Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ২০১৪ वर्ष ७; अंक ७,८ नवम्बर-दिसम्बर १९७७ कार्तिक-मार्गशीर्ष ৰী.লি. স. ২৪০৪ মগ্র জয় ৩৭-০০ TO '৷ নিগী লীগদল জল-মানাভি-সক ।।। For Personal & Prival Use of Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो प्रसंग -रमेश मुनि मांगलिक श्रवण : आदिवासी का संकल्प घटना वि. सं. १९७७ की है, जब जैन दिवाकरजी महाराज रतलाम क्षेत्र को पावन कर रहे थे । मंगल प्रभात-वेला में मनिवृन्द के साथ जंगल की ओर जाते हुए एक दिन महाराज श्री ने नगर के बाहर एक बैलगाड़ी के नजदीक एक आदिवासी दम्पत्ति का करुण क्रन्दन भुना। 'मामा रो क्यों रहे हो? क्या कुछ खो गया है ?' महाराज श्री ने मधुर वाणी में पूछा। आदिवासी भाई आर्त स्वर में बोला-'महात्माजी, मेरा २० बरस का बीमार बच्चा अब नहीं बचेगा। ऐसा इलाज करने वालों ने कहा है । इसलिए हम लोग अब इसे घर ले जा रहे हैं। लाश की तरह बैलगाड़ी में लेटा पड़ा है। यह न बोलता-चालता है और न खाता-पीता है। यह अकेला पुत्र है।' अन्तिम वाक्य जीभ पर आते-आते उस भाई की आत्मा कराह उठी । दृश्य बड़ा करुण था; संत की सान्त्वनात्मक वाणी प्रस्फुटित हो उठी-'मामा, धीरज रखो, मैं अभी भगवान (मांगलिक) का नाम सुनाये देता हूँ । तेरे बेटे का कल्याण होगा।' ___ मांगलिक सूत्र श्रवण कराया और गरुदेव ने आदिवासी से गुप्त वात प्रकट करते हारा कहा-'अपने बेटे को घर ले जा, अब इसका कल्याण हुआ समझ ।' घर पहुँचे । देखा तो दम दिन के अन्दर लड़का बिल्कुल चंगा हो गया। उस दम्पत्ति के दिल में श्री गुरुदेव के प्रति असीम श्रद्धा जम गयी । जब कभी कोई उस बच्चे के विषय में जिज्ञासा करता तो उनके मुँह से यही निकलता 'यह तो मर गया था, मगर उस महात्मा ने इसे मंत्र सुनाकर अच्छा किया' । एक दिन आदिवासी दम्पत्ति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए कुछ भेंट लेकर महाराजश्री को तलाश करते हुए जब रतलाम पहुँचे तो रात्रि एक धर्मशाला में व्यतीत कर जहाँ पहली बार मिले थे, वहाँ जाकर गुरुदेव के आगमन की राह देखने लगे। जिनका न तो उन्हें नाम ही मालूम था और न ही निवास स्थान का कोई निश्चित पता ही। प्रतीक्षा करते अधिक देर नहीं हुई कि मनिश्री आते दिखायी दिये। उन्हें देख आदिवासी दम्पत्ति भक्ति-विहल हो उठे । चरण पकड़कर गुरुदेव को याद दिलाते हुए बोले-'आप भूल गये । आप ही ने तो मंत्र सुनाकर मेरे बच्चे को जीवनदान दिया है । आप मेरे लिए महात्मा नहीं साक्षात् परमात्मा हैं । इसलिए भेंट के रूप में कुछ टिमरू, चारोली और १० रुपये लेकर आया हूँ और खेती पकने पर मक्का भी लाऊँगा । आप यह सब स्वीकार करें।' - गुरुदेव उसकी कृतज्ञता पर प्रसन्न होकर बोले--'भला मैं तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ, किन्तु मामा ! 'भेंट तो मैं नहीं लेता, मुझे सचमुच ही प्रसन्न रखना चाहते हो तो फिर वादा करो कि तुम दोनों जीवन-पर्यन्त शिकार नहीं करोगे, किसी त्यौहार पर पशु-बलि नहीं चढ़ाओगे, मांस-मदिरा का सेवन नहीं करोगे ; क्या ये चार बातें मंजूर हैं ?' 'चारों बात कर क्यों नहीं पायेंगे? हमें आपकी चारों बातें मंजर हैं। हम प्रतिज्ञा करते हैं कि आपको दिये गये वचन का पूर्ण पालन करेंगे।' इस तरह प्रतिज्ञा लेकर आदिवासी दम्पत्ति अपने गाँव की ओर चल दिये। → For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਕੀਦ विचार-मासिक (सद्विचार की वर्णमाला में सदाचार का प्रवर्तन) मुनिश्री चौथमल जन्म-शताब्दि-अंक वर्ष ७, अंक ७-८; नवम्बर-दिसम्बर १९७७ कार्तिक-मार्गशीर्ष ; वी. नि. सं. २५०४ संपादक : डा. नेमीचन्द जैन प्रबन्ध संपादक : प्रेमचन्द जैन वार्षिक शुल्क : दस रुपये प्रस्तुत अंक : पाँच रुपये विदेशों में : तीस रुपये आजीवन : एक सौ एक रुपये ६५ पत्रकार कॉलोनी, कनाडिया रोड, इन्दौर-४५२ ००१ दूरभाष : ५८०४ नईदुनिया प्रेस केसरबाग रोड, इन्दौर-२ से मुद्रित हीरा भैया प्रकाशन For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या | कहाँ प्रणाम, एक सूरज को -संपादकीय -आचार्य आनन्दऋषि -मुनि कन्हैयालाल 'कमल' -विपिन जारोली पारस-पुरुष जैन दिवाकरजी : एक पारस-पुरुष चौथमल : एक शब्दकथा जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमलजी : संक्षिप्त जीवन-झांकी मुनिश्री चौथमल-साहित्य 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' के कुशल शिल्पी : मुनिश्री चौथमलजी जैन दिवाकर : एक विलक्षण व्यक्तित्व वन्दन, अभिनन्दन ! (कविता) प्रवचन-मणियाँ -डा. सागरमल जैन -देवेन्द्र मुनि शास्त्री -विपिन जारोली -मुनि चौथमल ३९-७२ अवदान मूर्तिमन्त अनेकान्त (पं. नाथूलाल शास्त्री), सत्यान्वेषी सन्त मुनिश्री चौथमलजी (दुर्गाशंकर त्रिवेदी), एक अलग शैली (सौभाग्य मुनि), एक निःस्पृह महापुरुष (फतेलाल संघवी), वे अक्षर पुरुष थे (पारसरानी मेहता), गागर में सागर वे (रंग मुनि), मुझे याद है (सौभाग्यमल कोचट्टा), युग का एक महान् चमत्कार (बापूलाल बोथरा), एक आस्था स्तम्भ (सुभाष मुनि), उनके आदर्शों को आत्मसात् करें (दिनेश मुनि), मुझे दीक्षा दीजिये (प्रताप मुनि), वाणी में गहन प्रभाव (महासती रामकुंवरजी), साहित्य की श्रीवृद्धि (विमल मुनि), अक्षर अध्यात्म (अशोक मुनि), जीवन की प्रमुख घटनाएँ (पं. मुनि हीरालालजी), प्यार ही प्यार-प्रीति ही प्रीति (कान्ति मुनि), परोपकारी प्रखर वक्ता (साध्वी मधुबाला), कर्तव्य में कठोर (सावी मदनकुंवर), उनकी पावन स्मृति (साध्वी विजयकुंवर), प्रेम के देवपुरुष (भगवती मुनि 'निर्मल'), विराट योगी (भुवनेश्वरी भंडारी), कान्तदर्शी जैन दिवाकर (फकीरचन्द मेहता), एक महान् सन्त (गुलाबचन्द भंडारी), वसुधा मेरा कुटुम्ब (हरबन्सलाल), विशाल वटवृक्ष (मंजुला तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेन) पानी में मीन पियासी (जवाहरलाल मुणोत), 'यह महापुरुष होगा' (सौभाग्यमल संघवी), एक लोकगीतकार (बद्रीलाल जैन), कुछ घटनाएँ, कुछ यादें (चाँदमल मारू), उनके मार्ग पर चलें (बागमल जैन), जीवन ही बदल गया (नथमल सागरमल लुंकड़) श्रद्धाञ्जलि : काव्याञ्जलि ७३-९९ जीना जिसने सीखा, मरना वही सिखा सकता है (साध्वी प्रीतिसुधा), समन्वयवादी सन्त (आचार्य आनन्दऋषि), अनुसरण में सार्थकता (उपाध्याय विद्यानन्द मुनि), करुणा की साक्षात् मूर्ति (उपाध्याय अमर मुनि), जिनशासन के रत्न (अम्बालालजी म.), भव्यतम व्यक्तित्व (सौभाग्य मुनि 'कुमुद'), आत्मजागृति के उन्नायक (रत्न मुनि), जैन एकता के अग्रदूत (सुरेश मुनि), हार्दिक शुभकामनाएँ (ब. दा. जत्ती), महान् साधक और सन्त को श्रद्धांजलि (भैरोंसिंह शेखावत), समन्वय के प्रेरक (श्रेयांसप्रसाद जैन), हार्दिक प्रसन्नता (भागचन्द सोनी), श्रमणधारा के तेजस्वी साधक (मिश्रीलाल गंगवाल), मानव-सेवा के पथ पर समर्पित व्यक्तित्व (सुगनमल भंडारी), तेजस्वी पुण्यात्मा (बाबूलाल पाटोदी), अहिंसा-धर्म के महान् प्रचारक (डा. ज्योतिप्रसाद जैन), उच्चकोटि के व्याख्यानदाता (अचलसिंह), चौमुखी व्यक्तित्व के धनी (पारस जैन), लोकप्रिय क्रान्तिकारी मुनि (सौभाग्यमल जैन), पतितोद्धारक (भूरेलाल बया), शुभकामनाएँ और प्रणाम (द्वारका प्रसाद पाटोदिया), पतितों-दुखियारों के परमसखा (प्रतापसिंह बेद), वात्सल्य के प्रतीक (भगतराम जैन), जाज्वल्यमान नक्षत्र (सुन्दरलाल पटवा), एकता-संवेदना-करुणा की त्रिवेणी (चन्दनमल चाँद), मैत्री-भावना के महान् साधक (फतहसिंह जैन), लोकोपयोगी मार्गदर्शन (अभयराज नाहर), एक आलोक-पुंज (निर्मलकुमार लोढ़ा), आदर्श के अखंड स्रोत (अशोककुमार नवलखा), समर्पित जीवन के ज्वलन्त उदाहरण (एस. हस्तीमल जैन), आदर्श कर्मयोगी (कपूरचन्द सुराणा); वे थे ऐसे (मुनि रूपचन्द्र ‘रजत'), दिवाकरोऽयम् (श्रीधर शास्त्री), वन्दना (नानालाल जवरचन्द रूनवाल), उन जैसा कुछ तो करें (घेवरचन्द जैन), वह पिये संगठन के प्याले (मुनि भास्कर), आत्मज्ञान के अनुपम साधक (जितेन्द्र मुनि), अगर ठहर जाता थानक पर (गणेश मुनि शास्त्री), जैन दिवाकरोऽभूत् (सुभाष मुनि), तुभ्यं नमः (मुनि उदयचन्द), धण्णो य सो दिवायरो (उमेश मुनि अणु'), ज्ञान का प्रकाश मिला (मोतीलाल सुराना), महामनस्वी (श्रमण सूर्य श्री मिश्रीलाल महाराज), सुरज आज अस्त वे गयो (मनोहरलाल नागोरी), संघ-ऐक्य के अग्रदूत वे (विजयकुमार जैन), वास्तविकता राब को समझाई (ताराचन्द मेहता), पीड़ाएँ हो गयीं तिरोहित (निर्मल 'तेजस्वी'); जैन दिवाकर पंच-पंचाशिका- पचपनिका (मुनि घासीलाल महाराज) महामनस्वी साधक संत मुनि श्री चौथमलजी -उपाध्याय कस्तूरचन्द महाराज १०० एक संपूर्ण संत पुरुष -केवल मुनि 'सब को अपना मानो, अपने जैसा मानो' -अगरचन्द नाहटा १०१ चौ. ज. श. अंक m For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ १०८ १०९ २,३ ११५ १२५ १२९ १३० ० एक देवदूत की भूमिका में -हस्तीमल क्षेलावत प्रवचन-मेघ, जीवन-धरती -ईश्वर मुनि जैसी करनी, वैसी भरनी -श्रीमती गिरिजा 'सुधा' 'क्या चौथमलजी महाराज पधारे हैं ?' -रिखबराज कर्णावट मांगलिक श्रवण : आदिवासी का संकल्प ; किन्तु भूलकर भी आत्महत्या नहीं करूँगा -रमेश मुनि आवरण जैन धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति अध्यात्म-रहस्यों की खोज .. -मुनि नथमल चारित्र ही मन्दिर है -उपाध्याय मुनि विद्यानन्द 'सममसार' की पन्द्रहवीं गाथा -उपाध्याय मुनि विद्यानन्द स्थानक अर्थात् इमारत नहीं, आत्मालय -उपाध्याय मधुकर मुनि प्रतिक्रमण |प्रतिलेखन (कविता) -रत्नेश 'कुसुमाकर' समाज और सिद्धान्त -मुनि मोहनलाल 'शार्दूल' महामन्त्र णमोकार : कुछ प्रश्न-चिहन -प्रतापचन्द्र जैन जैन संस्कृति : विश्व संस्कृति की अन्तरात्मा -मुनि महेन्द्रकुमार 'कमल' धर्म : उत्पत्ति और अस्तित्व -स्व. पं. 'उदय' जैन संवत्सरी : एक विचारणीय पक्ष -सौभाग्यमल जैन विशेष गोयलीयजी : बेटे के आईने में -श्रीकान्त गोयलीय 'जब गोम्मटसार प्रकाशित हुआ . . किन्तु अब ? -लक्ष्मीचन्द्र जैन • • “एक गीत ईमान का (कविता) -बाबूलाल जैन 'जलज' कसौटी (पुस्तक-समीक्षा) समाचार-परिशिष्ट तीर्थकर : और तीन वर्ष (मई १९७५ से अप्रैल १९७७) १३१ r १३३ ur १४१ १४३ १५७ १६२ १६३ १७७ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय प्रणाम, एक सूरज को जैनों का एक वर्ग मुनिश्री चौथमलजी का जन्म-शताब्दि-समारोह संपन्न कर रहा है, समारोह पूरे वर्ष चलेगा और उसके अन्तर्गत क़िस्म-क़िस्म के आयोजन होंगे, इन आयोजनों का आकार क्या होगा, व्यक्तित्व कैसा होगा, लक्ष्य क्या होगा, प्रायः सभी आयोजक इस संबन्ध में अनिश्चित और अनिश्चिन्त हैं, जहाँ तक हम देख पाये हैं, देख रहे हैं, अधिकांश लोगों का ध्यान धन जुटाने पर केन्द्रित है, इस बात को तलाशने में नहीं है कि हम देखें, पता लगायें कि उस महामनीषी का क्या-कितना योगदान था और उसने श्रमण संस्कृति के एक जीवन्त प्रतिनिधि के रूप में संपूर्ण भारतीय जन-जीवन को कितना प्रभावित किया ? जैनों के सामाजिक जीवन का जो कटाव, जो क्षरण, जो नुकसान, और जो टूट-फूट हो गयी थी, जो शिथिलताएँ और प्रमाद उसके सांस्कृतिक और नैतिक जीवन में आ गये थे मुनि चौथमलजी ने किन-किन कठिनाइयों का सामना करते हुए, उनकी मरम्मत की, उन्हें संभाला ? क्या हमारे पास वक्त है कि हम इन सारी स्थितियों का अवलोकन करें, उनकी सूक्ष्म जाँच-पड़ताल करें? हम जन्म-शताब्दियाँ और पुण्यतिथियाँ मनाते हैं, किन्तु यह शायद नहीं जानते, जान पाते कि जिन औपचारिकताओं में ठहरकर हम इन समारोहों को संपन्न करते हैं, वे हमारे जीवन को ऊँचा नहीं उठा पातीं वरन् उसे दुविधाओं और विकृतियों के ऐसे जहर में डाल जाती हैं, जिसे दूर न कर पाने के कारण हमारी आनेवाली पीढ़ी को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। वस्तुतः हमें इस बात पर सबमें अधिक ध्यान देना चाहिये कि जो श्रद्धांजलि हम संबन्धित विभूति के पाद-पद्मों में अर्पित कर रहे हैं उसकी सांस्कृतिक जड़ हमारे हृदय और हमारे सांस्कृतिक जीवन में कितनी गहरी है? कहीं हम ऊपर-ऊपर तो कोई काम नहीं कर रहे हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम पत्ते सींच रहे हैं और जड़ें सूख रही हैं ? कहीं यों तो नहीं है कि हम उस विभूति का गगनभेदी जयघोष कर रहे हैं और उसके जीवन-लक्ष्यों का हमारे जीवन से कोई सरोकार नहीं है ? हमारे विचार में, जब तक हम ऐसे प्रश्नों का कोई ठीक-ठीक उत्तर नहीं दे लेते तब तक किसी मुनि चौथमल-जैसी महान् विभूति को श्रद्धांजलि समर्पित कर पाना संभव नहीं है। और फिर मुनि श्री चौथमलजी को श्रद्धांजलि अर्पित करना तो सच में एक बहुत कठिन काम है, चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह इसलिए कि उनका सारा जीवन श्रमण संस्कृति की उत्कृष्टताओं पर तिल-तिल न्योछावर था, वे उसके जीवन्त-ज्वलन्त प्रतिनिधि थे, उनका सारा जीवन उन लक्ष्यों की उपलब्धि पर समर्पित था जिनके लिए भगवान् महावीर ने बारह वर्षों तक दुर्द्धर तप किया, और जिन्हें सदियों तक जैनाचार्यों ने अपनी कथनी-करनी की निर्मलता द्वारा एक उदाहरणीय उज्ज्वलता के साथ प्रकट किया। मुनिश्री असल में व्यक्ति-क्रान्ति के महान् प्रवर्तक थे, उन्होंने अहसास किया था कि समाज में व्यक्ति के जीवन में कई शिथिलताओं, दुर्बलताओं और विकृतियों ने द्वार खोल लिये हैं, और दुर्गन्धित नालियों द्वारा उसके जीवन में कई अस्वच्छताएँ दाखिल हो गयी हैं, अतः उन्होंने सबमें बड़ा और महत्त्वपूर्ण कार्य यह किया कि इन दरवाजों को मजबूती से बन्द कर दिया, और नैतिकता और धार्मिकता के असंख्य उज्ज्वल रोशनदान वहाँ खोल दिये। इस तरह बे जहाँ भी गये, वहाँ उन्होंने व्यक्ति को ऊँचा उठाने का काम किया । एक बड़ी बात जो मनिथी चौथमलजी के जीवन से जुड़ी हुई है वह यह कि उन्होंने जैनमात्र को पहले आदमी भाना, और माना कि आदमी फिर वह किसी भी कौम का हो, आदमी है, और फिर आदमी होने के बाद ज़रूरी नहीं है कि वह जैन हो (जैन तो वह होगा ही) चूंकि उन्होंने इस बात का लगातार अनुभव किया कि जो नामधारी जैन हैं उनमें से बहुत सारे आदमी नहीं हैं क्योंकि वे इस बात को बराबर महसूसते रहे कि भगवान महावीर ने जाति और कुल के आधार पर किसी आदमी को छोटा-बड़ा नहीं माना, उनकी तो एक ही कसौटी थी - कर्म ; कर्मणा यदि कोई जैन है तो ही वे उसे जैन मानने को तैयार थे, जन्म से जैन और कर्म से दानव व्यक्ति को उन्होंने जैन मानने से इनकार किया। यह उनकी न केवल श्रमण संस्कृति को वरन् संपूर्ण भारतीय संस्कृति को एक अपूर्व देन है, इसीलिए वे भील-भिलालों के पास गये, पिछड़े और पतित लोगों को उन्होंने गले लगाया, उनके दुःख-दरद, हीर-पीर को जाना – समझा, उन्हें अपनी प्रीत-भरी आत्मीयता का पारस-स्पर्श दिया, और इस तरह एक नये आदमी को जनमा; हो सकता है कई लोग जो गृहस्थ, या साधु हैं, उनके इस महान् कृतित्व को चमत्कार माने, किन्तु मुनिश्री चौथमलजी का सबमें बड़ा चमत्कार एक ही था और वह यह कि उन्होंने अपने युग के उन बहुत से मनुष्यों को जो पशु की बर्बर भूमिका में जीने लगे थे, याद दिलाया तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि वे पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं, और उन्हें उसी शैली-सलीके से अपना जीवन जीना चाहिये । मनुष्य को मनुष्य की भूमिका से स्खलित होने पर जो लोग उसे पुनः मनुष्य की भूमिका में वापस ले आते हैं, संत कहलाते हैं। मुनिश्री केवल जैन मुनि नहीं थे, मनुजों में महामनुज थे, वे त्याग और समर्पण के प्रतीक थे, निष्कामता और निश्छलता के प्रतीक थे, निर्लोभ और निर्वेर, अप्रमत्तता और साहस, निर्भीकता और अविचलता की जीती-जागती मूर्ति थे, क्या यह सच नहीं है कि ऐसा मनस्वी संत पुरुष हजारों-हज़ार वर्षों में कभी-कभार कोई एक होता है, और बड़े भाग्योदय से होता है । मुनि यदि वह केवल मुनि है तो उसका ऐसा होना अपर्याप्त है, चूंकि मुनि समाज से अपना कायिक पोषण ग्रहण करता है, उसे अपनी साधना का साधन बनाता है अतः उस पर समाज का जो ऋण हो जाता है, उसे लौटाना उसका अपना कर्तव्य हो जाता है, माना समाज इस तरह की कोई अपेक्षा नहीं करता (करना भी नहीं चाहिये), किन्तु जो वस्तुतः मुनि होते हैं, वे समाज के संबन्ध में चिन्तित रहते हैं और उसे अपने जीवन-काल में कोई-न-कोई आध्यात्मिक-नैतिक खुराक देते रहते हैं, यह खुराक प्रवचनों के रूप में प्रकट होती है। मुनिश्री चौथमलजी एक वाग्मी संत थे, वाग्मी इस अर्थ में कि वे जो-जैसा सोचते थे, उसे त्यों-तैसा अपनी करनी में अक्षरश: जीते थे । आज बकवासी संत असंख्य-अनगिन हैं, क्या हम इन्हें संत कहें ? । बाने में भले ही उन्हें वैसा कह लें, किन्तु चौथमल्ली कसौटी पर उन्हें संत कहना कठिन ही होगा । जिस कसौटी पर कसकर हम मुनिश्री चौथमलजी महाराज को एक शताब्दिपुरुष या संत कहते हैं, वास्तव में उस कसौटी की प्रखरता को बहुत कम ही सहन कर सकते हैं। उन जैसा युग-पुरुष ही समाज की रगों में नया और स्वस्थ लह दे पाया, अन्यों के लिए वह डगर निष्कण्टक नहीं है, कारण बहुत स्पष्ट है, उनकी वाणी और उनके चारित्र में एकरूपता थी ; जो जीभ पर था, वही जीवन में था; उसमें कहीं-कोई दुई नहीं थी, इसीलिए यदि हमें उस शताब्दि-पुरुष को कोई श्रद्धांजलि अर्पित करनी है तो वह अंजलि निर्मल-प्रामाणिक आचरण की ही हो सकती है, किसी शब्द या मुद्रित' ग्रन्थ या पुस्तक की नहीं । उस मनीषी ने साहित्य तो सिरजा ही, एक सांस्कृतिक सामंजस्य स्थापित करने के प्रयत्न भी किये । इस प्रयत्न के निमित्त वे स्वयं उदाहरण बने, चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि वे इस मरम को जानते थे कि जब तक आदमी स्वयं उदाहरण नहीं बनता, तब तक वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता । अधिकांश लोग उदाहरण देते हैं, उदाहरण बन नहीं पाते; आज उदाहरण देने वाले लोग ही अधिक हैं, उदाहरण बनने वाले लोगों का अकाल पड़ गया है । लोग कथाएँ सुनाते हैं, और सभा में हँसी की एक लहर एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ जाती है, बात आयी-गयी हो जाती है. किन्तु उससे न तो वक्ता कुछ बन पाता है, न श्रोता। प्रसिद्ध वक्ता मुनिश्री चौथमलजी वक्ता नहीं थे, चरित्र-संपदा के स्वामी थे, उनका चारित्र तेजोमय था, वे पहले अपनी करनी देखते थे, फिर कथनी जीते थे; वस्तुतः संतों का संपूर्ण कृतित्व भी इसी में है, इसलिए क्रान्ति के लिए जो साहस-शौर्य चाहिये वह उस शताब्दिपुरुष में जितना हमें दिखायी देता है, उतना उनके समकालीनों और उत्तरवर्तियों में नहीं। यही कारण था कि वे एकता ला सके और एक ही मंच पर कई-कई संप्रदायों के मुनिमनीषियों को उपस्थित कर सके. उनका यह अवदान न केवल उल्लेखनीय है वरन् मानव-जाति के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है। अग्न्यक्षरों में उत्कीणित उनका वह पुरुषार्थ आज भी हमारे सन्मुख एक प्रकाश-स्तम्भ की भाँति वरदान का हाथ उठाये खड़ा है उस कवच-जैसा जो किसी भी संकट में हमारी रक्षा कर सकता है। सब जानते हैं कि जब कोई आदमी महत्त्वाकांक्षाओं की कीच से निकल कर एक खुले आकाश में आ खड़ा होता है, तब लगता है कि कोई युगान्तर स्थापित हुआ है, यग ने करवट ली है, कोई नया सूरज ऊगा है, कोई ऐसा कार्य हुआ है, जो न आज तक हुआ है, न होनेवाला है, कोई नया आयाम मानव-विकास का, उत्थान का, प्रगति का खुला है, उद्घाटित हुआ है। मुनिश्री चौथमलजी इसी तरह के महापुरुष थे जो महत्त्वाकांक्षाओं के पंक में से कमल खिलाना जानते थे। उसे किसी पर उलीचना नहीं जानते थे, वे चिन्तन के उन्मुक्त आकाश-तले अकस्मात् ही आ खड़े हुए थे और उन्होंने अपनी वरदानी छाँव से अपने समकालीन समाज को उपकृत - अनुगृहीत किया था। हमारी समझ में शताब्दियों बाद कोई ऐसा संपूर्ण पुरुष क्षितिज पर आया जिसने राव-रंक, अमीर-ग़रीब, किसान,मजदूर, विकसित-अविकसित, साक्षर-निरक्षर, सभी को प्रभावित किया, सबके प्रति एक अभूतपूर्व समभाव, ममभाव रखा, ( शेष पृष्ठ १९५ पर ) तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनि श्री चौथमलजी महाराज ज. कार्तिक शु. १३, वि. सं. १९३४ ॥ नि. मार्गशीर्ष शुक्ला ९, वि. सं. २००७ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य जैसे आर्थिक स्थिति की समीक्षा करता है, उसी प्रकार उसे अपने जीवनव्यवहार की भी समीक्षा करनी चाहिये । प्रत्येक को सोचना चाहिये कि मेरा जीवन कैसा होना चाहिये ? वर्तमान में कैसा है ? उसमें जो कमी है, उसे दूर कैसे किया जाए ? यदि यह कमी दूर न की गयी तो क्या परिणाम होगा ? इस प्रकार जीवन की सहीसही आलोचना करने से आपको अपनी बुराई-भलाई का स्पष्ट पता चलेगा । आपके जीवन का सही चित्र आपके सामने उपस्थित रहेगा । आप अपने को समझ सकेंगे। ब्यावर, ८ सित. १९४१ -मुनिश्री चौथमलजी म. Elan Education International For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बात : सरल और अनुभवगम्य 'क्रोध और ताक़त का दबाव कोई स्थायी दबाव नहीं है। शान्ति, क्षमा और प्रेम के दबाव में ही यह शक्ति है कि दबा हुआ व्यक्ति फिर कभी सिर नहीं उठाता और न लड़ने आता है। यह एक ऐसी सरल और अनुभवगम्य बात है कि संसार के इतिहास से सहज ही समझी जा सकती है। फिर भी आश्चर्य है कि बुद्धिमान कहलाने वाले राजनीतिज्ञ इसे नहीं समझ पाते और पागलों की तरह शस्त्रास्त्र तैयार करके एक-दूसरे पर चढ़ बैठते हैं। अब तक के युद्धों से ये लोग जरा भी शिक्षा नहीं लेते। -मुनि चौथमल For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दिवाकरजी : एक पारस-पुरुष "उनकी वाणी में, वस्तुतः, एक अद्भुत-अपूर्व पारस-स्पर्श था, जो लौह चित्त को भी स्वर्णिम कान्ति-दीप्ति से जगमगा देता था । उनका प्रवचनामृत हजार-हजार रूपों में बरसा था । राजा-महाराजाओं से लेकर अछूतों, भील-भिलालों और मजदूरों तक उनकी कल्याणकारी वाणी पहुंची थी। वे सघन अन्धकार में प्रखर प्रकाश थे। आचार्य आनन्दऋषि भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा है संत-संस्कृति, जो संतों की साधना-आराधना से ही अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित हुई है। वस्तुतः संतों की महिमाशालिनी चर्या और वाणी का इतिहास ही भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का इतिहास है । अतीत के अगणित संत-महात्माओं की जीवनी आज भी प्रेरणा का अजस्र-प्रखर स्रोत है। ऐसे ही थे श्रमण संस्कृति की गौरवमयी संत-परम्परा के महान् संत जैन दिवाकर, प्रखर वक्ता श्री चौथमलजी महाराज। उनके दर्शन करने का परम सौभाग्य मुझे सर्वप्रथम मिला मनमाड़ में । लम्बा क़द, विशाल देह, गेहुँआ रंग, दीप्त-तेजोमय-शान्त मुखछबि, उन्नत भाल आज भी मेरे स्मृति-पटल पर ज्यों-का-त्यों विद्यमान है। तब स्थानकवासी समाज में अलग-अलग अनेक संप्रदाय थे। वह युग था जब संतवर्ग एक-दूसरे के साथ व्यवहार-संबन्ध रखने में भी झिझक का अनुभव करता था। ऐसे विषम समय भी हम एक ही स्थान पर ठहरे थे। परस्पर आत्मीयतापूर्ण व्यवहार रहा। उन्होंने मुझे उस समय यही सुझाव दिया था कि तुम्हें अपने संप्रदाय को सुसंगठित करना चाहिये। सभी को एक मंच पर मिल-बैठकर विधान आदि पर विचार-विमर्श करना चाहिये। उनका सुझाव शत-प्रतिशत अनुकरणीय था, क्योंकि संगठन में ही बल है, उत्कर्ष है। कलयुग में जन, धन, राज्य, अणु आदि कई शक्तियाँ हैं; किन्तु इन सब में सर्वोपरि शक्ति 'संघ-शक्ति' है। यूनाइटेड बी स्टेंड, डिवाइडेड वी फाल'-स्वामी विवेकानन्द का यह दिव्य घोष सभी के लिए सार्थक एवं अनुसरणीय है। इस तरह दो-चार दिन उनसे खूब खुलकर बातचीत हुई । परस्पर मधुर व्यवहार और अभूतपूर्व स्नेह रहा; इसके बाद भी कई बार मिलने के मौके आये और सौहार्द्र उत्तरोत्तर बढ़ता गया । कुछ वर्षों बाद संगठन की हवा चली । ब्यावर में नौ संप्रदायों के प्रमुख संतों का मिलन हुआ, उसमें ऋषि-संप्रदाय की ओर से मैं उपस्थित हुआ। अपने-अपने पूर्वपदों को छोड़कर सब का एक समुद्र बना, सब का विलीनीकरण हुआ। उस समय जैन दिवाकरजी ने 'वर्धमान चौ. ज. श. अंक ११ For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ' के आचार्यपद के चुनाव की बात कही और उसके लिए मेरा नाम सुझाया। वे स्वयं किसी पद के लिए उत्कण्ठित नहीं थे; इससे उनकी उदारता, संगठन के प्रति उत्कट प्रेम, सहिष्णुता तथा उदात्त विचार के दर्शन होते थे । संगठन के पूर्व भी उनके अनुयायी क्षेत्रों में जहाँ भी मेरा जाना हुआ, वहाँ उन्होंने संतों और श्रावकों को मुझे पूर्ण सहयोग देने का इशारा किया। इन सब प्रसंगों पर मुझे उनकी उदार आँखों के भीतर छलकती निष्काम-अकलुष आत्मीयता दिखायी दी थी। जैन दिवाकरजी ओजस्वी वक्ता भी थे । वाणी का चमत्कार उनके व्यक्तित्व की एक अन्यतम विशेषता थी। उनकी वाणी में, वस्तुतः एक अद्भुत-अपूर्व पारस-स्पर्श था, जो लौह चित्त को भी कान्ति और दीप्ति से झलमला देता था। उनकी प्रवचन-पीयूषधारा हज़ार-हजार धाराओं में प्रवाहित हुई थी। राजा-महाराजाओं से लेकर मजदूरों के झोपड़ों तक उनकी कल्याणकर वाणी पहुंची थी और उसने अंधेरे में रोशनी पहुँचाई थी। उनकी भाषा में मधुराई थी, मंजुल और प्रभविष्णु मुखाकृति के कारण वे जहाँ भी गये सहस्रसहस्र जनमेदिनी ने उनका अभिनन्दन किया, अपने पलक-पाँवड़े बिछा दिये । कई राजाओं ने उनके प्रवचन सुनकर अपनी-अपनी राज्य-सीमाओं में हिंसा रोकने का प्रयत्न किया। उनकी वत्सलता बड़ी वरदानी थी, इसीलिए अछूतों को गले लगाकर, जैनधर्म में उन्हें प्रवेश देकर उन्होंने एक ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत किया। यह था उनके पतितपावन व्यक्तित्व का प्रभाव । __ उनकी साहित्य-साधना भी अनूठी थी। दिवाकर-साहित्य में से काव्य-साहित्य खूब लोकप्रिय हुआ। जनता-जनार्दन के कण्ठ में आज भी उसकी अनुगूंज है। मैंने मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब जैसे सुदूरवर्ती प्रदेशों में भी विहार किया । वहाँ भी स्थान-स्थान पर उनकी कीर्ति-कथाएँ सुनीं। मेरे खयाल से उनके जीवन की सब में बड़ी उपलब्धि एक यह भी है कि मैंने उनके विषय में कोई अपवाद नहीं सुना। जब मैंने कोटा में उनके देहावसान का दुःखद संवाद सुना तब मेरे मन को गहन चोट लगी। शीघ्र ही हम सब ब्यावर में पुनः एकत्रित हुए। आचार्य होने के नाते मेरी उपस्थित लगभग अपरिहार्य थी। उनके प्रति मेरी अगाध श्रद्धा है । जब मैं कोटा गया तब उनकी पुण्य-पुनीत स्मृति में 'दिवाकर जैन विद्यालय' चलाने की प्रेरणा देकर आया था। विद्यालय मेरी उपस्थिति में ही खुल गया था; प्रसन्नता है कि वह विकासोन्मुख है और आवश्यक उन्नति कर रहा है। लालटेन किसलिए? ‘एक अन्धा हाथ में लालटेन लेकर पानी लेने गया। जब लौट रहा था तब उसे एक सूझता आदमी मिला। उसने पूछा-'सूरदास, तुम क्यों वृथा तेल खर्च करते हो?' अंधे ने उत्तर दिया-'तुम्हारे जैसों के लिए। तुम जैसे सामने आ जाते और मेरे हाथ में लालटेन न होती तो तुम मुझसे टकरा जाते !' १२ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथमल : एक शब्दकथा “चौथ हर पखवाड़े हमारा द्वार खटखटानेवाली एक तिथि है । सामान्य जन इसे 'चोथ' कहता है । ज्योतिष में 'चौथ' को रिक्ता कहा गया है । जैनागमों में चारित्र को रिक्तकर कहा है । इस तरह 'चौथ' और 'चारित्र' निर्जरा और निर्मलता के जीते-जागते प्रतीक हैं । जो कर्ममल को प्रतिफल तिलांजलि देते चले वे थे अन्धविश्वासों के अन्धकार को छिन्न-भिन्न करनेवाले मनस्वी महर्षि चौथमलजी महाराज । मुनि कन्हैयालाल 'कमल' मैंने 'स्व. जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज के दर्शन बृहत्साधु सम्मेलन के अवसर पर अजमेर में किये थे । यद्यपि सीमित शब्दों में उनके असीमित साधुत्व का अंकन संभव नहीं है तथापि जन्मशताब्दि-वर्ष के इस पुनीत प्रसंग पर उस महान् व्यक्तित्व का कुछ पंक्तियों में परिचय लिखना मेरे स्वयं के तथा अन्य मुमुक्षु सुधीजनों के लिए श्रेयस्कर है । १. सर्व साधारण की भाषा में 'चौथ' प्रतिपक्ष आने वाली एक तिथि है । ज्योतिष की भाषा में 'चौथ' रिक्ता तिथि है । जैनागमों में चारित्र को रिक्तकर कहा है । चारित्र की व्युत्पत्ति है - 'चयरित्तकरं चारितं' अर्थात् अनन्तकाल से अर्जित कर्मों के चय, उपचय. संचय को रिक्त (निःशेष) करने वाला अस्तित्व चारित्र है । इस तरह चरित्र को 'चोय' तिथि के नाम से 'मल' अर्थात् धारण करने वाले हुए श्री चौथमलजी महाराज । २. मोक्ष के चार मार्गों में चौथा मार्ग है तप । तप आत्मा के अन्तहीन कर्ममल की निर्जरा करने वाला है - 'भवकोडी संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ' । इस तरह तप की आराधना का सूचक नाम धारण करनेवाले थे स्व. चौथमलजी महाराज । आपने तथा आपके तपोधन अन्तेवासियों ने बाह्याभ्यन्तर तपाराधनापूर्वक मुक्ति की राह का अनुसरण कर अपना नाम चरितार्थ किया । ३. पाँच महाव्रतों में चौथा महाव्रत ब्रह्मचर्य है । यह महान् व्रत ही ब्रह्म ( आत्मा ) को परमब्रह्म (परमात्मा) में उत्थित करनेवाला है । विश्व में यही सर्वोत्तम व्रत है । इसकी आराधना में सभी व्रतों की आराधना सन्निहित है । यह शेष महाव्रतों का कवच है, मूल है'पंचमहव्वय सव्वय मूलं । इस मूल महाव्रत के नाम से अपने नाम को सार्थक करनेवाले थे स्व. श्री जैन दिवाकरजी महाराज । चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only १३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. धर्म के चार प्रकारों में चौथा धर्म 'भाव' है, जिसका गोरव विश्वविदित है। इसके बगैर शेष तीनों धर्म निष्फल हैं। तीर्थंकर नाम की निष्पत्ति 'भाव' से ही होती है और आत्मशोधन का मूलमन्त्र भी 'भाव' ही है ; 'भाव' से ही अनन्त आत्माएँ मुक्त हुई हैं। 'भाव' की यह डगर अजर-अमर है। समुन्नत लोकजीवन का आधार भी यही 'भाव' है। उदाहरणार्थ गोदामों में माल भरा है । ब्याज और किराये के बोझ से व्यापारी का मन उदास है । वह प्रतिपल भाव की प्रतीक्षा में दूरभाष की ओर टकटकी लगाये बैठा है। घंटी आते ही चोंगा उठा लेता है । अनुकूल समाचार सुनकर चेहरा खिल उठता है। केवल हाथ-पैर ही नहीं उसका सारा वदन उत्साहित और सस्फूर्त हो उठता है । यह है बाजार-भाव की करामात । यह हुई लौकिक भाव की बात किन्तु औपशमिकादि लोकोत्तर भाव तो आत्मा को ज्ञानादि निज गुणों से संपन्न, समृद्ध करनेवाले हैं। चतुर्थ भावधर्म की स्मृति अनुक्षण बनी रहे इसीलिए 'चोथमल' नाम आपको मिला और तदनुसार आपने भाववृद्धि की अमर उपलब्धि द्वारा अपना नाम चरितार्थ किया। . चौदह गुणस्थानों में चौथा गुणस्थान सम्यक्त्व है। आत्मा को बोधि या सम्यक्त्व की उपलब्धि इसी गुणस्थान में होती है। जैसे बीज की अनुपस्थिति में वृक्ष आविर्भूत नहीं होता, वैसे ही बोधि के बिना शिव-तरु का प्रादुर्भाव भी संभव नहीं है। सम्यक्त्व के बिना ज्ञान ज्ञान नहीं है, चारित्र चारित्र नहीं है। इस चौथे गणस्थान को धारण कर वे सामान्य जन से सम्यक्त्वी चौथमल बने और उत्तरोत्तर आरोहण करते गये। उनके पदचिह्न अमर हैं, उनका कृतित्व अमर है, व्यक्तित्व अमर है, और उन्होंने ज्ञान तथा समाज-सेवा की जिस परम्परा का निर्माण किया है, वह अमर है। . मुझे स्मरण है कि एक दिन किसी जैनेतर ग्रामवासी ने मुझसे पूछा था क्या आप चौथमलजी महाराज के चेले हैं ? उसके इस प्रश्न से मैं श्रद्धाभिभूत हो उठा। मैंने कहा'हाँ'। बातचीत से पता चला कि उसने अपने गाँव में उनका कोई प्रवचन सुना था, जिसका प्रभाव अभी भी उसके मन पर ज्यों-का-त्यों था। ऐसे सवाल राजस्थान के कई ग्रामवासियों ने मुझसे किये हैं अतः यह असंदिग्ध है कि वे कभी न अस्त होनेवाले सूरज थे, जिसकी धूप और रोशनी आज भी हमें ओजवान और आलोकित बनाये हुए है। किंवदन्तियों-साजन-जनव्यापी उनका व्यक्तित्व अविस्मरणीय है। सम्यग्दृष्टि/मिथ्यादृष्टि ... 'समभावी और सम्यग्दृष्टि जीव किसी धर्म का निषेध नहीं करता; वह तो किसी को मुख्य और किसी को गौण रूप में देखता है। वह किसी बुराई को अच्छा नहीं समझता, बल्कि वस्तु में रही हुई अच्छाइयों पर दृष्टि रखता है और बुराइयों की उपेक्षा करता है। मिथ्यादृष्टि इससे विपरीत होता है। वह अच्छाई को बुराई समझता है और उस बुराई को ही प्रधानता देता है।। -मुनि चौथमल तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमलजी : संक्षिप्त जीवन झांकी जन्म : वि. सं. १९३४, कार्तिक शुक्ला १३, रविवार; नीमच (मध्यप्रदेश ) माता : श्रीमती केसरबाई पिता : श्री गंगारामजी वंश : ओसवाल, चोरड़िया शिक्षा : स्थानीय विद्यालय में हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू कौमार्य : १६ वर्ष विवाह : १६ वर्ष की वय में प्रतापगढ़ राजस्थान के श्री पूनमचन्दजी की सुपुत्री मानकुँवरबाई के साथ दीक्षा : होल्कर रियासत इन्दौर के बोलिया ग्राम में १८ वर्ष की वय में वि. सं. १९५२, फाल्गुन शुक्ला ५, रविवार दीक्षा गुरु : स्थानकवासी परम्परा के आचार्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज के संप्रबाय सरल स्वभाव कवि मुनि श्री हीरालालजी महाराज द्वारा अध्ययन : संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी, गुजराती, राजस्थानी, मालवी आदि भाषाओं का ज्ञान; बत्तीस जैनागम एवं ग्रन्थ गीता, रामायण, भागवत, कुरान, बाइबल आदि विभिन्न धर्मग्रन्थों का गहन अध्ययन विहार, धर्मप्रचार : दीक्षा - जीवन के ५५ वर्षों में राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, दिल्ली आदि प्रदेशों के विभिन्न ग्राम-नगरों में विहार, चातुर्मास, भगवान् महावीर के संदेश का जन-जन तक प्रचारप्रसार; उदयपुर, अलवर, किशनगढ़, रतलाम, इन्दौर, देवास, पालनपुर के नरेश-नवाब और छोटे-मोटे अनेक अमीर-उमराव, ठाकुर सामन्त आदि को प्रभावित कर उनकी दुर्व्यसनों से मुक्ति; कई पतित जातियों का उद्धार चौ ज. श. अंक For Personal & Private Use Only १५ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवत १ कालरापाटन १९५३ 3 बड़ी सादड़ी. ४. - सादड़ी - १९ ६ मन्दसौर १८५७ - २५५ REC 6 - जावरा ९५६ १९६४ १९६७ -9 २००३ - १९५८ १९६५ ४९८ १६ नीमच १९५९ ८. नाथद्वारा - १९६० ९. स्याचसैद १९६१ (b) १० इतलाम - १९६२, ६९, ७८ ८५, 2004 - कानोड़ - १९६३ १२- उदयपुर - १९६६, १९८३.