Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१. अव्यथ—भयंकर से भंयकर उपसर्गों में भी विचलित-व्यथित नहीं होता।
२. असम्मोह—सूक्ष्म तात्त्विक विषयों में अथवा देवाधिकृत माया से सम्मोहित नहीं होता। उसकी श्रद्धा पूर्ण रूप से अडोल होती है।
३. विवेक—आत्मा और देह, ये दोनों पृथक् हैं—इसका सही परिज्ञान उसको होता है। वह पूर्ण रूप से जागरूक होता है।
___४. व्युत्सर्ग—वह सम्पूर्ण आसक्तियों से मुक्त होता है। वह प्रतिपल प्रतिक्षण वीतरागभाव की ओर गतिशील होता है।
भगवतीसूत्र और स्थानांग में शुक्लध्यान के क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति ये चार आलम्बन बतलाए हैं। शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं भी आगम साहित्य में प्रतिपादित हैं, वे इस प्रकार हैं
१. अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा—अनन्त भव-परम्परा के सम्बन्ध में चिन्तन करना।
२. विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तु प्रतिपल-प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, शुभ पुद्गल अशुभ में बदल जाते हैं, इत्यादि चिन्तन।
३. अशुभानुप्रेक्षा—संसार के अशुभ स्वरूप पर चिन्तन करने से उन पदार्थों के प्रति आसक्ति समाप्त होती है और मन में निर्वेद भाव पैदा होता है।
४. अपायानुप्रेक्षा—पाप के आचरण से अशुभ कर्मों का बन्धन होता है, जिससे आत्मा को विविध गतियों में परिभ्रमण करना पड़ता है, अत: उनके कटु परिणाम पर चिन्तन करना।
ये चारों अनुप्रेक्षाएँ शुक्लध्यान की प्रारम्भिक अवस्थाओं में होती हैं, जब धीरे-धीरे स्थिरता आ जाती है तो स्वतः ही बाह्योन्मुखता समाप्त हो जाती है।
आभ्यन्तर तप का छठा प्रकार व्युत्सर्ग है। इस तप की साधना से जीवन में निर्ममत्व, निस्पृहता, अनासक्ति और निर्भयता की भव्य भावना लहराने लगती है। व्युत्सर्ग में 'वि' उपसर्ग है। 'वि' का अर्थ है—विशिष्ट और उत्सर्ग का अर्थ है त्याग। आशा और ममत्व आदि का परित्याग ही व्यत्सर्ग है। दिगम्बर आचा तत्त्वार्थराजवार्तिक में व्यत्सर्ग की परिभाषा करते हए लिखा है निस्संगता. अनासक्ति निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग उत्सर्ग है। आत्मसाधना के लिए अपने-आप का उत्सर्ग करना व्यत्स आचार्य भद्रबाहु ने व्युत्सर्ग करने वाले साधक के अन्तर्मानस का चित्रण करते हुए लिखा है—यह शरीर अन्य है और मेरा आत्मा अन्य है। शरीर नाशवान् है, आत्मा शाश्वत है। व्युत्सर्ग करने वाला साधक स्व के यानी आत्मा के निकट से निकटतर होता चला जाता है और पर की ममता से मुक्त होता है।
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भगवती सूत्र २५/७ स्थानांगसूत्र ३/१ नि:संग-निर्भयत्व-जीविताशा-व्युदासाद्यर्थो व्युत्सर्गः। आवश्यकनियुक्ति. १५५२
-तत्त्वार्थराजवार्तिक ९/२६/१० .
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