Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रकार धर्मध्यान को सुस्थिर रखने के लिये धर्मध्यान के चार आलम्बन भी बताये गये हैं—१. वाचना, २. पृच्छना, ३. परिवर्तना और ४. धर्मकथा। धर्मध्यान के समय जो चिन्तन तल्लीनता प्रदान करता है, उस चिन्तन को हम अनुप्रेक्षा कहते हैं। अनुप्रेक्षा के भी चार प्रकार हैं-१. एकत्वानुप्रेक्षा, २. अनित्यानुप्रेक्षा, ३. अशरणानुप्रेक्षा एवं ४. संसारानुप्रेक्षा । इन चारों भावनाओं से मन में वैराग्य भावना तरंगित होती है। भौतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण न्यून हो जाता है। धर्मध्यान से जीवन में आनन्द का सागर ठाठे मारने लगता है।
धर्मध्यान में मुख्य तीन अंग है—ध्यान, ध्याता और ध्येय। ध्यान का अधिकारी ध्याता कहलाता है। एकाग्रता ध्यान है। जिसका ध्यान किया जाता है. वह ध्येय है। चंचल मन वाला व्यक्ति ध्यान नहीं कर सकता। जहाँ आसन की स्थिरता ध्यान में अपेक्षित है, वहाँ मन की स्थिरता भी बहुत अपेक्षित है। इसीलिये ज्ञानार्णव में लिखा है, जिसका चित्त स्थिर हो गया है, वही वस्तुतः ध्यान का अधिकारी है। ध्येय के सम्बन्ध में तीन बातें हैं—एक परावलम्बन, जिसमें दूसरी वस्तुओं का अवलम्बन लेकर मन को स्थिर करने का प्रयास किया जाता है। श्रमण भगवान् महावीर अपने साधनाकाल में एक पुद्गल पर दृष्टि केन्द्रित करके ध्यान मुद्रा में खड़े रहे थे। जब एक पुद्गल पर दृष्टि केन्द्रित होती है तो मन स्थिर हो जाता है। इसे त्राटक भी कह सकते हैं।
ध्यान का दूसरा प्रकार स्वरूपावलम्बन है, इसमें बाहर से दृष्टि हटाकर नेत्रों को बन्द कर विविध प्रकार की कल्पनाओं से यह ध्यान किया जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में, आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत जो ध्यान के प्रकार और उनकी धारणाओं के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण किया है, वह सब स्वरूपावलम्बन ध्यान के अन्तर्गत ही हैं। मैंने 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' ग्रन्थ में विस्तार से इस सम्बन्ध में लिखा है। जिज्ञासु पाठक उसका अवलोकन करें।
__ तीसरा प्रकार है—निरावलम्बन । इसमें किसी भी प्रकार का कोई आलम्बन नहीं होता। मन विचार, विकार और विकल्पों से शून्य होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने जो रूपातीत ध्यान प्रतिपादित किया है—वह यही है। इसमें निरंजन, निराकार सिद्ध स्वरूप का ध्यान किया जाता है और आत्मा स्वयं कर्म-मल से मुक्त होने का अभ्यास करता है। इस ध्यान में साधक यह समझता है कि मैं अलग हूँ और इन्द्रियाँ व मन अलग हैं। साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है। रूप से अरूप की ओर बढ़ने के लिये अत्यधिक अभ्यास की आवश्यकता है। रूपातीत ध्यान जब सिद्ध हो जाता है, तब भेदरेखा स्वतः ही समाप्त हो जाती है। ध्याता, ध्येय और ध्यान—तीनों एकाकार हो जाते हैं, जैसे सागर में नदियाँ मिलकर एकाकार हो जाती हैं। तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी विभिन्न टीकाओं में ध्यान का सारगर्भित प्रतिपादन किया गया है।
ध्यान का चतुर्थ प्रकार शुक्लध्यान है। यह ध्यान की परम विशुद्ध अवस्था है। जब साधक के अन्तर्मानस से कषाय की मलीनता मिट जाती है, तब निर्मल मन से जो ध्यान किया जाता है, वह शुक्लध्यान है। शुक्लध्यानी का अन्तर्मानस वैराग्य से सराबोर होता है। उसके तन पर यदि कोई प्रहार करता है, उसका छेदन या भेदन करता है, तो भी उसको संक्लेश नहीं होता। देह में रहकर भी वह देहातीत स्थिति में रहता है। शुक्लध्यान के शुक्ल
१. एगपोग्गलनिविट्ठदिट्ठिए। भगवतीसूत्र ३/२ २. निरंजनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्याद् रूपवर्जितम्। -योगशास्त्र १०/१ ३. तत्त्वार्थसूत्र ९/३७-३८
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