४९१, १९९५ १३- चितौड़ - १९७०, २००० १४ - आगरा - १९७१.१९९३ १५. पालनपुर - १९७२ १६- जोधपुर - १९०३,७७, ८७, २००५ १७- अजमेर - १९ पालापुर तु Pr.. • जोधपुर - जमेव व्यावर • • कोटा सारडी • बम्बई अहमदनगर • दिल्ली नाथद्वारा चितौड बड़ी सादडी नीमच रामपुरा फोड़• ●मन्दमी स्वद • जावरा • उजैन उदयपुर • इतलामा • इन्दौर ● सारा म हा | १८- ब्यावर - ९०५, ८२, ९०, ९८, २००४ १९- दिल्ली - १९७६, १९९१ 120-3 stor· neve, 2009 129-20317-98 co, 2002 २२- जलगांव- १९८६ २३- अहमदनगर-१९८० २४. बम्बई - १०८ २५- मनमाड़ - १९०९ २६. फोटो- १९९२, २००७६ अन्तिमन्धातुर्मास ] २७- कानपुर - Re४ हि न्द चातुर्मास द्योतक मानचित्र (विसं १९५३ से २००७) भाल्फपाइन • • जलगांव मनमण For Personal & Private Use Only · कानपुर चातुर्मास : २७ स्थानों पर ५५ वर्षानुक्र से इस प्रकार -- झालरापाटन (वि. सं. १९५३), रामपुरा (१९५४), बड़ी सादड़ी (१९५५), जावरा (१९५६), रामपुरा (१९५७), मन्दसौर (१९५८), नीमच (१९५९), नाथद्वारा (१९६०), खाचरौद (१९६१), रतलाम (१९६२), कानोड़ (१९६३), जावरा (१९६४), मन्दसौर (१९६५), उदयपुर (१९६६), जावरा (१९६७), बड़ी सादड़ी (१९६८), रतलाम (१९६९), चित्तौड़ (१९७०), आगरा (१९७१), पालनपुर (१९७२), तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ लंका Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर (१९७३), अजमेर (१९७४), ब्यावर (१९७५), दिल्ली (१९७६), जोधपुर (१९७७), रतलाम (१९७८), उज्जैन (१९७९), इन्दौर (१९८०), घाणेराव सादड़ी (१९८१), ब्यावर (१९८२), उदयपुर (१९८३), जोधपुर (१९८४), रतलाम (१९८५), जलगाम (१९८६), अहमदनगर (१९८७), बंबई (१९८८), मनमाड़ (१९८९), ब्यावर (१९९०), उदयपुर (१९९१), कोटा (१९९२), आगरा (१९९३), कानपुर (१९९४), दिल्ली (१९९५), उदयपुर (१९९६), जोधपुर (१९९७), ब्यावर (१९९८), मंदसौर (१९९९), चित्तौड़ (२०००), उज्जैन (२००१), इन्दौर (२००२), घाणेराव सादड़ो (२००२), ब्यावर (२००४), जोधपुर (२००५), रतलाम (२००६), कोटा (२००७)। पदवियाँ : जगद्वल्लभ, प्रसिद्ध वक्ता, जैन दिवाकर साहित्य-सृजन : भगवान् महावीर का आदर्श जीवन, जम्बू कुमार, श्रीपाल, भविष्यदत्त, चम्पक सेठ, धन्ना, शालिभद्र, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ आदि चरित्र; आदर्श रामायण, जैन सुबोध गुटका, चतुर्थ चौबीसा आदि के अलावा कई उपदेशपरक स्तवन, निर्ग्रन्थ-प्रवचन का संपादन लोकोपकार : लाखों लोगों द्वारा मांस-मदिरा, गांजा, भांग, तम्बाकू का त्याग; कई राजाओं द्वारा शिकार एवं पशुबलि का त्याग'; प्रेरणा प्रदान कर कई शिक्षण-संस्थाओं, पांजरापोलों, वृद्धाश्रमों आदि लोकोपकारी संस्थाओं की स्थापना शिष्य-परिकर : सर्वश्री मुनि शंकरलालजी, उपाध्याय प्यारचंदजी, कवि केवल मुनिजी, तपस्वी माणकचन्दजी आदि विविध प्रतिभाओं के धनी ४० से अधिक शिष्य, तथा चन्दन मुनि, मूल मुनि, विमल मुनि, अशोक मुनि आदि अनेक प्रशिष्य अवदान : संघ-ऐक्य के लिए “वीर वर्द्धमान श्रमण संघ" का निर्माण; अन्तिम वर्षायोग कोटा (राजस्थान) में दिगम्बर आचार्य श्री सूर्यसागरजी और श्वेताम्बर आचार्य श्री आनन्दसागरजी के साथ सम्मिलित प्रवचन दिवंगति : कोटा (राजस्थान); ७४ वर्ष के आरंभ में, वि. सं. २००७ मार्ग शीर्ष शुक्ला ९, रविवार संयोग : जन्म- रविवार; दीक्षा- रविवार; दिवंगति- रविवार चौ. ज. श. अंक १७ For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री चौथमल-साहित्य अष्टादश पाप-निषेध (पद्य) द्वय चरित्र (तरंगवती, रतनकुँवर, पद्य) आदर्श उपकार (राजा-महाराजाओं. पार्श्वनाथ (गद्य) को दिये गये ओजस्वी प्रवचनों का संग्रह; प्रदेशी राजा का चरित्र (पद्य) । मुनि प्यारचन्द) भगवान नेमिनाथ और पुरुषोत्तम आदर्श मुनि (प्रथम भाग; सामाजिक, श्रीकृष्णचन्द्र (पद्य) धार्मिक, सदाचार, दयामयी आदि कार्यों भगवान महावीर का आदर्श जीवन का दिग्दर्शन) (गद्य) आदर्श रामायण (पद्य) भगवान महावीर का दिव्य सन्देश उदयपुर का आदर्श चातुर्मास : (मुनि (प्रथम भाग, गद्य) प्यारचन्द) मनोहर पुष्प (पद्य) एक आलोकपुंज : जैन दिवाकर महाबल चरित्र (पद्य) (संक्षिप्त जीवन-झांकी, सुभाष मुनि 'सुमन') मुक्तिपथ (पद्य) कृष्ण चरित्र (पद्य) मोचियों को त्यागवृत्ति (मोचियों के चतुर्थ रत्नमाला (पद्य) मध्य दिये गये दो प्रवचन) चम्पक चरित्र (पद्य) राममुद्रिका (पद्य) जम्बू कुमार (गद्य) लावणी-संग्रह (भाग १, २) जैन गज़ल गुल चमन बहार · वैराग्य जैनस्तवनावली जैन गजल बहार श्रद्धांजलि (गीत-संकलन : वर्द्धमानमुनि) जैन दिवाकर : संस्मरणों के आइने में श्री जैन दिवाकर चित्रावली (दिवाकर (रमेश मुनि) विचार-बिन्दु सहित, संयोजन-प्रकाशनजैन सुख चैन बहार (पद्य ; भाग.१ से ५) फकीरचन्द जैन) जैन सुबोध गुटका (चार सौ चार श्री जैन 'दिवाकर स्मृतिग्रन्थ या गायनों का संग्रह) श्रद्धांजलि (संकलन : गुलाबचन्द) ज्ञान गीत-संग्रह ___श्री दिवाकर अभिनन्दन ग्रन्थ (भगवती त्रिलोक सुन्दरी चरित्र (पद्य) दीक्षा के ५१ वें वर्षारंभ के मंगल प्रसंग दामन खां चरित्र (पद्य) पर, संपा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल, पं. दिवाकर देन; (१, २, ३, चन्दनमुनि) मोहनलाल उपाध्याय निर्मोही') दिवाकर दिव्य ज्योति (भाग १ से २२; श्रीपाल चरित्र (पद्य) प्रवचन-मुनि श्री चौथमलजी; संपादन- सती अंजना और वीर हनुमान (पद्य) पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल) सम्यक्त्व कौमुदी (अर्हदास चरित्र; पद्य) धन्ना चरित्र (पद्य) सीता वनवास (पद्य) धर्मबुद्धि चरित्र (पद्य) सुपार्श्व चरित्र (पद्य) धर्मोपदेश (मुनि प्यारचन्द) स्त्री-शिक्षा भजन-संग्रह (पद्य) निर्ग्रन्थ प्रवचन ( जनागामों का सार; हरिबल चरित्र संकलन-अनुवाद : मुनि श्री चौथमलजी; हरिश्चन्द्र चरित्र (पद्य) हिन्दी-भाष्य-पं. शोभ चन्द्र भारिल्ल) [प्रकाशक-श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक निवेदन (मासिक पत्र, म्वर्ण जयन्ती । समिति, रतलाम अथवा श्री जैन दिवाकर महोत्सव पर अप्रैल-मई, ४७ में प्रकाशित दिव्य ज्योति कार्यालय, महावीर (मेवाड़ी) आदर्श उत्सव-अंक) बाजार, ब्यावर ( राजस्थान)] . १८ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' के कुशल शिल्पी - मुनि श्री चौथमलजी वस्तुतः कोई भी चयन आत्मनिष्ठ (सब्जेक्टिव्ह) और व्यक्ति की अभिरुचियों का प्रतिनिधि प्रतिबिम्ब होता है। प्रस्तुत कृति में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जहाँ चयन में मनिजी की अन्तरात्मा ने अपनी व्यथा को उघाड़ा है। आचरण-विहीन शास्त्रीय पाण्डित्य के प्रति अपनी अन्तर्व्यथा का प्रकटीकरण उन्होंने 'ज्ञान-प्रकरण' में 'उत्तराध्ययन' की कुछ गाथाओं को संकलित करके किया है। - डॉ. सागरमल जैन मुनिश्री चौथमलजी संगीतमय भक्तिगीतों के रचना-शिल्प के कुशल अभियन्ता एवं स्वर-लहरी के साधक गीतकार के रूप में जैन साहित्य-जगत् के एक भास्वर नक्षत्र थे । उनकी आरतियाँ और भजन जैनों में आज भी बड़े चाव से गाये जाते हैं। उनकी रचनाओं में श्रोता के हृदय की अतल गहराइयों को छु लेने की अद्भुत-अपूर्व क्षमता है। एक सफल गीतकार के अतिरिक्त वे एक कुशल प्रवचनकार भी थे। उनकी सहज प्रवचन-शैली में श्रोता को अभिभूत कर लेने की विलक्षण शक्ति थी। उनके शब्द सीधे हृदय से निकलते थे, किन्तु इस सब से ऊपर वे एक साहित्य-सृष्टा भी थे। उनके रचना-शिल्प का सर्वोत्तम सौन्दर्य उनके ग्रन्थ 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन भाष्य' में प्रतिबिम्बित हुआ है। यद्यपि प्रस्तुत कृति की मूलगाथाएँ आगमों से संकलित हैं, तथापि इनके चयन, संयोजन तथा उन पर भाष्य करने में वे एक मौलिक लेखक की अपेक्षा भी अधिक व्यक्त हुए हैं। जैन-जगत् में 'गीता' एवं 'धम्मपद' के समान एक संक्षिप्त किन्तु सारभूत ग्रन्थ की महती आवश्यकता वर्षों से अनुभव की जा रही थी। इसकी पूर्ति का एक प्रयास पं. बेचरदासजी ने 'महावीर-वाणी' के रूप में श्वे. आगमों से कुछ गाथाओं का संकलन करके किया था; किन्तु मुनिजी का यह प्रयास उससे अधिक व्यापक एवं गम्भीर था। मुनिजी ने गीता की शैली पर १८ अध्यायों में 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' का संकलन किया और आचारांग, सूत्रकृतांग, समवायांग, स्थानांग, ज्ञाताधर्मकथांग, प्रश्नव्याकरण, भगवती, जीवाभिगम, उत्तराध्ययन एवं दशवकालिक सूत्रों से उसके हेतु गाथाओं का चयन किया। प्रस्तुत ग्रन्थ षड्द्रव्य-निरूपण, कर्म-निरूपण, धर्म-स्वरूप, आत्मशुद्धि, ज्ञान प्रकरण, सम्यक्त्व प्रकरण, (चरित्र) धर्म निरूपण, ब्रह्मचर्य निरूपण, साधुधर्म निरूपण, प्रमादपरिहार, भाषास्वरूप, लेश्या-स्वरूप, कषाय-स्वरूप, वैराग्य सम्बोधन, मनोनिग्रह आवश्यक कर्तव्य, स्वर्ग-नर्क निरूपण एवं मोक्ष स्वरूप इन अठारह अध्यायों में विभक्त है। विषयों के अनुरूप शास्त्रीय गाथाओं का चयन कर एवं उन पर भाष्य लिखकर मुनिजी ने जैन साहित्य की अपूर्व सेवा की है। यद्यपि भगवान् महावीर के २५ वें निर्वाणशताब्दिवर्ष में दिल्ली में जैन विद्वत्वर्ग के सान्निध्य में पारित 'समणसुत्तं' इसी दिशा में एक अगला कदम अवश्य है (जो कि सर्व जैन सम्प्रदायों के आगमों से संकलित एवं सर्व जैन सम्प्रदायों द्वारा स्वीकृत है) तथापि इससे 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' की गरिमा खण्डित नहीं होती, अपितु एक व्यक्तिके द्वारा वर्षों पूर्व किये गये इस महान् प्रयास की महिमा और भी बढ़ जाती है। चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यही कारण था कि उसके प्रकाशन पर शताधिक जैन- जैनेतर विद्वानों ने और राष्ट्रीय स्तर के अनेक पत्रों ने उसकी असाम्प्रदायिकता एवं महत्ता की मुक्तकण्ठ से सराहना की थी । वस्तुतः प्रस्तुत संकलन में हम उनके विचारों का सच्चा प्रतिबिम्ब पाते हैं और यहीं उनकी मौलिकता भी परिलक्षित होती है । व्यक्ति की अभिरुचि और दृष्टि 'चयन' को प्रभावित करती है । वस्तुतः कोई भी चयन आत्मनिष्ठ ( सब्जेक्टिव्ह) और व्यक्ति की अभिरुचियों का प्रतिनिधि प्रतिबिम्ब होता है । प्रस्तुत कृति में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जहाँ मुजी की अन्तरात्मा ने अपनी व्यथा को खोला है। आचरण-विहीन शास्त्रीय पाण्डित्य प्रति अपनी आत्मव्यथा का प्रकटीकरण उन्होंने 'ज्ञान प्रकरण' में उत्तराध्ययन' की कुछ गाथाओं को संकलित करके किया है । वस्तुतः इस प्रकरण में ज्ञान की महत्ता गायी जा सकती थी और तत्संबन्धी अनेक गाथाएँ भी संकलित की जा सकती थीं, किन्तु मुनिजी ने जिन गाथाओं को चुना वे एक ओर उनकी मौलिक सूझ को अभिव्यक्त करती हैं, तो दूसरी ओर युग-प्रवाह चरित्र-विहीन ज्ञान का जो वर्चस्व बढ़ता जा रहा था उसके प्रति उनकी आत्म-व्यथा की परिचायक भी हैं । मुनिजी ने उक्त अध्याय में 'उत्तराध्ययन' की जिन गाथाओं को लिया है, वे निम्न हैं इहमेगे उ मण्णंति, अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरिअं विदित्ताणं, सव्व दुक्खा विमुच्चई ।। भणंता अकरिता य, बंधमोक्ख पइण्णिणो । वायाविरियमत्तेण समासासंति अप्पयं ।। ण चित्ता तायएभासा कओ विज्जाणु सासणं । विसण्णा पावकम्मेहिं बाला पण्डिय माणिणो ।। ( कुछ लोग यह मानते हैं कि पाप कर्मों का परित्याग किये बिना ही केवल आर्यतत्त्व ज्ञान से ही वे सब दुःखों से मुक्ति पालेंगे, किन्तु जानते हुए भी आचरण नहीं करनेवाले वे लोग, बंधन और मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ, केवल शब्दों से अपनी आत्मा -ज्ञान प्रकरण ८-१० संतोष देते हैं (अर्थात् आत्मप्रवञ्चना करते हैं । ) अपने आप को पण्डित माननेवाले, पाप कर्मों में अनुरक्त. वे मूर्ख लोग यह नहीं जानते कि यह शब्द कौशल से युक्त वाणी ( भाषा) उनकी त्राता नहीं होगी । ) २० वस्तुतः 'ज्ञान प्रकरण' में (एकान्त) ज्ञानवाद की इन आलोचनात्मक गाथाओं का संकलन निष्प्रयोजन या अस्वाभाविक नहीं है । यह रचनाकार एवं संकलन - कर्ता की सोद्देश्यता का प्रतीक है। वाणी का एक जादूगर एवं अगाध पाण्डित्य का धनी व्यक्ति पंक्तियों से जुड़ा होगा तो निश्चय या तो आत्म-पीड़ा के अनुभव से गुजरा होगा, या फिर सच्चरित्र के प्रति अनन्य निष्ठा से युक्त रहा होगा । प्रस्तुत ग्रन्थ में इस प्रकार के अनेक संदर्भ हैं जहाँ उसके शिल्पकार की अन्तरात्मा के दर्शन और उसके शिल्प - वैभव का आस्वाद हमें मिल जाता है । काश, हम उस महान् शिल्पी के शताब्दि - वर्ष में उसके जीवन-दर्शन से प्रेरणा ले सकते ! For Personal & Private Use Only तीर्थंकर नव. दिस. १९७७ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दिवाकर : एक विलक्षण व्यक्तित्व "वे गुत्थियों को और अधिक उलझाना नहीं वरन् सरल-सहज मुद्रा में सुलझाना जानते थे। दो भिन्न तटों पर खड़े व्यक्तियों के बीच उनके प्रवचन मित्रता और एकता के सेतु होते थे; वस्तुतः वे कैंची नहीं सूई थे, जिनमें चुभन थी किन्तु दो फटे दिलों को जोड़ने की अपूर्व क्षमता थी। उनके प्रवचन सरल, सरस, सुबोध, सुलझे हुए और अध्ययनपूर्ण होते थे, जिनमें वैचारिक निर्मलता के साथ अनुभूति का अमृत भी मिला होता था। छोटेछोटे तराशे हुए रूपक, लोककथाएँ, दोहे, शेर, श्लोक, आगम-गाथाएँ और भजन की स्वर-लहरी सब विषय-वस्तु को इतना सुबोध-सहज बना देते थे कि श्रोता आत्मविभोर हो उठता था। - देवेन्द्र मुनि शास्त्री जैन दिवाकर स्व. श्री चौथमलजी महाराज स्थानकवासी जैन परम्परा के एक देदीप्यमान नक्षत्र थे। वे बीसवीं सदी के एक प्रतिभासम्पन्न साधक थे। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व बहुआयामी था। एक ओर जहाँ वे अध्यात्म-साधना में तल्लीन रहते थे, दूसरी ओर वहीं समाज का कुशल नेतृत्व भी करते थे। तीसरी ओर वे जन-जन की व्यक्तिगत समस्याओं के समाधान में तत्पर-सन्नद्ध थे तो चौथी ओर अध्ययन-अध्यापन-प्रवचन में पटु थे। वे कविता लिखते थे, लेख लिखते थे, जनता-जनार्दन से बातचीत करते थे, किन्तु आत्मा की अनन्त-अतल गहराइयों में घूमते-झूमते रहते थे। पनिहारिन का ध्यान जैसे घड़े में, नट का नृत्य करते हुए रस्सी में, और पत्नी का अन्यान्य गार्ह स्थिक कार्य करते हुए भी अपने प्रियतम में बना रहता है ठीक वैसे ही उनका ध्यान आत्मा में अनवरत बना रहता था। _मैंने उनके सर्वप्रथम दर्शन अपनी जन्मस्थली उदयपुर में किये। उस वर्ष उनका वर्षावास' वहीं था। पंचायती नोहरे के विशाल प्रांगण में उनके मर्मस्पशी प्रवचन होते थे, जिनमें हिन्दू-मुसलमान, सिक्ख पारसी, जैन-वैष्णव-शैव सभी हजारों की संख्या में उपस्थित होते थे। विशाल काया, प्रशस्त ललाट, उन्नत शीर्ष, ओजस्ववर्चस्व-निर्मित पेशिल' भुजाएँ, प्रेम-पीयूष बरसाते निर्मल नेत्र, श्वेत परिधान-वेष्टित शरीर और मुखचन्द्र पर शोभित मुखवस्त्रिका देखकर दर्शक प्रथम दर्शन में ही उनसे प्रभावित हो जाता था और जब उनकी मेघ-मन्द्र गर्जना सुनता था तो उसका मन-मयूर नाच उठता था । चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी प्रवचन-शैली अपनी निराली थी । वह किसी का अनुकरण-अनुसरण नहीं थी, मौलिक थी। जब वे बोलना प्रारम्भ करते तब कुछ उखड़े-उखड़े लगते, एकदम बालकों की तरह साधारण बातें सुनाते । श्रोता सोचता कि क्या ये ही जैन दिवाकर हैं, जिनकी मैंने इतनी प्रशंसा और ख्याति सुन रखी थी ? किन्तु कुछ ही क्षणों बाद वे प्रवचन के बीच इस प्रकार जमते और अन्त में कुछ ऐसे असाधारणअलौकिक हो उठते कि सारा मैदान उनके हाथ रहता। मैं उनकी प्रवचन-शैली की तुलना फ्रान्स के विशिष्ट विचारक विक्टर ह्य गो की लेखन-शैली से करता हूँ। विक्टर ह्य गो के प्रारम्भिक परिच्छेद इतने 'इनवाइटिंग नहीं होते थे किन्तु बाद के इतने आकर्षक होते थे कि पाठक उन्हें छोड़ नहीं पाता था । पाठक के दिलदिमाग़ में वे एक चलचित्र की भाँति घूमने लगते थे। जैन दिवाकरजी की भाषणकला की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे अपने प्रवचनों में कभी खारे नहीं पड़ते थे, खारी बात को भी वे इस प्रकार रखते थे कि श्रोता समझते कि वे खारे नहीं हैं, खरे हैं। भाषा उनकी सीधी-सादी, सरल-सुबोध होती थी। उसमें राजस्थानी और मालवी शब्दों के साथ उर्दू का भी किंचित् पुट होता था । उच्चारण साफ था, आवाज बुलन्द और मधुर थी। वे गुत्थियों को उलझाना नहीं, सुलझाना जानते थे। दो भिन्न तटों पर खड़े व्यक्तियों को वे अपने प्रवचन-सेतुओं से मिलाना चाहते थे। वे कैंची नहीं, सूई थे जो दरार-पड़े दिलों को जोड़ती है, तोड़ती या काटती नहीं है । उनके प्रवचन सरल, सरस, सुलझे हुए तथा अध्ययन-प्रवण होते थे, जिनमें चैन्तनिक निर्मलता के साथ अनुभूति का अमृत भी प्रचुर होता था। छोटे-छोटे रूपक, लोककथाएँ, दोहे, शेर, श्लोक, गाथाएँ और भजन प्रतिपाद्य विषय को इतना आकर्षक और सहज बना देते थे कि श्रोता ठीक उसी तरह झूम उठता था जैसे बीन सुन कर साँप । जिस किसी ने भी आपका प्रवचन सुना वह सदैव के लिए आपका हो गया। क्या राजा, क्या ठाकुर, क्या सेठ, क्या ग़रीब सब आपके प्रवचन सुनने एक बरसाती नदी की भाँति उमड़ आते और शान्त चित्त से उसे सुनते । आप जहाँ भी जाते वहाँ अपार जन-समुद्र उमड़ पड़ता। ___मैंने दुबारा आपके दर्शन किये सन् १९४० में मोकलसर (राजस्थान) में। उस समय मैं महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज एवं उपाध्याय गुरुवर्य श्री पुष्कर मनिजी के पास श्रमण धर्म स्वीकार कर चुका था । आप अपने योग्य शिष्य-परिकर के साथ वहाँ पधारे थे। मैंने देखा जैन दिवाकरजी महाराज का शरीर जीर्ण हो चुका था, फिर भी वे दीवार के सहारे नहीं बैठते थे; तन उनका बूढ़ा था. मन युवा था । तरुणों से बहुत अधिक उनके मन में उत्साह और बल था। उनकी वाणी में सिंह-गर्जना थी । जीवन की साँझ में सूरज की जोत ज़रूर मन्द पड़ जाती है; किन्तु जैन दिवाकरजी का आत्मतेज मन्द नहीं हुआ था, वह उत्तरोत्तर अधिक तेजोमय और ऊर्जस्वी हुआ था, हो रहा था। २२ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में श्रमण के लिए आदेश है--सज्झाय जोगे पयतो भवेज्जा (स्वाध्याय योग में सदा यत्नवान बने रहो) । जीवन का एक क्षण भी निरर्थक मत जाने दो। मैंने इस आदेश की छाया में देखा कि दिवाकरजी महाराज मध्याह्न में क़लम लिये लिख रहे हैं। सहज ही पूछ बैठा--'आप विश्राम क्यों नहीं करते?' मुस्कराते हुए बोले-'साधक के लिए आराम कैसा? हम श्रमण हैं, श्रम हमारा कर्तव्य है। विहार में स्थान की अनुकूलता के अभाव में गंभीर विषयों पर न लिख कर कविता लिखता हूँ । कविता करते समय मन की सारी थकान मिट जाती है।' ____ मैंने फिर पूछा-'आज तक आपने कितनी कविताएं लिखीं हैं ?' खिले हुए मुखमण्डल के साथ बोले --'मेरी रुचि बचपन से ही कविता में रही है। कितना लिखा इसका हिसाब नहीं रखा, पर हजारों पद्य लिखे हैं, और बीसियों चरित्र भी कविता में ही लिखे हैं।' ____ मैंने उनके कविता-साहित्य को पढ़ा है । वहाँ कोई शब्दजाल नहीं है, भावों की गम्भीरता है; पाण्डित्य-प्रदर्शन नहीं है, हृदय की सरसता है। उसमें सर्वत्र जन-जन के जीवन के लिए मंगलमयी भावनाएं थिरक रही हैं। वार्तालाप में मैंने उनसे पूछा-'माना, अन्य जैन संप्रदायों के साथ हमारा सैद्धान्तिक मतभेद है, किन्तु स्थानकवासी समाज में ही आज नाना संप्रदाय हैं जिनमें सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है, चरित्र की तरतमता का भेद है । यह भेद अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि जहाँ किसी एक संप्रदाय में बीस साधु हैं वहाँ चारित्र को लेकर वैयक्तिक साधना-क्षमता के अनुसार तरतमता का अन्तर होगा ही। जैसे हाथ की पाँचों अंगुलियाँ समान नहीं हैं, वैसे ही सभी साधु समान नहीं हो सकते। भगवान् महावीर के युग में भी समानता नहीं थी; यदि समानता होती तो सम्राट श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर धन्ना को सर्वश्रेष्ठ क्यों बनाते ? अतः इस सामान्य प्रश्न को लेकर हम इतने अधिक उलझ-पुलझ गये हैं कि जिसे देखकर मन अनायास ही खिन्न हो उठता है, क्या इस सम्बन्ध में आपने कभी कोई विचार किया है ?' तनिक गंभीर हुए वे बोले –'छोटे-छोटे मुनियों के अन्तर्मन को यह प्रश्न झकझोर रहा है, यह जागृति का चिह्न है। मैं वर्षों से स्थानकवासी समाज की एकता के लिए प्रयास कर रहा हूँ किन्तु मुझे परिताप है कि मेरा संप्रदाय जो आज दो भागों में विभाजित है, कोई आदर्श उपस्थित नहीं कर पाया है। मेरी हादिक इच्छा है कि स्थानकवासी समाज एक हो, उसमें एकता स्थापित हो। यदि दीर्घकाल तक यही स्थिति रही तो वह शोचनीय बन जाएगी।' __मुझे यह लिखते हुए अपार हर्ष होता है कि दिवाकरजी महाराज ने स्थानकवासी समाज की एकता के लिए संगठन की निर्मल भावना से अपने संप्रदाय को विसर्जित चौ. ज. श. अंक २३ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर दिया । सर्वाधिक योग्य होते हुए भी उन्होंने आचार्य-जैसे पद को स्वीकार न कर अपने उदार और विशाल हृदय का जो परिचय दिया वह एकता-प्रयत्नों के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जाएगा । उन्होंने स्थानकवासी परम्परा की दृष्टि से ही नहीं अपितु स्थानकवासी मूर्तिपूजक और दिगम्बर समाज की एकता के लिए भी (बायें से) कोटा में आचार्य सूर्यसागरजी म., जैन दिवाकर चौथमलजी म., आचार्य आनन्दसागरजी म., उपाध्याय प्यारचन्दजी म., मुनिश्री अशोक म. भरसक प्रयास किये। कोटा में तीनों मंप्रदायों के सन्तों ने एक मंच पर लम्बे समय तक प्रवचन देकर एकता की जो अविचल पहल की उसे कौन विचारक विस्मृत कर सकता है ? वस्तुत: वे जैन एकता के प्रबल पक्षधर थे । जैन समाज में एकता की जो स्वर-लहरियाँ सुनायी दे रही हैं, उसके मूल प्रेरक-प्रवर्तक वे ही थे । ___मैंने अत्यन्त नम्रता से दिवाकरजी महाराज से पूछा-'आप वर्षों से साधु-साध्वियों का नेतृत्व कर रहे हैं, अपने अनुभव के आधार पर यह बताने का अनुग्रह करें कि एक कुशल शास्ता के लिए मुख्यतः किन सद्गुणों की आवश्यकता होती है ?' उस मनीषी ने उत्तर दिया-'देवेन्द्र, कुशल शासक वह है, जिसमें धीरज हो, सहनशीलता हो, निर्णय की क्षमता हो, विनम्रता और गांभीर्य हो, हर व्यक्ति के अन्तर्मन को समझने-परखने की योग्यता हो, और साथ ही बात पचाने की शक्ति हो । अनुशास्ता बनना सरल है, किन्तु अनुशासक में कुशलता का निखार आना कठिन है । यह काँटों का ताज है । अनुशास्ता को समय पर कठोर भी होना होता है, कोमल भी; दृढ़ भी, लचीला भी ।' ___ मैंने पुनः प्रश्न किया – 'भगवन्, आप कोमलता और कठोरता में से विशेष किसे पसन्द करते हैं ?' २४ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पर सहज ही वे बोले - 'अकेली कोमलता अनुशासक के लिए हानिप्रद है, कठोरता भी एकार्कः यदि वह है तो भयावह है । शासक को तो कुम्हार की तरह होना चाहिये । तुमने कुम्हार देखा है न ? वह ऊपर से प्रहार करता है, किन्तु भीतर से अपने सुकोमल हाथ का दुलार देता है । चाणक्य-नीति अनुशासक को कठोर होने के लिए प्रेरित करती है, उसका कथन है कि अनुशासक को प्रतिक्षण कठोर रहना चाहिये । सूरज कठोर है, अतः ग्रहण उसे विशेष नहीं डसते; चाँद शीतल है, राह उसे बार-बार ग्रसता है; किन्तु धर्म कहता है कि अपने लिए कठोर बनो बज्र से अधिक'; किन्तु अन्यों के लिए मक्खन-जैसे मृदु बनो । अनुशास्ता मर्यादा-पालन कराने के लिए कठोर भी होता है, और कोमल-मृदु भी; किन्तु दोनों ही स्थितियों में उसमें परमार्थ की भावना होती है, स्वार्थ की नहीं । हित की बुद्धि से किया गया अनुशासन ही लाभप्रद होता है।' ___मैंने अन्त में दिवाकरजी महाराज से निवेदन किया कि वे मुझे कुछ ऐसी शिक्षाएँ दें, जिनसे जीवन में निखार आ सके । मेरे सिर पर अपना वरदानी हाथ रखते, वाणी में मिसरी घोलते वे बोले'देवेन्द्र, तुम अभी बालक हो, हम बूढ़े हो चले हैं । तुम्हें धर्मध्वज फहराने के लिए आगे आना है। याद रखो, विकास का मूल मन्त्र है विनय । विनय का स्थान विद्या से कहीं ऊँचा है । विनय साधना की आत्मा है, वह जैन शासन का मूल है। तुम स्वयं विनम्र बनो, झुकना सीखो । जो स्वयं झुकता है, झुकना जानता है, वही दूसरों को झुका सकता है । जो खुद नमता है, वहीं दूसरों को नमा सकता है। दूसरी बात - हमेशा मधुर बोलो, बिना प्रयोजन मत बोलो; वाणी पर सदा संयम रखो । तीसरी बात - समय का सदा सदुपयोग करो । जो क्षण बीत जाते हैं, वे लौटकर नहीं आते । समय का दुरुपयोग करनेवाला जीवन-भर पछताता है ।' तुम्हारी उम्र पढ़ने की है, खूब पढ़ो; जितना अधिक पढ़ोगे, बुद्धि का उतना ही अधिक विकास होगा । चौथी बात - आचारनिष्ठ बनो। आचार बिना, विचारों में वैराग्य नहीं आ सकता । जिस दीपक में जितना अधिक तेल होगा, वह उतना ही अधिक प्रकाश करेगा । आचार के तेज से ही विचारों में विमलता आती है । दिवाकरजी महाराज की अमूल्य शिक्षाएँ सुनकर मैं चरणों में नत हो गया; और आज जब भी उनकी उक्त शिक्षाएँ याद आ जाती हैं, हृदय श्रद्धा से छलक उठता है, विनय में झुक जाता है। ___'अपढ़ लोग या तो प्रतिज्ञा लेते नहीं, ले लेते हैं तो उसका दृढ़ता से पालन करते हैं। 'आग भी जलाती है और क्रोध भी जलाता है, किन्तु दोनों से उत्पन्न होने वाली जलन में महान् अन्तर है। आग ऊपर-ऊपर से चमड़ी आदि को जलाती है, मगर क्रोध अन्तरतर को समाप्त करता और जलाता है। क्रोध की अग्नि बड़ी ज़बर्दस्त होती है। -मुनि चौथमल चौ. ज. श. अंक २५ For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वन्दन, अभिवन्दन ! वन्दन, शतशत वन्दन, अभिनन्दन ! जैन जगत् के पूज्य दिवाकर / जैन दिवाकर तुम जन्मे | भू का उतरा भार / हुआ पाखण्ड अनावृत मेद-भाव के टूटे बंधन | हटी ज्ञान पर छायी कालिख अरुणोदय सम्यवत्व उषा का | मिथ्यात्व तिमिस्रा हुई तिरोहित संकल्प तुम्हारा | भव-मुक्ति का / बन्दीगृह भी रोक न पाया रोक न पायी गृह-दीवारें | रोक न पाया प्रणय-पाश भी । तुम बढ़े / गतिशील हुआ संकल्प | सिमटी सिंकुड़ी जिनवाणी | सह्य न हो पाया|घेरे को तोड़ निकाली / पहुँचायी जन-जन तक उसको हर्षित सारे / श्रेष्ठि-निर्धन | जनसाधारण | महल- अटारी कुटिया जर्जर जगवल्लभ | किये प्रहार | रूढ़ियों पर तुमने / जन-भाषा में बतलाया, समझाया सिखलाया | महावीर का / मंगलमय उपदेश सुनाया कितना अद्भुत ! जादू था वाणी में / जो भी आया | हो गया तुम्हारा कर गया समर्पित | कल्मष अपना / बदले में प्रतिदान प्राप्त कर धन्य हो गया / संयम, तप, सम्यक्त्व रत्न का, तुम तपे | तुम्हारा तप-तेज दिवाकर / कर गया तिरोहित अंधकार अज्ञान - निशा का / भूले-मटके गतिशील हुए / गतिशील हुआ | जन-जन का जीवन जीवन को तुमने बतलाया सत्य | सत्य को लक्ष्य, लक्ष्य को दी परिभाषा | जिनवाणी हो गयी निहाल तुम जिनवाणी के अद्भुत व्याख्याता | सर्वधर्म - समन्वय के सूत्रधार कवि | संत | महर्षि | वक्ता | उद्घोषक अनेकान्त के, संघ - ऐक्य के प्रबल प्रबोधक / करनी - कथनी की / एकरूपता जीवन का अवलम्ब तुम्हारा | जन्मशती पर | आज तुम्हारा | जैन दिवाकर | वन्दन | शतशत वन्दन |अभिवन्दन । विपिन जारोली तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो प्रत्येक विषय पर तर्क-वितर्क करने को तैयार रहते हैं और उनकी बातों से ज्ञात होता है कि वे विविध विषयों के वेत्ता हैं, मगर आश्चर्य यह देखकर होता है कि अपने आन्तरिक जीवन के संबन्ध में वे एकदम अनभिज्ञ हैं। वे 'दिया-तले अंधेरा' की कहावत चरितार्थ करते हैं । आँख दूसरों को देखती है, अपनेआपको नहीं देखती । इसी प्रकार वे लोग भी सारी सृष्टि के रहस्यों पर तो बहस । कर सकते हैं, मगर अपने को नहीं जानते । | न्यावर, ८ सित. १९४१ -मुनिधी चौथमलजी म. प्रवचन-अणियाँ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जहाँ झूठ का वास होता है, वहाँ सत्य नहीं रह सकता। जसे रात्रि के साथ सूरज नहीं रह सकता और सूरज के साथ रात नहीं रह सकती, उसी प्रकार सत्य के साथ झूठ और झूठ के साथ सत्य का निर्वाह नहीं हो सकता। एक म्यान में दो तलवारें कैसे समा सकती हैं ? इसी प्रकार जहाँ सत्य का तिरस्कार होगा, वहाँ झूठ का प्रसार होगा। -मुनि चौथमल For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-मणियाँ १. धन चाहे जब मिल सकता है, किन्तु यह समय बार-बार मिलने वाला नहीं ; अतएव धन के लिए जीवन का सारा समय समाप्त मत करो। धन तुच्छ वस्तु है, जीवन महान् है । धन के लिए जीवन को बर्बाद कर देना कोयलों के लिए चिन्तामणि को नष्ट कर देने के समान है । २. धर्म, पंथ, मत या संप्रदाय जीवन को उन्नत बनाने के लिए होते हैं, उनसे आत्मा का कल्याण होना चाहिये ; किन्तु कई लोग इन्हें भी पतनका कारण बना लेते हैं। ३. आत्मा निर्बल होगी तो शरीर की सबलता किसी भी काम नहीं आयेगी । तलवार कितनी ही तेज क्यों न हो, अगर हाथ में ताक़त नहीं है तो उसका उपयोग क्या है ? ८. अहिंसा में सभी धर्मों का समाबेश हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे हाथी के पैर में सभी के पैरों का समाबेश हो जाता है । ५. जैसे मकान का आधार नींव है, उसी प्रकार मुक्ति का मूलाधार सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान के अभाव में मोक्षमार्ग की आराधना कभी नहीं हो सकती । ... ६. धर्म पर किसी का आधिपत्य नहीं है । धर्म के विशाल प्रांगण में किसी भी प्रकार की संकीर्णता और भिन्नता को अवकाश नहीं है । यहाँ आकर मानव-मात्र समान बन जाता है । ७. जो धर्म इस जीवन में कुछ भी लाभ न पहुँचाता हो और सिर्फ परलोक में ही लाभ पहुँचाता हो, उसे मैं मर्दा धर्म समझता हैं । जो धर्म वास्तव में धर्म है, वह परलोक की तरह इस लोक में भी लाभकारी अवश्य है। ८. आपको दो नेत्र प्राप्त हैं । मानो प्रकृति आपको संकेत दे रही है एक नेत्र से व्यवहार देखो और दूसरे नेत्र से निश्चय देखो । एकान्तवाद प्रभु की आज्ञा के विरुद्ध है । ९. धर्म किसी खत या बगीचे में नहीं उपजता, न बाजार में मोल बिकता है। धर्म शरीर से-जिसमें मन और वचन भी गर्भित हैं-उत्पन्न होता है । धर्म का दायरा अत्यन्त विशाल है । उसके लिए जाति-विरादरी की कोई भावना नहीं है । ब्राह्मण चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो या चाण्डाल, क्षत्रिय हो या मेहतर हो, कोई किसी भी जाति का हो, कोई भी उसका उपार्जन कर सकता है । १०. राष्ट्र के प्रति एक योग्य नागरिक के जो कर्तव्य हैं, उनका ध्यान करो और पालन करो; यही राष्ट्रधर्म है । राष्ट्रधर्म का भलीभाँति पालन करने वाले आत्मधर्म के अधिकारी बनते हैं । जो व्यक्ति राष्ट्रधर्म से पतित होता है, वह आत्मिक धर्म का आचरण नहीं कर सकता। ११. यह अछूत कहलाने वाले लोग तुम्हारे भाई ही हैं इनके प्रति घृणा-द्वेष मत करो। १२. धर्म न किसी देश में रहता है, न किसी खास तरह के लौकिक बाह्य क्रियाकाण्ड में ही रहता है। उसका सीधा संबंध आत्मा से है । जो कषायों का जितना त्याग करता है, वह उतना ही अधिक धर्मनिष्ठ है, फिर भले ही वह किसी भी वेश में क्यों न रहता हो? १३. अगर आप सुख प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको आत्म-शुद्धि करना पड़ेगी। आत्मशुद्धि के लिए आत्मावलोकन आवश्यक है । आत्मावलोकन का अर्थ यह नहीं कि आप अपनी मौजदा और गैरमौजूदा विशेषताओं का ढिंढोरा पीटें, अपन। बड़प्पन जाहिर करने का प्रयत्न करें; नहीं, यह आत्मावलोकन नहीं, आत्मवंचना है। १४. बोतल में मदिरा भरी है और ऊपर से डांट लगा है । उसे लेकर कोई हज़ार बार गंगा जी में स्नान कराये तो क्या मदिरा पवित्र हो जाएगी ? नहीं। इसी प्रकार जिसका अंतरंग पाप और कषायों से भरा हुआ है, वह ऊपर से कितना ही साफ-सुथरा रहे, वास्तव में रहेगा वह अपावन । १५. आत्म-कल्याण का भव्य भवन आज खड़ा नहीं कर सकते तो कोई चिन्ता नहीं, नींव तो आज डाल ही सकते हो। आज नींव लगा लोगे तो किसी दिन शनैः शनैः महल भी खड़ा हो सकेगा । जो नींव ही नहीं लगाना चाहता, वह महल कदापि खड़ा नहीं कर सकता। १६. ज्ञान का सार है विबेक की प्राप्ति और विबेक की सार्थकता इस बात में है कि प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव जागृत किया जाए। १७. धाय बालक को दूध पिलाती है, रमाती है फिर भी भीतर-ही-भीतर समझती है कि यह बालक मेरा नहीं पराया है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव धन-जन आदि की रक्षा करता है और उसका उपयोग भी करता है तथापि अन्तस् में जानता है कि यह सब पर पदार्थ है । यह आत्ममूल नहीं है ऐसा समझ कर वह उनमें गृद्ध नहीं बनता, अनासवत रहता है। १८. किसी भी किसान से पूछो कि वह अपने खेत को बार-बार जोतकर कोमल क्यों बनाता है ? तो वह यही उत्तर देगा कि कठोर भूमि में अंकुर नहीं उग सकते । यही बात ३० तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य के हृदय की है। मनुष्य का हृदय जब कोमल होगा, तब उसकी अभिमानरूपी कठोरता हट जाएगी और उसमें धर्मरूपी अंकुर उग सकेगा। १९. जूतों को बगल में जमा लेंगे, तीसरी श्रेणी के मुसाफिरखाने में जूतों को सिरहाने रखकर सोयेंगे, मगर चमार से घृणा करेंगे ? यह वया है ? २०. ज्ञानी का ज्ञान उसे दुःखों की अनुभूति से बचाने के लिए कवच का काम करता है, जबकि अज्ञानी का अज्ञान उसके लिए विष-बुझे बाण का काम करता है। २१ स्वाध्याय का अर्थ कण्ठस्थ किये हुए गद्य-पद्य को तोते की तरह बोलते जाना ही नहीं समझना चाहिये । जो पाठ बोला जा रहा है, उसका आशय समझते जाना और उसकी गहराई में मन लगा देना आवश्यक है । २२ भाई, तू चिकनी मिट्टी की तरह संसार से चिपटा है, अतः संसार मे फंस जाएगा। रेत के समान बनेगा तो संसार से निकल जाएगा। २३. जैसे सूर्य और चन्द्र का, आकाश और दिशा का बंटवारा नहीं हो सकता, उसी प्रकार धर्म का भी बंटवारा संभव नहीं है । धर्म उस कल्पवृक्ष के समान है, जो समानरूप से सब के मनोरथों की पूर्ति करता है और किसी प्रकार के भेदभाव को प्रश्रय नहीं देता। २४. बड़ों का कहना है कि मनुष्य को कम खाना चाहिये, गम खाना चाहिये और ऊँच-नीच वचन सह लेना चाहिये तथा शान्त होकर रहना चाहिये । गृहस्थी में जहां ये चार बातें होती हैं, वहां बड़े आनन्द के साथ जीवन व्यतीत होता है। २५. जिस मार्ग पर चलने से शत्रुता मिटती है, मित्रता बढ़ती है, शान्ति का प्रसार होता है, और वलेश, कलह एवं वाद का नाश होता है, वह मार्ग सत्य का मार्ग है । २६. धन की मर्यादा नहीं करोगे तो परिणाम अच्छा नहीं निकलेगा । तृष्णा आग है, उसमें ज्यों-ज्यों धन का इंधन झोंकते जाओगे, वह बढ़ती ही जाएगी। २७. धर्म सुपात्र में ही ठहरता है कुपात्र में नहीं ; इसलिए धर्मयुक्त जीवन बनाने के लिए नीतिमय जीवन की जरूरत होती है । २८. अपना भ्रम दूर कर दे और अपने असली रूप को पहचान ले । जब तक तू असलियत को नहीं पहचानेगा, सांसियों के चक्कर में पड़ा रहेगा ।। २९. आत्मज्ञान हो जाने पर संसार में उत्तम-से-उत्तम समझा जाने वाला पदार्थ भी मनुष्य के चित्त को आकर्षित नहीं कर सकता । ३०. जो पूरी तरह वीतराग हो चुका है और जिसकी आत्मा में पूर्ण समभाव जाग उठा है, वह कैसे भी वातावरण में रहे, कैसे भी पदार्थों का उसे संयोग मिले उसकी आत्मा समभाव में ही स्थित रहती है। ३१ क्रोध एक प्रकार का विकार है और जहाँ चित्त में दुर्बलता होती है, सहनशीलता का अभाव होता है, और समभाव नहीं होता वहीं क्रोध उत्पन्न होता है। चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. जो मनुष्य अवसर से लाभ नहीं उठाता और सुविधाओं का सदुपयोग नहीं करता, उसे पश्चात्ताप करना पड़ता है और फिर पश्चात्ताप करने पर भी कोई लाभ नहीं होता। ३३. जो वस्तुएँ इसी जीवन के अन्त में अलग हो जाती हैं, जिनका आत्मा के साथ कुछ भी संबंध नहीं रह जाता है और अन्तिम जीवन में जिसका छट जाना अनिवार्य है, बे ही वस्तुएँ प्राप्त करना क्या जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य हो सकता है ? कदापि नहीं। महत्त्वपूर्ण कार्य है अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना, और आत्मा को कल्याण के उस मार्ग पर ले जाना कि फिर कभी अकल्याण से भेंट ही न करनी पड़े। ३४. बहुत से लोग चमत्कार को नमस्कार करके चमत्कारों के सामने अपने आपको समर्पित कर देते हैं । वे बाह्य ऋद्धि को ही आत्मा के उत्कर्ष का चिह्न समझ लेते हैं और जो बाह्य ऋद्धि दिखला सकता है, उसे ही भगवान् या सिद्ध-पुरुष मानलेते हैं, मगर यह विचार भ्रमपूर्ण है । बाह्य चमत्कार आध्यात्मिक उत्कर्ष का चिह्न नहीं है और जो जानबूझकर अपने भस्तों को चमत्कार दिखाने की इच्छा करता है और दिखलाता है, समझना चाहिये कि उसे सच्ची महत्ता प्राप्त नहीं हुई है। ३५. परिवर्तन प्रकृति का नियम है । यह नियम जड़ और चेतन सभी पर समान रूप से लागू हाता है । फूल जो खिलता है, कुम्हलाता भी है ; सूर्य का उदय होता है, तो अस्त भी होता है ; जो चढ़ता है, वह गिरता है । ३६. संस्कृत भाषा में 'गुरु' शब्द का अर्थ करते हुए कहा गया है-'गु' का अर्थ अन्धकार है और 'रु' का अर्थ नाश करना है। दोनों का सम्मिलित अर्थ यह निकला कि जो अपने शिष्यों के अज्ञान का नाश करता है, वही 'गुरु' कहलाता है । ३७. अपने जीवन के जहाज को जिस कर्णधार के भरोसे छोड़ रहे हो, उसकी पहले जाँच तो कर लो कि उसे स्वयं भी राम्ता मालूम है या नहीं ? विज्ञ सारथी को ही अपना जीवन-रथ सुपुर्द करो; ऐरे-गैरे को गुरु बना लोगे तो अन्धकार में ही भटकना पड़ेगा। ....