________________ प्रकाशित हुयी। वि. सं. 2033 में मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पणों के साथ जैन विश्वभारती से इस का एक प्रशस्त संस्करण भी प्रकाशित हआ है। इसके अतिरिक्त अनेक संस्करण मूल रूप में भी प्रकाशित हए हैं। स्थानकवासी परम्परा के आचार्य धर्मसिंहमुनि ने अट्रारहवीं शताब्दी में स्थानांग पर टब्बा (टिप्पण) लिखा था। पर अभी तक वह प्रकाशित नहीं हुप्रा है। प्रस्तुत संस्करण समय-समय पर युग के अनुरूप स्थानांग पर लिखा गया है और विभिन्न स्थानों से इस सम्बन्ध में प्रयास हुए। उसी प्रयास की लड़ी की कड़ी में प्रस्तुत प्रयास भी है। श्रमण-संघ के युवाचार्य मधुकर मुनिजी एक प्रकृष्ट प्रतिभा के धनी सन्तरत्न हैं, मेरे सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्करमूनिजी म. के निकटतम स्नेही, सह्योगी व सहपाठी हैं। उनकी वर्षों से यह चाह थी कि पागमों का शानदार संस्करण प्रकाशित हो, जिसमें शुद्ध मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद और विशिष्ट स्थलों पर विवेचन हो / यूवाचार्यश्री के कुशल निर्देशन में प्रागमो का सम्पादन और प्रकाशन कार्य प्रारम्भ हुआ और वह अत्यन्त द्रुतगति के साथ चल रहा है। प्रस्तुत प्रागम का अनुवाद और विवेचन दिगम्बर परम्परा के मूर्धन्य मनीषी पं. हीरालालजी शास्त्री ने किया है / पण्डित हीरालाल जी शास्त्री नींव की ईट के रूप में रहकर दिगम्बर जैन साहित्य के पुनरुद्धार के लिये जीवन भर लगे रहे / प्रस्तुत सम्पादन उन्होंने जीवन की सान्ध्य वेला में किया है। सम्पादन सम्पन्न होने पर उनका निधन भी हो गया। उनके अपूर्ण कार्य को सम्पादन-कला-मर्मज्ञ पण्डितप्रवर शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने बहत ही श्रम के साथ सम्पन्न किया / यदि सम्पादन में अधिक श्रम होता तो अधिक निखार आता / पण्डित भारिल्ल जी की प्रतिभा का चमत्कार यत्र-तत्र निहारा जा सकता है। स्थानांग पर मैं बहुत ही विस्तार के साथ प्रस्तावना लिखना चाहता था। किन्तु मेरा स्वास्थ्य अस्वस्थ हो गया। इधर ग्रन्थ के विमोचन का समय भी निर्धारित हो गया। इसलिये संक्षेप में प्रस्तावना लिखने के लिये मुझे विवश होन पड़ा ! तथापि बहुत कुछ लिख गया हूँ और इतना लिखना अावश्यक भी था। मुझे आशा है कि यह संस्करण आगम अभ्यासी स्वाध्यायप्रेमी साधकों के लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। आशा है कि अन्य प्रागमों की भांति यह पागम भी जन-जन के मन को लुभायेगा। श्रीमती वरजुवाई जसराज रांका देवेन्द्रमुनि शास्त्री स्थानकवासी जैन धर्मस्थानक राखी (राजस्थान) ज्ञानपंचमी 2 / 11 / 1981. [ 53 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org