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विस्तार के साथ प्रस्तुत किया गया - 'सभी प्राणियों को अपनी-अपनी आयु प्रिय है, सुख अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है । वध सबको अप्रिय है, जीना सबको प्रिय है । सब जीव लम्बे जीने की कामना करते हैं। सभी को जीवन प्रिय लगता है।"" संक्षेप में देखें तो जीव जगत् की जिजीविषा को देने वाला तत्त्व है -अहिंसा ।
यथार्थ की भूमिका पर अहिंसा की आधार भित्ति के दो महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं - अर्हत् अनुभूति से आचरित, उद्गिरित अहिंसा एवं प्राणीमात्र में पाने वाला जिजीविषाभाव ।
आचरण पक्ष
अहिंसाव्रती का प्रथम संकल्प समस्त हिंसात्मक क्रियाओं के परित्याग का है । आचारांग सूत्र में उल्लेख है—‘मैं अहिंसा धर्म में दीक्षित होकर हिंसा नहीं करूँगा ।"" प्रव्रज्या के समय मुनि षड्जीवनिकाय के संयम हेतु समुत्थित होता है, इसलिए वह बार-बार इस संकल्प को दोहराता है - 'अब मैं मुनि हो गया हूँ, षड्जीवनिकाय के संयम के लिए उठ चुका हूँ, इसलिए गृहस्थावस्था में मैंने जो वनस्पत्यादि जीवों का आरंभ किया है, उसे अब नहीं करूँगा । पूर्व जीवन की आलोचना पूर्वक साधक संयम साधना में उद्यत होता है । षड्जीवनिकाय के संयम पर बल देने का आशय है अहिंसा के सूक्ष्म रहस्य को पाना । षड्जीवनिकाय का उल्लेख आगमिक है- 'संसारी जीवों के छह निकाय (समुदाय) कहे गये हैं।" यथा पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय एवं त्रस काय |
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अहिंसा की अखंड साधना के लिए समर्पित व्यक्ति ही कर्म समारंभ से दूर रहता है- 'मेधावी उस कर्म समारम्भ का विवेक कर इन सूक्ष्म जीव-कायों के प्रति स्वयं दंड का प्रयोग न करें, दूसरों से न करवाए और करने वालों का अनुमोदन न करे। 18 हिंसा के लिए 'दंड' शब्द का प्रयोग इसके सूक्ष्मतर अंश का ग्राही है । भाष्यकार के अभिमत में - 'मुनि अहिंसा महाव्रत की साधना के लिए समर्पित होता है। उसने तीन करण और तीन योग से कर्म-समारंभ का परित्याग किया है। ऐसी साधना अहिंसा के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति के लिए ही संभव है, दूसरे के लिए नहीं ।" तीन करण और तीन योग का अर्थ है, वह मन से वचन एवं काया से न स्वयं करता है, न दूसरों से करवाता है, न ही करने वाले की हिंसा का अनुमोदन करता है ।
मुनि अहिंसा का पर्याय है । समणसुत्तं के अनुसार - 'जो ज्ञानी कर्म क्षय के लिए उद्यत हुआ है, हिंसा के लिए नहीं; वह निश्छलभाव से अहिंसा के लिए प्रयत्नशील रहता है । वह अप्रमत्त मुनि अहिंसक होता है।'2" अहिंसा प्रधान जीवन शैली के आधार पर समण का निर्युक्त किया गया - 'जो स्वयं न हनन करता है, न करवाता है और न करने वाले का अनुमोदन करता है, वह समण होता है ।" अपने इन गुणों के कारण ही समण को षड्जीवनिकाय का पीहर कहा गया है क्योंकि उससे समस्त प्राणियों को अभयदान मिलता है । भाष्य में स्पष्ट किया गया । 'आत्मरमण का पहला लक्षण है- अहिंसा । वह महान् अहिंसक व्यक्ति आत्मा में रमण करता हुआ किसी भी प्राणी की न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से कराता है और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है। 22
अहिंसा का मर्मज्ञ कौन ? - ' जो बन्ध से मुक्त होने की खोज करता है वह मेधावी अहिंसा के मर्म को जान लेता है । 23 अहिंसा के सूक्ष्म स्वरूप को जानने वाला ही उसकी अखंड आराधना का अधिकारी बन सकता है। हेतु, तर्क और तथ्यों के आधार पर समग्ररूप से अहिंसा को जानने वाला ही उसका ठीक-ठीक पालन करने में सफल हो सकता है।
अहिंसा का ऐतिहासिक स्वरूप / 31