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अनुयोगद्वारसूत्र स नो जीव इस्युच्यते । एवम् अनन्तस्कन्धात्मकममस्तस्कन्धस्यैकदेशस्य एकस्कन्धस्य प्रदेशः समस्तस्कन्धभिन्नत्वात् नोस्कन्ध इन्युच्यते इति भावः । एवं वदन्तं समभिरूढनयं सम्मति एवंभूतनयो भणति त्वं यद् यद् धर्मास्तिकाया. दिकं वस्तु भगसि, तत् तत् सर्वसमस्तं कृत्स्नं देशपदेशकल्पनारहितं पतिपूर्णम्= आत्मस्वरूपेणाविकलम् , निरवशेषम् एकत्वादवयवरहितम्-अत एकग्रहणगृही. तम्-एकेन ग्रहणेन-नाम्ना गृहीतम् अभिहितम्-एकाभिधानाभिधेयमस्ति, अत एकदेश एक जीव है । इसका जो एक प्रदेश है, वह समस्त जीवास्तिकाय से भिन्न ही होता है। इसलिये वह नोजीव कहा है । तथा अन न्तस्कन्धात्मक जो समस्त स्कंध है उसका एकदेश एकस्कंध होता है। से इस एकदेशरूप एकस्कन्ध का जो प्रदेश है वह समस्त स्कन्ध से भिन्न होने के कारण ना स्कंध कहा गया है । (एवं वयंत समभिरूढ़ संपह एवंभूमो भणह, जं जं भणसि तं तं सव्वं कसिणं पडिपुण्णं निरवसेसं एगगहणगहियं देसेऽवि मे अवन्थू, पएसेऽवि मे अवस्थू। से से तपएसदिट्टतेणं से तं नयप्रमाणे) इस प्रकार कहनेवाले समभिरूढनय से अब एवंभूत नय ने इस प्रकार कहा कि तुम जो २ कह रहे हो वह २ सब इस प्रकार से कहो कि ये जो धर्मास्तिकायादिक हैं वे समस्त हैं कृत्स्न देश, प्रदेश की कलानो से विहीन है, प्रतिपूर्णआत्मस्वरूप से अविकल हैं, निरवशेष-एक होने के कारण अवयव रहित है, और एक ग्रहण गृहीत हैं-एक नाम से कहे गये हैं। इसलिये ये सब एकवस्तुरूप है भिन्न २ वस्तुरूप नहीं है, ऐसा मत कहो कि, એક પ્રદેશ છે, તે સમસ્ત જીવાસ્તિકાય કરતાં ભિન્ન જ હોય છે. એથી તે “” જીવ કહેલ છે. તેમજ અનંત ધાત્મક જે સમસ્ત સકંધ છે, તેને એક દેશ એક સ્કંધ હોય છે, તે આ એક દેશરૂપ એક કંધને જે પ્રદેશ છે, તે સમસ્ત સ્કંધ કરતાં ભિન્ન હોવાથી અને સ્કષ કહેવાય છે. "एवं वयंत समभिरूढं संपइ एवंभूओ भणइ, जं जं भणसि त त सव्व कसिणं पढिपुण्णं निरवसेसं एगगहणगहियं देसेऽ वि मे अवत्थू , परसेऽवि मे अवत्थू से त पएसदिटुंतेण से तनयापमाणे) भाप्रमाणे ना२। समभि३० નયને એવભૂતનયે આ પ્રમાણે કહ્યું કે તમે જે કંઈ કહી રહ્યા છે, તે એવી રીતે કહો કે આ બધા જે ધર્માસ્તિકાયાદિકે છે તે સમસ્ત, કાન દેશ, પ્રદેશની કલપનાથી વિહીન છે, પ્રતિપૂર્ણ–આતમસ્વરૂપથી અવિરલ છે, નિરવશેષ-એક હોવાથી અવયવરહિત છે. અને એક બહણ ગ્રહીત થયેલા છે.