Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
59
__ प्रथम उद्देशक का प्रथम वाक्य है- 'सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरंति', अर्थात् अमुनि सुषुप्त-सोए हुए हैं और मुनि सदा जागृत रहते हैं। प्रस्तुत प्रसंग में आध्यात्मिक या भाव निद्रा एवं जागरण से तात्पर्य है। प्रमाद सर्वत्र अहितकर है, हानिप्रद है और अप्रमाद सर्वत्र सुखप्रद एवं लाभप्रद होता है। यह सबके अनुभव की बात है।
द्वितीय उद्देशक के प्रथम वाक्य में कहा है “प्रबुद्ध पुरुष को जब मोक्ष का ज्ञान हो जाता है, तब वह पाप-कर्म नहीं करता है।" उसकी भावना में पाप के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है। इसके पश्चात् इसका स्पष्ट चित्रण किया गया है कि पाप-कर्म करने से जीव किस प्रकार दुःखी होता है। अतः इस बात को जानने वाला आतंकदर्शी साधक पाप कर्म नहीं करता; क्योंकि पाप कर्म में वही प्रवृत्त होता है, जिसे जीव-अजीव आदि का एवं हिंसा के फल का बोध नहीं है।
तृतीय उद्देशक के प्रारम्भ में कहा गया है कि “साधक सब प्राणियों को आत्म-दृष्टि से देखे। किसी भी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की हिंसा न करे।” इसमें आगे कहा गया है-“हे पुरुष! तू ही अपना मित्र है, अतः बाह्य मित्रों की खोज क्यों करता है? तू आत्मा का ही आश्रय ले, उसका ही चिन्तन एवं शोधन कर। वस्तुतः यही दुःख-मुक्ति का मार्ग है।" जो साधक आत्मा का चिन्तन करता है और रात-दिन इसी को शुद्ध बनाने का प्रयत्न करता है, वह पूर्ण शान्ति को प्राप्त करता है।
चतुर्थ उद्देशक में कहा गया है-“मुनि, क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन करता है। यह त्यांग-मार्ग ही उस पश्यक-तीर्थंकर का दर्शन है।” आगे कहा गया है कि “जो एक अपनी आत्मा को जान लेता है, वह सब को जान लेता है और जो सबको जान लेता है, वह एक को जान लेता है।” आगे चलकर एक और महत्त्वपूर्ण बात कही गई है कि “प्रमादी को सर्वत्र भय है और अप्रमादी को कहीं भी भय नहीं है।” क्योंकि प्रमादी हिंसा का सहारा लेता है और हिंसा के साधन-भूत शस्त्र एक-दूसरे से अधिक तीक्ष्ण होते हैं, इसलिए उसे रात-दिन भय बना रहता है। परन्तु अहिंसा में तीक्ष्णता नहीं है। उसमें समानता है। इसलिए शस्त्र का परित्याग करने वाला व्यक्ति कभी भी भय को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि वह किसी भी प्राणी को भय नहीं देता है। उसके जीवन के किसी भी कोने में विषमता नहीं है। उसके जीवन में एकरूपता है, अखण्डता है। अतः साधक को अपने आत्म-स्वरूप का परिज्ञान करके भाव