३८. किसी की निन्दा करके उसकी गंदगी को अपनी आत्मा में मत समेटो । गुणीजनों का आदर करो । नम्रता धारण करो। अहंकार को अपने पास मत फटकने दो। ३९. यह क्या इन्सानियत है कि स्वयं तो भला काम न करो और दूसरे करें और कीर्ति पावें तो उनसे ईर्ष्या करो ? ईर्ष्या न करके अच्छे-अच्छे काम करो। ४०. जिसका जितना विकास हुआ है उसी के अनुसार उसे साधना का चुनाव करना चाहिये और उसी सोपान पर खड़े होकर अपनी आत्मा का उत्थान करने का प्रयत्न करना चाहिये । ४१ मानव-जीवन की उत्तमता की कसौटी जाति नहीं है, भगवद्भजन है । जो मनुष्य परमात्मा के भजन में अपना जीवन अर्पित कर देता है और धर्मपूर्वक ही अपना ३ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-व्यवहार चलाता है, वही उत्तम है, वही ऊँचा है, चाहे वह किसी भी जाति में उत्पन्न हुआ हो । उच्च-से-उच्च जाति में जन्म लेकर भी जो हीनाचारी है, पाप के आचरण में जिसका जीवन व्यतीत होता है और जिसकी अन्तरात्मा कलुषित बनी रहती है, वह मनुष्य उच्च नहीं कहला सकता । ४२. शुद्ध श्रद्धावान मनुष्य ही स्व-पर का कल्याण करने में समर्थ होता है । जिसके हृदय में श्रद्धा नहीं है और जो कभी इधर और कभी उधर लुढ़कता रहता है, वह संपूर्ण शक्ति से, पूरे मनोबल से साधना में प्रवृत्त नहीं हो सकता और पूर्ण मनोयोग के बिना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती। सफलता श्रद्धावान को ही मिलती है। ४३. मिथ्यात्व से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है । बाह्य शत्रु बाहर होते हैं और उनसे सावधान रहा जा सकता है, मगर मिथ्यात्व शत्रु अन्तर त्म। में घुसा रहता है, उससे सावधान रहना कठिन है। वह किसी भी समय, बल्कि हर समय हमला करता रहता है। बाह्य शत्र अवसर देखकर जो अनिष्ट करता है, उससे शौतिक हानि ही होती है, मगर मिथ्यात्व आत्मिक सम्पत्ति को धूल में मिला देता है। ४४. विज्ञान ने इतनी उन्नति की मगर लोगों की सुबुद्धि की तनिक भी तरक्की नहीं हुई । मनुष्य अब भी उसी प्रकार खूख्वार बना हुआ है, वह हिंसक जानवर की तरह एकदूसरे पर गुर्राता है और शान्ति के साथ नहीं रहता। अगर मनुष्य एक-दूसरे के अधिकारों का आदर करे और न्यायसंगत मार्ग का अनुसरण करे तो युद्ध जैसे विनाशकारी आयोजन की आवश्यकता ही न रहे । ____४५. हिंसा में अशान्ति की भयानक ज्वालाएँ छिपी हैं। उससे शान्ति कैसे मिलेगी ? वास्तविक शान्ति तो अहिंसा में ही निहित है । अहिंसा की शीतल छाया में ही लाभ हो सकता है। ४६. मनुष्य कितना ही शोभनीक क्यों न हो, यदि उसमें गुण नहीं है तो वह किस काम का ? रूप की शोभा गुणों के साथ है। ४७. याद रखो और सावधान रहो; दिन-रात, हर समय, तुम्हारे भाग्य का निर्माण हो रहा है । क्षण-भर के लिए भी अगर तुम गफलत में पड़ते हो तो अपने भविष्य को अन्धकारमय बनाते हो । सबसे अधिक सावधानी मन के विषय में रखनी है । यह मन अत्यन्त चपल है। समुद्र की लहरों का पार है, पर मन की लहरों का पार नहीं है। इसमें एक के बाद दूसरी ओर दूसरी के बाद तीसरी लहर उत्पन्न होती ही रहती है । इन लहरों पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है । ८८. वर्तमान में जो कुछ भी प्राप्त है, उसमें सन्तोष धारण करना चाहिये । सन्तोष ही शान्ति प्रदानकर सकता है । करोड़ों और अरबों को सम्पत्ति भी सन्तोष के बिना सुखी नहीं बना सकती; और यदि सन्तोष है तो अल्प साधन-सामग्री में भी मनुष्य आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है । ३३ चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९. जो भूत-भविष्यत् की चिन्ता छोड़कर वर्तमान परिस्थितियों में मस्त रहता है, वही जगत् में ज्ञानी है : सच पूछो तो ऐसे लोगों को ही वास्तविक आनन्द के खजाने की चाबी हाथ लगी है। ५०. मनुष्य जितना-जितना आत्मा की ओर झुकता जाएगा, उतना ही उतना सुखी बनता जाएगा। ५१ मिलावट करना घोर अनैतिकता है । व्यापारिक दृष्टि से भी यह कोई सफल नीति नहीं है । जो लोग पूर्ण प्रामाणिकता के साथ व्यापार करते हैं और शुद्ध चीजें बेचते हैं, उनकी चीज़ कुछ महंगी होगी और संभव है कि आरंभ में उसकी बिक्री कम हो, मगर जब उनकी प्रामाणिकता का सिक्का जम जाएगा और लोग असलियत को समझने लगेंगे तो उनका व्यापार औरों की अपेक्षा अधिक चमकेगा, इसमे संदेह नहीं । अगर सभी जैन व्यापारी ऐसा निर्णय कर लें कि हम प्रामाणिकता के साथ व्यापार करेंगे और किसी प्रकार का धोखा न करते हुए अपनी नीति स्पष्ट रखेंगे तो जैनधर्म की काफी प्रभावना हो, साथ ही उन्हें भी कोई घाटा न रहे। ५२. कोई चाहे कि दूसरों का बुरा करके मैं सुखी बन जाऊँ, तो ऐसा हाना संभव नहीं है । बबूल बोकर आम खाने की इच्छा करना व्यर्थ है । ५३ संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे पाकर तुम अभिमान कर सको, क्योंकि वह वास्तव मे तुम्हारी नहीं है और सदा तुम्हारे पास रहने वाली नहीं है। अभिमान करोगे ता आगे चलकर नीचा देखना पड़ेगा। ५४. इस विशाल विश्व में अनेक उत्तम पदार्थ विद्यमान हैं, परन्तु आत्मज्ञान से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है । जिसने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया, उसे कुछ प्राप्तव्य नहीं रह गया। ५५. आत्मा-आत्मा में फर्क नहीं है, फर्क है करनी में । जो जैसी करनी करता है, उसे वैसी ही सामग्री मिल जाती है। ५६. जो सुयोग मिला है, उसे संसार के आमोद-प्रमोद में विनष्ट मत करो, बल्कि आत्मा के स्वरूप को समझने में उसका सदुपयोग करो। ५७. किसी व्यक्ति के जीवन के सम्बन्ध में जब विचार करना हो तो उसके गुणों पर ही विचार करना उचित है । गुणों का विचार करने में गुणों के प्रति प्रीति का भाव उत्पन्न होता है और मनुष्य स्वयं गुणवान बनता है । ५८. अविवेकी जन अपने दोष नहीं देख पाते, पराये दोष देखते हैं; अपनी नित्दा नहीं करते, पराई निन्दा करते हैं। वे अपने में जो गुण नहीं होते, उनका भी होना प्रसिद्ध करते हैं और वर्तमान दोषों को ढंकने का प्रयत्न करते हैं, जबकि दूसरों में अविद्यमान दोषों का आरोप करके उनके गुणों को आच्छादित करने का प्रयास भी करते हैं। ५९. वास्तव में देखा जाए तो विकार देखने में नहीं, मन में है। मन के विकार ही कमी दृष्टि में प्रतिबिम्बित होने लगते हैं । मन विकार-विहीन होता है तो देखने से दृष्टा की आत्मा कलुषित नहीं होती। ३४ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. प्रामाणिकता का ताकाजा है कि मनुष्य जो बेष धारण करे, उसके साथ आने वाली जिम्मेदारी का भी पूरी तरह निर्वाह करे। ऐसा करने में ही उस बेष की शोमा है। ६१. व्यापारी का कर्तव्य है, जिसे देना है, ईमानदारी से दे और जिससे लेना है उससे ईमानदारी से ही ले-लेनदेन में बेईमानी न करे। ६२. शील आत्मा का भूषण है । उससे सभी को लाभ होता है, हानि किसी को नहीं होती। ६३. सत्य सब को प्रिय और असत्य अप्रिय है। जो लोग लोम से, भय से या आशा से प्रेरित होकर असत्य का प्रयोग करते हैं, वे मी असत्य को अच्छा नहीं समझते । उनके अन्तःकरण को टटोलो तो प्रतीत होगा कि वे असत्य से घृणा करते हैं, और सत्य के प्रति प्रीति और भक्ति रखते हैं । ६४. जब तक किसी राष्ट्र की प्रजा अपनी संस्कृति और अपने धर्म पर दृढ़ है तब तक कोई विदेशी सत्ता उस पर स्थायी रूप से शासन नही कर सकती।। ६५. अगर आप अपनी जुबान पर कब्जा करेंगे तो किसी प्रकार के अनर्थ की आशंका नहीं रहेगी। इस दुनिया में जो भीषण और लोमहर्षक काण्ड होते हैं, उनमें से अधिकांश का कारण जीभ पर नियंत्रण का न होना है। ६६. गुण आत्मा को पवित्रता की ओर प्रेरित करते हैं, दोषों से आत्मा अपवित्रकलुषित बनता है। गुण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आत्मा को स्वरूप की ओर ले जाते हैं, जबकि दोष उसे विकार की ओर अग्रसर करते हैं। ६७. आत्मशुद्धि के लिए क्षमा अत्यन्त आवश्यक गुण है । जैसे सुहागा स्वर्ण को साफ करता है, वैसे ही क्षमा आत्मा को स्वच्छ बना देती है। ६८. अमृत का आस्वादन करना हो तो क्षमा का सेवन करो। क्षमा अलौकिक अमृत है। अगर आपके जीवन में सच्ची क्षमा आ जाए तो आपके लिए यही धरती स्वर्ग बन सकती है। ६९. कृषक धान की प्राप्ति के लिए खेती करता है तो क्या उसे खाखला (भूसा) नहीं मिलता है ? मगर वह किसान तो मूर्ख ही माना जाएगा जो सिर्फ खाखले ( भूसे) के लिए खेती करता है। इसलिए जहाँ तपस्या को आवश्यक बताया गया है, वहीं उसके उदेश्य की शुद्धि पर भी पूरा बल दिया है। उद्देश्य-शुद्धि के बिना क्रिया का पूरा फल प्राप्त नहीं हो सकता। ७०. भोग का रोग बड़ा व्यापक है। इसमें उड़ती चिड़िया भी फंस जाती है; अतएव इससे बचने के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये और चित्त को कभी गद्ध नहीं होने देना चाहिये। ७१. तीन बातें ऐसी हैं जिनमें सब्र करना ही उचित है--किसी वस्तु का ग्रहण करने में, भोजन में और धन के विषय में ; मगर तीन बातें ऐसी भी हैं, जिनमें सन्तोष धारण करना उचित नहीं है--दान देने में, तपस्या करने में, और पठन-पाटन में। चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. निश्चय मानो कि सुख की कुंजी सन्तोष है, सम्पत्ति नहीं ; अतएव दूसरे की चुपड़ी देख कर ईा मत करो। अपनी रूखी को बुरा मत समझो और दूसरों की नकल मत करो। ७३ बीज बोना तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है, किन्तु बो देने के बाद इच्छानुसार अकूर पैदा नहीं किये जा सकते । अपढ़ किसान भी जानता है कि चने के बीज से गेहूँ का पौधा उत्पन्न नहीं होता, मगर तुम उससे भी गये-बीते हो । तुम सुख पाने के लिए कदाचरण करते हो। ७४. तीर्थकर कौन होता है । जगत् में अनन्त जीव हैं। उनमें जो ऊँचे नम्बर की करनी करता है, वह तीर्थकर बन जाता है। ७५. यह समझना मल है कि हम तुच्छ हैं, नाचीज़ हैं, दूसरे के हाथ की कटपुतली हैं, पराये इशारे पर नाचने वाले हैं, जो भगवान् चाहेगा वही होगा, हमारे किये क्या हो सकता है ? यह दीनता और हीनता की भावना है। अपने आपको अपनी ही दृष्टि में गिराने की जघन्य विचारधारा है। जीव का भविष्य उसकी करनी पर अवलम्बित है। आपका भविष्य आपके ही हाथ में है, किसी दूसरे के हाथ में नहीं। ७६. जब आपके चित्त में तृष्णा और लालच नहीं होंगे तब निराकुलता का अभूतपूर्व आनन्द आपको तत्काल अनुभव में आने लगेगा। ७७. मला आदमी वह है जो दुनिया का भी भला करे और अपना भी। जो दुनिया का भला करता है और अपना नुकसान कर लेता है, वह दूसरे नम्बर का भला आदमी है, लेकिन जो दूसरे का नुकसान करके अपना भला करता है, वह नीच है। ७८. जैसे सूर्य और चन्द्र का आकाश और दिशा का बँटवारा नहीं हो सकता, उसी प्रकार धर्म का बँटवारा नहीं हो सकता। जैसे आकाश, सूर्य आदि प्राकृतिक पदार्थ हैं, वे किसी के नहीं हैं, अतएव सभी के हैं, इसी प्रकार धर्म भी वस्तु का स्वभाव है और वह किसी जाति, प्रान्त, देश, या वर्ग का नहीं होता। ७९. धर्म का प्रांगण मंकीर्ण नहीं, बहुत विशाल है। वह उस कल्पवृक्ष के समान है जो समान रूप से सबके मनोरथों की पूर्ति करता है और किसी प्रकार के भेदभाव को प्रश्रय नहीं देता। ८०. नम्रता वह वशीकरण है जो दुश्मन को भी मित्र बना लेती है; पाषाण हृदय को भी पिघला देती है। ८१. वास्तव में नम्रता और कोमलता बड़े काम की चीजें हैं । वे जीवन की बढ़िया शृंगार हैं, आ{षण हैं, उनसे जीवन चमक उठता है। ८२. ज्ञान प्राप्त करने के लिए विनम्रता की आवश्यकता होती है। विनीत होकर ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३. किसी में बुराई है तो बुराई की ओर मत देखो; बुराई की ओर देखोगेो वह तुम्हारे अन्दर प्रवेश कर जाएगी। जैसा ग्राहक होता है, वह वैसी ही चीज को तरफ देखता है। ८४. जीवन में थोड़ा-सा भी समय बहुत मूल्य रखता है। कभी-कभी ऐसे महत्त्वपूर्ण अवसर आते हैं, जिन पर आपके भावी जीवन का आधार होता है । उन बहुमूल्य क्षणों में अगर आप प्रमादमय होंगे तो आपका भावी जीवन बिगड़ जाएगा और यदि सावधान होंगे, आत्माभिमुख होंगे तो आपका भविष्य मंगलमयी बन जाएगा । ८५. दवाओं के सहारे प्राप्त तन्दुरुस्ती भी कोई तन्दुरुस्ती है। असली तन्दुरुस्ती वही है कि दवा का काम ही न पड़े। दवा तो बूढ़े की लकड़ी के समान है । लकड़ी हाथ में रही तब तक तो गनीमत और जब न रही तब चलना ही कठिन । इसी प्रकार दवा का सेवन करते रहे तब तक तो तन्दुरुस्त रहे और दवा छोड़ी कि फिर बीमार के बीमार । यह भी कोई तन्दुरुस्ती है ? ८६ जो वस्तु आत्मा के कल्याण में साधक नहीं है, उसकी कोई कीमत नहीं है । ८७. इस भ्रम को छोड़ दो कि जैन कुल में जन्म लेने से आप सम्यग्दृष्टि हो गये । इस खयाल में भी मत रहो कि किसी के देने से आपको सम्यग्दर्शन हो जाएगा; नहीं, सम्यग्दर्शन आपके आत्मा की ही परिणति है, एक अवस्था है । आपकी श्रद्धा, रुचि या प्रतीति की निर्मलता पर सम्यग्दर्शन का होना निर्भर है। शुद्ध रुचि ही सम्यग्दर्शन को जन्म देती है । ८८. कैसी भी रेतीली नदी बीच में आ जाए, धोरी बैल हिम्मत नहीं हारता । वह रास्ता पार कर ही लेता है । वह वहन किये भार को बीच में नहीं छोड़ता । इसी प्रकार सुदृढ़ श्रद्धा वाला साधक अंगीकार की हुई साधना को पार लगा कर ही दम लेता है । ८९. साधु-संतों का काम है जनता की शुभ और पवित्र भावनाओं को बढ़ावा देना; अप्रशस्त उत्तेजनाओं को, जो समय-समय पर दिल को अभिभूत करती हैं, दबा देना और इस प्रकार संसार में शान्ति की स्थापना के लिए प्रयत्नशील होना । ९०. मनुष्य की विवेकशीलता इस बात में है कि भूतकाल से शिक्षा लेकर वर्तमान को सुधारे और वर्तमान का भविष्यत् के लिए सदुपयोग करे। जिसमें नी भी बुद्धि नहीं, उसे मनुष्य कहना कठिन है । ९१. परमात्मा में न सुगंध है और न दुर्गन्ध है । उसमें न तोखा रस है, न कटुक है, न कसैला है, न खट्टा है और न मीठा है । वह सब प्रकार के स्पर्शो से भी रहित है । न कर्कश है, न कोमल है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है, न चिकना है और न रूखा है। चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only ३७ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२. ज्ञान का सार है विवेक की प्राप्ति और विवेक की सार्थकता इस बात में है कि प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव जागृत किया जाए। किसी ने बहुत पढ़ लिया है ; बड़ेबड़े पोथे कण्ठस्थ कर लिये हैं, अनेक शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। मगर उसके इस ज्ञान का क्या प्रयोजन है यदि वह सोच-विचार कर नहीं बोलता? ९३. जिन वचनों से हिंसा की प्रेरणा या उत्तेजना मिले वह वचन भाषा के दुरुपयोग में ही सम्मिलित हैं; बल्कि यह कहना उचित होगा कि हिंसावर्धक वचन भाषा का सबसे बड़ा दुरुपयोग है। ९४. जो व्यक्ति, समाज या देश विवेक का दिव्य दीपक अपने सामने रखता है और उसके प्रकाश में ही अपने कर्तव्य का निश्चय करता है, उसे कभी संताप का अनुभव नहीं करना पड़ता; उसे असफलता का मुँह नहीं देखना पड़ता। ९५. विवेकवान डूबने की जगह तिर जाता है और विवेकहीन तिरने की जगह भी डूब जाता है। ९६. धर्म व्यक्ति को ही नहीं, समाज को, देश को और अन्ततः अखिल विश्व को शान्ति प्रदान करता है। आखिर समाज हो या देश, सबका मूल तो व्यक्ति ही है और जिस प्रणालिका से व्यक्ति का उत्कर्ष होता है, उससे समूह का भी उत्कर्ष वयों न होगा ? ९७. विवेक वह आन्तरिक प्रदीप है जो मनुष्य को सत्पथ प्रदर्शित करता और जिसकी रोशनी में चलकर मनुष्य सकुशल अपने लक्ष्य तक जा पहुंचता है । विवेक की बदौलत सैकड़ों अन्यान्य गुण स्वतः आ मिलते हैं। विवेक मनुष्य का सबसे बड़ा सहायक और मित्र है। ९८. शान्ति प्राप्त करने की प्रधान शर्त है समभाव की जागृति । अनुकूल और प्रतिकूल संयोगों के उपस्थित होने पर हर्ष और विषाद का माव उत्पन्न न होना और रागद्वेष की भावना का अन्त हो जाना समभाव है। ९९. जरा विचार करो कि मृत्यु से पहले कमी भी नष्ट हो जाने वाली और मृत्यु के पश्चात् अवश्य ही छुट जानेवाली सम्पत्ति को जीवन से भी बड़ी वस्तु समझना कहाँ तक उचित है ? अगर ऐसा समझना उचित नहीं है तो फिर लोमामिभूत होकर क्यों सम्पत्ति के लिए यह उत्कृष्ट जीवन बर्बाद करते हो ? १०० यह शरीर दगाबाज़, बेईमान और चोर है । यदि इसकी नौकरी में ही रह गया तो सारा जन्म बिगड़ जाएगा; अतएव इससे लड़ने की जरूरत है। दूसरे से लड़ने में कोई लाभ नहीं, खुद से ही लड़ो। १०१. मन सब पर सवार रहता है, परन्तु मन पर सवार होने वाला कोई विरला ही माई का लाल होता है; मगर धन्य वही है, जो अपने मन पर सवार होता है। . ३८ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिमन्त अनेकान्त जो दीपक घर में ही प्रकाश करता है उसकी अपेक्षा खुले आकाश में प्रज्वलित स्व-पर-प्रकाशक दीपक का महत्त्व अधिक है। 0 पं. नाथूलाल शास्त्री जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता पंडित मुनिश्री चौथमलजी महाराज के प्रभावशाली प्रवचनों के श्रवण करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है। अभी उन्हें दिवंगत हुए २७ वर्ष हुए हैं। अपनी सुमधुर व्याख्यान-शैली द्वारा इस विशाल भारत में लगभग ५२ वर्षों तक धर्म का प्रचार-प्रसार उन्होंने किया है। उनकी विद्वत्ता, व्यक्तित्व एवं उपदेश से प्रभावित होकर अनेक राजा-महाराजाओं और जागीरदारों ने अपने राज्य में होनेवाली पशु-पक्षियों, जलचरों आदि के बलिदान, शिकार आदि हिंसाकार्यों को स्वयं व प्रजा द्वारा बन्द कराने की प्रतिज्ञा व हुक्मनामे निकाले गये, जिनका प्रकाशन हो चुका है। कहा जाता है कि सभी तरह के सांसारिक संबन्धों का परित्याग कर केवल आत्मकल्याण के लिए ही मुनि दीक्षा ली जाती है। पर इस उद्देश्य को मैं एकान्तिक मानता हूँ। जो दीपक घर में ही रह कर प्रकाश करता है उसकी अपेक्षा खुले आकाश में प्रज्वलित स्व-पर-प्रकाशक दीपक का अधिक महत्त्व है। साधुगण का भी स्वकल्याण के साथ लोकहित संपादन करना मणि-कांचन संयोग के समान है। महाराजश्री न केवल प्रभावक वक्ता ही थे, वरन् प्रखर चिन्तक एवं कुशल लेखक भी थे। उनकी अनेकान्त आदि विषयों पर विद्वत्तापूर्ण रचनाएँ पढ़ने से उनके उच्च शास्त्रज्ञान, अनेकान्त तत्त्व के मनन एवं परिशीलन का परिचय मिलता हैं। आज से ३९ वर्ष पूर्व की उनकी महत्त्वपूर्ण रचनायें अन्य दर्शनों की समालोचना के साथ अनेकान्त, नयवाद और सप्तभंगीवाद का विशद विवेचन है। विश्व-शान्ति के लिए 'जीओ और जीने दो' इस सिद्धान्त के अनुकरण की आवश्यकता है, उसी प्रकार दार्शनिक जगत् की शान्ति के लिए 'मैं सही और दूसरे भी सही' का अनुसरण अनेकान्त की खूबी है। हमारा कर्तव्य है कि हम दूसरे के विचारों को समझें, उसकी अपेक्षा को सोचें और तब अमुक नय से उसे संगतियुक्त स्वीकार कर लें। इस अनेकान्त को जीवन में उतार कर एक बौद्ध विद्वान् के शब्दों में 'घुमक्कड़ भगवान् महावीर' के समान महाराजश्री ने भी घुमक्कड़ और कष्ट-सहिष्णु बनते हुए धर्मोपदेश के साथ ही पिछड़े वर्ग में सहस्रों पुरुषों एवं महिलाओं को मद्य और मांस आदि दुर्व्यसनों का त्याग कराया तथा वेश्याओं को उनके व्यवसाय का परित्याग ( शेष पृष्ठ ४२ पर) चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यान्वेषी सन्त : मुनि श्रीचौथमलजी - दुर्गाशंकर त्रिवेदी उनका जीवन सामाजिक एकता, मंत्री, शान्तिपूण सहअस्तित्व, अहिंसात्मक आचरण और सहज वात्सल्य की विजय का अपूर्व शंखनाद था। वे वाग्मिता, यानी सहज वक्तृत्व कला के अद्भुत धनी थे, उनकी गुरु-गम्भीर वाणी में एक विरल क़िस्म की अपरिमित चुम्बकीय ऊर्जा व्याप्त थी, जो चित्त को सहज ही बींध लेती थी। वे हिंसा, अशान्ति, बैर और अविश्वास की दुर्दम शक्तियों को पराजित करके 'एकला चलो रे' के मार्ग-दीप को संदीप्त कर चलने वाले युग-पुरुष थे। . पतितों, शोषितों, दीन-दुःखियों, पीड़ितों और तरह-तरह के कष्टों से संत्रस्त जन-सामान्य की पीड़ा-पूरित अश्रु-विगलित आँखों के आँसू पौंछने को सन्नद्ध अहर्निश सेवारत सन्त थे। ये तथा एसे कितने ही प्रशस्ति-परक वाक्यों की पंक्तियों के समूह जिस किसी आदर्श जैन सन्त के लिए लिखे जा सकते हैं: उनमें जैन दिवाकर सन्त श्रीचौथमल जी महाराज का महत्त्वपूर्ण स्थान है। समाज सेवा को समर्पित ऐसा सत्यान्वेषी सन्त इस युग में दुर्लभ ही है। उन्होंने अपने अप्रतिम व्यक्तित्व के माध्यम से अज्ञानियों, अशिक्षितों, भले-भटके संशय ग्रस्त मनुष्यों के मन-मन्दिर में साधना और सच्चरित्रता का अखण्ड दीपक प्रज्वलित किया। विश्व-मंगल के लिए तिल-तिल समर्पित इस महामानव का व्यापक प्रभाव आज भी उसी तरह से कायम है। श्रद्धा का सैलाब जनजीवन में उसी तरह उफनता नजर आता है उनके नाम पर! . • कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी, रविवार संवत् १९३४ को मध्यप्रदेश के नीमच नगर में जन्म लेकर श्री चौथमलजी महाराज ने १८ वर्ष की वय में ही बोलिया (मंदसौर, म.प्र.) में श्री हीरालालजी महाराज से दीक्षा लेकर 'वसुधा; मेरा कुटुम्ब' की घोषणा की थी। जिसे आजीवन निभाकर आपने मानवोद्धार का मार्ग जन-जीवन में प्रशस्त किया। अपने जीवन के ५५ चातुर्मासों में आपने अपनी सहज बोधगम्य धाराप्रवाही अन्दर तक छू कर उद्वेलित करने वाली गुरु-गम्भीर वाणी द्वारा छोटे-बड़े, राव-रंक सबको अभिषिक्त किया। विभिन्न धर्मावलम्बियों के प्रति आपका सहज स्नेह इसी भावना का पोषक रहा है। ___ श्री रमेश मुनि ने उनकी मानव-एकता की भावना से प्रभावित होकर उनका समीचीन मूल्यांकन करते हुए ठीक ही कहा है-'उस महान् मनस्वी का व्यक्तित्व शुक्ल पक्ष के सुधाकर की तरह उत्तरोत्तर विकसित हुआ है। जंगल से उद्यानों तक, ४० तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांवों से नगरों तक, झोपड़ियों से महलों तक, अज्ञों से सुज्ञों तक एवं राजाओं से रंक-पर्यन्त उनके उदीयमान व्यक्तित्व की अमिट छाप थी। आपकी वक्तृत्व-शैली श्रोताओं को अपनी ओर खींचे बिना नहीं रहती थी। वह व्यक्तित्व को अन्दर से झकझोर कर रख दिया करती थी। श्रोता सोचने, करने की ऊहापोह में उलझकर कुछ कर गुजरने का साहस जटा लिया करता था। प्रसंग वि.सं. १९७२ का है। मुनिश्री पालनपुर में चातुर्मास कर रहे थे। आपके मार्मिक प्रवचनों की चर्चा नवाब तक पहुँची तो वह भी तारीफ को कसौटी पर कसने प्रवचन सुनने आया ; और अभिरुचि जागृत हो उठने से बराबर आता ही रहा। चातुर्मास की समाप्ति पर एक दिन नवाब साहब एक बेशकीमती शाल' महाराजश्री के चरणों में अर्पित करके बोले-"बराये करम, मेरा यह अदना-सा तोहफा कुबूल फर्मायें, मश्कूर हूँगा।" ___ चौथमलजी महाराज यह देखकर नवाब साहब से स्नेहपूर्वक बोले--'नवाब साहब, हम जैन साधु हैं ! मर्यादित उपकरण रखते हैं। आज यहाँ, कल वहाँ, कभी जंगल में, तो कभी झोपड़ी में, कभी महल में, तो कभी टूटे-फूटे मंदिर में, मठों में रात गुजारनी होती है; इसलिए एसी कोई भी बहुमूल्य वस्तु हम नहीं स्वीकारते।" नवाब साहब उनकी निर्लोभ वृत्ति से और अधिक प्रभावित होकर बोले'क्या मैं इतना बदकिस्मत हूँ कि मुझे खिदमत करने का मुतलक मौका भी किबला नहीं देंगे?" प्रसन्न मद्रा में मुनिश्री बोले--'नहीं, आप जैसे नरेश बदकिस्मत नहीं भाग्यशाली हैं कि सत्संग में आपकी रुचि है। साधु, चाहे वह भी किसी धर्म का अनुयायी हो, समाज को तो कुछ-न-कुछ देता ही है न! आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो अपनी कुछ एक दुष्प्रवृत्तियाँ ही दे दीजिये। जीवन-पर्यन्त आप जीवों का शिकार और मद्य-मांसादि सेवन का त्याग कर दें।" नवाब साहब ने मुनिश्री चौथमलजी महाराज के समक्ष तीनों का ही त्याग का अहद लिया। रियासत में महाराज श्री के प्रवचनों में आम जनता से रुचि लेने की अपील भी उन्होंने की। ऐसी थी उनकी वृत्ति जो सहज ही हृदय-परिवर्तन की भावभूमिका उत्पन्न कर दिया करती थी। 'कोई कवि बन जाए सहज सम्भाव्य है'-वाली स्थितियाँ जीवन में सामान्यतया बनती नहीं है। काव्य-प्रसव प्रकृति की अनुपम देन है। आपने इस सन्दर्भ में भक्ति रस के हजारों पद, उपदेशात्मक स्तवन और सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ़ कविताएँ, दोहे, कवित्त आदि लिख कर उन्हें जनसामान्य में पर्याप्त लोकप्रिय बना दिया था। आज भी मेवाड़, मालवा और हाड़ौती अंचलों में ऐसे लोग सैकड़ों की तादाद में मिल जाएंगे जिन्हें उनकी रचनाएँ कण्ठस्थ हैं। उनके सुधारमूलक गीत बहुत से समारोहों में आज भी गाये जाते हैं। चौ. ज. श. अंक ४१ For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी, गुजराती, राजस्थानी और मालवी के वे अधिकृत विद्वान् थे और अपने लेखन और प्रवचनों में इनका बराबर उपयोग किया करते थे। 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन', 'भगवान् महावीर का आदश जीवन', 'जम्बकुमार', 'श्रीपाल', 'चम्पक', 'भगवान नेमिनाथ चरित्र', 'धन्ना चरित्र', 'भगवान् पार्श्वनाथ', 'जैन सुबोध गुटका' आदि अनेक गद्य-पद्य कृतियों का प्रणयन आपने किया। ___ इन साहित्यिक सांस्कृतिक-कृतियों पर किसी शोध-छात्र को कार्य करना चाहिये। शताब्दि-वर्ष में उनके साहित्य का अधिकाधिक एवं व्यवस्थित प्रचार-प्रसार होना चाहिये, उस पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित करना भी सामयिक होगा। __ वे वाग्मिता के अन्यतम धनी थे। उनकी वाणी में श्रोताओं को उद्वेलित कर देने वाली अद्वितीय चुम्बकीय शक्ति थी। गहरे पैठ जाने वाली उपदेशात्मक प्रवृत्ति से अभिप्रेरित होकर उन्होंने अज्ञानियों, अशिक्षितों, भूले-भटकों, संशयग्रस्तों के मन में सच्चरित्रता और निष्ठा का अखण्ड दीपक प्रदीप्त किया। पचपन चातुर्मासों में उन्होंने अपने विशाल शास्त्रीय ज्ञान का सरलतम और सहज बोधगम्य धारा प्रवाहमयी प्रकृति से प्राप्त, सर्व जनहिताय, स्वभावसिद्ध वक्ता की अनूठी अपूर्व वक्तृत्व शक्ति का सामंजस्य उपस्थित किया। उत्तर भारत के अधिकांश जनपदों का विहार करके उन्होंने जनता-जनार्दन में सुधारवादी चेतना उत्पन्न की। उदयपुर, अलवर, रतलाम, कोटा, किशनगढ़, देवास, इन्दौर, सैलाना, जावरा टौंक आदि के नवाब और राजे-महाराज उनसे प्रभावित रहे। उपदेशों द्वारा उन्होंने अनेक हृदयों में अहिंसा की प्रवृत्ति को पनपाया। इस दृष्टि से उनके अनेक संस्मरण जन-जीवन में व्याप्त हैं। ( मूर्तिमन्त अनेकान्त : पृष्ठ ३९ का शेष ) कराकर सदाचारपूर्ण जीवन की ओर प्रेरित किया। आपने सामाजिक कुरीतियों में भी सुधार कराकर समाज को आर्थिक कष्ट से मुक्ति दिलाई है। कोटा में तीनों जैन संप्रदायों के साधओं का, जिनमें महाराजश्री भी सम्मिलित थे, एक साथ बैठकर प्रवचन देने की घटना अपनी विशिष्टता रखती है। वर्तमान में जैन संगठन का यह एक आदर्श उदाहरण है। इसीका अनुकरण उपाध्याय मुनिश्री विद्यानन्दजी के इन्दौर चातुर्मास के समय हमने प्रत्यक्ष देखा है। साधुपद की गरिमा सर्व प्रकार की दीवारों- सांप्रदायिक विचारों के परित्याग में ही है। साधु वही धन्य है जो कर्तरिका (कैंची) के समान समाज को छिन्न-भिन्न न कर सूचिका (सुई) के समान जोड़ने का काम करता है। जैसे मारनेवाले से बचानेवाला महान् है, उसी प्रकार तोड़नेवाले से जोड़नेवाला महान् है । महाराजश्री इसके आदर्श उदाहरण थे। वे अत्यन्त सहृदय और उदार थे। करुणा उनके रोम-रोम से टपकती थी। उन्हें देखकर और सुनकर ऐसा मालूम पड़ता था मानो सर्वधर्मसमन्वयात्मक अनेकान्त का मूर्तिमान रूप हो। ४२ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अलग शैली जैन मनियों के जीवन की एक शैली है, एक प्रक्रिया है-अनोखी, अलग, मौलिक; शास्त्रोक्त आचार के प्रति एकनिष्ट होकर एक मर्यादा में जीना । वार्तालाप से लेकर व्याख्यान तक शास्त्रोक्त तत्त्वों का समीक्षण-विवेचन करते जाना बिना इस बात का पता लगाये कि श्रोता या वक्ता उसे समझ रहा है या नहीं। एक अन्धी परम्परा जिसमें “स्वाध्याय करना" मात्र एक उपचार है । सही है कि जैनतत्त्व-दर्शन गहन-गंभीर है, फिर भी उसकी अपनी सरलताएँ हैं, सीधे और निष्कण्टक मार्ग हैं; किन्तु जैन मुनि अपने बंधे-बधाये वाक्यों द्वारा विशाल जनसमूह पर यह प्रभाव डालने का प्रयत्न करते हैं कि यह सब उनके वश की बात नहीं है । धर्म की इस किलेबन्दी को तोड़ा लोकाशाह ने । उन्होंने पहली बार जैनतत्त्व को सर्वहारा के पटल पर उपस्थित किया, उसे जनमानस का विषय बनाया। उन्होंने वीतरागविज्ञान को उपासरों की चहरदीवारी से बाहर लाकर उसे एक निर्विकार नया आकार प्रदान किया। उनके इस क्रान्तिकारी कदम से परम्परितों में भारी उथलपुथल हुई। भ्रान्तियों का दुर्ग ढह गया, और जैनदर्शन का एक लोकसुलभ रूप सामने आया । स्थानकवासी जैन मुनियों ने लोंकाशाह के इस पवित्र अभियान को सदैव बढ़ाया, और जैन तत्त्व-दर्शन को जनता-जनार्दन तक पहुँचाने में एक ऐतिहासिक रोल अदा किया । विगत चार सौ वर्षों में वीतराग-विज्ञान को जिन सत्पुरुषों ने भारतीय लोकजीवन तक पहुँचाया उनमें प्रसिद्ध वक्ता जैन दिवाकर श्री चौथमलजी का नाम सर्वोपरि है। उनकी अपनी एक अलग ही प्रवचन-शैली थी, जो श्रोता के चित्त को चमत्कृत करती थी और उसे एक विशिष्ट आत्मीयता में बांध लेती थी। जैन तन्व-दर्शन की जैसी सरल व्याख्या-समीक्षा उन्होंने की है, उससे जैनधर्म की परिधि बढ़ी है और आम आदमी को इस बात की सूचना मिल सकी है कि जैनधर्म केवल कुछ मुट्ठी भर लोगों की संपत्ति या अधिकार नहीं है वरन वह एक लोककल्याणकारी साधना-परम्परा है जो धर्म, सम्प्रदाय, सता, सम्पदा इत्यादि के किसी भेद पर आधारित नहीं है बल्कि लोक-मंगल की व्यापक-निर्मल भावना पर खड़ी हुई है। मुनिश्री चौथमलजी महाराज की प्रवचन-शैली सरल, उदाहरणों और बोध-कथाओं से भरपूर, महावरों और कहावतों का खजाना लेकर चलने वाली शैली थी। समन्वय में उनकी सघन आस्था थी, इसीलिए उनकी प्रवचन-सभाओं में सभी वों के लोग आते थे और एक व्यापक समभाव का अनुभव करते थे। उनका साहित्य पांडित्यपूर्ण नहीं था, बल्कि सत्य को खोज कर उसे सीधी-सच्ची भाषा में प्रस्तुत करने वाला था । वस्तुतः वे दिवाकर थे, क्योंकि उनकी धूप और रोशनी ने कभी यह भेद नहीं किया कि वह किस तक पहुँचे, और किस तक नहीं । अमीरउमरावों और ग़रीब-गुरबों सब तक उनकी वाणी पहुँची और उसने उन्हें बिना किसी भेदभाव के उपकृत किया। क्या हम उस महापुरुष के ऋण से कभी उऋण हो पायेंगे ? - सौभाग्य मुनि 'कुमुद चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक नि:स्पृह महापुरुष सौभाग्यवश मुझे उस निःस्पृह महामानव के सान्निध्य के कई मौके मिले, और जब भी ऐसा हुआ तब मुझे हर बार कोई-न-कोई ताज़गी या नवीनता मिली । पता नहीं उनमें कौन-सा विलक्षण आकर्षण था कि क्या जैन, क्या जैनेतर सभी उनके निकट तक पहुँचने के लिए लालायित रहते थे । सभी का मन अक्सर उनकी मर्मस्पर्शी वाणी सुनने के लिए उत्कण्ठित रहता था । मेरे जीवन के पहले सत्रह वर्ष वैष्णवपुरी यानी नाथद्वारा में ही बीते । पूज्य गुरुदेव का शुभागमन भी वहाँ कई बार हुआ । उस वैष्णव - बहुल नगरी में जैन तत्त्व-दर्शन की चर्चा, और फिर वह भी सार्वजनिक रूप में बड़ा जोखिम भरा काम था, लेकिन अदम्य साहस के धनी उस महामानव ने उस असम्भव को भी सम्भव कर दिखाया और अद्भुत प्रवचन वहाँ दिये । उनकी प्रवचन सभाओं में सभी आस्थाओं के लोग आते थे, और शनैः शनैः उन्हें अपना आत्मीय मानने लगे थे । पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में पं. मुनिश्री शेषमलजी का आचार्य-पद- समारोह भी यहीं संपन्न हुआ था । यह भी उस मनस्वी संत की दिव्यता का एक ज्वलन्त प्रमाण है । वस्तुतः वे 'स्व' की पूजा-अर्चना की कामना से उदासीन संपूर्णतः निःस्पृह महापुरुष थे, उनकी कथनी-करनी एक थी, “फूट डालो, और सत्ता में रहो " (डिवाइड एण्ड रूल) की दुर्नीति में उनका कतई विश्वास नहीं था । परहित उनका प्रथम और अन्तिम जीवन-लक्ष्य था । वे उस पर तिल-तिल समर्पित थे । आज भी उस महापुरुष की ओजपूर्ण शिक्षाएँ हमारे जीवन का मार्ग आलोकित किये हुए हैं । प्राणि - मात्र के कल्याणार्थ हुए उनके सदुपदेश समाज के ग़रीब, साधनहीन, कमजोर और असहाय वर्ग के उत्थान की निरन्तर प्रेरणा देते रहे; किन्तु अब यह विचारणीय है कि हमने उनके बाद उनकी इस वैचारिक धरोहर को कितना सक्रिय रक्खा ? क्या अब तक हमने जो किया है, उसका कोई हिसाब हमने लिया है ? क्या हमने कभी इस बात पर विचार किया है कि मुनिश्री की आज के जीवन कितनी प्रासंगिकता है ? क्या उनके उपदेश आज हमारे जीवन में कोई नयी रोशनी और आभा उत्पन्न करने में समर्थ हैं ? यह मूल्यांकन उनके गुण-गान से संभव नहीं होगा, इसके लिए हमें त्याग करना होगा, सर्वजन हिताय समर्पित होना होगा । फतेहलाल संघवी, जावरा वे अक्षर- पुरुष थे जिन मानवों की करुणा 'स्व' से उठ कर 'पर' तक पहुँचती है, जिनका जीवन-लक्ष्य आत्म-कल्याण के साथ जन-कल्याण भी है, और अखिल मानवता के प्रति भेद-रहित होकर न्योछावर हो जाना ही जिनका ध्येय है, वे ही महामानव हैं । ऐसे महामानवों में मुनिश्री चौथमलजी महाराज का नाम अविस्मरणीय है । जनता तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ ४४ For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनार्दन ने उन्हें एक नयी ही आलोक-सृष्टि देने के कारण "जैन दिवाकर" कहा, उनकी व्यापक और चुम्बकीय आत्मीयता के कारण उन्हें "जगत्-वल्लभ" से संबोधित किया और सहज-सुगम किन्तु तेजोमय वाणी के कारण "प्रसिद्ध वक्ता" कहकर पुकारा । वस्तुत: वे अक्षर-पुरुष थे, उन्हें वाणी और वर्ण पर विलक्षण प्रभुता प्राप्त थी। वे सरस्वती-पुत्र थे । “निर्ग्रन्थ प्रवचन" उनकी विचक्षण सारस्वत प्रतिभा का एक ज्वलन्त प्रमाण है। व्यथितों-पतितों की सेवा, समन्वय और आध्यात्मिक साधना उनके जीवन के सुविध लक्ष्य थे। वे सचमुच दिवाकर थे। वे सर्वत्र सुन्दर थेनीमच-उदयाचल, ब्यावर-मध्यान्ह, कोटा-अस्ताचल--क्रमशः उनके जीवन की सुबह, दुपहर, शाम ; सभी समन्वय, लोकमंगल और आत्मिक साधना की रोशनी से आलोकित । धर्म जिनके लिए जोड़ना था, तोड़ना नहीं, मैं उस महामनुज का पुनीत स्मरण करती हूँ। - पारसरानी मेहता, इन्दौर गागर में सागर वे गुरुदेव के विचार बहुत उन्नत और प्रगतिशील थे। उनकी कथनी-करनी में तनिक भी अन्तर नहीं था। