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है - 'पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय - ये षट्कायिक जीव संसार में हैं। इनके अतिरिक्त कोई जीव निकाय नहीं है । बुद्धिमान पुरुष इन षट्कायिक जीवों में 'सबको दुःख अप्रिय है' - ऐसा सम्यक् प्रकार से समझकर, सबके प्रति अहिंसा करें। ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् दिशा में जो भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनकी हिंसा से निवृत्ति को ही निर्वाण कहा गया है। अहिंसा की इतनी सूक्ष्म प्रतिपत्ति वीतराग वाणी में ही संभव है । स्थूल दृष्टिवान को जगज्जीवों के अस्तित्व को भी स्वीकारने में कठिनाई होती है फिर इनके प्रति अहिंसा का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
अहिंसा का उच्च आदर्श एवं इसकी पूर्णता को प्रकट करने वाला स्वर 'आत्मतुला' के रूप में मुखरित है - 'प्राणीमात्र को आत्म-तुल्य समझो।' विशेष कथन- 'छह जीव निकाय को अपनी आत्मा के समान समझो। एवं तुलमन्नेसिं' आदि सूक्त प्राणीमात्र के साथ समता का अन्वेषण करने की प्रेरणा देते हैं। भगवान महावीर की वाणी से इस प्रकार समता का स्वर निकला । आत्मौपम्य चेतना का अनुभव एकात्मवाद का फलित है । प्रश्न हो सकता है - ऐक्यबुद्धि- अभेदबुद्धि में कैसी अहिंसा ? प्रतिप्रश्न उठता है-आत्मैक्य के बिना कैसी अहिंसा? अहिंसा या दया आत्मनिष्ठ है, आत्मगुण है । वह आत्मा से उपजती है, समानता की भावना से पुष्ट होती है। तात्पर्य की भाषा में अहिंसा का अर्थ है - अपना बचाव । उसमें दूसरों की रक्षा या दया, जो भी कहें- अपने-आप हो जाता है I
आत्मानुभूति के आलोक में अहिंसा का सिद्धांत है - जो तुम स्वयं नहीं चाहते, दूसरों के लिए भी वैसा मत करो। तुम्हें सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय तो दूसरों को भी तुम दुःख मत दो, कष्ट मत दो, मत सताओ । सूत्रकृतांग सूत्र में इसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति है - जैसे मेरे लिए यह अप्रिय होता है, (यदि ) - डंडे, हड्डी, मुट्ठी, ढेले या खप्पर से मुझे कोई पीटे-मारे, तर्जना और ताड़ना दे, परितप्त और क्लांत करे, प्राण से वियोजित करे और यहां तक कि रोम उखाड़ने मात्र से भी हिंसा-कारक दुःख और भय का प्रतिसंवेदन करता हूं - ऐसा तुम जानो । इसी तरह किसी अन्य के प्राण, भूत, जीव और सत्त्व को डंडे से, अस्थि से, मुट्ठी से, ढेले से या खप्पर से कोई पीटे-मारे, तर्जना और ताड़ना दे, परितप्त और क्लांत करे, प्राण से वियोजित करे तब यहां तक कि रोम उखाड़ने मात्र से भी हिंसाकारक दुःख और भय का प्रतिसंवेदन करते हैं । (आत्मतुला से) ऐसा जानकर किसी भी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व को न मारे, न अधीन बनाए, न दास बनाए, न परिताप दे और न प्राण से वियोजित करे। यह धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है। इसका व्यापक दृष्टिकोण ध्वनित होता है - प्रत्येक आत्मा समान है। जैसे मुझे सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है वैसे ही एक छोटे से पौधे को भी दुःखानुभूति होती है।
आचारांग सूत्र का संदेश है - ' मतिमान् पुरुष जीवों के अस्तित्व का मननकर- सब जीव अभय चाहते हैं, इस आत्मतुला को समझकर - किसी की भी हिंसा नहीं करता ।" आत्मतुला की अनुभूति से भावित साधु पूर्ण अहिंसक जीवन जीने के संकल्प से छह जीवनिकाय की हिंसा का परित्याग करता है । जब आत्मतुला का विकास हुआ तब यही आत्मतुला अद्वैत के स्वर में मुखरित हुई । अहिंसा के संदर्भ में अद्वैत की प्रस्तुति है । 'जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है, जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है। इसके आशय को महाप्रज्ञ ने भाष्य में स्पष्ट किया - जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है । इस वाक्य
34 / अँधेरे में उजाला