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आगम के आलोक में आगम साक्षात् द्रष्टा की सत्यानुभूति का आलोक है। आगमों का माहात्म्य असीम है। वैदिक परंपरा में जो स्थान वेदों का, बौद्ध परंपरा में जो स्थान त्रिपिटक का, ईसाई मत में जो स्थान बाइबिल का
और इस्लाम में जो स्थान कुरान का है वही स्थान जैन परंपरा में आगमों का है। इनमें अहिंसा का प्रतिपादन आत्मानुभूति के आधार पर किया गया है। अहिंसा के विराट रूवरूप को प्रकट करने वाली अनेकशः परिभाषाएं आगमों में अंकित है। उनमें अहिंसा का विविधोन्मुखी स्वरूप प्रकट हुआ है। संयम, समता, आत्मतुला, मोक्षव्याप्ति, अणुव्रत, महाव्रत, आदर्श समाज-व्यवस्था के सूत्र इनमें प्रमुख हैं। प्रस्तुत संदर्भ में कतिपय परिभाषाओं का मनन अभीष्ट है।
सभी जीवों के प्रति संयमपूर्ण जीवन-व्यवहार ही अहिंसा है। यह अहिंसा के उच्च स्वरूप का निदर्शन है। इसमें सामान्य रूप से उठाई जाने वाली आपत्ति-'जैन लोग जितना प्राणी को न मारने पर बल देते हैं उतना मानसिक हिंसा या अहिंसा पर नहीं देते' का निरसन हुआ है। इसका स्पष्ट आशय है-वीतराग वाणी में हिंसा का अर्थ है-असंयम, अहिंसा का अर्थ है-संयम। हिंसा का अर्थ है-प्रमाद, अहिंसा का अर्थ है-अप्रमाद। संयम ही अहिंसा है, अप्रमाद ही अहिंसा है। इस विवेचन में मानसिक अहिंसा व हिंसा का समावेश स्पष्ट है। संयम का अर्थ है-निग्रह करना। अठारह पापों का निग्रह, प्रत्याख्यान। इस परिभाषा में अहिंसा का मूल हृदय समाविष्ट है। स्थूल दृष्टि व्यक्ति सूक्ष्मता को कम पकड़ पाता है। इसलिए अहिंसा के संदर्भ में यह निर्देश दिया गया-किसी को मारो मत। मत मारो-यह कहकर मनुष्य के मन में करुणा का भाव पैदा किया गया, अनुकंपा पैदा की गई। जब करुणा का विकास होता है तब वह न मारने तक ही सीमित नहीं रहता, उसमें प्रेम का भाव भी बढ़ता है। जिस व्यक्ति में प्रेम और मैत्री का भाव विकसित है, वह प्राणीमात्र के लिए मैत्री का विकास करेगा-यही संयम की फलश्रुति है।
'प्राणातिपात विरति ही अहिंसा है।' प्राणीमात्र की हिंसा न करने का दृढ़ संकल्पी ही अहिंसा महाव्रती होता है, जीवमात्र का रक्षक होता है। उसकी सर्व प्राणातिपात विरति की प्रतिज्ञा इसका पुष्ट प्रमाण है। शास्त्रकारों ने स्थान-स्थान पर मुनि को षड्जीवनिकाय का संरक्षक कहा है। उसका प्रयोजन-'सव्वजग्गजीवरक्खणदयठयारा पावायण भगवया सुकहिअ' भी चरितार्थ होता है जो कि भगवान महावीर ने अहिंसा की प्रवृत्ति करने के लिए किया। अहिंसा में सब जीवों की रक्षा या दया अपने-आप समाविष्ट है। जो अपने लिए अहिंसक यानी पूर्ण आत्मसंयमी है, वही दूसरों के लिए रक्षा या दया है। महावीर ने प्रवचन के विस्तार में अहिंसा का अनेक रूपों में प्रतिपादन किया है।
अहिंसा की सूक्ष्म मीमांसा-'मन, वचन और काया-इनमें से किसी एक के द्वारा भी किसी प्रकार के भी जीवों की हिंसा न हो-ऐसा व्यवहार ही संयम जीवन है। इस जीवन का निरंतर धारण ही अहिंसा है।25 अहिंसा के विकास की उच्च स्थिति में इसका पूर्ण पालन संभव होता है। अप्रमत्त मुनि ही इस कोटि की अहिंसा साध सकता है।
अहिंसा अणुव्रत को परिभाषित किया-मन, वचन और काय से तथा कृतकारित और अनुमोदन से त्रस जीवों की सांकल्पिक हिंसा का परित्याग करने को अहिंसा अणुव्रत कहते हैं। श्रावक अहिंसा की इस कोटि का साधना करता है। उसे लक्षित करके अहिंसा अणुव्रत का प्रतिपादन किया गया है।
भावनात्मक स्तर पर रागादि भावों की अनुभूति या अनुत्पत्ति को अहिंसा कहते हैं। इसमें
32 / अँधेरे में उजाला