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उनका कोटा-वर्षावास था । इसमें दिगम्बर, श्वेताम्बर, सभी सम्प्रदायों और परम्पराओं के आचार्यों और मुनियों का एक ही मंच पर उपस्थित होना एक विलक्षण उपलब्धि थी । सबने प्रवचन दिये और एकता का सुखद वातावरण बनाया। समाज के इस निर्मलीकरण का संपूर्ण श्रेय उन्हें ही है। उनमें असीम गुण थे। वे गागर में सागर थे। उनके जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर मैं भी अपना जीवन धन्य और सफल बना सकूँ, यही शुभाकांक्षा रखता हूँ। - रंगमुनि मुझे याद है मुनिश्री चौथमलजी महाराज एकता के अग्रदूत थे। विभिन्न जैन सम्प्रदायों में एकता स्थापित करने के जो प्रयत्न उन्होंने किये, उनके लिए जैन समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा । यद्यपि वे आज हमारे बीच नहीं हैं, तथापि उन्होंने एकता का जो संदेश दिया हम उसका पालन करें और एक बने रहें यही उनके प्रति हमारी कृतज्ञता होगी । वे एक अलौकिक पुरुष थे । उनका जीवन महान् था, बहुत पुण्यवान थे। नीमच की एक घटना का स्मरण मुझे है। बात' वि. सं. १९९९ की है। गुरुदेव अपनी शिष्य-मण्डली के साथ नीमच पधारे थे । मैं भी उनके दर्शन-लाभ का लोभ नहीं रोक सका । दर्शनार्थ नीमच गया। वे चौरड़िया गुरुकुल में बिराजमान थे । रात्रि में अपने अनुयायियों को अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते रहे । प्रातः काल विहार पर निकले । मैं भी साथ हो गया। चलते-चलते मैंने प्रश्न किया चौ. ज. श. अंक ४५ For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "नीमच तो आपकी जन्म-भूमि है फिर भी विहार में आपके साथ तीन-चार भक्तों से अधिक नहीं हैं ?" प्रश्न सुन कर वे दो मिनिट ध्यानस्थ हो गये । मैं स्तब्ध देखता रहा । चारों ओर से जन-समूह उमड़ पड़ा। मुझे याद है अधिक-से-अधिक पाँच मिनिट में वहाँ एक हजार से अधिक भक्तों की भीड़ जमा हो गयी थी। मेरे लिए निश्चित ही यह एक अद्भुत-अपूर्व घटना थी। - सौभाग्यमल कोचट्टा, जावरा युग का एक महान् चमत्कार जिस महान् विभूति का जन्म-शताब्दि-वर्ष सारे देश में मनाया जा रहा है, वह केवल' जैन समाज का ही नहीं वरन् संपूर्ण भारत का एक असाधारण संतपुरुष था। भारत की जनता के नैतिक जीवन को ऊँचा उठाने और अहिंसा के प्रचार-प्रसार की दिशा में श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने जो योगदान किया है, वह अविस्मरणीय है। उन्होंने अपने अनूठे व्यक्तित्व और अपनी असाधारण वक्तृता से बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं को प्रभावित किया और यथाशक्ति जीव-दया तथा अहिंसा का व्यापक प्रसार किया । सैकड़ों राजाओं और जागीरदारों ने जीव हिंसा-निषेध के पट्टे लिख कर उन्हें समर्पित किये । यह उस युग का एक महान् चमत्कार था। वस्तुतः वे मेरे परम आराध्य गुरु हैं । जब मैं ९ वर्ष का ही था, तब उनसे मैंने गुरु-आम्नाय (सम्यक्त्व) ली थी। एक लम्बी अवधि के बाद जोधपुर-चातुर्मास में मैं उनके दर्शनार्थ गया था। तब मैं बीस वर्ष का तरुण था। पूरे ११ वर्षों बाद मैंने यह दर्शन-लाभ किया था । गुरुदेव प्रवचन दे रहे थे। दस हजार से अधिक लोग एकटक, मंत्रमुग्ध उन्हें सुन रहे थे। व्याख्यान के बाद में भी उनके साथसाथ चलने लगा। मार्ग में उन्होंने मुझ से पूछा-“बापू, थने याद हे, संवत् १९८५ में गुरु-आम्नाय ली थी ?' इस आत्मीय स्वर ने मुझे नखशिख हिला दिया । ११ वर्ष के अन्तराल के बाद भी वे मुझे नहीं भूले थे। सैकड़ों लोगों के बीच चलते हुए उन्होंने मुझसे यह प्रश्न किया था । इस एक ही बात से मैं इतना अभिभूत हुआ कि फिर प्रति वर्ष उनकी सेवा में उपस्थित होने लगा। वि. सं. १९९६ से ही मेरा प्रयास रहा कि श्री जैन दिवाकरजी का एक चातुर्मास रतलाम कराऊँ । अपने प्रयत्न में मुझे सफलता मिली संवत् २००० में । उनका यह चातुर्मास संघ की एकता की दृष्टि से चिरस्मरणीय रहा । रतलाम के बाद संवत् २००७ में उनका चातुर्मास कोटा में हुआ । जैन-समाज की भावात्मक एकता के संदर्भ में यह चातुर्मास अद्वितीय रहा । इसके बाद ही वे उदर-व्याधि से पीड़ित हुए। १४ दिन उन्हें यह पीड़ा रही । मैं लगभग १२ दिन उनकी सेवा में अन्तिम क्षणों तक रहा । मुझे उनकी अन्तिम वन्दना का सौभाग्य मिला था । - बापूलाल बोथरा, रतलाम - तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक श्रास्था-स्तम्भ । जन संस्थाओं के माध्यम से सत्साहित्य की जो सेवा हुई और होती रहेगी, क्या वे श्री जैन दिवाकरजी को आस्था स्तम्भ मानने से मुकर सकती हैं ? जिन शिष्य - शिष्याओं को मुक्ति-मार्ग के मुख्य साधन संयम की प्राप्ति में उन्होंने जो प्रेरणा दी, वे संत तथा सती आजीवन अपनी श्रद्धा अन्यत्र कैसे समर्पित करेंगी ? जिन-जिन पतितों को राज्य, समाज तथा परिवारवालों ने गले नहीं लगाया, उनको अपनी करुणा की छाया में बैठने दिया, वे श्री जैन दिवाकरजी के प्रति श्रद्धावनत हों, इसमें आश्चर्य नहीं है । इस प्रकार जिन-जिन महानुभावों को श्री जैन दिवाकरजी म. के दर्शन मिले, प्रवचन सुनने का अवसर मिला, वात्सल्य सुलभ हुआ, ज्ञान-प्राप्ति हुई और मार्गदर्शन मिला, वे सब ही हृदय की गहराई से उनका सतत स्मरण करते और श्रद्धा-सुमन चढ़ाते हैं, क्योंकि वे उनके लिए एक आशा-स्तम्भ ही तो रहे हैं । सुभाष मुनि उनके आदर्शों का आत्मसात् करें श्री जैन दिवाकरजी का संपूर्ण जीवन अगणित प्रेरक, मार्मिक, आदर्श और अनुकरणीय घटनाओं से ओतप्रोत था । वे संप्रदाय - समन्वय के हिमायती थे, उनके सान्निध्य में कोटा में जो सन्त-सम्मेलन हुआ, जिसमें दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासी सन्तों ने एक मंच से जनसमुदाय को सम्बोधित किया । वह परम्परा अक्षुण्ण रहे और समस्त सन्तसमुदाय मानव-कल्याण के लिए एक मंत्र से जिनशासन-धर्म का उद्घोष करें, यही इस पावन शती समारोह का आदर्श सन्देश है । जन्म-शताब्दि - वर्ष में हम उनके आदर्शों को आत्मसात् करें, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी । दिनेश मुनि 'मुझे दीक्षा दीजिये ' मेरी माताजी का स्वर्गवास हो गया था । हम तीन भाई छोटे थे । हमारी सार-संभाल और व्यापार को ध्यान में रखकर पिता श्री मोड़ीरामजी गांधी पुनर्विवाह का सोच रहे थे । संयोगवश, मेवाड़धरा को पावन करते हुए पूज्य गुरुदेव चौथमलजी का देवगढ़ ( मदारिया) नगर पढार्पण हुआ । चौक बाजार में उनके व्याख्यानों की धूम थी। एक दिन पूज्य गुरुदेव ने पिताश्री को उपदेश देते हुए इच्छा प्रकट की कि आप चारों प्राणी संसारी निवृति ग्रहण करें और धार्मिक कार्यों में प्रवृत्त होकर जिनशासन को प्रकाशित करें । पिताश्री ने प्रत्युत्तर में कहा कि प्रताप अभी छोटा है । बड़ा होने पर हम आपकी इच्छानुसार करेंगे । चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only ४७ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य जैन दिवाकरजी तो अन्यत्र प्रस्थान कर गये। इधर प्लेग की बीमारी में पिताश्री और दो भाइयों की मृत्यु हो गई। केवल मैं बच गया। कालान्तर में गुरुदेव श्री नन्दलालजी म. मुनिमंडल के साथ देवगढ़ पधारे । उन्हें हमारे परिवार का पता चल गया । मुझे बुलाया और कहा 'प्रताप, तेरा सारा परिवार दीक्षित होनेवाला था किन्तु ऐसा नहीं हो सका। अब बाप का कर्ज तू चुका सकेगा ?' मैंने तत्काल कहा, 'हाँ, गुरुदेव, मैं अपने बाप का कर्ज चुकाने को तैयार हूँ। आप मुझे दीक्षा दीजिये।' तब संवत् १९७९ में मैंने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। मूल में तो जैन दिवाकरजी म. थे ही। - प्रताप मुनि वाणी में गहन प्रभाव वे यथानाम तथागुण थे । चौ-चार, था=स्थित होना। चार में स्थित होना । चार कौन ? सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य और तप इनमें स्थित होकर चार मल्ल-क्रोध, लोभ, मान और माया को पछाड़नेवाले तथा अपनी आत्मा से उपशम तथा क्षमोपशम कर उन्होंने 'चौथमल' नाम को सार्थक किया। श्री जैन दिवाकरजी की वाणी में गहन प्रभाव था। जो कोई भी उनके प्रवचनों का श्रवण करता, वह कितना भी अधम तथा दुर्व्यसनी क्यों न हो, उनकी पीयूषमयी वाणी से प्रभावित होकर उन्मार्ग को छोड़कर सन्मार्ग स्वीकार कर लेता था। __ इस प्रकार कई दुव्यर्सनियों और कुमागियों ने उनके सदुपदेशों को सुनकर अपने जीवन तक, मार्ग ही बदल दिया और सदाचरण को अपना लिया। मैं ऐसे 'वाक्-विभूषण, धर्म-धुरन्धर' को अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करती हूँ। - महासती रामकुंवर साहित्य को श्रीवृद्धि संपूर्ण जैन वाङमय का संग्रह करके श्री जैन दिवाकरजी म. ने 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' का जो संकलन किया, वह उनकी साहित्यिक दृष्टि से अनोखी सूझ-बूझ है। इतना ही नहीं, 'गीता-सप्ताह' या 'भागवत-सप्ताह' की भाँति वे उसका प्रति वर्ष पारायण करते थे और एक सप्ताह तक इस पर गंभीर प्रवचन करके जिनवाणी के माध्यम से भव्य प्राणियों को अध्यात्म-रस का आस्वादन करवाते थे। वास्तव में यह ग्रन्थ समग्र जैन साहित्य का निचोड़ ही है। इसके अलावा समय-समय पर उन्होंने अनेकों सर्वोपयोगी प्रार्थनाएँ, कविताएँ तथा काव्यमय जीवन-चरित्र लिखकर अपनी आध्यात्मिक प्रतिभा का उपयोग करने के साथ जैन साहित्य की श्रीवृद्धि भी को। . उन्होंने अनेकों प्रदेशों में विहार कर अपने प्रवचनों के माध्यम से जैनधर्म के सिद्धान्तों को जिस सुन्दर रूप में समाज के समक्ष प्रस्तुत किये, श्रद्धालुओं ने हृदयंगम भी किया, ४८ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे आपकी सेवा के जीते-जागते उदाहरण हैं । ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व के धनी पूज्य गुरुदेव को उनकी सेवाओं के प्रति नतमस्तक होकर कोटिशः वन्दन ! विमल मुनि अक्षर अध्यात्म संवत् २००१ में गुरुदेव का चातुर्मास उज्जैन हो रहा था । उस समय का यह प्रसंग है । एक छोटा-सा अबोध बालक, जो करीब चार-पाँच वर्ष का ही होगा, उनके दर्शनार्थ आया । गुरुदेव ने कहा, 'तुम्हारा नाम क्या है ? तुम क्या पढ़ते हो ?' वह उसी समय वहाँ से उठा और अपनी किताब लेकर आ गया । उन्होंने पूछा, 'यह क्या है ? ' तब उस बालक सह निडर भाव से कहा कि यह 'अक्षर ज्ञान' की किताब है । 'तुम इसे पढ़ना जानते हो ?' 'हाँ' कहने पर गुरुदेव ने उसे पढ़कर सुनाने को कहा । वह बालक अपनी तोतली बोली में पढ़ने लगा। पहला ही पाठ था - 'अकड़ कर मत चल, नम कर रह ।' यह सुनकर गुरुदेव समझाने लगे, 'है तो यह अक्षर ज्ञान, पर इसमें कितना महान् अर्थ छिपा हुआ है । उत्तराध्ययन के प्रथम अध्याय का पूर्ण चित्र इसमें चित्रित है । इसमें भगवान ने विनय को महत्त्व दिया है। मानव का कल्याण अकड़ कर चलते में नहीं, अपितु नम्रता के भावों से ही संभव है ।' उस दिन तत्त्व चर्चा का यही विषय बना रहा । गुरुदेव ने अक्षर ज्ञान को अध्यात्म का प्रतीक बतलाया । अक्षर ज्ञान को अध्यात्म का प्रतीक बतलाया । अक्षर ज्ञान में जो प्रथम अक्षर है वह 'अरिहन्त' का ही सूचक है । द्वितीय आचार्य का | मानव को इस पर बार-बार विचार करना चाहिये । ये विचार ही आत्मकल्याण के साधन हैं । अशोक मुनि जीवन की प्रमुख घटनाएँ पं. मुनि श्री चौथमलजी महाराज के जीवन की कतिपय प्रमुख घटनाओं का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है । वि. सं. १९६३ में कानोड़ (उदयपुर) के बाजार में मुनिश्री के प्रवचन हो रहे थे । उस समय वैष्णव भाइयों का जुलूस निकल रहा था । झगड़ा होने की संभावना देखकर उन्होंने अपना प्रवचन बन्द कर झगड़ा नहीं होने दिया । वि. सं. १९६६ में उदयपुर के निकट नाईग्राम में मुनिश्री के प्रवचन से प्रभावित होकर चार हजार आदिवासियों (भीलों) ने माँस खाने का त्याग कर दिया । वि. सं. १९७८ में रतलाम में चातुर्मास के समय महावीर मंडल की स्थापना हुई और सं. १९८२ में जैनोदय प्रिंटिंग प्रेस खरीदा गया । जैनोदय पुस्तक प्रकाशन समिति, रतलाम द्वारा मुनिश्री का साहित्य प्रकाशित होने लगा । चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only ४९ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D वि.सं. १९८२ में ब्यावर में सेठ श्री कुन्दनमल लालचन्द ने मुनिश्री के सदुपदेश से प्रेरित होकर रु. १,२२,८०० से कुन्दन ट्रस्ट बनाया। इस राशि को अनेक धार्मिक कार्यों में व्यय किया। - जब मुनिश्री पाली (राजस्थान) में विराजमान थे, उन्होंने सर्वप्रथम संघएकता के लिए अपनी स्वीकृति दी । फलस्वरूप श्री वीर वर्द्धमान स्थानकवासी श्रमणसंघ की स्थापना हुई। उनके जीवन-काल में चार मुख्य अवसरों पर रविवार आया - जन्म, दीक्षा, अंतिम प्रवचन और दिवंगति । - पं. मुनि हीरालालजी प्यार ही प्यार - प्रीति ही प्रीति जैन दिवाकरजी वाग्मी सन्त थे। उनके व्याख्यानों की प्रसिद्धि दूर-दूर तक थी। उनकी प्रवचन-शैली मौलिक थी, और गहन-गंभीर विषयों की उन्हें सम्यक् पकड़ थी। वे जहाँ भी गये, गाँव या शहर, झोपड़ी या महल, उन्होंने अपने प्रवचनों से गरीब-अमीर, किसान-मजदूर सबको प्रभावित किया । अहिंसा के वे शक्तिशाली पक्षधर थे। उनके हृदय में प्राणिमात्र पर अपार करुणा थी, किसी के प्रति कोई राग-द्वेष नहीं था । हृदय के अंतिम कोने तक उनमें प्यार-ही-प्यार--प्रीति-ही-प्रीति थी। -कान्ति मुनि परोपकारी प्रखर वक्ता जगद्वल्लभ, प्रसिद्ध वक्ता श्री चौथमलजी महाराज का समग्र जीवन इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि कोरी दीक्षा कभी भी श्रेयस्कर नहीं है ; उसके साथ ज्ञान और अभीक्ष्ण स्वाध्याय की एक सुदृढ़ पृष्ठभूमि आवश्यक है। इसीलिए उन्होंने दीक्षा लेने के बाद संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं का, और जैन-जेनेतर साहित्य का गहन-गहरा अध्ययन किया । गीता, बाइबिल, भागवत आदि अनेक जैनेतर ग्रन्थों का सन्तुलित मन्थन किया, स्वाध्याय किया, पारायण किया-उनकी बारीकियों को समझा । उन्होंने परोपकार में अपना समूचा जीवन ही लगा दिया। उन्होंने अनेक प्राणियों के कष्टों का निवारण किया, उन्मार्ग से सन्मार्ग पर डाला । कइयों के व्यसन छुड़ाये और कइयों से मांसाहार का त्याग कराया। उनकी अमृततुल्य वाणी सबका कल्याण करनेवाली थी । वे प्रखर वक्ता/परोपकाररत संत पुरुष थे। उन्हें मेरे प्रणाम ! -साध्वी मधुबाला ५० तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . कर्त्तव्य में कठोर स्व. गुरुदेव चौथमलजी महाराज के जीवन में सरलता; मुखमण्डल पर सतत, अदृप्त-अपराजित आध्यात्मिक मुस्कराहट, शान्ति और समभाव; वाणी में जादू-सा आकर्षण, और कर्त्तव्य-पालन में आश्चर्य में डाल देनेवाली कठोरता थी, इसीलिए अनेक मुमुक्ष आत्माएँ उनके पुण्य संपर्क में आकर संसार-सागर से तिर गयीं। जो भी उनके पावन प्रवचन एक बार सुन लेता था, उसके जीवन की काया ही पलट जाती थी। मुझे उन्हें सुनने का एक बार सौभाग्य मिला, तब मैं किशोर थी। मेरी सुप्तात्मा ने अंगड़ाई ली । प्रवचन ने मुझे अभिभूत किया । माँ से मन की बात कही। वे पहले ही भीतर-ही-भीतर इस ओर अपना कदम उठा चुकी थीं। दोनों सहमत हुयीं और निर्ग्रन्थ मार्ग पर चल पड़ी । यह सब उन्हीं का प्रताप था । वे अपूर्व गुणों के अपूर्व भाण्डार थे। उन्हें नमन ! -साध्वी मदनकुंवर उनकी पावन स्मृति उनकी पुनीत स्मृतियाँ आज भी लोकहृदय पर विद्यमान हैं । वे तप और संयम की साकार प्रतिमा थे। उन्होंने क्या-क्या करिश्मे नहीं दिखाये । कइयों को डूबते से बचाया। वे अध्यात्म पुरुष थे। उनमें अतुलित बल था, वे परोपकारी संत और कर्मठ योगी थे। उन्हें मेरी अकिंचन वन्दना ! -साध्वी विजयकुंवर प्रेम के देवपुरुष गुरुदेव प्रेम के देवता थे। जैन समाज में व्याप्त फिरकापरस्ती के वे विरुद्ध थे, अतः उनका सारा प्रयास एकता स्थापित करने की ओर ही था। उन्हें जब भी, जहाँ भी अन्य सम्प्रदायों के मुनि-मनीषियों के साथ सहचिन्तन और व्याख्यान करने देने के अवसर मिले, वे प्रसन्नता के साथ वहाँ गये और ऐसे कार्यक्रमों में सम्मिलित हुए। कोटा में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदाय के श्री आनन्दसागरजी, दिगम्बर संप्रदाय के आचार्य श्री सूर्यसागरजी के साथ संपूर्ण चातुर्मास में प्रत्येक रविवार को उन्होंने प्रवचन दिये। उन्होंने प्रेम का कोरा उपदेश ही नहीं दिया वरन् उसके अनुरूप बीसियों कार्य भी किये । रविवार उनके जीवन का एक भाग्यशाली वार था। उनका जन्म रवि को हुआ, दिवंगति रवि को हुई, दीक्षा रवि को हुई और अन्तिम प्रवचन भी रवि को ही हुआ । वे जैन दिवाकर थे। वे परम पुण्यवान संत पुरुष थे, उन्हें शतशः वन्दन ! -भगवती मुनि निर्मल' विराट् योगी उनके महज्जीवन में सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् का आदर्श समन्वय था । वे सही अर्थों में श्रमण संस्कृति के दैदीप्यमान सूर्य थे; यथानाम तथागुण । 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी एक चिरस्मरणीय देन है । यह उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा की द्योतक कृति है। इसे हम जैनों की गीता, बाइबल, रामायण, कुरान आदि कह सकते हैं । यह जैनतत्वनवनीत है, जैनदर्शन का सर्वोत्कृष्ट सारांश । वास्तव में वे विराट् योगी थे। उन्होंने असंख्य भूले-भटकों को एक उज्ज्वल मार्ग दिखाया और उन्हें अपनी वरदानी वत्सलता से अभिषिक्त किया। उनके संपर्क से कइयों के जीवन की धारा ही बदल गयी । ऐसे संत महापुरुष के चरणारविन्द में मेरे शत-शत प्रणाम ! -श्रीमती भुवनेश्वरी जी. भण्डारी, इन्दौर क्रान्तदर्शी जैन दिवाकर आज से लगभग सतर-अस्मी वर्ष पूर्व मालवा के अंचल में प्रतापी संत श्री चौथमलजी महाराज हुए। हज़ारों-हज़ार लोग उनकी वाणी से उपकृत-अनुगृहीत हुए । उनकी प्रवचनसभाएँ समवसरण-जैसी ही होती थीं, वहाँ कोई भेदभाव या पक्षपात नहीं था । ग़रीबअमीर, जैन-जैनेतर, ऊँच-नीच की कोई भेद-भिन्नता नहीं थी। उनकी आवाज़ बुलन्द थी। ध्वनिविस्तारक के बगैर आसानी से वे पाँच-सात हज़ार लोगों को उद्बोधित करते थे। सभाएँ अद्भुत होती थीं। चारों ओर मौन और शान्ति की चादर-सी बिछ जाती थी। सब मन्त्रमुग्ध उन्हें सुनते थे। विहार में तो उनके साथ एक मेला ही चलता था। मार्ग में सैकड़ों ग्रामीण उनके पारस-संपर्क में आते थे और उनकी प्रेरणा से मांस-मदिरा का त्याग कर देते थे। उदयपुर के महाराणा, जो कभी किसी के सम्मुख नहीं झुके, बड़ी श्रद्धापूर्वक उनके चरणों में नतमस्तक हुए। राव हो या रंक, प्रत्येक के लिए उनके हृदय में अपार वात्सल्य और स्नेह था । राजस्थान के भीलों पर भी उनके व्यक्तित्व का गहन-गंभीर प्रभाव हुआ। आज भी वहाँ के आदिवासी मुनि श्री चौथमलजी का स्मरण करके अन्य जैन साधुओं को पूरा सम्मान देते हैं । जैन दिवाकरजी क्रान्तदर्शी महापुरुष थे। उन्होंने समाज से अनेक कुप्रथाओं का अन्त किया और वृद्धों, उपेक्षितों तथा निराश्रितों को आश्रय दिया । चित्तौड़ का वृद्धाश्रम उनकी इस करुणार्द्रता का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। माँ सरस्वती की उन पर ऐसी कृपा थी कि वे अजस्र रूप में गद्य-पद्य, गीत-भजन लिखा करते थे। उनके द्वारा प्रदत्त-प्रणीत साहित्य आज हमारी अमर निधि है । आज भी उनकी शिष्यपरम्परा के दो संत ऐसे हैं जो उनके उत्तराधिकार को अक्षुण्ण बनाये हुए हैं। पंडितरत्न कविवर्य केवलमुनिजी महाराज तथा श्री इन्दरमलजो महाराज के नाम इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। -फकीरचन्द मेहता, इन्दौर एक महान् संत - आज से लगभग आधी शताब्दी पूर्व देवास के भंडारी-परिवार के आग्रह पर जैन दिवाकरजी श्री चौथमलजी महाराज ने देवास में अपना चातुर्मास संपन्न किया था । भण्डारी ५२ तीर्थंकर : नव. दिस. १९१७ For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवार उन दिनों वस्त्र-व्यवसायी था। होल्कर, धार, कोल्हापुर, सिंधिया तथा देवास के राजघरानों में उन्हीं के यहाँ से कपड़ा मंगाया जाता था । देवास छोटी पांतो के महाराजा मल्हारराव बड़ी उदार वृत्ति के व्यक्ति थे। मेरे पिता श्री चम्पालालजी भण्डारी ने उनसे एक बार पूज्य मुनिश्री के दर्शन का आग्रह किया तदनुसार वे देवास के स्थानक में उनका प्रवचन सुनने पधारे। ३-४ दिनों तक नियमित प्रवचन सुनने के बाद वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मनिश्री से स्वयं प्रार्थना की कि “स्थानक छोटा पड़ता है, आप राजबाड़े में प्रवचन देकर मुझे तथा यहाँ की जनता को अनुगृहीत करें"। उन दिनों देवास की आबादी कोई १५-२० हजार की होगी, जिसमें से १०-१२ हजार लोग उनकी प्रवचन-सभाओं में आते थे, आसपास के गांववाले भी वहाँ आते थे, पूज्य दिवाकरजी की वाणी बड़ी औजस्विनी थी। वे बगैर लाउडस्पीकर के बोलते थे। उन्होंने उस जमाने में हरिजन, आदिवासी जैसे निम्नवर्गों को भी गले लगाया; और धर्मान्धता, छुआछूत और अन्धी जातीयता को करारी चुनौती दी । वे महान् क्रान्तिकारी संत थे-मिथ्या आडम्बरों से कोसों दूर, सरल, सहज, सम्यक्, स्वाभाविक । उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों और अव्यवस्थाओं पर भी ती प्रहार किया । बुराइयों, कुरीतियों को कभी नहीं बख्शा । मोची, भंगी, मुस्लिम सभी भाइयों को उन्होंने उपदेश दिये और उन्हें एक विशुद्ध शाकाहारी जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी । वस्तुत: वे मानवतावादी सिद्धान्तों के प्रचारक थे; उनकी वाणी में अदम्य बल था, वे स्पष्टवादी थे, उनकी कथनी-करनी में आश्चर्यजनक एकता था। उन्हें मेरे, प्रणाम ! -गुलाबचन्द भण्डारी, इन्दौर वसुधा मेरा कुटुम्ब _ "सारी धरती मेरा परिवार है" की भावना को कह-कह कर भी धर्म के नाम पर जब मानव-मानव के बीच दूरियाँ बन रही थीं, तब जैन दिवाकर मनिश्री चौथमलजी महाराज का उदय हुआ। उन्होंने अपने असाधारण चारित्रबल से टूट रहे समाज को एक नयी दिशा-दृष्टि प्रदान की। कोटा-चातुर्मास में विभिन्न धर्मों के श्रोता जिस उत्सुकता, और श्रद्धा और उत्साह से उनके प्रवचनो को सुनते थे, उसे देख हम उन्हें सहज ही विश्वसंत कह सकते हैं । आज भी उनके श्रद्धालु भक्तं हाड़ौती-अंचल में एक भारी संख्या में है। उनके प्रवचनों में जो प्रकाश था उसने अनेक भूले-भटकों को राह दिखायी और उन्हें एक साफ-सुथरे जीवन में सुस्थिर किया। वि. सं. २००७ में उनका अन्तिम चातुर्मास कोटा में ही संपन्न हुआ। तब मुझे उनकी सेवा-शुश्रूषा का सौभाग्य मिला । वे क्षण मेरे जीवन की बहुमूल्य पूंजी है । उस समय भारत-विभाजन के शिकार हम लोग स्यालकोट से आये ही थे, ऐसे संकट के समय गुरुदेव के कृपामृत से हमें अपूर्व शान्ति मिली। वस्तुतः उनका जीवन एक उज्ज्वल मार्गदीप था, जो आह्वान करता था कि हम उनकी “वसुधैव कुटुम्बकम्" भावना के अनुरूप समाज-रचना के लिए स्वयं को अर्पित करें और बिना रुके अप्रमत्त भाव से कार्य करते चले जाएँ। -हरबन्सलाल जैन, कोटा चौ. ज. श. अंक : ५३ For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल वटवृक्ष स्व. पूज्यपाद श्री जैन दिवाकर चौथमलजी महाराज संसार को प्रकाश देनेवाले युगपुरुष थे। उनके जीवन की एक महान् विशेषता थी संगठन-प्रेम । आज जब हम इस महान् विभूति का जन्म-शताब्दि-समारोह मनाने जा रहे हैं तब हमारा कर्तव्य है कि हम अपने हृदय को पावन-पवित्र बनायें और संप्रदायवाद को जड़मूल से नष्ट करने का भरसक प्रयत्न करें। मेरे मत में उनके कार्यों को पूरा करना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उनका व्यक्तित्व सामाजिक क्रान्ति का एक विशाल वटवृक्ष था, जिसकी शीतल छाँव आज भी हमें उपलब्ध है । क्या हम उनकी नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्रान्ति को अटूट रख पायेंगे? -सौ. मंजुलाबेन अनिलकुमार बोटादरा, इन्दौर 'पानी में मीन पियासी, मोहे सुनि-सुनि आवै हांसी' श्रमण-सूर्य श्री चौथमलजी महाराज के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते समय एक प्रश्न बार-बार मन को मथता है-जैनधर्म, इस युग में, समस्त मानव-जाति के भौतिक विकास के लिए हो रही भाग दौड़ में किस हद तक प्रासंगिक है, और भौतिक प्रगति की इस भागमभाग में उसका क्या जीवन-दर्शन है ? भौतिक स्थितियों में परिवर्तन और बड़े सुधारों पर किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती है ? सारे विश्व की जनसंख्या एक अन्तहीन ढंग से बढ़ी है; किन्तु उसी के साथसाथ ज्ञान-विज्ञान और तकनीकों का भी विकास-विस्तार हुआ है । सो, आज हर देश में पहला बड़ा सवाल करोड़ों-करोड़ लोगों के लिए सुखमय जीवन-यापन की सुविधाएं मुहैया करना है। सबसे पहला सामाजिक कर्तव्य यही दिखायी देता है कि सब को एक स्वस्थ और सुखी जीवन संभव कराया जाए; रोटी, छत, चिकित्सा और शिक्षा के सारे अवसर उपलब्ध कराये जाएँ; तथा इन समस्त सामाजिक सुरक्षाओं और सुविधाओं का स्तर कमोवेश वही हो जो आज सुविकसित देशों का मानक है। इस दृष्टि से यह सोचना अप्रासंगिक नहीं है कि भौतिक ज़रूरतों को पाने के इस प्रयत्न में जैनधर्म की क्या भूमिका होगी; और जैनधर्म इन आवश्यकताओं की चिन्ता के समय कितना समीचीन और समायोजक सिद्ध होगा? ___ इसके बाद जो दूसरा सवाल गर्दन उठाता है, वह है भौतिक समृद्धि की ओर कदम बढ़ा रहे इन लाखों-लाख लोगों का जीवन-दर्शन क्या हो ? क्या इनकी दृष्टि में जैनधर्म की कोई उपयोगिता या प्रासंगिकता या सार्थकता हो सकती है ? ___सतही ढंग से बिना किसी गहराई में उतरे कहा जा सकता है कि जैनधर्म एक विशिष्ट युग की उपज है, अब वह समय बीत चुका है; संदर्भ पुराने हो चुके हैं अतः यह ठीक है कि वह अतीत में कभी उपयोगी और महान् रहा होगा, आज भला वह कैसे किसी काम का हो सकता है ? तीर्थंकर । नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु सचाई बिलकुल अलग है । यह बात वास्तव में चमत्कार-जैसी ही लग सकती है कि "भौतिक भागमभाग और होडबाजी के इस युग में जैनधर्म के बुनियादी सिद्धान्त सर्वथा प्रासंगिक हैं और आज के संशयग्रस्त मनुष्य को एक स्पष्ट जीवन-दर्शन दे सकते हैं।" इस संदर्भ में यदि हम पूज्य जैन दिवाकरजी के उपदेशों पर ध्यान दें तो सहज ही कोई रचनात्मक दिशाबोध हो सकता है। तीर्थकर' के 'मुनिश्री चौथमल जन्म-शताब्दिअंक' से संबन्धित फोल्डर में उनके तीन रूप सामने रखे गये हैं - वसुधा मेरा कुटुम्ब, मानवता मेरी साधना और अहिंसा मेरा मिशन । केवल आज के पग में यह संभव और व्यवहार्य है कि सारे संसार को एक परिवार माना जाए। विज्ञान ने आज हमें इतना समर्थ बना दिया है कि हम एक-दूसरे के निकट हो सकें और अपने विचारों का स्वतन्त्र आदान-प्रदान कर सकें। आज, वस्तुतः , हम इतने विवश हैं कि “वसुधा को एक कुटुम्ब" माने बिना हमारे पास कोई मार्ग ही नहीं है। अफ्रीका के सघन-बीहड़ वनों से लेकर उत्तरी ध्रुव के निवासियों तक और कोरिया-जापान से दक्षिण-अमेरिकी राज्यों तक आज सारी दुनिया का आदमी एक है । संभव है, जैनधर्म अपने प्रवर्तन-क्षणों में सीमित रहा हो, किन्तु उसके सिद्धान्तों की व्याप्ति अनन्त थी, इसीलिए वह तब समीचीन थी, आज मौजू हैं, पूरी तरह प्रासंगिक और सार्थक है। ___ संयुक्त राष्ट्रसंघ में आज लगभग १५० मुल्कों के प्रतिनिधि हैं, जो इस साधना के प्रतीक हैं कि धरती की मनुजता एक है, वह अलग-अलग भू-खण्डों में बँटी हुई नहीं है। विज्ञान के सारे आविष्कार, मनुष्य को स्वास्थ्य या आरोग्य प्रदान करनेवाली ओषधियाँ, उसके जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने वाले साधन, आज बिना किसी पूर्वग्रह या कठिनाई के सर्वजन सुलभ है। इस तरह संसार का सामान्य नागरिक संपूर्ण मानवता की साधना में लगा हुआ है। माना, राजनीति से उसकी सद्भावना अभिशप्त है, किन्तु सदियों से चले आ रहे उसके प्रयत्न अभी ठंडे नहीं हुए हैं । संत पुरुषों ने, विश्व में जहाँ कहीं भी साधना की है, उसकी कोई-न-कोई फलश्रुति देर-अबेर ज़रूर सामने आयेगी। अहिंसा का संदर्भ तो और भी प्रखर है । पहले सिर्फ विवेक और ज्ञान ही अहिंसा के समर्थक थे, किन्तु आज अब यह बिलकुल स्पष्ट हो गया है कि अहिंसा के बिना जगत् के सामने कोई रास्ता नहीं है। प्रदूषण और युद्ध, तनाव और संत्रास, बीमारियाँ और गृहकलह इस क़दर बढ़ रहे हैं कि अहिंसक जीवन-शैली को अपनाये बिना आज कोई विकल्प ही नहीं रहा है। आज हिंसा जीवन में सर्वत्र जिस तरह सुराख किये बैठी है. उसका सीधा अर्थ है – सर्वनाश । यही वह विवशता है वस्तुतः, जिसके कारण संपूर्ण जगत् को अहिंसा की ओर मुड़ना पड़ रहा है। यही नहीं, जैनधर्म के एक और सिद्धान्त अपरिग्रह को ही हम लें। भौतिक साधनों की अमर्यादा और असंयम के कारण आज 'विकास को विवेक' के साथ जोड़ना बहत चौ. ज. श. अंक . ५५ For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी हो गया है । हमारा यह निरुद्देश्य विकास कहीं निखिल मानवता को किसी गहरी खाई में न उतार दे, यह सावधानी हमें क़दम - द - क़दम बरतनी होगी और अपरिग्रह को क्रमशः जनजीवन में सघन करना होगा । मैंने ऊपर आधुनिक विकास का जो चित्र प्रस्तुत किया है, उसमें आशा की एक स्पष्ट किरण जैनधर्म के मौलिक सिद्धान्तों के रूप में दिखलायी देती है । आज, वस्तुत: मनुष्य विकास की उस पराकाष्ठा पर आ उपस्थित हुआ है जहाँ उसे धर्म के शाश्वत सिद्धान्तों से साक्षात्कार हुआ है, किन्तु क्या कारण है कि जो इन धर्मों को सदियों से पालते चले आ रहे हैं, उन्हें इनकी उपयोगिता की अनुभूति नहीं हो पा रही है । यह सब देखते क़बीर की वह पद-पंक्ति याद आ जाती है - 'पानी बिच मीन पियासी, सुन-सुन आवे हाँसी' । जैनों के पास सिद्धान्त हैं, आचरण नहीं है; शास्त्र है, किन्तु उसका स्पष्ट बोध नहीं है । एक तरह से वे एक तीखी आत्मप्रवंचना में जी रहे हैं; क्या 'पानी बिच मीन पियासी' की उक्ति को चरितार्थ नहीं कर रहे हैं ? उदाहरण के लिए हम पर्युषण की क्षमापना को ही लें; इस अवसर पर क्षमा हम केवल सगे-संबन्धियों और परिचितों से ही नहीं माँगते वरन् सारे चराचर जगत् से माँगते हैं । इस सिद्धान्त की उदात्तता को पर्यावरण- विज्ञानियों के इस अभिलेख से मिलाइये कि यदि मनुष्य को इस धरती पर शान्ति-सुख से अपना अस्तित्व बनाये रखना है तो उसे समस्त प्रकृति, उसके परिवेश, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, नदी-नाले, पेड़-पौधे इत्यादि को भययुक्त करना होगा । उनके साथ मैत्री और अहिंसापूर्वक जीना होगा; किन्तु विडम्बना यह है कि जैनों की क्षमापना केवल एक औपचारिकता अब है, उसका जीवन से सीधा सरोकार नहीं रहा है । क्या हम अपने सिद्धान्तों को जीवन से जोड़ने की दूरदर्शिता दिखा सकेंगे ? मैंने जिन तथ्यों की ओर ऊपर संकेत किया है, वे और अधिक गहराई से सोचे जाने की अपेक्षा रखते हैं; अतः मैं चाहता हूँ कि इस शताब्दि- वर्ष में व्यर्थ के अपव्ययों से बचकर साधु और श्रावक - वृन्द जैनधर्म के सिद्धान्तों को आचरण में लाने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाने का प्रयत्न करे । 