________________ हैं, बरसते हैं (3) गर्जते हैं बरसते हैं (4) गर्जते भी नहीं, बरसते भी नहीं हैं। अंगुत्तरनिकाय२७४ में प्रत्येक भंग में पुरुष को घटाया है-(१) बहुत बोलता है पर करता कुछ नहीं है (2) बोलता नहीं है पर करता है। (3) बोलता भी नहीं है करता भी नहीं (4) बोलता भी है और करता भी है। इस प्रकार गर्जना और बरसना रूप चतुर्भगी अन्य रूप से घटित की गई है। ___स्थानांग२७५ में कुम्भ के चार प्रकार बताये हैं--(१) पूर्ण और अपूर्ण (2) पूर्ण और तुच्छ (3) तुच्छ और पूर्ण (4) तुच्छ और अतूच्छ / इसी तरह कुछ प्रकारान्तर से अंगुत्तरनिकाय२७६ : पुरुष चतुभंगी से घटित की है (1) तुच्छ-खाली होने पर ढक्कन होता है (2) भरा होने पर भी ढक्कन नहीं होता / (3) तुच्छ होता है पर ढक्कन नहीं होता। भरा हुआ होता है पर ढक्कन नहीं होता। (1) जिस की वेश-भूषा तो सुन्दर है किन्तु जिसे आर्यसत्य का परिज्ञान नहीं है, वह प्रथम कुम्भ के सदश है। (2) आर्यसत्य का परिज्ञान होने पर भी बाह्य प्राकार सुन्दर नहीं है तो वह द्वितीय कुम्भ के समान है (3) बाह्य आकार भी सुन्दर नहीं और आर्यसत्य का परिज्ञान भी नहीं है। (4) प्रार्यसत्य का भी परिज्ञान है और बाह्य आकार भी सुन्दर है, वह तीसरे-चौथे कुंभ के समान है। स्थानांग२७७ में साधना के लिये शल्य-रहित होना आवश्यक माना है। मज्झिम निकाय२७८ में तृष्णा के लिये शल्य शब्द का प्रयोग हया है और साधक को उस से मुक्त होने के लिये कहा गया है। स्थानांग२७६ में नरक, तियंच, मनुष्य और देव गति का वर्णन है। मज्झिमनिकाय२८° में पाँच गतियाँ बताई हैं। नरक, तिर्यक प्रेत्यविषयक, मनुष्य और देवता / जैन आगमों में प्रत्यविषय और देवता को एक कोटि में माना है। भले ही निवासस्थान की दष्टि से दो भेद किये गये हों पर गति की दृष्टि से दोनों एक ही है। स्थानांग२८१ में नरक और स्वर्ग में जाने के क्रमश: ये कारण बताये है-महारम्भ, महापरिग्रह, मद्यमांस का आहार, पंचेन्द्रियवध / तथा सराग संयम, संयमासंयम, बालतप और अकामनिर्जरा ये स्वर्ग के कारण हैं मज्झिमनिकाय२८२ में भी नरक और स्वर्ग के कारण बताये गये हैं (कायिक, 3) हिंसक, अदिनादायी, (चोर) काम में मिथ्याचारी, (वाचिक 4) मिथ्यावादी चुगलखोर परुष-भाषी, प्रलापी (मानसिक, 3) अभिध्यालु व्यापन्नचित्त, मिथ्याष्टि। इन कर्मों को करने वाले नरक में जाते हैं, इसके विपरीत कार्य करने वाले स्वर्ग में जाते हैं। स्थानांग 283 में बताया है कि तीर्थकर, चक्रवर्ती, पुरुष ही होते हैं किन्तु मल्ली भगवती स्त्रीलिंग में तीर्थकर हुई हैं / उन्हें दश प्राश्चर्यों में से एक आश्चर्य माना है। अंगुत्तरनिकाय 284 में बुद्ध ने भी कहा कि भिक्ष यह तनिक भी संभावना नहीं है कि स्त्री अर्हत, चक्रवर्ती व शुक्र हो। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्थानांग विषय-सामग्री की दृष्टि से प्रागम-साहित्य में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण 274. अंगुत्तरनिकाय 4110 275. स्थानांग 4 / 360 276. अंगुत्तरनिकाय 41103 / 277. स्थानांग-सू. 182 278. मज्झिमनिकाय-३-१-५ 279. स्थानांग–स्थान 4 280. मज्झिमनिकाय 1-2-2 281. स्थानांग स्थान 4 उ. 4 सू. 373 282. मज्झिमनिकाय 1-5-1 283. स्थानाङ्ग-स्थान 10 284. अंगुत्तरनिकाय [51 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org