Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अवशेष हैं, उन्हें भी नष्ट किया जाए। उनका क्षय करने के लिए तप-साधना आवश्यक है। अतः तप-साधना पर निष्ठा रखकर यथाशक्य उसे आचरण में लाना चाहिए।
चतुर्थ उद्देशक में बताया है कि साधना का मार्ग वीरों का मार्ग है। इस पर चलना कठिन है। इसके लिए साधक को शारीरिक ममत्व एवं सुखों का त्याग करना पड़ता है।
'अन्त में कहा गया है कि वस्तुतः तत्त्वज्ञ या श्रद्धा-निष्ठ वह है, जो कर्म को फल-प्रदाता समझता है, उसे संसार का कारण जानता है और उस पर विश्वास करके कर्म-बन्ध के कारणों से निवृत्त होने का प्रयत्न करता है।
वस्तुतः श्रद्धा-निष्ठ या सम्यक्त्वी वह है, जो अहिंसा पर श्रद्धा रखता है, जो आस्रव एवं संवर के मूलभूत कारण को जानता है, जो तप-साधना को निर्जरा का कारण मानता है और जो कर्म-बन्ध के साधनों को त्याज्य समझता है। साधक वह है, जो इस प्राणवन्त श्रद्धा को जीवन में, आचरण में उतारने का प्रयत्न करता है। पंचम अध्ययन ___ इस लोकसार अध्ययन के 6 उद्देशक हैं। वस्तुतः धर्म ही लोक में सारभूत तत्त्व है। धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है और संयम का सार निर्वाण है। प्रस्तुत अध्ययन में इसी का विस्तार से वर्णन किया गया है।
- प्रथम उद्देशक के पहले सूत्र में कहा गया है-“जो व्यक्ति प्रयोजन या निष्प्रयोजन से जीवों की हिंसा करते हैं, वे सदा उन्हीं जीवों में घूमते हुए दुःखों का अनुभव करते हैं।" क्योंकि हिंसा से कर्मबन्ध होता है और कर्मबन्ध से संसार बढ़ता है। अतः हिंसक प्राणी संसार को पार नहीं कर सकते। इसके आगे कहा गया है कि "वे न
भोगों के अन्दर हैं और न उनसे दूर हैं।" इसका अभिप्राय यह है कि जीव विषय-भोगों .. के मध्य में रहते हुए भी सभी भोगों को भोग नहीं सकता। इसलिए वह पूर्णतः उनके मध्य में भी नहीं है और सब भोगों को भोगने की शक्ति न होने पर भी उसका मन सदा भोगों में घूमता रहता है, अतः वह भोगों से दूर भी नहीं है। अतः संसार से वही दूर है, जो हिंसा एवं भोगों का त्याग कर चुका है और जो मन में उत्पन्न संशय अथवा जिज्ञासा का यथार्थ परिज्ञान कर चुका है। परन्तु जिसने हिंसा एवं भोगों का त्याग नहीं किया है और संशय का भी निवारण नहीं किया है, वह संसार से पार नहीं