'यह एक महापुरुष होगा' एक बार मन्दसौर के शास्त्रवेत्ता श्रावक श्री गौतमजी वाग्या ने वैराग्यावस्था में श्री जैन दिवाकरजी को देखकर टिप्पणी की थी- "ये क्या संयम पालेंगे ?" इस पर पूज्य श्री हीरालालजी महाराज ने कहा - "यह बालक भविष्य में एक महापुरुष होगा । जैन - जैनेतर लाखों मानवों और प्राणियों का कल्याण करेगा और सारे देश में ज्ञान, संयम और चारित्र की अनुपम गंगा प्रवाहित करेगा ।" अन्ततः माता और पत्नी से लिखित अनुमति प्राप्त तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ ५६ जवाहरलाल मुणेत, अमरावती For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबेरे वह स्वयं उठकर व्याख्यान में आ जाएगा। सारा वातावरण ही बदल गया । मैंने उचित दवा लाकर दी और कम्बल ओढ़ाकर सुला दिया। वह सो गया, और सबेरे व्याख्यान में आ गया। इसी चातुर्मास में एक और प्रसंग इसी तरह का सामने आया । जिस स्थानक गुरुदेव बिराजमान थे, उसके पीछे की गली में एक बाई भयंकर प्रसव पीड़ा से कराह रही थी । डाक्टर, वैद्य, दाई, नर्स सब ने उपचार किया किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ, दर्द ज्यों-का-त्यों बना रहा । ऐसे खिन्न वातावरण में वहाँ खड़े एक भाई ने कहा कि एक कटोरी जल ले जाओ और गुरुदेव का अंगूठा छुआ लाओ और बाई को पिला दो । यही हुआ और दर्द बिजली की गति से भाग गया । प्रसविनी उठ बैठी। दूसरे दिन उसने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया । ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जो मुनिश्री चौथमलजी के व्यक्तित्व को उजागर करती हैं । वस्तुतः ये चमत्कार नहीं हैं, ये हैं उनकी आध्यात्मिक साधना से निर्मित निर्मल वातावरण के प्रभाव। उनकी साधना इतनी महान्, उज्ज्वल और लोकोपकारी थी, कि चारों ओर का वातावरण, जहाँ भी वे जाते, रहते या प्रवचन करते थे, निर्मल, रुजहारी और आह्लादपूर्ण हो उठता था । वे महान् थे । चाँदमल मारू, उनके मार्ग पर चलें वास्तव में मुनिश्री चौथमलजी महाराज के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगीउनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलना । जबतक हम संगठन, एकता, परस्पर मंत्री, आत्मानुशासन, वैराग्य, कठोर कर्त्तव्य पालन आदि की ओर अग्रसर नहीं होंगे, उनके इस जन्म-शताब्दि समारोह को सार्थक नहीं कर पायेंगे । बागमल चौहान, महागढ़ जीवन ही बदल गया उत्तरप्रदेश के एक गाँव में श्री जैन दिवाकरजी का प्रवचन हो रहा था । श्रोता मन्त्रमुग्ध थे । प्रवचन का विषय था- 'चोरी करना महापाप है' । वक्ता श्रोता दोनों आत्मविभोर थे । बीच में एक भाई खड़ा हुआ और बड़ी नम्रता से बोला- 'गुरुदेव मैं आज से जीवन-भर चोरी करने का त्याग करना चाहता हूँ, कृपाकर मुझे त्याग करवा दें' । लोग आश्चर्यचकित उस ओर देख रहे थे क्योंकि जो व्यक्ति व्रत लेने के लिए प्रेरित हुआ था वह उत्तरप्रदेश का एक कुख्यात डाकू था । उसने कई हत्याएँ की थीं। इस तरह जिसका जीवन घृणित कार्यों में लगा रहा, गुरुदेव के उपदेशों से उसका सारा जीवन ही बदल गया । उनके प्रभाव से कई गाँवों में आपसी मन-मुटाव मिट गये और कई व्यक्तियों ने मद्यपान, मांसाहार, गांजा भांग इत्यादि व्यसन जीवन भर के लिए छोड़ दिये । → नथमल सागरमल लं. कड़, जलगाँव तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ ५८ मन्दसौर For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबेरे वह स्वयं उठकर व्याख्यान में आ जाएगा। सारा वातावरण ही बदल गया। मैंने उचित दवा लाकर दी और कम्बल ओढ़ाकर सुला दिया। वह सो गया, और सबेरे व्याख्यान में आ गया। इसी चातुर्मास में एक और प्रसंग इसी तरह का सामने आया। जिस स्थानक में गुरुदेव बिराजमान थे, उसके पीछे की गली में एक बाई भयंकर प्रसव-पीड़ा से कराह रही थी । डाक्टर, वैद्य, दाई, नर्स सब ने उपचार किया किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ, दर्द ज्यों-का-त्यों बना रहा। ऐसे खिन्न वातावरण में वहाँ खड़े एक भाई ने कहा कि एक कटोरी जल ले जाओ और गुरुदेव का अंगूठा छुआ लाओ और बाई को पिला दो। यही हुआ और दर्द बिजली की गति से भाग गया। प्रसविनी उठ बैठी । दूसरे दिन उसने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया । ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जो मुनिश्री चौथमलजी के व्यक्तित्व को उजागर करती हैं । वस्तुतः ये चमत्कार नहीं हैं, ये हैं उनकी आध्यात्मिक साधना से निर्मित निर्मल वातावरण के प्रभाव । उनकी साधना इतनी महान्, उज्ज्वल और लोकोपकारी थी, कि चारों ओर का वातावरण, जहाँ भी वे जाते, रहते या प्रवचन करते थे; निर्मल, रुजहारी और आह्लादपूर्ण हो उठता था । वे महान् थे। _चाँदमल मारू, मन्दसौर उनके मार्ग पर चलें वास्तव में मुनिश्री चौथमलजी महाराज के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगीउनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलना। जबतक हम संगठन, एकता, परस्पर मत्री, आत्मानुशासन, वैराग्य, कठोर कर्त्तव्य-पालन आदि की ओर अग्रसर नहीं होंगे, उनके इस जन्म-शताब्दि-समारोह को सार्थक नहीं कर पायेंगे। बागमल चौहान, महागढ़ जीवन ही बदल गया उत्तरप्रदेश के एक गाँव में श्री जैन दिवाकरजी का प्रवचन हो रहा था। श्रोता मन्त्रमुग्ध थे। प्रवचन का विषय था-'चोरी करना महापाप है' । वक्ता-श्रोता दोनों आत्मविभोर थे। बीच में एक भाई खड़ा हुआ और बड़ी नम्रता से बोला-'गुरुदेव मैं आज से जीवन-भर चोरी करने का त्याग करना चाहता हूँ, कृपाकर मुझे त्याग करवा दें। लोग आश्चर्यचकित उस ओर देख रहे थे क्योंकि जो व्यक्ति व्रत लेने के लिए प्रेरित हुआ था वह उत्तरप्रदेश का एक कुख्यात डाकू था। उसने कई हत्याएँ की थीं। इस तरह जिसका जीवन घृणित कार्यों में लगा रहा, गुरुदेव के उपदेशो से उसका सारा जीवन ही बदल गया। उनके प्रभाव से कई गांवों में आपसी मन-मुटाव मिट गये और कई व्यक्तियों ने मद्यपान, मांसाहार, गांजा-भांग इत्यादि व्यसन जीवन भर के लिए छोड़ दिये। D नथमल सागरमल लं कड़, जलगाँव तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी का जादूगर पूज्य श्री जैन दिवाकरजी को वाणी का जादूगर कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है; जिनकी वाणी सुनकर कुख्यात डाकू का हृदय-परिवर्तन हो गया। विज्ञापन और पर्चेबाजी के बिना ही हजारों की भीड़ जमा होने का अर्थ होता है, प्रवचन की पटुता । संप्रदायातीत वाणी को सुनकर जैनेतर भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते थे । उनके व्याख्यान से ही गूढ़तम शंकाओं का समाधान सहज भाव से मिल जाता था । उनकी व्याख्यान-शैली से आगामिक गढ़ विषय भी सरल प्रतीत होने लगते थे। उनकी ओजस्वी वाणी दिवाकर-सदृश प्रखर जो थी ! - चन्दन मुनि त्रिवेणी का अपूर्व संगम जब दिगम्बर जैनाचार्य श्री सूर्यसागरजी महाराज का चातुर्मास कोटा में हो रहा था, तब जैन दिवाकर श्री चौथमलजी का चातुर्मास भी वहीं हो रहा था । आचार्य श्री आनन्दसागरजी भी वहीं बिराजमान थे। इस तरह वहाँ पावन त्रिवेणी का अपूर्व संगम था। श्री जैन दिवाकरजी ने एक ही मंच पर तीन धाराओं को एकत्रित कर अद्भुत कार्य किया था । जब तीनों आचार्य एक ही मंच पर बैठकर महोपदेश करते थे, तब समतासमन्वय का अनूठा दृश्य रहता था। मैं भी नवाई के करीब २५ प्रतिष्ठित महानुभावों को लेकर कोटा पहुँचा था। मेरी उनसे चर्चा भी हुई, उस समय उन्होंने कहा, 'शास्त्रीजी, यह कार्य बहुत देरी से हुआ है। ऐसे शुभ कार्य तो बहुत पहले हो जाने चाहिये थे'। ___संक्षेप में, श्री जैन दिवाकरजी प्रभावक संत, समता के धनी, समन्वयात्मक भावना के प्रतीक थे। मानवों में मानवता पैदा करने की उनकी प्रबल भावना थी । उनकी वक्तृत्व-कला सीधी, साफ, सरल और प्रभावक थी। 0 पं. राजकुमार शास्त्री, नवाई 'आग से आग शान्त नहीं होती, खून से खून साफ नहीं होता, क्रोध से क्रोध शान्त नहीं होता। आग को शान्त करने के लिए, खून को धोने के लिए पानी की आवश्यकता है। क्रोध को उपशान्त करने के लिए क्षमा चाहिये। ___ 'जैसे सोने वाले को धीरे-धीरे क्रम से ज्ञान होता है, उसी प्रकार जागने वाले को भी इसी क्रम से ज्ञान होता है। सोने और जागनेवाले में अन्तर यही है कि जागने वाले को झटपट ज्ञान हो जाता है और सोने वाले को धीरे-धीरे। -मुनि चौथमल चौ. ज. श. अंक .. . For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सत्य कथा जीवन हुआ सोना उपदेश का प्रवाह रुका मानो ज्ञान गंगा को विश्राम मिला । श्रोतांगण एक साथ उठ खड़े हुए। मांगलिक श्रवण के पश्चात् वे महाराजश्री को नमन-वंदन कर और उनके चरणों में सिर झुका अपने-अपने घरों की ओर जाने लगे । शनैः शनैः स्थान खाली हो गया । महाराजश्री की दृष्टि सहसा सामने उठ गयी । वहाँ एक व्यक्ति बैठा था - मलिन वेशभूषा, उलझे बाल, सूखे अधर, जर्जर काया, दरिद्रता की साक्षात् मूर्ति । उनके हृदय में करुणा का स्रोत उमड़ा। स्नेह - सिक्त स्वर में बोले ―― " कौन हो भाई ! इतनी दूर क्यों बैठे हो ?" " मोची हूँ महाराज ! नाम है अमरा । " " दिन में कितना कमा लेते हो ?" " पाँच रुपये ।" संवत् १९७१ (सन् १९१४ ) में पाँच रुपया प्रतिदिन की आय कम नहीं होती थी, वरन् इसे अच्छी खासी आमदनी माना जाता था । महाराजश्री इसकी दीन दशा देखकर समझ गये कि अवश्य ही इसे कोई व्यसन लगा है, अन्यथा ऐसी अच्छी आय में इसकी हालत इतनी खस्ता न होती । वे मनुष्यों की विचित्र प्रवृत्तियों और आत्मघाती लोकपरलोक को बिगाड़नेवाले क्रिया-कलापों पर विचार करने लगे; तभी उनके कानों में उस व्यक्ति का दीनतापूर्ण स्वर पड़ा "महाराज ! कोई ऐसी राह बताइये जिससे मेरा और मेरे परिवार का जीवन सुखी बने, बच्चों का भविष्य सुधरे ।” ६० गंभीर स्वर में महाराजश्री बोले "राह तो है, अमरचन्द ! पर तुम चल भी सकोगे ?” " अवश्य चलूंगा ।" "जो पूछू गा उसका सच-सच जवाब दोगे ?” " आपके सम्मुख झूठ बोलने की हिम्मत ही नहीं होती ।" अब महाराजश्री ने पूछा "तुम शराब पीते हो ?" "हाँ महाराज ! " धीमे स्वर में अमरचन्द ने बताया । "माँस खाते हो ?” For Personal & Private Use Only तीर्थंकर : वव. दिस. १९७७ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हाँ महाराज।" “जीवहिंसा करते हो?" इस प्रश्न का भी अमरचन्द ने सिर हिलाकर स्वीकृति-सूचक उत्तर दिया। महाराजश्री बोले-“आज से तुम्हें माँस, मदिरा और जीव-हिंसा का त्याग करना पड़ेगा। बोलो मंजूर है ?" "अवश्य त्याग करूँगा।" इतने शीघ्र ही सहज ढंग से स्वीकार करते देख महाराजश्री को सहसा विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने पुनः कहा-“इस प्रतिज्ञा को ले तो रहे हो पालन भी कर सकोगे?" अमरचन्द ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-“महाराजश्री ! मैं आज प्रतिज्ञा लेने ही आया था। घर से सोच कर निकला था कि आज गुरुदेव से नियम लेकर ही रहँगा। तीन दिन से लगातार आपका उपदेश सुनता आ रहा हूँ। आपने जो माँस-मदिरा और जीवहिंसा की बुराइयाँ बतायीं तो ऐसे हृदय में भी इनसे दूर रहने की इच्छा जाग्रत हो गयी। मैं विश्वास दिलाता हूँ गुरुदेव कि अपनी प्रतिज्ञा का प्राण देकर भी पालन करूँगा।" उसकी दृढ़ता से गुरुदेव आश्वस्त हुए और अविचल बने रहने की प्रेरणा देते हुए उसे प्रतिज्ञा करवा दी। गुरुदेव को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके अमरचन्द चला गया। ___ जैन दिवाकर चौथमलजी महाराज इस समय गंगापुर (राजस्थान) में विराजमान थे। उनके प्रवचन नित्य आम बाजार में होते; किन्तु कुछ लोग जैन होते हुए भी उनके दिव्य प्रवचनों का लाभ नहीं उठा पाते थे । कारण था-संकीर्ण दृष्टि और संप्रदायगत भेदभाव । कुछ लोगों की चित्तवृत्ति ऐसी संकीर्ण होती है कि वे अपने संप्रदाय के साधुओं के प्रति तो श्रद्धा रखते हैं, किन्तु अन्य संप्रदायवालों के प्रति उपेक्षा। यही दशा उस समय गंगापुर के कई जैन परिवारों की थी। जब भी जैन दिवाकरजी गंगापुर में पधारते उनके प्रवचनों की पूरे गाँव में धूम मच जाती थी। सभी उनके दर्शनों से स्वयं को कृतकृत्य मानते; किन्तु संप्रदायवाद के कारण जैन धर्मावलम्बी होते हुए भी अनेक बन्धु उनसे दूर ही रहते थे। एक दिन अमरचन्द अपने भाई कस्तूरचन्द और तेजमल के साथ आम बाजार से निकला। प्रवचन हो रहा था। उपस्थित विशाल जन-समुदाय को देख वह भी उत्सुकतावश वहाँ चला आया । महाराजश्री मांस-मदिरा और जीवहिंसा के दोष बता रहे थे। तीनों भाई वहाँ कुछ क्षण को ही आये थे, लेकिन प्रवचन इतना चौ. ज. श. अक For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावशाली था कि वहीं खड़े रह गये। व्याख्यान समाप्त हुआ तब वहाँ से चले। अमरचन्द के कानों में दिन भर गुरुदेव के शब्द गूंजते रहे। वह दूसरे दिन भी व्याख्यान सुनने जा पहुँचा। उसके हृदय में मांस-मदिरा-त्याग की इच्छा जागृत हुई। उसे इन वस्तुओं में दोष ही दोष नजर आने लगे। तीसरे दिन के व्याख्यान में तो उसकी त्याग-भावना तीव्रतर हो गयी। उसने गुरुदेव के समक्ष माँस-मदिरा और जीवहिंसा के त्याग की आजन्म प्रतिज्ञा ले ली। प्रतिज्ञा लेकर अमरचन्द घर पहुँचा । उसके मुख पर आत्मसंतोष झलक रहा था। भाइयों ने पूछा तो उसने प्रतिज्ञा लेने की बात बतायी। भाइयों के हृदय में भी सद्बुद्धि जागी। दूसरे दिन कस्तूरचन्द और तेजमल ने भी माँस-मदिरा और जीवहिंसा-त्याग की प्रतिज्ञाएँ ग्रहण कर ली। गुरुदेव आस-पास के गाँवों में विहार हेतु गये तो उनके पीछे-पीछे तीनों भाई भी चले। वहाँ वे अन्य लोगों को माँस-मदिरा-त्याग की प्रेरणा देने में सहायक बने। __गुरुदेव ने उनकी भावना देखकर नवकार मंत्र सिखाया। वे महामंत्र की माला फेरने लगे। अब वे नियमित रूप से जाप करते और अपनी प्रतिज्ञाओं का दृढ़तापूर्वक पालन करते। प्रतिज्ञा की सच्ची कसौटी परीक्षा में होती है। जो प्रतिज्ञा लेता है उसे अग्नि-परीक्षा में में भी गजरना पड़ता है। कुछ ही दिनों में अमरचन्दभाई की परीक्षा का अवसर भी उपस्थित हो गया। ___गाँव में विवाह का प्रसंग उपस्थित हुआ। बिरादरी में - जाति में भोज था। अमरचन्द को भी निमंत्रित किया गया। अमरचन्द जानते थे कि जाति-भोज में मांस-मदिरा का दौर भी चलेगा। विकट परिस्थिति थी। जाति-भोज में सम्मिलित न हुए तो जाति से बहिष्कृत कर दिये जाएंगे और सम्मिलित हुए तो प्रतिज्ञा भंग हो जाएगी। बड़ी देर तक ऊहापोह करते रहे; अन्त में निश्चय किया – 'प्रतिज्ञा भंग नहीं करूँगा, चाहे बिरादरी से निकाल दिया जाऊँ। जाति क्या प्राण भी छूटे तो छुटे, पर प्रतिज्ञा नहीं टूटेगी।' उसने भोज में सम्मिलित न होने का निश्चय कर लिया। ___अमरचन्दभाई भोज में उपस्थित न हुए तो लोगों ने ताने कसे – 'अरे भाई ! अब तो वह जैन हो गया है; हमारी बिरादरी का न रहा।' दूसरे लोगों ने कह दिया-'जब हमारी बिरादरी में वह सम्मिलित नहीं होगा तो हम ही उसके यहाँ क्यों जाएँगे?' लोगों ने एक स्वर से कहा-'जाति' से बाहर निकाल देना चाहिये।' और अमरचन्दभाई जाति से बहिष्कृत कर दिये गये। इस जाति-दण्ड को अमरचन्दभाई ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, किन्तु प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी। वे अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग बने रहे। तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग का फल मिलता ही है। अमरचन्दभाई को भी सुफल मिलने लगा। मदिरा का व्यसन छूटने से धन की बचत हुई और शरीर का बल बढ़ा, मुख पर कान्ति लौट आयी। कुछ ही महीनों में उन्होंने अपने कर्ज का भारी बोझ उतार दिया । बचत लगातार हो ही रही थी। अब पास में धन जुड़ने लगा। घर का खानपान भी बदला और वेशभूषा भी बदल गयी। मलिन वस्त्रों का स्थान स्वच्छ वस्त्रों ने ले लिया । सुसंस्कार जाग्रत हो गये । अमरचन्दभाई के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया। दो वर्ष बाद ही नया मकान भी बन गया। द्वार पर उन्होंने लिखवाया-'आइये भाईसाहब, जयजिनेन्द्र ! एक बार अमरचन्दभाई चातुर्मास में गुरु-दर्शन को गया तो वह इतना बदला हुआ था कि उसे पहचानना भी कठिन था। उसकी दशा इतनी बदल चुकी थी कि उसे कर्ज देने में आनाकानी करनेवाले अब उससे उधार माँगने लगे थे। सामायिक का पाठ सीखा और वह सामायिक करने लगा। समृद्धि का सर्वत्र आदर होता है। उसके जाति भाइयों ने उसकी ऐसी बदली स्थिति देखी तो समझा कि यह अवश्य ही गुरुदेव का प्रताप है। वे भी गुरुदेव के पास आये और कहने लगे-"हमें भी कोई प्रसाद दीजिये।" गुरुदेव ने उनकी भावना समझी और कहा-"हमारा प्रसाद तो नवकार मंत्र है । मांस-मदिरा-जुआ-जीवहिंसा आदि का त्याग है। दूसरों को सुख-साता दोगे तो खद भी सुखी रहोगे। दया पालो, नवकार मंत्र जपो - दोनों लोकों में सुख पाओगे।" उन लोगों ने भी गरुदेव का प्रसाद समझकर माँस-मदिरा और जीवहिंसा त्याग के नियम लिये। उनका भी जीवन बदल गया। बच्चों पर भी सुसंस्कार पड़ने लगे। उन्हें भी जीवदया में रस आने लगा। अब वे लोग आस-पास के गाँवों में गये और अपनी जाति में जीवदया का प्रचार करने लगे । जातिवालों ने उन्हें आदर-सहित पुनः जाति में सम्मिलित कर लिया। प्रातः, सायं, दोपहर वे नवकार मंत्र का जाप करते, भजन बोलते तथा अन्य देवी-देवताओं की अन्धी मान्यता भी वे न करते। राजस्थान में गर्मी की ऋतु बड़ी भयंकर होती है। वैसे ही वहाँ जल की कमी है, गर्मी में तो कुए और तालाब भी सूख जाते हैं। पानी के अभाव में मनुष्यों को तो कष्ट होता ही है; किन्तु मछलियों का तो जीवन ही जल है। जल के अभाव में वे तड़प-तरफ कर प्राण दे देती हैं। ऐसी ही एक ग्रीष्म थी। एक जलाशय का जल सूखने लगा था । मछलियाँ तड़पने लगी । जीवदया के व्रती अमरचन्द का हृदय काँप उठा । करुणार्द्र होकर उसने पुत्र से कहा-'बेटा इन्दर ! घर से दो सौ रुपए लेकर मेरे साथ चलो।' चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र ने तुरन्त आज्ञा का पालन किया । प्रातःकाल ही किराये से बैलगाड़ी ली और उसमें लोहे का ड्रम रखा । जलाशय के किनारे पहुँचे । बाल्टियों से मछलियाँ ड्रम में भरी और वहाँ से दूर एक जल से भरे तालाब में उन्हें छोड़ दिया । जल में गिरते ही जैसे मछलियों का जीवन ही लौट आया । वे स्वच्छन्द विचरण करने लगीं । अमरचन्दभाई के मुख पर संतोष के भाव झलकने लगे । दिनभर यही क्रम चलता रहा। अमरचन्द और उसका पुत्र भूखे-प्यासे मछलियों की प्राणरक्षा करते रहे -- दूर जलाशय में उन्हें छोड़ते रहे । दूसरे दिन भी यही क्रम चलता रहा। सभी मछलियों की जीवन-रक्षा हो गयी। उनके इस कार्य की सराहना करते हुए लोग कहने लगे - 'कितना अन्तर हो गया है, अमरा में ? कहाँ तो यह आलस में पड़ा रहता था, नशे में धुत्त और कहाँ अब दया की मूर्ति ही बन गया है । लोगों की सराहना सुनकर अंमरचन्दभाई गद्गद हो गये । धर्म में उनकी प्रीति और बढ़ी । जीवन धर्ममय हो गया । एक बार कुछ संत गंगापुर आये । ज्यों ही अमरचन्दभाई को मालूम हुआ वे दौड़े आये और भाक्तपूर्वक उन्हें एक उचित स्थान पर ठहराया । गोचरी का समय हुआ । संत गोचरी हेतु चले तो उनके पीछे-पीछे अमरचन्द भी चल दिये । कई घर जाने पर भी संतों को भोजन नहीं मिला। कहीं अधूरा भोजन था, तो कहीं घर का दरवाजा ही बंद था । आहार की सुलभता न देख अमरचन्द का हृदय रो उठा । वे सोचने लगे- 'ये वही संत हैं, जिन्होंने भगवान् महावीर की वाणी सुनाकर हजारों, अधम- पापियों को धर्म की राह दिखायी है । उनके जीवन में सुख ही सुख भर दिये हैं । काल का कैसा दुष्प्रभाव कि आज इन्हें निराहार ही रहना पड़ रहा है।' उनकी आँखों से आँसू बहने लगे, रुलाई फूट पड़ी। साधु ने रोते देख पूछा - " क्यों रो रहे हो, भाई ?" " अपने दुर्भाग्य पर रो रहा हूँ । जाति के कारण मैं आपको भोजन नहीं दे सकता । मेरे घर भोजन भी है, मेरे चौबिहार भी है ! और जो आपको भोजन दे सकते हैं उनके यहाँ से आपको मिला नहीं ।" साधु ने सांत्वना दी- " भाई ! तुम्हारी भावना पवित्र है । यद्यपि हम लोग जाति-पांति और छुआछूत नहीं मानते, किन्तु लोक व्यवहार के कारण साधु-मर्यादा रखनी पड़ती है । फिर भी तुमने दान न देकर अपनी उत्कृष्ट भावना से दान से अधिक पुण्य लाभ लिया है । तुम्हारे ये आँसू गंगाजल से कहीं अधिक पवित्र हैं । " अमरचन्दभाई को साधु के वचनों से सांत्वना मिली । ६४ तीथकर : नव. दिस १९७७ For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरचन्दभाई जीवन-भर धर्म का पालन करते रहे। जैनधर्म पर उनकी श्रद्धा अट्ट और अडिग थी। सं. २००२ में उन्होंने ब्रह्मचर्य-व्रत ले लिया और बड़ी निष्ठा से उसका पालन किया। आयु के अंतिम समय में जब उनकी आत्मा इस नश्वर शरीर को छोड़ने लगी, तो वे समीप बैठे लोगों को बताने लगे – “देखो ! मझे जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज के दर्शन हो रहे हैं। वे मुझे मांगलिक दे रहे हैं। वे धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करने की प्रेरणा दे रहे हैं । • तुम लोग भी धर्म से विचलित मत हो जाना; निष्ठापूर्वक पालन करना।” । ___ यह कहते-कहते अमरचन्द के प्राण-पखेरू उड़ गये। -केवल मुनि गोशाला के द्वारा प्रभु की परीक्षा ___. “प्रभु लाट देश से विहार कर आर्य देश की ओर पधारे। पहले वे सिद्धार्थपुर के निकट होकर निकले। तब वहाँ से कूर्म गाँव की ओर वे बढ़े। मार्ग में गोशाला तिल के एक पौधे को देख कर खड़ा हो गया। और प्रभु की परीक्षा के उद्देश्य से वह उनसे पूछने लगा, “भगवन्, यह पौधा फलेगा, या नहीं?" और, इस पर जो ये सात फूल खिले हुए हैं, उनमें के जीव मर जाने पर, वे फिर कहाँ जाकर जन्म ग्रहण करेंगे?" इसके उत्तर में प्रभु ने कहा, “गोशाला यह तिल का पौधा फलेगा। और इसके ऊपर लग हुए, फूलों के जीव यहाँ से मर कर, और इसी पेड़ के ऊपर तिलों की फली में जाकर, दानों में, जन्म प्राप्त करेंगे।" गोशाला के के सन्देह और भ्रम-भरे चित्त को प्रभु के इस कथन पर विश्वास नहीं हुआ। विश्वास होता भी तो कैसे और क्यों? वह तो भगवान् के हृदय की परीक्षा लेने पर उतारू हो रहा था। उसने भगवान् के उस कथन को झूठा करने के लिए, भगवान को जरा अकेले-अकेले आगे बढ़ जाने दिया। पीछे से उसने उसी पौध को जड़मूल' से उखाड़कर, किसी एक निर्धारित स्थान पर फेंक दिया । और तब, कदम बढ़ाते-बढ़ाते वह प्रभु से आ मिला। प्रभु और गोशाला, अब कूर्म गाँव के निकट पहुँचे ही होंगे, कि उधर उस पौधे के पास से एक गाय दौड़ती हुई निकली। उसका पैर (खुर) उस पौध पर पड़ गया। भाग्य से वहाँ भी ज़मीन भी कुछ गीली थी । इन सब साधनों के मिल जाने पर आढ़े-टेढ़े किसी भी रूप में वह पौधा फिर जम गया। खुर के ज़ोर से ज़मीन में बैठने के कारण, वहाँ एक गड्ढा भी उस पौधे के लिए अच्छा हो गया था । आसपास का पानी सिमिट कर वहाँ कुछ आ गया । कुछ ही मुरझाया हुआ पौधा जल को, ज़मीन को और वायु तथा उपयुक्त गर्मी को पाकर, फिर पनप गया। समय पाकर उसके उन्हीं फूलों के जीव, तिलों की फली में तिल हुए।" (मुनिश्री चौथमल-रचित 'भगवान महावीर का आदर्श जीवन', पृष्ठ २७६ : १९३३) चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निग्रन्थ-प्रवचन' 'लावणी-संग्रह' इत्यादि के कुछ चुने हुए अंश (यहाँ हम 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' 'लावणी-संग्रह' तथा 'भगवान् नेमिनाथ और पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र' से कुछ चुने हुए अंश उद्धृत कर रहे हैं, जिनसे मुनिश्री चौथमलजी महाराज की साहित्य-मनीषा का सहज ही अनुमान हो जाएगा। मुनिश्री जहाँ एक ओर एक प्रखर आगम वेत्ता थे, वहीं दूसरी ओर लोकमन के पारखी कवि भी थे । 'निर्ग्रन्थ प्रवचन उनके गहन अध्ययन की एक उत्तम परिणति है, एवं लावणी तथा चरित-काव्यांस उनकी लोकसाहित्य-प्रतिभा का एक ठोस उदाहरण है । हमें विश्वास है हमारे सहृदय पाठकों को इन से मुनिवर्य की प्रतिभा की थाह मिलेगी और वे उनके संपूर्ण वाङमय के पारायण के लिए प्रेरित-उत्साहित होंगे । 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' एक ऐसा ग्रन्थ-रत्न है जो जैनतत्त्व-दर्शन का एक संपूर्ण चित्रं हमारे सामने रखता है। इसमें १८ अध्याय हैं, जिनमें क्रमशः षट् द्रव्य, धर्म-स्वरूप, आत्मशुद्धि के उपाय, ज्ञान, सम्यरत्व, धर्म, ब्रह्मचर्य, साधुधर्म , प्रमाद-परिहार, भाषा-स्वरूप, लेश्या-स्वरूप, कषाय-स्वरूप, वैराग्य-सम्बोधन, मनोनिग्रह, आवश्यक कृत्य, नर्क-स्वर्ग और मोक्ष का निरूपण है। -संपादक) निग्रन्थ-प्रवचन नो इंदियग्गेझ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि अ होइ निच्चो । अज्झत्थहेउं निययस्स बंधो, संसारहेउ च व्यंति बंधं ॥ आत्मा इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता है, क्योंकि वह अमूर्त है । अमूर्त होने से वह नित्य भी है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय आदि कारणों से आत्मा बन्धन में फंसा है और वह बन्धन ही संसार का कारण है । अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण या सुहाण य । अप्पा मित्तममितं च, दुप्पठ्यि सुपदिओ ॥ आत्मा ही सुख-दुःख का जनक है और आत्मा ही उसका विनाशक है। सदाचारी सन्मार्ग में लगा हुआ आत्मा अपना मित्र है और कुमार्ग पर लगा हुआ दुराचारी आत्मा ही अपना शत्रु है । तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाणस्सावरणिज्जं, दसणावरणं तहा । वेयणिज्जं तहा मोह, आउकम्मं तहेव य॥ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य । एवमेयाई कम्माई, अद्वैव उ समासओ ॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय संक्षेप में ये ही आठ कर्म हैं। जा जा वन्चइ रयणी, न सा पडिनिअतइ । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जंति राइओ ॥ जो-जो गत्रि चली जाती है, वह-वह लौटकर नहीं आती। अधर्म करनेवाले की रात्रियाँ निष्फल जाती हैं। धिई मई य संवेगे, पणिहि सुविहि संवरे । अत्तदोसोवसंहारे, सव्वाकामविरत्तया ॥ अदीन वृत्ति से रहना, संसार से विरक्त होकर रहना, कायादि के अशुभ योगों को रोकना, सदाचार का सेवन करना, पापों के कारणों को रोकना, अपनी आत्मा के दोषों का संहार करना, और सर्व कामनाओं से विरत रहना। अह सव्वदव्वपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणंतं । सासयमप्पडिवाई एगविहं केवलं नाणं ॥ केवलज्ञान समस्त द्रव्यों को, पर्यायों को और गुणों को जानने का कारण है, अनन्त है, शाश्वत है, अप्रतिपाती है, और एक ही प्रकार का है। ६ नत्थि चरित्तं सम्मत्त विहूणं, सणे उभइअव्वं । सम्मत्तंचरित्ताई, जुगवं पुव्वं व सम्मत्तं ॥ सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यक चारित्र नहीं होता। सम्यग्दर्शन के होने पर चारित्र भजनीय है। सम्यक्त्व और चारित्र एक साथ होते हैं अथवा सम्यग्दर्शन पहले होता है। चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामेमि सव्वे जीवा, सन्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मझं ण केणइ ॥ मैं सब जीवों को क्षमाता हूँ-क्षमायाचना करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा प्रदान करें। सर्वभूतों के साथ मेरी मैत्री है, मेरा किसी के साथ बैर नहीं है। भोगामिसदोसविसने, हियनिस्सेयस बुद्धिवोच्चत्थे । बाले या मन्दिये मढे, बज्झइ मच्छिया व खेलम्मि । भोग रूपी मांस में, जो आत्मा को दूषित करने के कारण दोष रूप है, आसक्त रहनेवाला तथा हितमय मोक्ष के प्राप्त करने की बुद्धि से विपरीत प्रवृत्ति करनेवाला, धर्मक्रिया में आलसी, मोह में फंसा हुआ, अज्ञानी जीव, कर्मों से ऐसे बंध जाते हैं जैसे मक्खी कफ में फंस जाती है। सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिजिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा बज्जयंति णं ॥ संसार के समस्त जीव जीने की इच्छा रखते हैं, मरने की इच्छा कोई नहीं करता; अतएव निर्ग्रन्थ साधु घोर जीववध का त्याग करते हैं । दुमपत्तए पंडुरए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुआण जीवियं, समयं गोयम मा पमायए॥ गौतम ! जैसे रात्रि-दिन के समूह व्यतीत हो जाने पर पका हुआ पेड़ का पत्ता झड़ जाता है, इसी प्रकार मनुष्यों का जीवन है ; अतः एक क्षण मात्र का भी प्रमाद मत कर !! ११ तहेव काणं काणेति, पंडगं पंडगेत्ति वा । वाहियं वा वि रोगित्ति, तेणं चोरेत्ति नो वए । ६८ - तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार काने को काना न कहे, नपुंसक को नपुंसक न कहे, व्याधिवाले को रोगी न कहे और चोर को चोर न कहे। अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्ठिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए ॥ वार्तालापरत मनुष्यों के बीच बिना पूछे नहीं बोलना चाहिये, चुगली नहीं खानी चाहिये और । माया-मृषा का त्याग करना चाहिये । किण्हा नीता य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य । सुक्कलेसा य छट्ठा य, नामाइं तु जहक्कम ॥ लेश्याओं के यथाक्रम नाम इस प्रकार हैं - कृष्ण, नील, कापोती, तेजो, पद्म और शुक्ल। 93 कोहो अ माणो अ अणिग्गहीया, माया य लोभो अ पवड्ढमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुण्णब्भवस्स ॥ निग्रह न किया हुआ क्रोध और मान तथा बढ़ती हुई माया और बढ़ता हुआ लोभ, ये सब पुनर्जन्म के मूलों को हराभरा करते हैं, उन्हें सींचते हैं । पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं पसुभिस्सह । पडिपुणं नालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे॥ शालि, यव और पशुओं के साथ सोने से पूरी भरी हुई पृथ्वी एक मनुष्य की भी तृष्णा शान्त नहीं कर सकती, ऐसा जानकर तपश्चरण करना चाहिये। १४ डहरा बुड्ढा य पासह, गब्भत्था वि चयंति माणवा। सेणं जह वट्टयं हरे, एवमाउखयम्मि तुट्टई ॥ बालक, वृद्ध और यहाँ तक कि गर्भस्थ मनुष्य भी अपने जीवन को त्याग देते हैं, इस सत्य को देखो; जैसे बाज पक्षी तीतर को मार डालता है, उसी प्रकार आयु का क्षय होने परमनुष्य का जीवन समाप्त हो जाता है । चौ. ज. श. अंक .६९ For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ता गं, सव्वसत्तू जिणामहं ॥ एक को जीत लेने पर पांच जीत लिये जाते हैं, पाँच की जीत लेने पर दस पर विजय प्राप्त होती है और दस पर विजय प्राप्त करनेवाला समस्त शत्रुओं पर जय पा लेता है। १६ अक्कोसेज्जा परे भिक्खु, न तेसि पडिसंजले। सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ॥ दूसरा कोई पुरुष भिक्षु पर आक्रोश करे तो उस आक्रोश करनेवाले पर भिक्षु क्रोध न करे। क्रोध करने पर वह स्वयं बाल-अज्ञानी के समान हो जाता है, अतएव भिक्षु क्रोध न करे। १७ अच्छिनिमीलयमेत्तं, नत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्धं । नरए नेरइयाणं, अहोनिसं पच्चमाणाणं ॥ रात-दिन पचते हुए नारकी जीवों को नरक में एक पल-भर के लिए भी सुख नहीं मिलता, उन्हें निरन्तर दुःख ही दुःख भोगना पड़ता है। १८ जहा दद्धाण बीयाणं, ण जायंति पुर्णकुरा। कम्मबीएसु, दद्धसु न जायंति भवंकुरा ॥ जैसे जले हुए बीजों से फिर अंकुर उत्पन्न नहीं होते, उसी प्रकार कर्मरूपी बीजों के जल जाने पर भवरूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होते। 00 'जिस आत्मा में ज्ञान की जितनी अधिक स्फुरणा होती है, प्रतिभा होती है या चमक होती है, समझ लीजिये वह आत्मा उतना ही अधिक निर्मल है। 'जैसे स्याही की गोली दूध से धोयी जाए तो गोली तो शुद्ध होती नहीं, दूध ही मलिन हो जाता है। इसी प्रकार पानी से धोने पर शरीर शुद्ध नहीं होता, बल्कि पानी ही शरीर के संसर्ग से अपवित्र हो जाता है। -मुनि चौथमल तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ ७० For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लावणी : सास-बहू-संवाद (तर्ज : ख्याल) बचन ये सत्य हमारा मान, जैन धर्म झूठा मत कर तान ।।टेर।। जैन धर्म है नास्तिक जग में, बोले केइ इन्सान । दया दान ईश्वर नहीं माने ये नास्तिक पहचान ॥१॥ जगत् में जैन धर्म परधान, सासुजी मत कर खेंचातान ।।टेर।। जैन धर्म की निन्दा सासु, मुझ से सुनी न जावे । ईश्वर भक्ति दया दान सत जैन धर्म समझावे ॥२॥ मैं समझी थी बाली भोली, तूं निकली होशियार। करे सामना उत्तर देवे, शर्म न रक्खें लगार ।।३।। सुनी सुनी बातों पर सासु, दिया आपने कान । जैन धर्म तो पूरा आस्तिक माने है भगवान ॥