूतों के ऊपर साम्यदृष्टि होती है। तभी श्रमणत्व प्राप्त होता है-ऐसा ही साधु श्रमण कहलाता है-इसी बात को इस गाथा द्वारा कहा जा रहा है। जिस प्रकार वधताडन आदि जन्य दुःख मुझे प्रिय नहीं लगता है उसी प्रकार से समस्त जीवों को भी वह दुःख प्रिय नहीं लगता है। ऐसा मन में विचार करके जो मनुष्य समस्तप्राणियों को स्वयं नहीं मारता हैं, दूसरों से उन्हें नहीं मरवाता है, और चकार से उन्हें मारनेवालों की अनुमोदना नहीं करता है, प्रत्युत समस्त भी जीवजातको अपने समान मानता है इसी कारण वह श्रमण कहा जाता है । इस प्रकार जो 'समं मन्यते सर्वानपि जीवान घः सः श्रमणः' समस्त जीवों को आत्मोपम्यरूप से मानता है, देखता है- वह श्रमण है। इस प्रकार श्रमण शब्द के निर्वचन से श्रमणरूप एकपर्याय कहकर अब 'समं. प्रतिपति रेसले. (जह मम ण पिय दुक्खं, एमेव सव्वजीवाणं, न हणइ, न हणावेइ य समणइ तेण सो समणो) यारे समस्त भूत। प्रत्ये साम्यह खाय छे, त्यारे ४ श्रमत्व प्रात याय छे. थे। साधुने । समण (श्रम) 8. વામાં આવે છે. જેમ વધ, તાડન વગેરે જન્ય દુઃખે મને ગમતા નથી. તેમજ તે સમસ્ત જીને પણ તે દુઃખ પ્રિય લાગતું નથી. આમ મનમાં વિચારીને જે માણસ સમસ્ત પ્રાણિઓને પિતે મારતો નથી, બીજા પાસે તેમની વિરાધના કરાવતા નથી અને ચકારથી તેમની વિરાધના કરનારાઓની અનુમોદના કરતે નથી, અને સમસ્ત જીવને પિતાની જેમ જ માને છે, તેથી જ તે શ્રમ उपाय छे. मा प्रभाये २ "सम मन्यते सर्वानपि जीवान् यः खः श्रमणः" સમસ્ત અને આત્મીપમ્ય રૂપથી જુએ છે, માને છે, તે શ્રમણ છે. આ પ્રમાણે શ્રમણ શબ્દના નિર્વચનથી શ્રમણ રૂપ એક પર્યાય કહીને હવે જ