४॥ बांध मुखपत्ति करे सामायिक, राखे पुजनी पास। बात बहु आच्छी नहीं लागे, आवे मुझने हास ।।५।। जीव दया हित बांधु मुखपत्ति, राखुं पुंजनी पास। जो नहीं करे सामायिक सासू, वो भोगे यम त्रास ।।६।। जैन धर्म के साधु तेरे, मुझे पसंद नहीं आवे । मुख पर बांधे सदा मुखपत्ति, मांग मांग कर खावे ॥७॥ जैन धर्म के मुनि जक्त में, होते हैं गुणवान । कनक कामिनी के त्यागी हैं, नशा पत्ता पछखान ।।८।। डीगा नहीं सक्ता है देवता, जो दृढ़ धर्म के माईं । चौथमल कहे सुभद्रा ने, सासू को समझाई ॥९॥ (लावणी-संग्रह ८, १९६३ ई.) चौ ज. श. अंक .. For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री कृष्ण जन्म ॥ ढाल : श्री वृष्ण मुरारी, प्रकटे अवतारी यादव वंश में ।।टेक।। गिरी सामने गज का देखो, उतर जाय अभिमान । चन्द्र चाँदनी वहाँ तक रहती, जब लग उके न भान हो ॥९६३।। मेंडक फिरे फदकता जब तक, सर्प नजर नहीं आवे । शेर न देखे वहाँ तक मृगला, उछल फान्द लगावे हो ।।९६४।। जो ऊगे सो अस्त होय, और फूले सो कुम्हलाय । हर्ष शोक का जोड़ा जग में, देखत बय पलटाय हो ।।९६५।। पतिव्रता बालक और मुनिवर, जो कुछ शब्द उचारे । वाक्य इन्होंके निष्फल ना हों, जाने हैं जन सारे हो ।।९६६।। सज्जनों का दुख हरण करन को, हरी आप प्रकटावे। अधिक रवि की गरमी हो तब, मेघ वारी वर्षावे हो ।।९६७।। हरि देवकी के उर आये, स्वपना सात दिखावे । सिंह, सूर्य, गज, ध्वज, विमान, सर, अनल शिख। दरसावे हो ।।९६८।। चवा स्वर्ग से गंगदत्त का, जीव गर्भ में आया । स्वप्नों का हाल रानी ने सारा, पति को आन सुनाया ॥९६९।। कहे देवकी बसुदेव से, तुमने सुत मरवाया । जोर चला नहीं जरा इसी में, जीव बहुत दुख पाया हो ।।९७०।। बिना पुत्र सारा घर सूना, जैसे नमक बिन भात । पशु पक्षी बच्चों को पाकर, वे भी मन हर्षात हो ।।९७१।। इस बालक को आप बचा लो, रहेगा नाम तुमारो । स्वप्ने के अनुसार नाथजी, क्या नहीं हृदय विचारो हो ॥९७२।। नन्द अहीर की नार यशोदा, एक दिन मिलने आई। अपनी बीतक बात देवकी उसको सभी सुनाई ॥९७३॥ . ('भगवान नेमिनाथ और पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र' चरित-काव्य के कुछ अंश, पृ. ६०; १९७० ई.) तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका कितना बड़ा सौभाग्य है कि | आपको ऐसे देश में जन्म मिला है जिसका। इतिहास अत्यन्त उज्ज्वल है और देश के अतीतकालीन महापुरुषों के एक-से-एक * उत्तम जीवन आज भी विश्व के सामने महान् आदर्श के रूप में उपस्थित है। इन । महापुरुषों की पवित्र जीवनियों से आप . बहुत कुछ सीख सकते हैं । समय-समय पर - आपको उनकी जीवनियां सुनने को मिलती हैं। इतने और ऐसे-ऐसे पवित्रात्मा किसी। अन्य देश में नहीं हुए; फिर भी आप उनसे । लाभ न उठावें और उनके चरण-चिह्नों पर चलने का थोड़ा-सा भी प्रयत्न न कर तास कितने खेद की बात है ? ब्यावर, ७ सित. १९४१ -मुनिधी चौधमलन Jain Education Interational For Personal & Private Use Onty Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीना जिसने सीखा ___मरना वही सीख सकता है चौमुखी क्यूं ! प्रतिभा थी बहुमुखी, रसवंती के स्वामी । काव्य-निर्मिति, शास्त्र-संगति वाचस्पति थे नामी ॥ कविता आपकी हम गायें तो, गद्गद श्रोता होते । अहा ! काव्य यह श्राव्य अतिशय मुक्त कण्ठ से कहते ॥ थके नहीं, नहीं डरे किसी से, हारे कभी न आप । बढ़ते कदम थमानेवाले बांध गये महापाप ।। जीवित जागृत महापुरुषों को लोग नहीं पहचाने । खूब सुनाये ताने पहले बाद लगे गुण गाने ॥ महावीर की महावीरता सिखलायी सब को धर प्रेम । हिंसादि महापाप छुड़ाये खूब कराये व्रत और नेम ॥ हजारों भक्तों ने माना श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गुरुवर थे आप। गुरु की काया नहीं आज पर मन में श्रद्धा वही अमाप ।। लगन लगाना धर्म-मार्ग की काम नहीं किंचित भी सीधा। किन्तु शिष्यगण आप चरण में भागे छोड़ सुख और सुविधा ।। पर परिणति परलोक बिगाड़े समकित मोक्ष दिलाये। नगर-नगर और गाँव-गाँव जा यही तत्त्व समझाये । जीना जिसने सीखा मरना वही सीख सकता है। तन की, मन की दे कुर्बानी, याद अमर रखता है। जाने पर भी माने दुनिया, कैसी कीमया कर दी। भक्तों की रग-रग में धर्मास्था गहरी भर दी । - साध्वी प्रीतिसुधा ७४ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयवादी सन्त दिवाकरजी महाराज समन्वयवादी महान् सन्त थे । उनकी वाणी में ओज, विचारों में गाम्भीर्य व मानव मात्र की कल्याण की भावना निहित थी । धर्म जाति एवं समाज-संगठन में आपका अपूर्व योगदान रहा है । निर्भीक वक्ता के साथ आप सफल कवि भी थे। उनके श्रेष्ठ कार्यों का दिग्दर्शन कराने में यह विशेषांक सफल बने, यही मेरी शुभकामना है । - आचार्य आनन्दऋषि, अहमदनगर अनुसरण में सार्थकता सन्त एवं महापुरुषों की जन्म-शताब्दीसमारोह की सफलता उनके बताये गये मार्ग पर चलना और तदनुरूप आचरण करना ही होता है । - उपाध्याय विद्यानन्द मुनि, बड़ौत करुणा की साक्षात् मूर्ति जैन दिवाकर, जगवल्लभ श्री चौथ - मलजी महाराज वस्तुतः जैनसंघ रूपी विशाल आकाश के क्षितिज पर उदय होने वाले सहस्रकिरण दिवाकर ही थे । उनका ज्योतिर्मय व्यक्तित्व जैन-अजैन सभी पक्षों में श्रद्धा का ऐसा केन्द्र रहा है कि जन मन सहसा विस्मय- विमुग्ध हो जाता है । I उनकी जनकल्याणानुप्राणित बोधवाणी राजप्रासादों से लेकर साधारण झोपड़ियों तक में दिनानुदिन अनुगुंजित रहती थी प्रवचन क्या होते थे, अन्तर्लोक से सहज समुद्भूत धर्मोपदेश के महकते फूलों की वर्षा ही हो जाया करती थी । परिचित हों या अपरिचित, गाँव हों या नगर, जहाँ कहीं भी पहुँच गए, उनके श्रीचरणों में श्रद्धा और प्रेम की उत्ताल रंगों से गर्जता चौ. ज. श. अंक श्रद्धाञ्जलि एक विशाल सागर उमड़ पड़ता था । न वहाँ किसी भी तरह का अमीर, ग़रीब आदि का कोई भेद होता था और न जाति, कुल, समाज या मन, पंथ आदि का कोई अन्तर्द्वन्द्व ही । उनकी प्रवचन सभा सचमुच में ही इन्द्रधनुष की तरह बहुरंगी मोहक छटा लिये होती थी । श्री जैन दिवाकरजी करुणा की तो साक्षात् जीवित मूर्ति ही थे। इतने परदुःखकातर कि कुछ पूछो नहीं । अभावग्रस्त असहाय वृद्धों की पीड़ा उनसे देखी नहीं गयी, तो उनकी कोमल करुणावृत्ति ने चित्तौड़ - जैसे इतिहास - केन्द्र पर वृद्धाश्रम खोल दिया । अनेक स्थानों पर पुराकाल से चली आती बलि प्रथा बन्द कराकर अमारी घोषणाएँ घोषित हुईं। हजारों परिवार मद्य, मांस, द्यूत तथा अन्य दुव्यंसनों से मुक्त हुए, धर्म के दिव्य संस्कारों से अनुरंजित हुए। शिक्षण के क्षेत्र में बालक, बालिका तथा प्रौढ़ों के लिए धार्मिक एवं नैतिक जागरण के हेतु शिक्षा निकेतन खोले गए । मातृजाति के कल्याण हेतु कितनी ही प्रभावशाली योजनाएं कार्यरूप में परिणत हुईं। बस, एक ही बात । जिधर भी जब भी निकल जाते थे, सब ओर दया, दान, सेवा और सहयोग के रूप में करुणा की तो गंगा बह जाती थी । श्री जैन दिवाकरजी शासनप्रभावक महतो महीयान् मुनिवर थे । अनेक आचार्यों से जो न हो सकी, वह शासनप्रभावना दिवाकरजी के द्वारा हुई है । जितना विराट् एवं ऊँचा उनका तन था, उससे भी कहीं अधिक विराट् एवं ऊँचा उनका मन था; आज की समग्र संकीर्णताओं तथा क्षुद्रताओं से परे । संघ-संगठन के शत-प्रतिशत रखे हुए सूत्रधार । संप्रदाय विशेष में रहकर भी सांप्रदायिक घेराबंदी से मुक्त | अपने युग क : यह इतिहास पुरुष कालजयी है । युग For Personal & Private Use Only ७५ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग तक भावी प्रजा अपने आराध्य की अविस्मरणीय जीवन-स्मृति में सहज श्रद्धा सुमन अर्पण करती रहेगी और यथाप्रसंग अपने मन, वाणी तथा कर्म को ज्योतिर्मय बनाती रहेगी । जन्म-शताब्दी के मंगल प्रसंग पर उनके प्रेरणाप्रद व्यक्तित्व एवं कृतित्व को शतशत वन्दन, अभिनन्दन ! - उपाध्याय अमरमुनि, वीरायतन, राजगृह ( बिहार ) जिनशासन के रत्न श्री जैन दिवाकरजी म. सा. की महानता को उनके बाद अब तक कोई नहीं छू सका । जिनशासन को ऐसा रत्न फिर नहीं मिला । - अम्बालालजी म., सेमल भव्यतम व्यक्तित्व स्वर्गीय परम श्रद्धेय श्री जैन दिवाकरजी म. सा. तात्कालिक जैन समाज में भव्यतम व्यक्तित्व के धनी थे। पिछले ५०० वर्षों में किसी भी अन्य जैन मुनि के मुकाबिले उन्होंने सर्वाधिक भारतीय जनजीवन को प्रभावित किया । आज भी लाखों जैनअजैनों के हृदय-पट पर उनका अद्भुत प्रभाव बना हुआ है। पिछले सौ वर्षों के भारत के श्रेष्ठतम व्यक्तियों के इतिहास में पूज्य जैन दिवाकरजी म. सा. का महान् जीवन स्वर्णिम अक्षरों से अंकित होगा । शताब्दी वर्ष के पवित्र अवसर पर मैं हार्दिक श्रद्धा समर्पित करता हूं । - सौभाग्यमुनि 'कुमुद', सेमल आत्मजागृति के उन्नायक अध्यात्म-जगत् के प्रकाश-पुंज जैन दिवाकर श्री चौथमलजी म. सा. ने जन ७६ जन को ज्ञान - प्रकाश से आलोकित करने का प्रयत्न, वह भी लम्बे समय तक पादबिहार करते हुए अनेक प्रदेश, नगरों और गाँवों को पावन करते हुए किया। सद्विचार, भक्ति, वैराग्य भाव में लीन होने की अ. त्मजागृति पैदा की । ऐसी महान् आत्मा के प्रति मैं श्रद्धा व्यक्त करता हूँ । शताब्दी वर्ष धार्मिक, सद्कार्यों की रचनाओं के साथ सम्पन्न हो, ऐसी 'शुभकामना करता हूँ । - रतन मुनि, मलकापुर प्रेरक और सफल बनें जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराजजैसे महापुरुषों के पवित्र जीवन से प्रेरणा लेकर मानव अपने जन्म को कल्याणकारी व सफल बनाये, यही शुभकामना जन्मशताब्दी के पावन अवसर पर है । - बाबा बालमुकुन्द, इन्दौर जैन एकता के अग्रदूत भगवान् महावीर ने कहा है : 'सन्ति मग्गंच बुहए' । साधक तू भले कहीं पर विचरण कर, तेरा कर्तव्य है शान्ति मार्ग काही उपदेश देने का । ताकि आधिव्याधि-उपाधि से संत्रस्त प्राणी-भूतजीवसत्त्वों को कुछ राहत मिल सके । प्रसिद्ध वक्ता जैन दिवाकर चौथमलजी म. सा. का बहुमुखी व्यक्तित्व भगवान् महावीर के उक्त उपदेश से आप्लावित था । वस्तुत: जिस गाँव-नगर और प्रान्त में आपने समस्त मानव समाज को अहिंसा के ध्वज के तले एकत्रित कर परम अमृतोपम शान्ति का ही सन्देश दिया था । फलतः जैन समाज ही नहीं, अपितु तत्कालीन इतर समाज ने भी आपके मण्डनात्मक उपदेशों को खुले दिल-दिमाग से स्वीकार किया और सभी ने गुरु-तुल्य मान कर आपका हार्दिक अभिनन्दन भी किया । For Personal & Private Use Only तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम कोटा - चातुर्मास में शान्ति और संगठन का प्रत्यक्ष दृश्य कार्यान्वित रूप में सामने आया । उन दिनों कोटा नगर में जैन दिवाकर श्री चौथमलजी म. मूर्तिपूजक आचार्य श्री आनन्दसागरजी म. तथा दिगम्बराचार्य श्री सूर्यसागरजी म. चातुर्मास बिता रहे थे। तीनों महामुनि एक व्यासपीठ पर बैठकर धर्मोपदेश प्रदान करें । तदनुसार त्रिवेणी संगम का श्लाघनीय दृश्य उपस्थित करने का सारा श्रेय जैन दिवाकर श्री चौथमलजी म. को था । जिनकी विराट् भावना ने और ओजस्वी वाणी की ललकार ने जैन इतिहास में प्रगति युग का निर्माण कर आनेवाले समाज को यह सिखा दिया कि भविष्य में शान्ति और संगठन में ही सामाजिक जीवन का अस्तित्व सुरक्षित रह सकता है । इन शब्दों के साथ मैं दिवंगत आत्मा के प्रति श्रद्धा सुमन समर्पित करता हूँ । - सुरेश मुनि, मन्दसौर हार्दिक शुभकामनाएँ मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि आप श्री जैन दिवाकर जन्म-शताब्दी समारोह आगामी दिनांक २३ नवम्बर, १९७७ से मनाने जा रहे हैं। इस उपलक्ष्य में मासिक पत्रिका 'तीर्थंकर' का एक विशेषांक निकालने का निश्चय किया गया है। मैं आपके इस आयोजन तथा विशेषांक की सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ भेजता हूँ । - ब. दा. जत्ती, नई दिल्ली ( उप राष्ट्रपति, भारत) महान् साधक और संत को श्रद्धांजलि मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि २३ नवम्बर से देशभर में जैन दिवाकर मुनि श्री चौथमलजी महाराज की जन्म-शताब्दी मनायी जा रही है । इस अवसर पर मासिकपत्र 'तीर्थंकर' का एक विशेषांक डा. चौ. ज. श. अंक नेमीचन्द के संपादन में प्रकाशित किया जा रहा है । इस विशेषांक में मुनिश्री चौथमलजी के जीवन और कृतित्व पर विशद सामग्री का समावेश किया जाएगा। मैं उस महान साधक और जैन संत को अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और आशा करता हूँ कि आपका यह विशेषांक जैन समाज और विशेषकर आज के युवा समाज को सद्कार्यों में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देगा । मेरी शुभकामनाएँ । - भैरोंसिंह शेखावत, जयपुर ( मुख्यमंत्री, राजस्थान) समन्वय के प्रेरक यह जानकर प्रसन्नता हुई कि समन्वय के प्रेरक जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज की जन्म शताब्दी २३ नवम्बर, ७७ से प्रारंभ हो रही है और १३ महीनों का कार्यक्रम बना रहे हैं। 'तीर्थंकर' का विशेषांक भी प्रकाशित हो रहा है । महापुरुषों तथा त्यागी साधकों का गुणानुवाद भारतीय संस्कृति की परम्परा रही है । उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का स्मरण करते हुए उनके बताये मार्ग पर चलने का सद्संकल्प करना शताब्दी की महत्त्व - पूर्ण उपलब्धि हो सकती है । मैं इस शुभ एवं प्रेरक आयोजन की सर्वांगीण सफलता की शुभकामना करता हूँ । - श्रेयांसप्रसाद जैन, बम्बई हार्दिक प्रसन्नता जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमलजी की जन्म-शताब्दी के उपलक्ष्य में 'तीर्थंकर' पुनः एक भव्य मननीय संकलनीय विशेषांक प्रकाशित कर रहा है, यह अवगत कर हार्दिक प्रसन्नता हुई । 'तीर्थंकर' का प्रत्येक अंक ही पठनीय विशेषांक सदृश होता है । निश्चय ही For Personal & Private Use Only ७७ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध पाठक को मननशील सामग्री प्रदान कर 'तीर्थंकर' समाज का भारी उपकार कर रहा है। आगामी विशेषांक भी लोकरंजक - मनहर हो, ऐसी भावना है । - भागचन्द सोनी, अजमेर श्रमणधारा के तेजस्वी साधक परम श्रद्धेय मुनि श्री चौथमलजी महाराज की गणना इस युग के उन महान् संतों में है, जिन्होंने पीड़ित मानवता के क्रंदन को सुना, समझा और उसके निदान में अपना जीवन अर्पित कर दिया । वे श्रमण धारा के तेजस्वी साधक थे । उनके उपचार के साधन भी अहिंसा - मूलक थे । उनका हृदय विशाल तथा कार्यक्षेत्र विस्तृत था । वे झोपड़ी से लेकर महलों तक पहुँचते थे । उनकी दृष्टि में राजा-रंक, धर्म-जाति का भेद नहीं था । सबको समताभाव से वीरवाणी का अमृत पान कराकर हजारों लोगों को भेदभाव बिना सन्मार्ग पर लगाने का मानवीय कार्य जिस निर्भयता और दृढ़ता से मुनिश्री ने किया, वह अलौकिक है । दुःखियों, पीड़ितों, पतितों और शोषितों के वे सहज सखा थे । उनके कष्टों से द्रवित होते थे | ज्ञानदान द्वारा उनके दुःखों को मिटाने का पुरुषार्थ करते थे । इसलिए तुलसीदासजी ने कहा : 'संत हृदय नवनीत समाना कहाँ कविन पर कहीयन जाना । निज परिताप द्रवें नवनीता परहित द्रवही सो संत पुनीता ॥' पर उपकार ही उनकी पूजा थी । जिसे वे सहज धर्म के रूप में जीवन भर करते रहे । 'तुलसी' ने कहा है : ७८ 'पर उपकार वचन, मन, काया संत सहज स्वभाव खगराया । संत विपट सहिता गिर धरणी परहित हेत इनकी करनी ।' मुनिश्री के जीवन में संत का यह दिव्य चरित्र पग-पग पर भरा-पूरा नजर आता है । मुनि श्री जैन तत्त्वज्ञान के परम उपासक और साधक थे । प्रबल प्रवक्ता थे । उनकी ओजस्वी वाणी में मानव-मन की विकृतियों को नष्ट करने की अद्भुत कला थी । अहिंसा, मैत्री, एकता और प्रेम का सन्देश घर-घर फैला कर उन्होंने मानव समाज और देश की अनुपम सेवा की । मनुष्यों में शुद्ध जीवन जीने की निष्ठा का स्नेह, वात्सल्य से अखंड दीपक जलाया । ऐसे निस्पृह तपस्वी साधु अध्यात्म जगत् में बिरले होते हैं । मुनिश्री की प्रथम जन्म-शताब्दी . भारत भर में मनाई जा रही है । इस रूप में हम उस महान् संत को अपनी पूजा अर्पित कर रहे हैं । यह हमारा परम सौभाग्य है । शताब्दी के पावन - पुनीत अवसर पर मैं उस धर्म-ज्योति को अपनी आंतरिक श्रद्धा अर्पित करता हूं। उन्हें शत-शत नमन करता हूँ । - मिश्रीलाल गंगवाल, इन्दौर मानव सेवा के पथ पर समर्पित व्यक्तित्व जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमलजी महाराज अपने युग के महान् संत थे । जैन इतिहास में आपका धर्म प्रचारक के रूप अद्वितीय स्थान रहा है । चेहरे की प्रसन्न मुद्रा देखकर श्रोता का मंत्रमुग्ध हो जाना आपके चरित्र की मुख्य विशेषता रही है । यही कारण था कि तात्कालीन राणा, महाराणा, राजा, महाराजा एवं समाज के अन्य वर्ग के लोगों पर आपके हितकारी वचनों का चमत्कारिक प्रभाव पड़ा । आपके सदुपदेश से बहुत से राजाओं और जागीरदारों ने अपने-अपने राज्यों में हिंसानिषेध की स्थायी आज्ञाएं प्रसारित कीं । मुनिश्री का संपूर्ण जीवन प्राणिमात्र की रक्षा के पवित्र उद्देश्य के प्रति समर्पित था । जगत् - वल्लभ मुनिश्री चौथमलजी का दृष्टिकोण सदैव व्यापक रहा है । तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने राजा और रंक में भेदभाव न रखते संदेश को जन-जन तक पहुँचाने का जो कार्य हुए सभी श्रेणियों की जनता में भगवान् किया, वह सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित महावीर के सिद्धांतों का समान रूप रहेगा। से प्रचार किया। मुनिश्री ने समाज में घृणास्पद समझे जानेवाले मोची, चमार, उन्होंने धर्म प्रचार हेतु जिस क्षेत्र को कलाल, खटीक और वेश्याओं तक को अपना चुना, उसे आज की भाषा में पिछड़ा हुआ संदेश सुना कर उनके जीवन को ऊँचा क्षेत्र कहते हैं। भगवान् महावीर ने आज से उठाने की दिशा में भगीरथ प्रयास किया। २५०० वर्ष पूर्व अपनी दिव्य ज्योति द्वारा कितने ही हिंसक कृत्य करनेवाले व्यक्तियों ने उस समय व्याप्त कथित उच्चवर्णीय वर्गों ने आपके उपदेशों से प्रभावित होकर द्वारा समाज में धर्म के नाम पर फैलाये जा आजीवन हिंसा का त्याग किया एवं कई रहे वितण्डावाद एवं हिंसा का मकाबला लोगों ने शराब, मांस, गांजा, भांग तथा निम्न से निम्न अर्थात् अंतिम आदमी की तम्बाकू नहीं सेवन करने की प्रतिज्ञाएँ " झोंपड़ी तक जाकर करने को प्रोत्साहित की । इस प्रकार मुनिश्री ने अपने आपको किया । राज्यवंश में जन्म लेकर जिस धर्मोपदेश एवं जीवदया के महान् कार्य महामानव ने भेद-विज्ञान प्राप्त कर आत्ममें लगा दिया। शक्ति को जागृत किया, स्वयं वीतरागी हुए व विश्व को विनाश से बचाया । जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमलजी महाराज का शताब्दी-वर्ष हमारे जीवन का एक सौ वर्ष पूर्व जन्मे मुनिश्री मंगलमय प्रसंग है। हमें चाहिये कि हम चौथमलजी ने आदिवासियों के बीच जाकर उनके आदेशों के अनुरूप मानव-जाति के उनसे माँस व शराब छुड़वाई तथा उन्हें मनुष्य कल्याणकारी दिशा में रचनात्मक कदम बनने की प्रेरणा दी। मनिश्री के समक्ष राजा उठा कर उस महापुरुष के प्रति अपने श्रद्धा एवं रक का कोई भेद नहीं था । वे निस्पृह सुमन समोपत करें। इसी भावना को मन भाव से समान रूप से समताभाव धारण पने किये हुए राजाओं और रंकों को भगवान् वर्ष की स्मृति में जैन दिवाकर विद्या- का " का उपदेश देते थे। सरल, मनोहारी, निकेतन की स्थापना का शुभ संकल्प किया ओजस्वी वाणी जो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय गया है। हमें हर्ष है कि श्री स्थानकवासी को छूती थी, उनके उपदेश की शैली हृदयजैन सेवा-संघ ने इस पवित्र कार्य हेतु अपनी स्पर्शी थी । स्वयं त्याग कर दूसरों को प्रेरित न्यू पलासिया भूमि प्रदान कर संस्था के पर ___ कर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह एवं सचालन का भार-वहन भी स्वयं पर लिया ब्रह्मचर्य व्रत को झोपड़ों तक पहुँचानेवाले है। आशा है समाज के उदार आर्थिक उस महान् तेजस्वी पुण्यात्मा का शताब्दीसहयोग से जैन दिवाकर विया महोत्सव मना कर हम स्वयं अपने कर्तव्यशिक्षा केन्द्र शीघ्र ही मूर्त रूप ग्रहण करेगा। पथ पर चलने को अग्रेषित हो रहे हैं। यही मंगल कामना है। पूज्य मुनिश्री के चरणों में मेरा शत-सुगनमल भंडारी, इन्दौर शत वन्दन ! तेजस्वी पुण्यात्मा -बाबूलाल पाटोदी, इन्दौर परमपूज्य जैन दिवाकर मुनिश्री अहिंसा-धर्म के महान् प्रचारक माहता यमक महान् प्रचारक चौथमलजी महाराज ने सौ वर्ष पूर्व भारत प्रसिद्ध वक्ता जैन दिवाकर स्व. मुनि भूमि में जन्म लेकर भगवान् महावीर के चौथमलजी महाराज श्वे. स्थानकवासी चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखा से सम्बद्ध, वर्तमान शताब्दी के अब मुनिश्री की जन्म-शताब्दी के पूर्वार्ध में एक महान् प्रभावक जैन सन्त अवसर पर एक वर्षव्यापी कार्यक्रम बना हो गये हैं। सन् १८७७ ई. में नीमच है और प्रतिष्ठित मासिक तीर्थकर' का (म. प्र.) में जन्मे और १८९५ ई. में, विशेषांक प्रकाशित हो रहा है, यह जानकर मात्र १७-१८ वर्ष की किशोर वय में अत्यन्त प्रसन्नता हुई। मैं उफा विशेषांक साधु-दीक्षा ग्रहण करनेवाले इन महात्मा की तथा पुरे आयोजन की सफलता की का ५५ वर्षीय सुदीर्घ मुनि-जीवन अहिंसा हार्दिक कामना करता हूँ। एवं नैतिकता का जन-जन में प्रसार करने मिनधर्म की सार्वभौमिकता को जनतथा जिनशासन की प्रभावना में व्यतीत जन के हृदय पर अमित करने के सद्हुआ। उत्तर भारत, विशेषकर राजस्थान एवं मध्यप्रदेश के प्राय: प्रत्येक नगर व प्रयासी मनिश्री चौथमलजी महाराज की ग्राम में पदातिक विहार करके उन्होंने पुण्य स्मृति में इस शभावसर पर मैं अपनी निरन्तर लोकोपकार किया। उनकी दृष्टि श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। उदार थी और वक्तृत्व शैली ओजपूर्ण, -डॉ. ज्योतिप्रताद जैन, लखनऊ सरल-सुबोध एवं प्रभावक होती थी, उच्चकोटि के व्याख्यानदाता छोटे-बड़े, जैन-अजैन, सभी के हृदय को स्पर्श करती थी। यही कारण है कि उस की थी। यही कारण है कि उस श्री चौथमलजी महाराज की जन्मसामन्ती यग में राजस्थान, मध्यप्रदेश, शताब्दी जो २३ नवम्बर १९७७ को पूरे गुजरात आदि के अनेक राजा, ठिकानेदार, भारतवर्ष में मनायी जा रही है; उसका जागीरदार, मुसलमान नवाब, कई अंग्रेज यह कार्यक्रम तेरह मास का होगा। उस उच्च अधिकारी तथा जैनेतर विशिष्ट जमाने में दिवाकरजी भारत के जैन समाज व्यक्ति भी उनके व्यक्तित्व एवं उपदेशों में विख्यात साधुओं में एक थे। आगरा की से प्रभावित हए। छोटी जातियों - यथा समाज' ने विनती करके आगर। में चातुमोची (जिनघर) जैसे लोगों में से अनेकों सि के वास्ते आमंत्रित किया और आप को मद्य-मांस-त्याग की महाराज ने प्रतिज्ञा वहाँ पधारे, आरका बड़ा स्वागत किया कराई। गया था। दिवाकरजी का बड़ा नाम था और वे बड़े अच्छे दर्जे के व्याख्यानदाता _ मुनि श्री चौथमलजी के दीक्षाकाल थे। आपका जीवन एकता, मैत्री, शान्ति, के ५१ वर्ष पूरे होने पर अबसे ३० वर्ष अहिंसा और वात्सल्य का अपूर्व शंखनाद पूर्व रतलाम की श्री जैनोदय पुस्तक प्रका था। आपके आगरा में कई सार्वजनिक शक समिति ने 'श्री दिवाकर अभिनन्दन व्याख्यान हुए। उनका आगरा की जनता ग्रन्थ' प्रकाशित किया था, जिसमें महाराज पर मख्यतया सन्त वैष्णव संप्रदाय के साहब से सम्बन्धित सामग्री भी बहुत कुछ लोगों पर जो जैनधर्म के बारे में भ्रांति थी। हमारा भी एक लेख 'राज्य का जैन आदर्श' उस ग्रन्थ में प्रकाशित हुआ था। थी, वह दूर हो गयी और बड़ा प्रभाव उसके तीन वर्ष पश्चात् ही, सन १९५० ई. में मुनिश्री का ७३ वर्ष की आयु में निधन उस समय लाउड स्पीकर नहीं था। हो गया। उनके साधिक अर्धशताब्दीव्यापी आपके प्रतिदिन के व्याख्यानों में सैकड़ों महत्त्वपूर्ण कार्यकलापों को देखते हुए। आदमी जाते थे और सार्वजनिक व्याख्यानों वह ग्रन्थ अपर्याप्त था। उनकी विविध ___ में हजारों श्रोता होते थे, आपकी आवाज साहित्यिक रचनाओं का भी समोक्षात्मक इतनी बुलन्द थी कि हर व्यक्ति तक विस्तृत परिचय अपेक्षित था। आसानी से पहुँच जाती थी। उस जमाने पड़ा। तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आगरा में दिवाकरजी के व्याख्यानों प्रभाव के साथ आज एक सघन वटवृक्ष की बड़ी सोहरत थी। आपके प्रभाव से की तरह शान्ति व शीतलता की अनुभूति अनेक लोग जैनधर्म के अनुयायी बने। दे रहा है। ___ मुझे भी उस समय श्री दिवाकरजी मनिश्री चौमुखी व्यक्तित्व के धनी की सेवा करने का अवसर प्राप्त हआ। थे। सरस्वती उनकी वाणी से प्रस्फुटित ऐसे महान् आत्मा की जन्म-शताब्दी होती थी। मानवीय अहिंसा में उनकी मनाना बड़े सौभाग्य की बात है, मैं इसका गाढ़ आस्था थी। अठारह वर्ष की उम्र में स्वागत करता हूँ। यह जानकर और भी उन्होंने मुनि-जीवन स्वीकार किया। प्रसन्नता हुई कि भारत के पाँच नगरों में ५५ वर्षों तक कठिन साधनामय जीवन यह समारोह मनाया जा रहा है वे हैं- बिताया। साधना-काल में जो उपलब्धियाँ इन्दौर, रतलाम, मंदसौर, ब्यावर और प्राप्त होती रहीं, उन्हें वे निरंतर मानवकोटा। यह जानकर भी प्रसन्नता हई कि कल्याण के लिए उपयोग करते रहे। इस अवसर पर तीर्थकर' मासिक पत्र का उन्हें अपने जीवन-काल में ही प्रसिद्धि व विशेषांक निकाला जा रहा है, जिसका प्रतिष्ठा प्राप्त हो गयी थी। उनका प्रभाव सम्पादन डा. नेमीचन्दजी कर रहे हैं। मैं साधारणजन, श्रेष्ठिवर्ग तथा राजहृदय से इस पत्रिका की एवं समारोह की परिवारों पर भी था। मेवाड़ के महाराणा, सफलता चाहता हूँ। देवास नरेश तथा पालनपुर के नवाब आदि -अचलसिंह, आगरा आपके परम भक्त थे। आपकी रचनाएँ उच्च कोटि के साहित्यचौमुखी व्यक्तित्व के धनी कारों के समकक्ष ठहरती हैं। मालवभगवान् महावीर २५०० वीं शताब्दी भूमि में मुनिश्री के रूप में विश्व को अद्भुत में जैन एकता, समन्वय एवं सम्प्रदायों देन दी है। उनकी वाणी आज भी दिवाकर में परस्पर सद्भावना का सुन्दर वाता- की तरह मानव-जीवन को प्रभावित वरण निर्माण हआ। साम्प्रदायिक विद्वेष करती है। इस शताब्दि-वर्ष पर ऐसी अब अतीत काल की बात हो गयी है। महान् आत्मा को भावभीनी श्रद्धांजलि इसका श्रेय उन संतों व सामाजिक कार्य- अर्पित करता हूँ। -पारस जन कर्ताओं को है, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी एकता का नाद गुंजाये लोकप्रिय क्रान्तिकारी मुनि रखा । ऐसे ही विरल संतों में जैन दिवाकर यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि जैन मुनिश्री चौथमलजी महाराज का नाम दिवाकर पूज्य मुनिश्री चौथमलजी महाराज उल्लेखनीय है। उस समय एक सम्प्रदाय सा. का जन्म शताब्दी-समारोह मनाया जा के साधु दूसरे सम्प्रदाय के साधुओं के रहा है तथा इस पावन प्रसंग पर इन्दौर साथ मेल-मिलाप रखें, ऐसा वातावरण से प्रकाशित 'तीर्थंकर' मासिक का विशेषांक नहीं था। उस समय जैन दिवाकरजी ने प्रकाशित किया जा रहा है। तीर्थंकर' के दिगम्बर आचार्य श्री सूर्यसागरजी तथा मनीषी संपादक डॉ. नेमीचन्द जैन का यह श्वेताम्बर मर्तिपूजक आचार्य श्री आनन्द- प्रयत्न स्तुत्य है। सागरजी के साथ कई सम्मिलित कार्यक्रम किये। उस समय यह बड़े ही दुस्साहस का स्वर्गीय पूज्य मुनिश्री चौथमलजी म. कार्य था। इस प्रकार मुनिश्री के हाथों स्थानकवासी हमाज के एक अत्यन्त लोकएकता का बीजारोपण हो गया, जो काल- प्रिय मुनि रहे हैं। यह सच है कि उनकी चौ. ज. श. अंक ८१ For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा स्थानकवासी सम्प्रदाय में हुई, से इनका परिचय हो गया । ऐसे अजैन किन्तु उनका कार्य-क्षेत्र केवल स्थानकवासी बन्धु स्वर्गीय मुनिश्री की स्मृति उनके समाज तक ही सीमित नहीं था। वे एक हृदय में संजोये हुए हैं। इस प्रकार उनका उदार विचार के सरल हृदय साधु थे तथा यश-कार्य अभी तक उन सीधे-साधे, भोले पूरे जैन समाज की एकरूपता में विश्वास लोगों को प्रेरणा देता रहता है और उनके करते थे, यही कारण है कि जिस युग में द्वारा स्वीकृत व्रत-पालन में बल प्रदान जैनधर्मान्तर्गत एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय करता है। स्वर्गीय मुनिश्री के उपदेशों से को मिथ्यात्वी निरूपित करता था। एक केवल जन-साधारण की प्रभावित नहीं था, सम्प्रदाय के मुनिराज का दूसरी सम्प्रदाय अपितु राजा, मंत्री, धनी, निर्धन सभी वर्ग के साधु-साध्वियों से कोई सम्पर्क नहीं था, के लोग भी प्रभावित थे तथा सभी वर्ग अपितु एक-दूसरे को हल्की, निम्न दृष्टि के मध्य मुनिश्री लोकप्रिय थे। उनकी दृष्टि से देखते थे। अपनी-अपनी साम्प्रदायिक में समाज के उच्च कुल से संबन्धित तथा मान्यता के समर्थन में शास्त्रार्थ आयोजित निर्धन निम्न कुल से संबन्धित सभी प्रकार होते तथा शास्त्रार्थ या तत्व-निर्णय के नाम के जन समान थे तथा वह सबको समान पर वितण्डावाद होता था । यदा-कदा रूप से उपदेशामृत का पान कराते तथा हाथापाई की नौबत आ जाती । ऐसी सात्त्विक जीवन के लिए प्रेरणा देते रहते विपरीत परिस्थिति में जिस महात्मा ने थे। जैन ग्रन्थ में भी कहा गया है कि : जैनधर्मान्तर्गत एक सम्प्रदाय के साधुमुनिराज के दूसरी सम्प्रदाय के साधु जहा पुण्णस्ए कत्थई, तहा तुच्छस्स कत्थई । मुनिराज के निकट लाने का प्रयास किया, जहा तुच्छस्स कत्थई, तहा पुण्णस्य कत्थई ।। वे महात्मा मुनिश्री चौथमलजी ही तात्पर्य यह है कि स्व. मुनिश्री के थे। लगभग २६-२७ वर्ष पूर्व कोटा अमृत-तुल्य वचनों से सभी प्रकार के वर्ग (राजस्थान) में भिन्न सम्प्रदाय के साधु- ने लाभ उठा कर सात्त्विक जीवन व्यतीत मुनिराज के साथ एक पाट पर बैठ कर करने की प्रेरणा ली । मुनिश्री का तत्कालीन व्याख्यान दिया । इस ऐतिहासिक अवसर कई राजा-महाराजा पर इतना प्रभाव था पर जो भावुक थे तथा अखिल जैन एकता कि उन्होंने अपनी-अपनी रियासतों में में विश्वास रखते थे उनकी आँखें गीली पश-वध को विशेष दिनों में न करने के लिए हो गईं। यह हर्षातिरेक था। यह निकटता आदेश देकर सनदें दी । ऐसे स्वर्गीय का सूत्र इस लम्बे अंतराल में अधिक आगे मुनिश्री के प्रति में अपनी हार्दिक नम्र बढ़ गया तथा एक-दूसरे के अधिक निकट श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। आ गये। इस कारण संभवतः इस ऐतिहा -सौभाग्यमल जैन, शाजापुर सिक शुभ प्रयास का महत्त्व कम आँके, किन्तु जिस विपरीत परिस्थिति के युग में यह पतितोद्धारक प्रयत्न हुआ यह बड़ा साहसिक कदम था। जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज इस प्रकार स्व. मुनिश्री को समन्वय का । के सान्निध्य में आने का मुझे जब भी सुयोग प्रेरक कहा जा सकता है। मिला, उनकी स्नेहसिक्त अनुग्रहपूर्ण दृष्टि स्व. मुनिश्री ने जन-साधारण में रही और यह भी एक संयोग ही नहीं, जीवन व्यसन-त्याग का प्रचार इतना अधिक की सुखद स्मृति रहेगी कि मुनिराजश्री के किया था कि जिसके कारण मेवाड़, मालवा निधन से पूर्व कोटा में जब दर्शन हुए, तो वे आदि प्रदेशों में कई अजैन बन्धु (जो सामा- बहुत आह्लादपूर्ण थे । जैन मुनियों में ऐसे जिक तथा आर्थिक दृष्टि से कमजोर थे) प्रखर प्रक्ता, पतितोद्धारक और व्यक्तित्व ८२ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के धनी मुनिराजश्री का होना सारी जैन हृदयस्पर्शी होते थे। उनके प्रवचन खंडनपरम्परा के लिए गौरव की बात है। उनकी कुतर्क आदि से अछूते रहते थे। उन्होंने सदैव चुम्बकीय वाणी भी कइयों के हृदय में सामाजिक एकता और वात्सल्य को सुदृढ़ गूंजती है और अंधेरे क्षणों में प्रकाश देती बनाने का प्रयास किया । वे लोकैषणा से रहती है। कोसों दूर थे। उन्होंने पद-प्रतिष्ठा आदि _ में इस महान् दिवंगत मनिराजश्री के को महत्त्व नहीं दिया । प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज करता हूँ। का जीवन हमारे लिए प्रेरणा-स्रोत है। मैं -भूरेलाल बया, उदयपुर अपनी श्रद्धा-सुमन उनके चरणों में समर्पित करता हूँ। शुभकामनाएँ और प्रणाम -भगतराम जैन, दिल्ली जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमलजी ज्वाजल्यमान नक्षत्र की जन्म-शताब्दी-महोत्सव की सफलता के लिए श्रीमान् महाराणा साहब (उदयपुर) पूज्य जैन दिवाकरजी अपनी पीढी के अपनी शभकामनाएं प्रेषित करते हैं तथा एक ज्वाजल्यमान नक्षत्र थे । उनका उपस्थित आचार्य, साध एवं साध्वियों की जीवन स्वयं के लिए नहीं, मानवता के सेवा में अपना प्रणाम निवेदन करते हैं। लिए उन्होंने जिया । जिन्होंने उन्हें देखा -द्वारका प्रसाद पाटोदिया, उदयपुर और उनका सान्निध्य प्राप्त किया, वे तो उनसे प्रेरणा प्राप्त करते ही हैं, परन्तु भावी पतितों-दुखियारों के परमसखा । पीढ़ियाँ भी उस प्रेरणामृत का पान करके लाभान्वित हों, इस दृष्टि से विशेषांक का यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि प्रकाशन सफल और यशस्वी हो। समन्वय के महान् प्रेरक जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज की जन्म-शताब्दी -सुन्दरलाल पटवा, मन्दसौर मना रहे हैं। एकता-संवेदना-करुणा की त्रिवेणी महाराजश्री का जीवन एकता, मैत्री, जैन दिवाकर पूज्य मुनिश्री चौथमलजी शांति और वत्सलता की विजय का अपूर्व के दर्शनों का सौभाग्य तो मुझे नहीं मिला, शंखनाद था । वे पतितों-दुखियारों के किन्तु उनके कार्यों की सुवास एवं साहित्यपरमसख। थे। उनका जीवन पढ़ कर हमें सौरभ से आकर्षित अवश्य रहा हूँ। जैन मार्ग-दर्शन प्राप्त होगा। मैं हार्दिक सफलता एकता, मानवीय संवेदना और प्राणिमात्र के चाहता हूँ। प्रति करुणा की त्रिवेणी उनके जीवन में थी। -प्रतापसिंह बेद, बम्बई ऐसे मनीषी की जन्म-शताब्दी का वात्सल्य के प्रतीक आयोजन कर निःसंदेह प्रशंसनीय कार्य किया जा रहा है। 'तीर्थकर' का विशेषांक उनके दिल्ली में मुनिश्री चौथमलजी महाराज व्यक्तित्व और कर्त त्व से पूरित होगा, के चातुर्मास हुए। उस समय उनके कई जिसके माध्यम से लाखों लोग प्रेरणा प्राप्त बार प्रवचन सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। करेंगे। उनकी वाणी द्वारा भगवान् महावीर के मुख्य-मुख्य आदर्श की व्याख्या सुनने को मैं विशेषांक की सफलता और पूरे मिली । उनके व्याख्यान ओजस्वी और वर्ष के शताब्दी-कार्यक्रमों की सर्वांगीण चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभ- हो सका, वह उन महान् संत के लोकोपयोगी कामनाएँ प्रेषित करता हूँ। - मार्गदर्शन से हुआ। __-चन्दनमल 'चाँद', बम्बई वे एक महान् ओजस्वी वक्ता भी थे। मैत्री भावना के महान् साधक उन्होंने महाराष्ट्र की भूमि को पावन करके लोकोद्धारक उपदेश दिये, जिसके हम सब स्व. जैन दिवाकर श्रद्धेय चौथमलजी ऋणी हैं। म. सा. का प्रभाव आज सकल जैन समाज में उन महान पुण्यात्मा की जन्म-शताब्दी परिव्याप्त है। इसका कारण यह है, उनके मनाने का निर्णय उचित और स्वागत योग्य दिलोदिमाग में सभी धर्मों और जन-जतियों है। उनके कार्य से लोगों की चारित्र्य शुद्धि के प्रति समादर और समन्वय का भाव था। हो और नैतिकता बढ़ती रहे, यही मेरी मैत्रीभावना के महान् साधक के शुभकामना है। चरण-कमल जिधर भी आगे बढ़ते थे, उधर -चन्द्रभान रूपचन्द डाकले, जन-जन में धर्म के प्रति नयी श्रद्धा, नयी श्रीरामपुर (अहमदनगर) स्फूर्ति और नयी चेतना का संचार होता था। उनके प्रभावोत्पादक मंगलमय प्रवचनों श्रमण-संस्कृति के सजग प्रहरी में जैन क्या जैनेतर भी हजारों की संख्या जैन दिवाकर गुरुदेव चौथमलजी में लाभ लेते थे। महाराज आगम शास्त्रों के ज्ञाता थे । आपने मैं श्रद्धेय जैन दिवाकरजी के चरण आध्यात्म का सही बोध कराकर कुरीतियों, कमलों में अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अन्धविश्वासों एवं सामाजिक विरोध को अर्पित करता हूँ। दूर करने का सतत प्रयत्न किया । गुरुदेव के ब्यावर में पाँच चातुर्मास हुए, जिनका आपको मरहूम कहता कौन, जैन समाज पर काफी प्रभाव पड़ा। उन्होंने आप जिन्दों के जिन्दा हो । अनेकांत दर्शन का प्रतिपादन करके सर्वज्ञ के आपकी नेकियाँ बाकी, प्रति सच्ची श्रद्धा के भाव जागृत किये। आपकी खूबियाँ बाकी । आप सतत ही आगम के अभ्यासी रहे -फतहसिंह जैन, जोधपुर और गढ़तम रहस्यों को बतलाते रहे। अहिंसा, स्याद्वाद, अनेकांत, अपरिग्रह लोकोपयोगी मार्गदर्शन और सत्य की खोज में ही उनका सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हुआ। भारतीय संस्कृति में संतों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने झोपड़ियों से वे श्रमण-संस्कृति के रक्षक थे । ब्यावर महलों तक पहुँच कर लोगों की धार्मिक गुरुदेव का प्रिय क्षेत्र माना जाता है। जबएवं नैतिक जागृति की है। उन्हीं संतों की जब ब्यावर में चातुर्मास हुआ, तब-तब यहाँ शृंखला में जैन दिवाकर, प्रसिद्ध वक्ता के श्रावकों ने अनन्य भक्ति एवं श्रद्धाभाव से गुरुदेव के वचनों को सुना और उन्हें पूज्य श्री चौथमलजी महाराज भी हैं। जीवन में उतारने की कोशिश की। उनके दर्शन का मुझे लाभ नहीं मिला, आपकी सुमधुर वाणी एवं व्याख्यानों से किन्तु उनके वार्य और साहित्य आदि को प्रभावित होकर उस समय दानवीर सेठ पढने तथा सुनने से उनका व्यक्तित्व बहत कन्दनमलजी कोठारी ने रु. १,२५,००० का ही ऊँचा मालूम हुआ। जो परिवर्तन शासन दान निकाला, जिसका उपयोग विद्यादान, तया कानून से मनुष्य के अन्तरंग में नहीं औषधिदान तथा सेवारूप में होता रहा है। तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दन-भवन उसी दान का प्रतीक है। महाराजश्री ने कोटा-चातुर्मास में जैन इसके अलावा कालूरामजी कोठारी, स्वरूप- एकता का बीजारोपण किया। उन्होंने चन्दजी तालेड़ा, देवराजजी सुराणा, चुन्नी- दिगम्बर, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक मुनिलालजी सोनी तथा चाँदमलजी टोडरवाल राजों को एक मंच पर बैठाकर प्रवचन गुरुदेव के अनन्य उपासकों में थे। करवाए। कोटा की जनता पर आज भी उसका प्रभाव है। उनकी उदारता, महागुरुदेव की स्मृति में जैन दिवाकर नता और साधना अद्वितीय थी। दिव्य ज्योति कार्यालय, जैन दिवाकर पुस्तकालय तथा जैन दिवाकर फाउंडेशन उनकी जन्म-शताब्दि-वर्ष की अवधि में जैसी संस्थाएं समाज में ज्ञान-प्रसार एवं व्यापक दृष्टिकोण अपना कर रचनात्मक प्रचार तथा समाज-सेवा का कार्य कर रही कार्यों द्वारा ही हम उनके प्रति सच्ची हैं। ये गुरुदेव की स्मृति को सदा याद श्रद्धांजलि अर्पित कर सकते हैं। उनकी दिलाती रहती हैं। अमरवाणी आज भी सार्थक है। उनका जीवन स्वतः प्रामाणित है कि उन जैसे गुरुदेव का समस्त जीवन कर्मठ तपस्वी महापुरुष किसी जाति-संप्रदाय विशेष के के रूप में तो था ही, साथ ही वे जैन । नहीं होते, वे तो प्राणिमात्र के कल्याणार्थ जगत् के सजग प्रहरी भी थे। आज गुरुदेव अवतरित होते हैं । फूल सूख जाता है, लेकिन की शताब्दी पर यह दृढ़ संकल्प करते हुए सुगंध फैला जाता है। श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं कि जिस मार्ग -मानवमुनि, इन्दौर का अनुसरण गुरुदेव ने किया, उस मार्ग पर चलते हुए श्रमण-संस्कृति की रक्षा करते एक आलोक पुँज रहेंगे। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धामयी श्रद्धेय जैन दिवाकर गुरुदेव श्री चौथश्रद्धांजलि है। मलजी म. सा. विश्व के वन्दनीय सन्त-अभयराज नाहर, ब्यावर रत्न थे। उनके जीवन ने जन-जन को आह लादित तथा प्रकाश-पथ की ओर 'सर्वजनहिताय की भावना से ओतप्रोत प्रेरित किया। वे राजाओं के राजप्रासादों से लेकर भीलों की कुटियों तक अहिंसा का __ मानव-समाज के आध्यात्मिक सम्राट् प्रचार करनेवाले प्रभावशाली गरुदेव थे। जन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज दस्यओं और वैश्याओं ने उनके प्रवचनों के दर्शन एवं सेवा करने का लाभ बाल्या- से प्रेरित होकर अपने जीवन को सच्चे वस्था से ही मिलता रहा। उनका अन्तिम . पथ की ओर अग्रसित किया। चातुर्मास कोटा में हुआ, वहाँ भी कुछ समय सेवा में रहने का सौभाग्य मिला। चित्तौड़गढ़ जनपद के डूंगला के समीप बिलोदा गाँव में रात्रि विश्राम हेतु गुरुदेव जब उनके जीवन का चिन्तन करता हूँ, उदा पटेल के मकान पर ठहरे हुए थे, तो ऐसा लगता है कि वे जैन समाज के ही उदा पटेल के यहाँ डाका डालने की दस्युवर्ग नहीं थे, वे भगवान् महावीर के सिद्धान्तों की सुनियोजित योजना थी। दस्युवर्ग को के अनुरूप मानव-समाज के कल्याण की जब यह विदित हुआ कि चौथमलजी म. सा. भावना से ओतप्रोत रहे। उनके प्रवचन यहाँ पर विराजते हैं, तो उन्होंने निश्चय सुनने के लिए सभी कौम के लोग आते थे। किया कि यहाँ डाका नहीं डालेंगे । श्रोताओं के जीवन में उनके प्रवचनों का यह है गुरुदेव के व्याख्यानों का हरएक क्रान्तिकारी प्रभाव पड़ता था। वर्ग पर प्रभाव। चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म-शताब्दी के पुनीत अवसर पर समपित जीवन के ज्वलन्त उदाहरण एक नहीं अनेकों संस्मरण आज भी याद करते हुए नेत्र सजल हो उठते हैं। ___भारतवर्ष की महान् विभूतियों में भारतीय संस्कृति के महान संत जैन - जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज का दिवाकरजी ने एकता और बन्धत्व का जो नाम सदैव स्मरणीय रहेगा। वे तो संपूर्ण अमर सन्देश जन-जन को दिया. जो कभी राष्ट्र के हो गए थे। तभी वे कहते रहे, भुलाया नहीं जा सकता है। जन-जन को 'वसुधा मेरा कुटुम्ब', 'मानवता मेरी आह लादित करनेवाले मक्तिदाता श्रद्धेय साधना' और 'अहिंसा मेरा मिशन'। जैन दिवाकरजी की जन्म-शताब्दी के शुभ इन्हीं सिद्धांतों को हृदयंगम करके उन्होंने पुनीत अवसर पर महान संत को श्रद्धा के अपना जीवन संपूर्ण मानव-समाज के कल्याण सुमन अर्पित करते हैं। के लिए समर्पित कर दिया था। वे शान्ति जैन दिवाकरजी म. सा. की प्रेरणाओं और अहिंसा के अग्रदूत थे। से संघ, समाज और राष्ट्र सदा पल्लवित उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तो उनके तथा विकसित होता रहे। पारस्परिक आदर्शों को चरितार्थ करने में है। सौहार्द्र और सहिष्णुता के पथ का अमर -एस. हस्तीमल जैन, सिकन्दराबाद संदेश देनेवाले युगवन्दनीय संत को शतशत-वन्दन! आदर्श कर्मयोगी -निर्मलकुमार लोढ़ा, निम्बाहेड़ा जैन दिवाकर गुरुदेव श्री चौथमलजी आदर्श के अखंड स्रोत म. ने संघ की एकता के लिए सब कुछ परम श्रद्धेय जैन दिवाकर चौथमलजी न्यौछावर कर छह संप्रदायों का एकीकरण म. सा. का स्वभाव और प्रवृत्ति इतनी कर पूज्य श्री आनन्द ऋषि म. को प्रधानासरल थी कि वे क्रोधी, लोभी तथा दुर्व्यव- चार्य नियुक्त किया। हारी व्यक्ति को व्याख्यानों द्वारा इतना उन्होंने महाराष्ट्र, गुजरात, मेवाड़, शांत एवं दयालु बना देते कि वह व्यक्ति । गंभीर रूप से आश्चर्यचकित रह जाता था। प्रदेश, जम्म तक भ्रमण किया। रजवाड़ों मारवाड़, मालवा, दिल्ली, पंजाब, उत्तर__ जो सामान्य व्यक्तियों के स्तर से से धार्मिक पर्वो पर हिंसा-निषेध के सरकारी ऊपर उठकर महानता का कार्य करे; छल, फरमान जारी कराये और उनकी नकलें छिद्र, स्वार्थ, क्रोध, लोभ, अहंकार, मोह और भी प्राप्त की। उनका दिल्ली पर भी उपकार सातों दव्यंजनों का त्याग कर देता है, उसे था। उनका सं. १९९५ में चान्दनी चौक में ही हम सन्त कहते हैं। हमारे श्रद्धेय गुरु- चातर्मास हआ था। वे दिल्ली का बराबर देव साधत्व के नियमों का सही रूप से पालन ध्यान रखते थे। कर सारे जग को अपना घर समझ कर एक महान् विभूति बन गए । वे हमारे आराध्य जन्म-शताब्दी पर पूज्य गुरुदेव के और आदर्श के अखंड स्रोत हैं। चरणों में विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। -अशोककुमार नवलखा, निम्बाहेड़ा -कपूरचन्द सुराणा, दिल्ली ८६ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे थे ऐसे . . . (मन्दाक्रान्ता) भाषा काव्य सुकृति कविता, कर्म व्याख्यान सिद्धिः । विद्यापेक्षी पर हित सदा, योगमाया प्रसिद्ध ॥ भक्तों के हैं प्रियवर महा, ज्ञानध्यानादिदाता। नियानन्दी सुकृत सुखभरे, प्राणदाता विधाता ।। भाषावक्ता विविध सरसग्रन्थ निर्माण संत। शान्तो दान्तो प्रकृति विशद ध्यान लाभे सुपंथ ॥ आते जाते नृपगण भूपति देखमाने। वै ये ऐसे अतुल गरिमा ज्ञान ज्ञाता सयाने ॥ -मुनि रूपचन्द्र 'रजत जन्मशताब्दि वर्षेऽस्मिन् शताब्दं पूर्वे जातः संतः चौथमलः कविः । हीरालालो गुरुय॑स्य तस्य शिष्यः धीमतिः। गुरुप्रसादाच्च नभौ नूनं ख्यातनामो जनकविः । अजिता उपाधयस्तेन प्रसिद्धवक्ता जैनदिवाकरः ।। जन्मशताब्दि वर्षोऽयं प्राप्तं भाग्योदयेन तु । बहुविधा आयोजनाः कृताः भक्तः नगरे नगरेऽपि च ॥ रंकाश्च नरेशाश्च जैनेतरा जनता तथा। धर्म प्रवचनयन आकर्षिता बहुसंख्यकाः॥ आशातीता भवत्तपस्या जन्मशताब्दि वर्षेऽस्मिन् । चतुर्विधसंघेन चिरस्मरणीयं कृतं दिवाकर स्मृतिः ॥ श्रमणत्वं पालितं येन शुद्धभावेन जीवने। कृतार्थं येन कृतं जन्म तस्मै नम: जैन दिवाकराय ।। -नन्दलाल मारू काव्यान्जलि दिवाकरोऽयम् दिव्याकरो द्युतियुतोऽपि दिवाकरोऽयम्। भव्याकरो विजित ज्ञान, निशाकरोऽयम् ।। शिक्षा करो हिमविचार सुधाकरो यम्। विद्याधरो नरवरोऽपि दिवाकरोऽयम् ॥ सिद्धायुधो सुसफलो मुदितो महात्मा। चैतन्य शक्तिरपरो, महितोशुभात्मा ॥ व्याख्यानरीति कुशलो, नृपराज सेतुः। पारं करोति सकलान् निजधर्मकेतुः॥ गम्भीर भाव भवनो भुवने न कोऽपि। विद्या विवाद मतिमान् मतिमान् न कोऽपि ॥ वाणी विचित्र मधुरः, सुभगो मुनीशः । दिव्याननो विनय भावमुदा मुनीशाः । व्याख्यान ज्ञान जगतामधिकार स्वामी। व्याख्यान कोश परितोष सुधारनामी ॥ दिव्याकरो रुचिकरोऽत्र चतुर्थमल्ल । सत्यार्थ ध्यान चरितार्थ विकासमल्ल ॥ -श्रीधर शास्त्री चौ. ज. श. अंक ८७ For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना वह पिये संगठन के प्याले (भुजंगप्रयात) श्रद्धा की ज्योति हृदय तले। अनेके नरेशास्तथामात्यवर्गाः वे भक्त सदा मन-धन से फले ।। पुरश्रेष्ठिवर्याश्च विद्वद्वराश्च । शत्रु मित्र बन, चरण धरे ।। सवर्णा अवर्णास्तथा मुस्लिमा रोग शोक भय भूत भगे , वा भवन् भक्तिनम्रा जनानां समूहा : जीवन में समता-शौर्य जगे।। गतो यत्र तत्रापि धर्मप्रचारोऽ नन्दन-वन में विश्राम करे ।। भवत्सर्ववर्गेषु वर्णेष्वबाधः। गुरुवर की शिक्षा जो पाले। सभायां जना मन्त्रमुग्धाः प्रजाता वह पिये संगठन के प्याले। मुनेः शीर्षकम्पेन साधं समस्ताः ।।। अशुभ कर्म सब शीघ्र झरे ।। धर्मप्रचारेण च भयसाऽसाववाप । -मुनि भास्कर कीर्ति विपुलां विशुद्धाम् । आत्मज्ञान के अनुपम साधक मान्योऽभवज्जैनदिवाकरेति । कलाकार जीवन के सच्चे, वक्ता प्रसिद्धश्च जनप्रियश्च ।। कान्ति-शान्ति के पुंज परम ।। -नानालाल जवरचन्द रूनवाल ज्ञान-ध्यान की विविध विधा से, पावन जीवन, उच्च, नरम ।। उन जैसा कुछ तो करें. प्रवहमान गंगा का निर्मल, शिक्षा देते हम नीर सभी का उपकारी। प्रवचन की निर्मल धारा से, राम, कृष्ण, गौतम, गांधी, तरे अनेकों . संसारी।। और महावीर के आत्मज्ञान के अनुपम साधक, सद्गुणों की चमके जैसे नभ में चन्द । सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र की, भारतीय जन-जन के मन में, सत्य, अहिंसा और त्याग की, बसे सुमन में यथा सुगंध ।। मानव के उत्थान की, राजा, राणा, रंक सभी जन, देश पर बलिदान की; चरणों में पाते आनन्द । फिर, शिक्षक बन वाणी-भूषण, कुशल प्रवक्ता, असत्य का पावन हम क्यों करें सुनकर लेते गुण मकरन्द ।। झट, चोरी और दुराचार तेरे पावन उपदेशों पर, हमें शोभा देते नहीं जो भी कदम बढ़ायेंगे। हमारे आदर्श हैं वे, कर्मपाश झट काट जगत् से, उन जैसा कुछ तो करें। शीघ्र वही तर जाएंगे। -घेवरचन्द जैन -जितेन्द्र मुनि ८८ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर ठहर जाता थानक पर रामपुरा का श्रमणोपासक बोला जैन दिवाकर से। सूत्र मांगलिक मुझे सुनायें जाना है बाहर घर से। मंगलपाठ श्रवण कर गुरु से श्रावक कुछ ही कदम चला। गुरु ने उसे बुलाया वापिस सोचा उसके लिए भला । माला एक फेर कर जाओ वरत रहे क्षण अशुभ अभी। थोड़ा-सा रुक जाना ही तो हो जाता शुभ कभी-कभी ।। समझा नहीं, दिया उत्तर यूं मैं हूँ अभी उतावल में। क्या अन्तर पड़ सकता है जी अशुभ क्षणों के उस फल में ? घर पर उसका इन्तज़ार कर रही पुलिस उससे बोली। चलो सेठ जी थाने जल्दी तज दो यह मूरत भोली ।। कहा सेठ ने मेरे द्वारा कहीं नहीं अपराध हुआ। फिर भी मेरे लिए निरर्थक कैसे खड़ा फिसाद हुआ ? थाने में ले गये वहाँ पर नहीं इन्सपेक्टर हाज़िर । बोले उनके आने पर ही होगा भेद सकल ज़ाहिर ।। चं चप्पड़ चल पाती किसकी बैठे सेठ स्वयं चुपचाप। सोचा नहीं अभी का लेकिन आया उदय पूर्वकृत पाप ।। चार बजे जब, बाहर से तब थानेदार पधारे हैं। पूछा, सेठ ! यहाँ पर कैसे आप हमारे प्यारे हैं। मुझे आपने बुलवाया यह पुलिस पकड़ कर लायी है। क्या मेरे हाथों की कोई पकड़ी गई बुराई है ? थानेदार लगा यूं कहने हाय हमारी भूल हुई। लाना किसे, किसे ले आये विधि-वेला प्रतिकूल हुई। माफ करो हम सबको सुख से आप पधारो अपने घर । महर नज़र जैसी रखते हो रखते रहना हम सब पर ।। आये सेठ शान्ति से निजघर गये दिवाकरजी के पास । कहा आपने, किन्तु न मैंने किया कथन पर कुछ विश्वास ।। गुरुवाणी पर श्रद्धा करता तो क्यों दुःख उठाता मैं। अगर टहर जाता थानक पर तो क्यों थाने जाता मैं । 'मुनि गणेश' जो गुरु कहते उसमें छिपा रहता कल्याण । जैन दिवाकरजी का जीवन कितना पावन और महान् ।। - गणेश मुनि शास्त्री चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दिवाकरोऽभूत् अध्यात्म शास्त्र विषयागम चिन्तनेन, सारल्य सर्व हितकारक सत्स्वभावः । वक्तृत्व शक्ति चकितीकृत लोक सर्व, श्री चौथमल्लमुनि जैन दिवाकरोऽभूत् ।। मेवाड़ मालव मरूत्तर दिग्विभागे, संचार पूत कृत भारत भूमि भागः । सज्जैन संघ घटनादि विधौ प्रवाणः, श्री चौथमल्ल मुनि जैन दिवाकरोऽभूत् ।। श्वेताम्बरस्य तथैव दिगम्बरस्य, आचार्यवर्य युगलेन सहप्रतिष्ठः । कोटा त्रिवेणीरिव संगम दृश्यशोभी, श्री चौथमल्लमुनि जैन दिवाकरोऽभूत् ।। हाजारिमल्ल गुरुभ्रातृ तपोवरिष्ठाः, तच्छिष्य “नाथमनि" वर्य वरा वदान्याः । तच्छिष्य वृद्धि' 'शशि' 'चन्दन' नाम धेयाः त्वत्पादपद्म मकरन्द सुसेवमानाः ।। -सुभाष मुनि धण्णो य सो दिवायरो धण्णा नीमचभुमी सा, धण्णं तं उत्तमं कुलं । धण्णो, कालोय सो जमि, जाओ मुणी दिवायरो ॥१॥ केसर - जणणी वीरा, जाए स - प्पिय - णंदणो। ठाविओ मोक्ख - मग्गंमि, चोथमलो मुणी वरो ॥२॥ जिण - सासण - मगणे, हकम - गच्छ - पंगणे। उग्गओ हारओ जड्डू, भत्त - कुल - दिवायरो ॥३॥ मंजुला सरला वाणो, जण - मण - विआसगा। जस्साहिणंदणिज्जा ऽऽ सी, धण्णोय सो दिवायरो ॥४।। जण - भासाइ सत्तत्तं, गीयं हिअय - हारियं । कल्लाण - पेरगं जेण, धण्णो य सो दिवायरो ॥५।। सासण - रसिआ जेण, कारिआ बहुणो जणा। जणाण वल्लहो खाओ, धण्णो य सो दिवायरो ॥६॥ पयावइव्व पत्ताई, धीरो सीसे घडीअ जो। पहावगो सुधम्मस्स, धण्णो य सो दिवायरो ॥७॥ कया कया सुकालम्मि, णिफ्फज्जइ जणप्पिओ। वाणी-पहू जई सेट्ठो, साहू धम्म - धुरंधरो ॥८॥ वरिसाण सयं एयं, जम्मस्स जस्स मंगलं । कल्लाणं सरणं तस्स, चेइअं - अणुणा कयं ॥९॥ -उमेश मुनि 'अणु' तुभ्यं नमः तुभ्यं नमः सकलभूत हितायनित्यं, तुभ्यं नमः परम तत्त्व समाश्रिताय । तुभ्यं नमः सरलवाणि विभूषणाय, तुभ्यं नमः सुखद जैन दिवाकराय ।। तुभ्यं नमः कविकला कलन प्रियाय, तुभ्यं नमः सुचरिता चरणाश्रिताय । तुभ्यं नमः परममोक्ष पथाश्रिताय, तुभ्यं नमः भगवते मुनिपूजिताय । तुभ्यं नमो विरति योग विभूषिताय तुभ्यं नमो विरति योग विभूषिताय, तुभ्यं नमो दुरितजाल विनाशकाय । तुभ्यं नमो मुनिजनैरभिवन्दिताय तुभ्यं नमो मधुर वाणि सुमण्डिताय ।। तुभ्यं नमो जगति भक्ति विकासकाय, तुभ्यं नमो विदित तत्त्व विचारकाय । तुभ्यं नमो भगवतः समुपासकाय, तुभ्यं नमो सुतपसाक्षपिताशयाय ॥ -मुनि उदयचन्दजी तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान का प्रकाश मिला निकला सूरज प्रकाश हो गया कुए पर गये तो घड़ा भर लाये | वृक्ष के पास जाकर फल ले आये । चाँद ने रात में शीतलता भर दी, पर एक ही दिवाकरजी के पास गये तो ज्ञान का प्रकाश मिला, उपदेशों के अमृत से घड़ा भर लिया । चौ. ज. श. अंक अच्छी अच्छा और, और करनी का फल मिला । प्रवचन, लावणी भजन और चरित्रों के माध्यम से जीवन के उत्थान और कल्याण के लिए साहित्य की धवल चाँदनी सर्वत्र बिखराकर मानव को मानव बनने की राह बताई जैन दिवाकर जी ने । महामनस्वी छप्पय मृदु वाणी मतिमंत महा ज्ञानी मनमोहक, मद मत्सरता मार ममत्त मिथ्या मोहकमोडक ।। मांगलीक मुख शब्द महाव्रती महामनस्वी, मर्यादा अनुसार प्रचारक परम यशस्वी ॥ मुनि गुणी मुक्ता मणी, जन जीन के थे हीये हारवर, गंगा सुत केसर तनय चौथ मुनि चारू चतुर ।। कुंडलिया भरी जवानी में करी, हरी विषय की झाल । मरितिय फिर ना वरी, घरी शील की ढाल । धरी शील की ढाल, काम कइ कीना नामी नहीं रति-भर चाह, पद्दिये केइ पामी । अध्यात्मिकता पायके करी साधना हर घड़ी, उत्तम लोक में चौथ ने सुन्दर यश झोरी मरी ॥ - मोतीलाल सुराना श्रमणसूर्य श्री मिश्रीलाल महाराज For Personal & Private Use Only ९१ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविकता सबको समझाई बड़ी खामी जिनशासन में पड़ी, ऐसे उद्भट वक्ता की; कौन पुकार सुने पशुओं की, उनकी एक महत्ता थी। गायन-कला में जो कुशल थे, श्रोता सब आदर करते थे, अन्यमती भी सादर सुनते, हृदय-पटल में धरते थे। घुम-घूम कर जनपद में सेपशुबली बन्द कराई है, वास्तविकता सबको समझाई, कष्ट सबको दुखदाई है। ताराचन्द मेहता सुरज आज अस्त वे गयो (तर्ज :- डागरी पे वेठो कबुतरा रो जोडो) मु देखते ही रह गयौ गुरु रो मुखड़ो वाणी ऐसी गंजती जैसे शेर गरजतो ।।टेर।। धन्य निमच शहर जहाँ जन्म 2 लीन्हो, गंगाराम जीरा नन्द माता केशर रो प्यारो॥ हीरालाल गुरु थारे हाथ शीस पे धरीयो, संवत बावन रवीवार थै तो सन्सार छोडयो ।। झोपड़ी सु महला तक खुब रंग जमायो, नाम प्यारो चोथमल चहु दिशा चमकतो।। मरता थका जीवा ने यै खुब बचाओ, श्रमण संघरो सुरज आज अस्त वे गयौ । सौवीं जयन्ती मनावारो मन में अमावौ, मनोहर तो आज गुरु गुण गाय रयो। -मनोहरलाल नागोरी संघ-ऐक्य के अग्रदूत वे प्रसिद्ध वक्ता जगत् वल्लभ, शासन के शृंगार थे। संघ-ऐक्य के अग्रदूत वे, हर हिवड़ा के हार थे। नाम-स्मरण कर आनंद पाओ। जिनके चरणों में राजा भी, अपना मस्तक धरते थे।। हर्षित होकर सभी वर्ग के, हर जन दर्शन करते थे। गुण कीर्तन पर बलि-बलि जाओ -विजय कुमार जैन EEEE पीड़ाएँ हो गयी तिरोहित जैन दिवाकर ने अनजाने गीतों को उनवान (शीर्षक) दिया है। बेसुध झूम रहा हूँ, अब तक जाने कैसा जाम पिया है ? हर आँधी, पतझर, तूफाँ में, मंजिल को आसान किया है। घोर बियाबाँ को भी तूने गुलशन का विश्वास दिया है। हर अंधियारी काली कृष्णा, को पूनम का चाँद दिया है। तेरी वाणी का अमृत पी इस धरती का मनुज जिया है। पीड़ाएँ हो गयीं तिरोहित खुशियों को आधार दिये हैं। तेरी सूधियों के स्वागत को, यह मन सौ-सौ बार जिया है। तेरे यश-सौरभ का आसव जिसने भी इक बार दिया है। वह मृत्यु के कूल-कगारों, पर भी हँसता हुआ जिया है। -निर्मल 'तेजस्वी तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दिवाकर पंच-पंचाशिका (पचपनिका) (संस्कृत - वंशस्थ; हिन्दी-हरिगीतिका; रचयिता - मुनि घासीलाल महाराज) प्रणम्य देवादिनुतं जिनशं तीर्थंकरं साञ्जलि घासिलालः। वंशस्थ वृत्ते वितनोति लोके ध्वनाविला चौथमलस्य कीर्तिम् ।। मुनि घासिलाल जिनेन्द्र की करवन्दना विधि सर्वथा। विख्यात करता लोक में मुनि चौथमलजी यशकथा ।।१।। महात्मनां पुण्य जुषाम् षीणां शृण्वन् यशः शुद्धति लभन्ते । प्रसिद्धि रेषा जगतां हिताय प्रयत्नशीलं कुरुते मुनिमाम् ।। है ख्यात जग में ऋषिजनों की यश सुनें मति शुद्धि हो। संयत बनाती है मुझे यह लोकहित की बुद्धि हो ।।२।। ऋतु वसन्तं समवाप्य वाटिका विधुं यथा शारदपौर्णमासिका। व्यराजत प्राप्य तथा जगत्तलं दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ ज्यों पा वसन्त को वाटिका शरदिन्दु को राका निशा। त्यों चौथमल मुनिराज से सर्वजन राजित यशा ।।३।। मही प्रसिद्धा खलु मालवामिधा नृपैरभूद विक्रम भोजकादिभिः। तथैव जाता धरणी नु धन्या दिवाकरश्चौथमलेन साधुना ॥ विख्यात मालव भूमि थी उन भोज विक्रमराज से। भूलोक धन्या वह हुई श्री चौथमल मुनिराज से ॥४॥ मुनि भविष्णुं जननी तनूदभवं प्रसूय पूतं कुरुते कुलं स्वकम् । स्वकीय मात्रे स यश स्तदा दिशद् दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ मुनि भवि सुत को जन्म दे जो कुल पवित्र करे वही। यह यश दिया निजमातुको श्री चौथमल मुनिराज ही ॥५॥ पुरातनं पुण्यफलें शरीरिणाम् सुखस्य हेतुर्य विनां सदाभुवः। अभूष्यल्लोकमिमं स्वजन्मना दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ था पूर्व संचित पुण्यफल संतत सुखों का हेतु था। भूषित किया निज जन्म से जो चौथमल मुनिराज था।६।। महीविभूषा भुवनेषु मन्यते सभूषणा भारतवर्ष तस्तु सा। अभूद् यदंशे स तु सर्व भूषणो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ है लोक में भूषण यही भारत विभूषित भूमि है। जंह चौथमल मुनिराज भव वह सर्वभूषण भूमि है।।७।। चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिताऽभव द्धन्य तमोजन प्रियः गंगायत राम नामकः। निरीक्ष्य लोकेषु सुकीर्ति मौरसं दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ था पिता गंगाराम नामक धन्य सुत को देखकर। सब लोक में विख्यात औरस चौथमल ज्यों ऊण्णकर ।।८।। अयं महात्मा सततं जिनप्रियो जिनेन्द्रवार्ता श्रवणोत्सुकः सदा। देहात्मचिंतापित धीरजायत दिवाफरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ था सतत जनप्रिय ये मुनि अर्हत कथा सुनता सदा। देहात्मचिंतारत मनस्वी चौथमल मुनिराज था ।।९।। विनश्वरं पुष्कल कर्मसम्भव देहं प्रपुष्णन् मदमेतिमानवः। इति प्रचिताज्वलनेन दीपितो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ दिन रात नश्वर देह के पोषण निरत जन हृष्ट है। चिन्ता शिखा दीपित मुनीश्वर चौथमल अति श्रेष्ठ है।।१०।। समुद्र मार्गाक्षिनवेन्दु वत्सर (1934) त्रयोदशी कार्तिक शुक्ल पक्षजे। दिने केसरवाई तोऽभवद् दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ उन्नीस सौ चौंतिस त्रयोदशि शुक्ल कार्तिक पक्ष में। थे हुए केसरबाई के रवि दिन दिवाकर कक्ष में ।।११।। सनेत्रबाण ग्रहचन्द्रहायने (1952) शुभे सिते फाल्गुन पंचमी तिथौ। व्रताय दीक्षां प्रयतो गृहीतवान् दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ बावन अधिक उन्नीस सौ फाग्न तिथी सित पञ्चमी। ली थी मुनीश्वर चौथमल व्रत हेतु दीक्षा संयमी ।।१२।। न दुर्लभा नन्दन कानने गतिः न चाप्य शक्यो जगतः सुखोद्भवः। विवेद सम्यक्त्व मति सुदुर्लभां दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ दुर्लभ नहीं नन्दन गमन नहि लोकसुख की प्राप्ति ही। सम्यक्त्व पाना है कथिन श्री चौथमलजी मति यही ।।१३।। यथात्मपित्तादिवशाद् विलोक्यते सितः पदार्थोऽपि हरिद्ररागवान् । अलिस्तथैवेति विवेद सर्वथा दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ ज्यों पित्त दुषित नेत्र से सित वस्तु पीला दीखता। त्यों भ्रमजनों को सर्वथा यह चौथमल था दीपता ।।१४।। अयं महात्मा सकलेऽपि भारत स्वतेजसा धर्षित दुर्गणाशयः। पद प्रणायेन मुदं समीयिवान दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः।। निज तेज धर्षित दुष्टजन को कर अखिल इस भुवन में। दिनकर मुनीश्वर चौथमल सुख मानता पदगमन मे ।।१५।। ९४ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणानुरागं स्वजने समानतां समस्तशास्त्रेषु विवेचनाधियम् । अवाप्तुमुत्को भवतिस्म सर्वदा दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ समता जनों में राग गुण में शास्त्र में अनुशीलना। को प्राप्त करने की सदा थी चौथमल की एषणा ।।१६।। दिनेन चाल्येन गुरोरुपासणादवाप्तविद्यागतशे मुषीधनः। सविस्मयं लोकममुं चकार स दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ थोड़े दिनों में गुरु कृपा से प्राप्त विद्या थी धनी। विस्मित जगत को कर दिया श्री चौथमल दिनकर मुनी ।।१७।। नयान्विता तस्य मनः मतिः सदा दधार दिव्यां प्रतिभांसभाङ्गणे। अतो जगद्वल्लभता मुपागतो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः। थी सभा में प्रतिमा विलक्षण सर्वनय व्याख्यान में। अतएव जगवल्लभ बने श्री चौथमल सर्वलोक में ।।१८।। गुरुर्गरिष्ठो विवुधाधिपाश्रयाद् बुधोवरिष्ठो वसुधाधिपाश्रयाद् । अनाश्रयेणैव बभूव पूजितो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः।। सुरराज आश्रय से वृहस्पति बुधवरिष्ठ नरेन्द्र से। आश्रय' बिना पूजित हुए श्री चौथमल देवेन्द्र से ।।१९।। गुणं गृहीत्वेक्षु रसस्य जीवनं प्रसून गन्धञ्च समेत्यराजते। परन्तु दोषोज्झित सद्गुणरयं दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ पा पुष्प गन्ध विराजते जल इक्षु के माधुर्य से। पर चौथमल मुनिराज तो निर्दोष सद्गुण पुञ्ज से ।।२०।। स संशय स्थान् विषयान् विवेचयजिनेन्द्र सिद्धान्त विदां समाजे। चकार सम्भाषण मोहितान्जनान् दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ संदिग्ध पद व्याख्यान कर शास्त्रज्ञ जैन समाज में। भाषण विमोहन की कला थी चौथमल मुनिराज में।।२१।। अपंडितास्सन्त्व थवा सुपण्डिताः विवेकिनस्सन्त्व विवेकिनोऽथवा। स्वभावतस्तं सततं समेऽननमन् दिवाकरचौथमलो मुनीश्वरम् ॥ पण्डित अपण्डित या विवेकी सर्वजन सामान्य हो। थे भाव से करते नमन श्री चौथमल को नम्र हो ।।२२।। नमस्कृतोऽपि प्रणतः क्षमापना मयाचत प्राणभृतः सभावनः। विरोध बुद्धि व्यरुणत स्वतो मिथो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ जन प्रणत थे पर वे सदा जन से करें याचन क्षमा। था विरोध नहीं परस्पर चौथमल में थी क्षमा ।।२३।। चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथास्वरूपं प्रविहाय कीटकाः विचिन्तनाद भ्रामररूपमद्भुतम् । समाश्रयन्ते यतिस्तथा दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ ज्यों कीट अपना रूप तज चिन्ता निरत अलि रूप को। पाता यतन करते मुनि त्यों चौथमल निज रूप को।।२४।। तमः स्वरूपं सुजनैविहितं विरागभूमि कुगति प्रवर्तकम् । स्वकर्मरूपं कलयन् कदर्थय दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः । तमरूप अति सज्जन विनिन्दित कुगतिप्रद वैराग्यभू । करते कदर्थन कर्म को श्री चौथमल मुनिवर प्रभू ।।२५।। प्रकृष्ट तीर्थंकर दुष्ट सत्पथा श्रयाज्जन स्सर्वसुखं सेमेधते। इनीह सिद्धान्त मवाललम्बत दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः।। श्रेष्ठ तीर्थंकर विलोकित पथगमन सवसुख मिले। कहते सदा यह चौथमल सिद्धान्त का अवलम्ब ले।।२६।। उदारभावों यतकायवाङमना निरीहतां स्वांवपुषा प्रकाशयन् । जगद्विरागेण सदा विराजते दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ औदार्य यत मन वचन काया तन प्रकाश निरीहता। था जग विरति से सर्वदा श्री चौथमल मुनि सोहता ।।२७।। जगत्प्रसिद्धा विविधाशयाजनाः समागताः श्रावक श्राविकादयः। मनोरथान पल्लवितान प्रकुवते दिवाकरचौथमलो मुनीश्वरः॥ थे श्राविकाश्रावक अनेको विविध फल के आस में। करते मनोरथ सफल आ जन चौथमल के पास में।।२८।। मनोरथं कल्पतरुयथार्थिनां दुदोह भत्तयागत शुद्धचेतसाम् । कुहेतुवादा यिणामकीर्तिदो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ कल्प तरु सम भक्ति युत आगत जनों की कामना। पूरण किये श्री चौथमल पर थी जिन्हें सद्भावना ।।२९।। क्वांसि तस्यां स्वगुरोः सभासदः विशिष्ट वक्तृत्वकलागुरोर्वचः। निशम्य नेमस्तम नन्य मानसा दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ वैशिष्ट्य युत उनके वचन सुन के सभासद प्रेम से। करते नमन थे कलागुरु मुनि चौथमल को नेम से ।।३०।। कुमार्गगान भिन्नमति न्नयवेदय जिनेन्द्र सिद्धान्त व चोमिरीहिते। जिनेन्द्र वार्ता श्रयिणो व्यधापय दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ स्मृति हीन कुत्सित पथ प्रवृत्त जिनेन्द्र दशित मार्ग में। सिद्धान्त वचनों से मुनीश्वर आनते सन्मार्ग में ।।३१।। तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहारकालेकमनीय माननं व्यलोकयन भव्यजना हतावयम् । इत्येवमुचुः पथिदूर भागते दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे ॥ भव्य जन थे देखते कमनीय मुख मुनिराज के। थे लोग पछताते परस्पर चौथमल पथ साज के ॥३२॥ समाधिकाले निहितात्म वृत्तिमान् विभाति वाचस्पतिवत् सभास्थितः। रमं वदन्ति हम जनाः परस्परं दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ गुरु सम सभा में शोभते थे योगयत निज वृत्त थे। यों बोलते जन थे परस्पर चौथमल के कीर्ति थे।।३३।। उदीयमाने पिवि भास्कर जनो गुरुन्पदार्थान् कुरुते समक्षम् । अणुस्वभावानपि तानवेदयद्दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ गुरु वस्तु को जन देखते रवि जब उदित हो गगन में। पर सूक्ष्म को भी दिखाते चौथमल निज कथन में ॥३४॥ महाजना वैश्य कुलोद्भवा जनाः स्वकर्म बन्धस्य क्षयाय सन्ततम् । ने मुः प्रभाते विधिवद् व्रतेस्थिता दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ।। निज कर्म बन्ध क्षयार्थ सन्त वैश्य कुल भवभक्ति से।। थे दिवाकर को सतत करते नमन अनुरक्ति से ।।३५।। अप्राप्त वैराग्य जिनोक्त सत्पथ प्रयाण कामा बहवः सुशिक्षिताः। सुशिष्य लोका सततं सिथेविरे दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरं ॥ पाकर विराग जिनेन्द्र नय में गमन करना चाहते। थे सुशिक्षित शिष्यगण मुनि चौथमल को सेवते ।।३६।। निशीथिनी नाथ महस्सहोदरं विभ्राजते स्माम्बरमस्य पाण्डुरम् । जनाः रववाचो विषयं स्वकुर्वते दिवाफरं चौथमलं मुनीश्वरं ॥ थे निशाकार के सदृश अम्बर युगल शित शोभते । जन दिवाकर चौथमल मुनि के विषय में बोलते ।।३७।। न भेदले शोऽपि बभूव जातुचित, प्रशासति स्थानकवासो मण्डलम् । जना न तास्मिञ्जहति स्म सत्पथं दिवाकर चौथमले मुनीश्वरे। जब जैन मण्डल शासते थे भेद नहीं किचिंत कहीं। नहिं छोड़ते सन्मार्ग को वे चौथमल जब तक यहीं ।।३८।। वणिग्जना न्याय्य पथानुवर्तनाद प्रकामवित्ताजित लब्ध सत्क्रियाः। बभुः स्वधर्मेण गुरौ प्रशासके दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे ॥ थे वैश्यगण अतिशय धनी सत्कार पाते न्याय से। थे शोभित निज धर्म से श्री चौथमल जब ज्याय थे ।।३९।। चौ. ज. श. अंक ९७ For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न दुःखदारिद्रय भवायकश्चन प्रधर्षिता ज्ञानतमः समन्ततम् । उपास्य भक्तेह चरित्र शालिनम् दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ पाते न दुःख दरिद्रता चारित्र शाली जन सभी। अज्ञान नाशक चौथमल गुरु को नमन करते जमी।।४०।। चकार हिंसानत चौर्य प्रवञ्चना कामरतांश्चमानवान् । जिनेन्द्र सिद्धान्त पथानुसारिणो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ चोरी अनृत हिंसा प्रवञ्चन काम चरत जो लोग थे। सब त्याग जिन पथ रत हुए जब चौथमल उपदेशते ।।४१।। जनावदन्तिस्म मृदुस्वभावो नदेहधारी सुरलोकनायकः। इहागतो धर्म प्रचार कारणादिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ नर देहधारी देवनायक जैन - धर्म पसार ने। आये यहाँ है लोग कहते चौथमल जग तारने ।।४२।। कुरुध्वमाज्ञां मनुजाः! कृपालोमहेन्द्र देव प्रमुखै तस्थ । जिनेश्वरस्येति टिदेश सर्वदा दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ हे मनुज देव महेन्द्र युत जिनदेव की आज्ञा करो। थे चौथमल उपदेशते भवदु:ख सागर तरो ।।४३।। अनित्य भूतस्य कलेवरस्य त्यजध्वमस्योपरमाय वासनाम् । समान स लोकानिति संदिदेश दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः। नश्वर कलेवर मुक्ति हित निज त्याग दो सब वासना । देते दिवाकर चौथमल नरलोक को यह देशना ।।४४।। स्वकर्म सन्तान विराम प्राप्तये प्रयासमासादयतिस्म सन्ततम् । शरीर संपोयण कर्म संत्यज दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ निज कर्म तन्तु विरामपाने यत्न मुनि करते सदा । थे देह पोषण कर्म छोड़े चौथमल मुनि सर्वदा ।।४५।। भजस्व धमत्यज लौकिकैषणां जहीहि तृष्णां कुरु साध सेवनम् । कथा प्रसङ्गेन जनानपादिशदिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः । कर धर्म त्यागो लोक सुख तृष्णा विरत साधु भजो। कहते सभा में चौथमल मुनि धर्महित सब सुख तजो।।४६।। जगत्पवित्रं कुरुते मनः कथा अतोकृत्र भक्ति कुरुतादनारतम् । जगत्प्रिये साध समाज सम्मते दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे ।। जगपूत करती मुनिकथा अतएव भक्ति सदा करो। जगत प्रिय अति साधु मानित चौथमल का पग धरो।।४७।। ९८ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन प्रयातेन पथापरिव्रजन समाचारल्लोक हिताय किन्न। कृतज्ञतां तत्र तनुव सन्ततं दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे॥ जिन पथ गमन करता मुनीश्वर क्या नहीं जग हित किया। सन्तत वनो मुनि कृत्यवित श्री चौथमल जो धन दिया ।।४८।। जिनेन्द्र सिद्धान्त विवेचने रतः समस्त मेवागमयत् स्वजीवनम् । इयं ममानण्ययु पैत्वतो मति दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे ।। जिन नय विवेचन में मुनि जीवन समस्त बिता दिया। होने उऋण मुनि चौथमल से कृत्य मैंने यह किया ।।४९।। भवाटवी सन्तम सापहारिणं जगन्नुतम्मो क्ष पथ प्रचारिणम् । विशुद्ध भावेन नयामि मानसे दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ गहन जग के ध्वान्त हरते मोक्ष पन्थ प्रचारते। मानस विमल में चौथमल मुनि को सदा हैं मानते ।।५।। नमोऽस्तु तुभ्यं भुविपापहारिणे नमोऽस्तु तुभ्यं जनशर्मकारिणे । नमोऽस्तु तुभ्यं सुखशान्ति दायिने, नमोऽस्तु तुभ्यं तपसो विधायिने । तुमको नमन जगतापहारी सौख्यकारी नमन हो। मुमको सुख शान्तिदायी तपसो विधायी नमन ।।५१।। नमोऽस्तु तुभ्यं जिनधर्मधारिणे नमोऽस्तु तुभ्यं सकलाघनाशिने । नमोऽस्तु तुभ्यं सकलाद्धिदायिने नमोऽस्तु तुभ्यं सकलेष्टकारिणे ॥ तुमको नमन जिनधर्मधारी पापहारी नमन हो। तुमको नमन सब ऋद्धिदायी इष्टकारी नमन हो ॥५२।। कृपाकराक्षेण विलोक्य स्वं जनं तनोतुति जनतापहारिणीम् । स्व सप्तभङ्गीनय प्राप्त सन्मति दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ कृपा दृष्टि प्रदान कर निजलोक सब दुख हरे । निज सप्तभंगी नीति से मुनि चौथमल सन्मति करे ।।५३।। प्रसादमासाद्य मुनेरनारतं विधीयेत येन नुति निधानतः। सुखं स मुक्त्वेह महीतलेऽखिलं परत्रचावाप्स्यति सौख्य सम्पदम् ॥ पाकर कृपा मुनि की सतत जो रीतिपूर्वक प्रार्थना । करते सकल सुख भोग कर परलोक में सुख सम्पदा ।।१४।। मुनेः श्री चौथमल्लस्य पञ्च पञ्चाशदात्मिका। घासीलालेन रचिता स्तुतिर्लोक हितावहा ॥ घासीलाल मुनि रचित ये पढ़े विनय जो कोई। सकल सुखों को प्राप्त कर लोक हितावह होय ।।५५।। 00 चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामनस्वी साधक संत मुनिश्री चौथमलजी उपाध्याय कस्तूरचन्द महाराज संत-सत्संग सोने में सुगन्ध से कम नहीं है। इसकी महिमा अकथनीय कही गयी है। संत संयम की साक्षात् मूर्ति होते हैं। उनके साधना-साम्राज्य में पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, मनुज सभी अभीत विचरण करते हैं। उनका सुखद संदेश मन, वचन और काया को प्रतिक्षण नयी रोशनी और नयी शक्ति प्रदान करता है। वस्तुतः संत-संस्कृति साधना, सेवा और समर्पण की संस्कृति है। इसी संस्कृति में आध्यात्मिकता का चरम और उत्कृष्ट विकास देखने को मिलता है; क्योंकि यही संस्कृति विश्व-संस्कृतियों के समन्वय का मूल आधार है। संत समन्वय, मैत्री और परस्पर बन्धुत्त के प्रतीक हैं। उनका परिवार अर्थात् सारी वसुधा; सारी धरती, सारा आकाश । __ महामालव के मूर्द्धन्य संत श्री चौथमलजी महाराज इसी संत-संस्कृति के एक ज्योतिवाही संत थे, जिन्होंने आत्मसाधना के साथ लोकोपकार को भी प्रेरित किया और दलितवर्ग की पीड़ा को समझा। उनके द्वारा अहिंसा, करुणा और वात्सल्य की जो तीर्थयात्राएँ हुईं उनकी कोई समानता आज उपलब्ध नहीं है। वे 'पराई पीर' जानते थे, व्यथा की वर्णमाला से परिचित थे, प्राणिमात्र की मंगलकामना उनका श्वासोच्छ्वास थी । बैठतेउठते, सोते-जागते उनके हृदय में एक ही बात रहती थी कि कोई दुःखी न हो, कोई कष्ट में न हो, सब निरापद हों, सब प्रसन्न हों, सब का कल्याण हो। वे असहायों के आश्रय थे; इसीलिए लोग उनके पास अपनी समस्याएँ लेकर आते थे, और एक रचनात्मक समाधान लेकर प्रसन्न चित्त लौटते थे। वे शान्ति और सुख की जीवन्त प्रतिमा थे। कोटा का त्रिवेणी-संगम उनके जीवन का सब से उज्ज्वल प्रसंग है। वे चाहते थे सब एक हों, एक प्राण होकर सामाजिक और सांस्कृतिक अभ्युत्थान की दिशा में आगे बढ़ें। इसीलिए उन्होंने कभी कोई पद नहीं लिया और कभी कोई दल, संगठन या गुट नहीं बनाया। वे निर्गुट थे। सदाचार और परोपकार उनके जीवन के दो प्रमुख लक्ष्य थे। उनका सारा बल इन्हीं दो पर लगा था। कोटा में दिगम्बर और श्वेताम्बर साधुओं का जो शुभ संगम हआ वह अविस्मरणीय है, ऐतिहासिक है। 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' उनकी इसी ऐक्य भावना का प्रतीक है। 'श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रवण संघ' की स्थापना उन्होंने एकता के उद्देश्य से ही की थी। वे चाहते थे व्यक्ति, समाज, देश, विश्व सब सुखी हों और सब एकदूसरे की सहायता द्वारा विकास करें। वे जीवन के सच्चे कलाकार थे। उन्होंने नगर-नगर और गाँव-गाँव में विचरण किया और वहाँ की विकृतियों को समाहित किया। अहिंसा की संजीवनी देकर मृतप्राय: मानवता को उन्होंने पुनरुज्जीवित किया। वे जैन-जनेतर सब के बन्धु थे, अकारण; भूले-भटकों के लिए सूर्य थे, अकारण; उनकी प्रवचन-संपदा हम सब की बहुमूल्य विरासत है; क्या हम ऐसे महामनीषी को कभी मूल पायेंगे ? १०० तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक संपूर्ण संत पुरुष - उन्होंने बड़ी गंभीरता से कहा- 'पाँच सौ घर के सिवाय जो लोग यहाँ बसते हैं, हरिजन-आदिवासी से लेकर मेवाड़ के महाराणा तक, वे सब हमारे हैं।' । उनके प्रति राजे-महाराजे, ठाकुर-जागीरदार, सेठ-साहुकार जितने अनुरक्त थे, उतने ही निरक्षर किसान, कलाल, खटीक, मोची, हरिजन आदि भी। - केवल मुनि 'सहस्रेषु च पंडित' की सूक्ति के अनुसार हज़ार में कहीं, कभी एक पंडित होता है; और ज्ञानी तो लाखों में कोई एक विरला ही मिलता है; क्योंकि ज्ञानी ज्ञान की जो लौ ज्योतित' करता है, वह उसकी जीभ पर नहीं होती, जीवन में होती है और कुछ इस विलक्षणता से होती है कि लाख-लाख लोगों का जीवन भी एक अभिनव रोशनी से जगमगा उठता है। भगवान् महावीर के सिद्धान्तानुसार ज्ञानी अहिंसा की जीवन्त मूर्ति होता है। संस्कृत में एक श्लोक है - अक्रोध वैराग्य जितेन्द्रियत्वं, क्षमा दया सर्वजनप्रियत्वं । निर्लोभ दाता भयशोकहर्ता, ज्ञानी नराणां दश लक्षणानि ॥ उक्त श्लोक में ज्ञानी के दस प्रतिनिधि लक्षण गिनाये गये हैं । ये वस्तुतः एक संपूर्ण संत पुरुष के लक्षण हैं। जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमलजी संपूर्ण संत पुरुष थे। वे ज्ञान के अथाह, अतल सिन्धु थे। मैं उनका शिष्य रहा हूँ। मैंने उन्हें बहुत निकट से देखा है। मैं जानता हूँ वे किस तरह प्रतिपल समाज के उत्थान में समर्पित थे। वे दिवाकर थे, उन्होंने जहाँ भी, जिसमें भी, जैसा भी अंधियारा मिला, उससे युद्ध किया। अज्ञान का अंधियारा, रूढ़ियों का अंधेरा, दुर्व्यसनों का अंधेरा, छुआछूत और भेदभाव का अंधेरा -- इन सारे अंधेरों से वे जूझे और उनके प्रवचन-सूर्य ने हजारों लोगों के जीवन में रोशनी का खजाना खोला। वे परोपकारी पुरुष थे, उनका जीवन तिल-तिल आत्मोत्थान और समाजोदय में लगा हुआ था। क्रोध उनमें कम ही देखने में आया। उनके युग में सांप्रदायिकता ने बड़ा वीभत्स रूप धारण कर लिया था। लोग अकारण ही एक दूसरे की निन्दा करते थे, और आपस में दंगा-फसाद करते थे। बात' इस हद तक बढ़ी हुई थी कि लोग उनके गाँव में आने में भी एतराज करते थे; जैसे गाँव उनकी निज की जागीर हो; किन्तु दिवाकरजी ने बड़े शान्त' और समभाव से इन गाँवों में विहार किया। उदयपुर का प्रसंग है। गुरुदेव वहाँ चौ. ज. श. अंक १०१ For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुंचे तो लोगों ने कहा- 'यहाँ हमारे ५०० घर हैं, आप कहां जा रहे हैं ?' उन्होंने बड़ी गहराई से कहा- ५०० घर के सिवाय जो लोग यहाँ बसते हैं हरिजन-आदिवासी से लेकर मेवाड़ के महाराणा तक वे सब हमारे हैं।' सर्प की तरह फन उठाये क्रोध का इतना शान्त उत्तर यदि कोई दे तो आप उसे क्रोधजयी कहेंगे या नहीं ? वैराग्य तो आपको विवाह से पहले ही हो गया था। वह उत्तरोत्तर समृद्ध होता गया। भरी तरुणाई में रूपसि पत्नी की रेशम-सी कोमल राग-रज्ज को काटना क्या किसी साधारण पुरुष का काम है ? उनका सुहागरात न मनाना और पत्नी को जम्बूस्वामी की तरह संयम-मार्ग पर लाना, एक इन्द्रियजयी की ही पहचान है। संयमावस्था में भी वे आत्मचिन्तन और स्वाध्याय में ही व्यस्त रहते थे; निन्दा, विकथा और अनर्गल-व्यर्थ की बातों की ओर उनका लक्ष्य ही नहीं था। कोई कभी-कभार आया भी तो उससे स्वल्प वार्तालाप और जल्दी ही पूर्ण विराम । ऐसा नहीं था उनके साथ कि घंटों व्यर्थ की बातें करते और अपना बहुमूल्य समय बर्बाद करते । साधु-मर्यादा के प्रति वे बड़े अप्रमत्त भाव से प्रतिपल चौकस रहते थे। क़दम-कदम पर आत्मोदय ही उनका चरम लक्ष्य होता था। उन्होंने रसना-सहित पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की थी। वे रात तीन बजे उठ जाते थे। सुखासन से बैठकर माला फिराते, चिन्तन करते, प्रतिक्रमण करते । लगभग तीन-चार घण्टे उनके इसी आसन में व्यतीत होते थे। एक दिन मैंने उनसे पूछा'गुरुदेव' आप इतनी जल्दी उठ जाते हैं तो कभी नींद का झोंका तो आ ही जाता होगा ?' बोले- 'कभी नहीं।' दिन में भी, यदि पिछले कुछ समय की बात छोड़ दें तो, वे कभी सोते नहीं थे। ७४ वर्ष की आयु में भी ३-४ घण्टे निरन्तर जप-ध्यान-चिन्तन-प्रतिक्रमण करना और नींद को एक पल भी अतिथि न होने देना आश्चर्यजनक है। ऐसा सुयोग, वस्तुत किसी आत्मयोगी को ही सुलभ होता है। क्षमा की तो वे जीती-जागती मूर्ति ही थे। उन्होंने कभी किसी के प्रति बैर नहीं किया। कोई कितनी ही, कैसी ही निन्दा क्यों न करे, वे उस संबन्ध में जानते भी हों फिर भी कोई द्वेष या दुर्भावना या प्रतिकार-भावना उनके प्रति नहीं रखते थे। जो भी मुनि उनसे मिलने आते थे उन सबसे वे हृदय खोलकर मिलते थे; जिनसे नहीं मिल पाते थे उनके प्रति कोई द्वेष जैसी बात नहीं थी । लोग कहते फलां व्यक्ति वन्दन नहीं करता तो गुरुदेव एक बड़ी सटीक और सुन्दर बात कहा करते थे – 'उनके वन्दन करने से मुझे स्वर्ग मिलनेवाला नहीं और वन्दन नहीं करने से वह टलनेवाला नहीं। मेरा आत्मकल्याण मेरी अपनी करनी से ही होगा, किसी के वन्दन से नहीं ।' स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य सूक्ति है यह। दया के तो वे मानो अवतार ही थे। करुणासिन्धु गुरुदेव दया और उपकार के लिए इतने संकल्पित थे कि उन्हें अपनी बढ़ी हुई अवस्था का भी ख्याल नहीं रहता था । मदेशिया (राजस्थान) में जेठ की भर दुपहर में जब लू चल रही थी, घास-फूस के छप्पर १०२ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तले कुछ किसान-मजदूर और ग्रामवासी प्रवचन सुनने एकत्रित हुए। प्रवचन सुनना है एकत्रितों की यह इच्छा जानते ही आप तैयार हो गये। यदि मुझे ऐसे समय कोई कहता तो मैं धूप, धूल और लू देखकर मना कर देता; किन्तु गुरुदेव करुणासिन्धु थे, न कैसे कहते ? उन्होंने बड़े मनोयोगपूर्वक व्याख्यान दिया। समय नहीं काटा। इधरउधर की बातों से व्याख्यान पूरा नहीं किया। हम लोगों को भी उनके प्रवचन में कुछन-कुछ नया मिल ही जाता था। व्याख्यान के बाद एक साधु ने प्रश्न किया- 'माटी और फस की झोपड़ी के कारण आपकी चादर पर रेत और घास गिर गया है। आप दोपहर को प्रवचन न करते तो क्या था ?' गुरुदेव बोले – 'एक व्यक्ति भी मांस, शराब, तम्बाकू, जआ आदि छोड़ दे तो एक व्याख्यान में कितना लाभ मिल गया ? कितने जीवों को अभय मिला? मेरे थोड़े से कष्ट में कितना उपकार !' गुरुदेव सर्वजनप्रिय थे। जगद्वल्लभ थे। उनके प्रति राजे-महाराजे, ठाकुर-जागीरदार, साहुकार जितने अनुरक्त थे, उतने ही अपढ़ किसान, कलाल, खटीक, मोची, हरिजन आदि भी थे । सभी कहते, गुरुदेव की हम पर बड़ी कृपा है, बड़ी मेहरबानी है । हर आदमी यह समझता था कि गुरुदेव की उस पर बड़ी कृपा है। कई लोग कहा करते 'राणाजी के गुरु होकर भी उन्हें अभिमान नहीं'। उनके संपर्क में आनेवाले ऐसे अनेक व्यक्ति थे, जो अनुभव करते थे कि 'मुझ पर गुरुदेव का अत्यधिक स्नेह है'। पंजाब-केशरी पंडितरत्न श्री प्रेमचन्दजी महाराज ने अपना एक अनुभव सोजतसम्मेलन के व्याख्यान में सुनाया था। जब वे रतलाम का भव्य चातुर्मास संपन्न कर उदयपुर होते हुए राणावास के घाट से सीधे सादड़ी मारवाड़ होकर सोजत के लिए पधार रहे थे, तब उन्हें जिस रास्ते से जाना था वह कच्चा था, गाड़ी-गडार थी, सड़क नहीं थी, माइलस्टोन भी नहीं थे। कहे दो कोस तो निकले तीन कोस, कहे चार कोस तो निकले छह कोस, ऐसा अनिश्चित था सब कुछ । आपने कहा- “एक गाँव से मैंने दोपहर विहार किया। अनुमान था कि सूर्यास्त से पहले अगले गाँव में पहुँच जाएँगे, किन्तु गाँव दूर निकला। सूर्यास्त निकट आ रहा था। पाँव जल्दी उठ रहे थे मंजिल तक पहुंचने के लिए उत्कण्ठित । ऐसे में एक छोटी-सी पहाड़ी पर खड़ा आदिवासी भील मेरी ओर दौड़ा। मैंने समझा यह भील मुझे आज अवश्य लूटेगा। सुन भी रखा था कि भील जंगल में लूट लेते हैं । उसे आज सच होते देखना था; फिर भी हम लोग आगे बढ़ते रहे । भील सामने आकर बोला- 'महाराज वन्दना' । पंजाब-केशरीजी बोले- "मैं आश्चर्यचकित रह गया यह देख कि झोपड़ी में रहनेवाला एक भील, जिसे जैन साधु की कोई पहचान नहीं हो सकती, इस तरह बड़े विनय-भाव से वन्दना कर रहा है । जब उससे पूछा तो बोला, 'महाराज मैं और किसी को नहीं जानता, चौथमलजी महाराज को जानता हूँ।' उस भील की उस वाणी को सुनकर उस महापुरुष के प्रति मेरा मस्तक श्रद्धा से झुक गया। मेरी श्रद्धा और प्रगाढ़ हो गयी। सोचने लगा- 'अहा, झोपड़ी से लेकर राजमहल तक उनकी वाणी गूंजती है, यह कभी सुना था; आज प्रत्यक्ष हो गया।' भील' बोला- 'महाराज दिन चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोड़ा है। गांव अभी काफी दूर है। आज आप मेरी झोपड़ी पावन करें। महाराज, मेरी झोपड़ी गंदी नहीं है। मैंने मांस-मदिरा-शिकार सब छोड़ दिया है। अब वह पवित्र है। आपके चरणों से वह और पवित्र हो जाएगी।' मैंने कहा- 'भाई, तेरी झोपड़ी में इतना स्थान कहाँ, और फिर जैन साधु गृहस्थ की गृहस्थी के साथ कैसे रह सकते हैं।' भील ने कहा- “महाराज, हम सब बाहर सो जाएँगे। आप झोपड़ी में रहना ।' उसकी इस अनन्य भक्ति से हृदय गद्गद हो गया; मैंने कहा- 'अभी मंजिल पर पहुँचते हैं। तूने भक्तिभाव से रहने की प्रार्थना की, तुझे धन्यवाद । उन जैन दिवाकरजी महाराज को भी धन्यवाद है, जिन्होंने तुम लोगों को यह सन्मार्ग बताया है । एक उदाहरण पं. हरिश्चन्द्रजी महाराज पंजाबी ने भी सुनाया था। उन्होंने कहा- 'जब जोधपुर में पंडितरत्न श्री शुक्लचन्दजी महाराज का चातुर्मास था, व्याख्यानस्थल' अलग था और ठहरने का स्थान अलग। व्याख्यान-स्थल पर कुछ मुनि पं. शुक्लचन्दजी के साथ जाते थे और अन्य मुनिगण ठहरने के स्थान पर भी रहते थे। व्याख्यान-समाप्ति के बाद कुछ भाई-बहिन मुनियों के दर्शन के लिए ठहरने के स्थान पर जाया करते थे। व्याख्यान के बाद प्रतिदिन एक बहिन सफेद साड़ी पहनकर आती थी और बड़े भक्तिभाव से तीन बार झुककर सभी मुनियों को नमन करती थी। एक दिन पं. हरिश्चन्द्र मुनि ने पूछा- 'तुम व्याख्यान सुनने, दर्शन करने आती हो, श्रावकजी नहीं आते।' इस पर पास खड़े थे श्री शिवनाथमल नाहटा ने कहा- 'महाराज, इनके पति नहीं हैं।' 'क्यों, क्या हुआ ?' 'महाराज, यह पारियात (हिन्दू वेश्या) है। इनके पति नहीं होते और होते हैं तो अनेक । गुरुदेव जैन दिवाकरजी महाराज के व्याख्यान सुनने के बाद इस बहिन ने रंगीन वस्त्र त्याग दिये हैं । अब श्वेत साड़ी पहिनती हैं और ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करती हैं । इनकी जाति की अनेक बहिनों ने वेश्यागिरी छोड़ कर शादी कर ली है।' यह सुनकर इस कायापलट पर श्री हरिश्चन्द्र मुनि को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने नासिक रोड पर जब यह मिलन हुआ तब गुरुदेव की प्रशस्ति करते हए यह संस्मरण सुनाया। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो गुरुदेव की महानता का जयघोष करते हैं। इन पर अलग से कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रकाश में आना चाहिये। श्रमण के दशधर्मों में निर्लोभता भी एक है, किन्तु यह गुण आज विकृत या शिथिल हो गया है । नवाब और राजाओं द्वारा सम्मान और भक्तिपूर्वक दिये हुए बहुमूल्य शाल और वस्त्रों को भी जिन्होंने ठुकरा दिया, उनकी निर्लोभता का इससे बढ़कर और उदाहरण क्या हो सकता है ? __उन्हें यश और पदवी का कोई लोभ नहीं था। जब उनसे आचार्य-पद ग्रहण करने की प्रार्थना की गयी तब उन्होंने बड़ी निष्पक्ष भावना से कहा- “मेरे गुरुदेव ने मुझे मुनि की पदवी दी, यही बहुत है, मुझे भला अब और क्या चाहिये।" ऐसे अनेक प्रसंग उनके जीवन में आये किन्तु वे अविचल बने रहे । उनकी मान्यता थी कि 'केवल वस्तु-दान ही दान नहीं १०४ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, ज्ञान-दान भी दान है, बल्कि यही उत्कृष्ट दान है। सर्वोपरि त्याग है अहं का विसर्जन, अन्यों का सन्मान ।' दान का यह भी एक श्रेष्ठ आयाम है। ब्यावर में पांच स्थानकवासी संप्रदायों ने एक संघ की स्थापना की थी। इनके प्रमुखों ने अपनी-अपनी पदवियाँ छोड़कर आचार्य की नियुक्ति की थी। जिन पाँच संप्रदायों का विलय हुआ था उनमें से तीन में पदवियाँ नहीं थीं, दो में थीं। दो संप्रदायों में से भी इस संप्रदाय में पदवियाँ अधिक थीं। अपने प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने अपने प्रिय शिष्य उपाध्याय पंडितरत्न श्री प्यारचन्दजी महाराज को भेजते हुए अपना संदेश भेजा कि “पदवी एक ही आचार्य की रखना, अन्य आचार्य-पद नहीं रखना; और यह पदवी श्री आनन्दऋषिजी महाराज को देना। यदि अलग-अलग पदवियाँ दोगे तो त्याग अधूरा रहेगा; अतः त्याग सच्चा और वास्तविक करना।' श्रमण संघ की संघटना के बाद ब्यावर सम्मेलन संपन्न करके जब उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी महाराज लौटे तब गुरुदेव ने प्रसन्नता प्रकट की। इस अवसर पर एक साधु ने उनसे कहा- “गुरुदेव ! अपने संप्रदाय की सब पदवियों के त्याग से चार तो यथास्थान बने रहे, हानि अपनी ही हुई।" उत्तर में गुरुदेव ने कहा-"अरे मूढ़! त्याग का भविष्य अतीव उज्ज्वल है। आज का यह बीज कल वटवृक्ष का रूप ग्रहण करेगा। आज का यह बिन्दु कल सिन्धु बनेगा। दृष्टि व्यापक और उदार रखना चाहिये। तेरामेरा क्या समष्टि से बड़ा होता है ? व्यक्ति से समाज बड़ा होता है, और समाज से संघ । संघ के लिए सर्वस्व होमोगे तो कोई परिणाम निकलेगा। पदवी तो इसके आगे बहुत नगण्य है।” मैंने गुरुदेव की उस व्यापक दृष्टि का उस दिन भी आदर किया था, और मैं 'वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ' की स्थापना पर आनन्द-विभोर हुआ था। ___ गुरुदेव की सब से बड़ी विशेषता थी-निर्भीकता। वे कहा करते थे-"जो तन-मन से शुद्ध है, वह सदैव निर्भय है; और वही औरों को भी भयमुक्त कर सकता है। वे सदैव व्यसन, पापाचरण आदि छुड़वाकर निर्भयता का वरदान देते थे। मुझे हमेशा इस बात का अफसोस रहा कि ऐसे महान् धर्मप्रचारक और विश्वमित्र से लोग अकारण ही बैरभाव रखते थे; किन्तु मैंने प्रतिपल अनुभव किया कि उनका हृदय पूरी तरह शान्त और निश्चल था इसीलिए वे प्रतिक्षण अभीत बने रहे। एक दिन उन्हें चिन्तित देख मैंने विनयपूर्वक पूछा'गुरुदेव, आपको चिन्ता।' उन्होंने कहा- 'मुझे अपनी कोई चिन्ता नहीं है। उस ओर से मैं निश्चित हूँ। चिन्ता समाज और संघ की ही मुझे है ।' मैंने पुनः निवेदन किया-'आपने तो बहुतों का उपकार किया है। कई पथभ्रष्टों को उज्ज्वल राह दी है, कइयों को सुधारा है; समाज और संघ के उत्थान के लिए आपने अथक प्रयत्न किया है। आपको तो प्रसन्न और निश्चिन्त रहना चाहिये। आपकी यह प्रसन्नता अन्यों को उबुद्ध करेगी, उनका छल-कपट धोयेगी, उन्हें नयी ऊँचाइयाँ देगी।" मैंने प्रतिपल अनुभव किया कि उनका चारित्र उनकी वाणी थी और वाणी उनका चारित्र था। वे वही बोलते थे जो उनसे होता था, और वही करते थे जिसे वे कह सकते थे। (शेष पृष्ठ ११२ पर) चौ. ज. श. अंक १०५ For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सबको अपना मानो, अपने जैसा मानो' अगरचन्द नाहटा स्व. पूज्य चौथमलजी के संपर्क में आने-रहने का मुझे विशेष अवसर नहीं मिला; क्योंकि बीकानेर-क्षेत्र में जवाहरलालजी के संप्रदाय का ही विशेष प्रभाव है। मुझे याद पड़ता है कि संभवतः एक बार वे यहाँ पधारे थे और रांगड़ी चौक के उनके प्रवचन में मैं गया था। उनके एक ग्रन्थ ने मुझे बहुत प्रभावित किया था – 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' । इसमें उन्होंने भगवान् महावीर की वाणी का उत्कृष्ट संकलन किया है। यह चुना हुआ और विवेचनात्मक है। यह अपनी व्यापक उपयोगिता के कारण लोकप्रिय भी हुआ । इसके अतिरिक्त उनके अन्य अनेक ग्रन्थ हैं, जिनमें चरित्र-काव्य अधिक हैं। 'दिवाकर दिव्य ज्योति' शीर्षक से उनके प्रवचनों के लगभग २० भाग ब्यावर से प्रकाशित हुए हैं, जिनका संपादन पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल ने किया है। __ जैन मुनियों का संयत और सदाचारपूर्ण जीवन प्रायः सभी को प्रभावित करता है । वे अहिंसा आदि का इतनी सूक्ष्मता और सावधानी से पालन करते हैं कि लोगों को अचम्भा होता है। उनके व्रत-नियम भी कठोर और उदात्त होते हैं; इसीलिए जब भी वे बोलते हैं उनकी वक्तृता में वाक्पटुता की अपेक्षा जीवन ही अधिक छलकता है। एक ओर उनका जीवन को उठानेवाला नैतिक संदेश और दूसरी ओर आदर्श अनुकरणीय जीवन हृदय पर अजब-गज़ब प्रभाव डालते हैं। दिवाकरजी की जीवनी पढ़ने से भी उनकी प्रवचन-शक्ति का बोध होता है। मांस-मदिरा जैसे दुर्व्यसनों में फंसे सैकड़ोंहजारों लोगों ने उनकी जादू-भरी वाणी से प्रभावित होकर सदा के लिए उन्हें छोड़ दिया। यह कोई साधारण बात नहीं है। जैन यदि उनकी ओर आकृष्ट होते हैं तो इतना आश्चर्य नहीं होता, किन्तु जैनेतर जनसाधारण उनके चुम्बकीय आकर्षण से बिंधकर उनकी बात सुनता है, तो आश्चर्य होता है। अनेक राजे-महाराजे उनके चरणों में नतमस्तक हुए और उन्होंने अपनी रियासतों में जीव-हिंसा-निषेध के आदेश जारी किये । उनकी करुणा बड़ी पतितपावनी थी। हज़ारों-लाखों पशु-पक्षियों को उनके प्रवचनों की प्रेरणा से जो जीवन-दान मिला वह अविस्मरणीय है। जीव सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सभी सुख चाहते हैं, दुख न कोई चाहता है न कोई उसकी अगवानी करता है । इस दृष्टि से भगवान् महावीर की वाणी लोक-कल्याणकारी है । इस वाणी का जितना अधिक प्रचार किया जा सके, किया जाना चाहिये । स्व. मुनिश्री चौथमलजी का संपूर्ण जीवन इसी सुकृत्य पर समर्पित था । 'सबको अपना मानो, अपने जैसा मानो' जैन दिवाकरजी के लिए मात्र उपदेश नहीं था, यह उनका जीवन-लक्ष्य था। उन्होंने प्राणिमात्र की जो सेवा की है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। हम चिरकाल तक उनके जीवन से, जो स्वयं ही एक दिव्य संदेश है, प्रेरणा लेते रहेंगे। १०६ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक देवदूत की भूमिका में हस्तीमल झेलावत मुनिश्री चौथमलजी महाराज का एक धर्मप्रचारक के रूप में बहुत ऊँचा स्थान है। आपकी वाणी में अनुपम बल था। हज़ार-हज़ार श्रोता मन्त्रम ग्ध, मौन-शान्त बैठे रहते थे। चारों ओर सन्नाटा छा जाता था और अन्त में प्रवचन-सभाएँ गगनभेदी जयघोषों से गूंज उठती थीं। मुनिश्री के इस प्रभाव का कारण बहुत स्पष्ट था। वे जैन तत्त्व-दर्शन के असाधारण वेत्ता थे और उन्होंने जैनेतर धर्म और दर्शनों का भी गहन अध्ययन किया था। उनकी भाषा सरल-सुगम थी, और वे अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, जैन-अजैन का कोई भेद नहीं करते थे। उनके प्रभाव का क्षेत्र विस्तृत था । जैन मुनियों की शास्त्रोक्त मर्यादा के अनुरूप पैदल घूमते हुए उन्होंने भारत की सुदूर यात्राएँ की। मेवाड़मारवाड़, मालवा तो उनकी विहार-भूमि बने ही; इनके अलावा वे दिल्ली, आगरा, कानपुर, पूना, अहमदाबाद, लखनऊ आदि सघन आबादीवाले बड़े शहरों में भी गये और वहाँ की जनता अपनी अमृतोपम वाणी से उपकृत किया । आपके मधुर, स्नेहल और प्रसन्न व्यक्तित्व ने अहिंसा और जीवदया के प्रसार में बहुत सहायता की। जैन दिवाकरजी ने भानव-जाति के नैतिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए एक देवदूत' की भूमिका निभायी । समकालीन राणे-महाराणे, राजे-महाराजे, सेठ-साहूकार सबने स्वयं को उनका कृतज्ञ माना और उनकी वाणी से प्रभावित होकर वह किया जिसकी ये कल्पना भी नहीं कर सकते थे। शराब छोड़ी, मांस-भक्षण का त्याग किया, शिकार खेलना बन्द किया, और एक विलासी जीवन से हटकर सदाचारपूर्ण जीवन की ओर अग्रसर हुए। यह काम किसी एक वर्ग ने नहीं किया। चमार, खटीक, वेश्यावर्ग भी उनसे प्रभावित हुए और अनेक सुखद जीवन की ओर मुड़ गये। अनेक उपेक्षित जातियों ने भांग-चरस, गांजा-तम्बाखू, मांस-मदिरा ज़िन्दगी-भर के लिए छोड़ दिये । उनकी करुणा और वत्सलता की परिधि इतनी ही नहीं थी, वह व्यापक थी; उसने न केवल मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर मोड़ा वरन् उन लाख-लाख मूक पशुओं की जानें भी बचायीं जो शिकार, बलि और मांस-भक्षण के दुर्व्यसन के कारण मारे जाते थे। कई रियासतों और जागीरो के निषेधादेश इसके प्रमाण हैं। मुनिश्री आरंभ से ही मौलिक वक्तृत्व के धनी थे। आपने बालविवाह, वृद्धविवाह, कन्याविक्रय, हिंसा, मांसाहार, मदिरापान, शिकार, अनैतिकता - जैसी कुप्रथाओं और दुर्व्यसनों पर तो प्रभावशाली प्रवचन दिये ही; अहिंसा, कर्त्तव्य-पालन, गृहस्थ-जीवन, दर्शन, संस्कृति इत्यादि पर भी गवेषणापूर्ण विवेचनाएँ प्रस्तुत की। आपके सार्वजनिक प्रवचन इतने धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी होते थे कि उनमें बिना किसी भेदभाव के हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी सम्मिलित होते थे। जैन साहित्य के साथ आपको कुरान शरीफ, बाइबल, गीता इत्यादि का भी गहन अध्ययन था अतः सभी विचारधाराओं के और सभी धर्मों के व्यक्ति आपके व्यक्तित्व और ज्ञान से प्रभावित होते थे। संक्षेप में, वे वाणी और आचरण के अभूतपूर्व संगम थे, कथनी-करनी के मूर्तिमन्त तीर्थ। । चौ. ज. श. अंक १०७ . For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-मेघ, जीवन-धरती ईश्वर मुनि जेठ-आषाढ के महीनों में भूमण्डल गर्मी से संतप्त रहता है। सब ओर गरमागरम हवाएँ झुलसती हैं। कृषक भीषण कष्ट सहकर, पसीने से तर-बतर अपने खेतों की सफाई करता है, मुस्कराता है और उल्लास से भरा रहता है। उसकी इस सहिष्णुता का एक ही मर्म है, आकाश में सजल-कजरारे मेघों का घिरने लगना । वह झूम उठता है, उसका मन-मयूर नाच उठता है, और सारा संताप अन्तहीन उल्लास-आह्लाद में बदल जाता है । मेघ सजल' होते हैं, धरती को सींचते हैं, उसे सर्वर-सरस बनाते हैं। बादल और धरती के रिश्ते कितने प्यारे हैं । पृथ्वी बारम्बार सूखती है, उसमें दरारें पड़ जाती हैं; और बादल हर बार पूरी उदारता से बरसते हैं, उसे हराभरा बनाते हैं, और उसे जोड़ देते हैं । यह रूपक मानव-जीवन पर भी लागू हो सकता है। जीवन धरती है, संत पुरुष सजल' मेघ हैं; हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, कपट, अब्रह्मचर्य, परिग्रह इसे सुखाते हैं, इसमें दरार डालते हैं; और संतों की वाणी का अमृत बरस कर इसे सरस, समन्वित और करुणार्द्र बनाती है। वह सारे भेद पाट देती है, और जीवन को नरक नहीं बनने देती। ___ ऐसे ही परम संत पुरुष हुए मुनिश्री चौथमलजी जिन्होंने बादल की भूमिका में बने रहकर अपनी वाणी से इस अभिशप्त धरती को सींचा, अभिषिक्त किया; पतितों, उपेक्षितों को उदारतापूर्वक गले लगाया, और एक नयी उमंग और नयी ज्योति से परिपूर्ण कर दिया। सच, वे वन्दनीय हैं, हम उनकी वन्दना करते हैं। प्रवचन-मौक्तिक 'असत्य के लिए अनन्त-अनन्त बार मरने पर भी कोई सुफल नहीं हुआ, अगर एक बार सत्य के लिए मरूँगा तो सदा के लिए अमर हो जाऊँगा। _ 'जिस आत्मा में मलिनता है उसे परमात्मा नहीं माना जा सकता। राग, द्वेष और मोह से प्रत्येक संसारी आत्मा युक्त है। इन दोषों से पिण्ड छुड़ाने के लिए रागी-द्वेषी देव की उपासना करने से कोई लाभ नहीं है। आत्मा का शाश्वत कल्याण तो वीतराग परमात्मा की आराधना से ही संभव है। 'जो रुपया-पैसा, सोना-चाँदी आदि अचेतन पदार्थों पर और पुत्र-कलत्र, मित्रशिष्य आदि सचेतन पदार्थों पर ममता न रखता हो, जो सबको अपना कुटुम्बी और किसी को भी अपना आत्मीय न समझे, वही गुरु हो सकता है। _ 'अज्ञान को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये। अज्ञान को हटाने के लिए ज्ञानीजनों की उपासना करनी चाहिये, ज्ञान के प्रति भक्ति का भाव होना चाहिये, ज्ञानवानों की संगति करनी चाहिये । __ -मुनि चौथमल १०८ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सत्यकथा जैसी करनी, वैसी भरनी - श्रीमती गिरिजा 'सुधा' माधू खटीक आज फिर बुरी तरह से ठर्रा पीकर पत्नी पर हाथ उठा बैठा था। गालियों का प्रवाह बदस्तूर जारी था। उस बेचारी ने आज सिर्फ यही कहा था पड़ौसिन से कि “इन अनबोले जीवों की हाय हमारा सूख-चैन छीनकर ही मानेगी। कितना कमाते हैं ये पर पाप की लछमी में बरकत कहाँ ? तभी घर-खेंच मोची के मोची हैं हम।" पाप की लक्ष्मी की बात सुनते ही माधू के तन-बदन में आग लग गयी । वह चीख उठा घरवाली की पीठ पर दो चार मुक्के जमाकर - . . . 'बड़ी पुण्यात्मा बनी फिरती है। अरे खटीकण बकरों का ब्योपार नहीं करेंगे तो क्या गाजर-मूली बेचकर दिन काटेंग हम अपने । खटीक वंश का नाम डबोऊंगा क्या मैं माधो खटीक !" . . और आग्नेय नेत्रों से उसे घूरता मूंछों पर बल देता पीड़ा से कराहती छोड़ वह बाहर चल दिया। पत्नी उसकी सात पीढ़ियों को कोसती रही। थोड़ी देर बाद वह वापिस आया और बोला – “मैं बकरों को बेचने ले जा रहा है। अभी तो बलि चढ़ाने वाले ऊपर-तरी पड़ रहे हैं । अच्छे दाम मिलने की उम्मीद है। दो तो बेच ही आता हूँ आज ।” __ आत्म व्यथा से कराहती पत्नी ने कुछ भी नहीं कहा और वह उसी क्षण बाहर हो गया। बकरों को बाड़े से लेकर वह आगरा के एक कस्बे की ओर चल दिया। चलते-चलते दोपहर हो गयी तो उसने बकरों को एक छायादार जगह में बैठा दिया और खुद भी सुस्ताने की गरज से एक पेड़ के पास जा टिका। उधर आगरा की और से जैन सन्त चौथमलजी महाराज अपनी मण्डली के साथ कदम बढ़ा रहे थे। उन्होंने उसे सोते और पास में बकरों को चरते देखा तो उनके मन में अनायास ही दया उमड़ आयी। उन्होंने मन-ही-मन उस कसाई को आज सही रास्ता बतलाने का निर्णय किया और आप भी वहीं वृक्षों की छाया में विश्राम करने लगे। जैसा कि स्वाभाविक था, कुछ ही देर बाद माधू नींद से जागा और बकरे लेकर चलने लगा। तभी करुणामति चौथमलजी महाराज ने उससे पूछा-"क्यों भैया, इन्हें कहीं बेचने ले जा रहे हो क्या ?" ___ "बेचूंगा नहीं तो खाऊँगा क्या ?" वह एक दम रुखाई से बोला और चलने की तैयारी करने लगा। महाराजश्री ने अपनी मधुर वाणी में उसको समझाते हुए कहा"भाई, तू यह पाप कर्म आखिर किसलिए करता है ? जीवन-निर्वाह के तो छोटेबड़े अनेक साधन मिल सकते हैं। तुझे यह कहावत पता नहीं है क्या-“जैसी करणी वैसी भरणी ?" अरे, इस तरह मूक पशुओं की हिंसा करेगा तो उनकी हाय आखिर किस पर पड़ेगी ? दुसरों को दुःख देकर संसार में आज तक कौन सुखी हुआ है ? चौ. ज. श. अक For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब तुम यह सब प.प भी कर रहे हो और सुखी भी नहीं हो; हो क्या? देखो न तो शरीर पर अच्छे कपड़े हैं, न बढ़िया खाना-पीना मयस्सर है। फिर ऐसी पाप की कमाई के पीछे पड़े रहने में क्या सार है भैया ? सिर्फ पेट भरने के लिए क्यों पाप की गठरी बाँध रहे हो; बोलो बांध रहे हो या नहीं ?" "महात्माजी! मैं आपके सामने जरा भी झूठ नहीं बोलूंगा! पर यह बात आपने सच ही कही है कि 'जैसी करनी, वैसी भरनी'। मैं सुखी जरा भी नहीं हूँ। आमदनी भी भरपूर है, वैसे, पर उसमें बरकत जरा नहीं है।" माधू ने अपनी बात झिझकते-झिझकते भी कह ही डाली। महाराजश्री ने तभी अपना उपदेश आगे बरकरार रखते हुए कहा-"भाई, अब तुम समझ गये हो कि सुखी नहीं हो, इस धन्धे की कमाई में बरकत भी नहीं है फिर इस धन्धे को छोड़ क्यों नहीं देते? तुम्हें ध्यान है क्या कि सवाई माधोपुर के खटीकों ने ऐसा जघन्य पाप करना छोड़ दिया है। वे अब दूसरे धन्धों में लगे हैं और ठाठ से अपनी रोटी कमा-खा रहे हैं, उनके घरों में आनन्द-ही-आनन्द है।' माधू खटीक को यह मालूम था, अतः वह बोला-"जी हाँ महात्माजी ! मुझे पता है कि वे दूसरे धन्धे में लग गये हैं। मैं भी इस धंधे से पिण्ड छुड़ाना चाहता हूँ पर ।" "पर ! क्या ?"-- उन्होंने पूछा। "बात यह है गुरु महाराज कि मैं कोई धनवान आदमी तो हूँ नहीं, गरीब हूँ, जैसे-तैसे पेट पाल रहा हूँ। मेरे पास बत्तीस बकरे हैं। यदि ये बिक जाएँ तो इनकी पूंजी से मैं कोई-न-कोई छोटा-बड़ा धन्धा शुरू कर दूंगा। आप मेरा यकीन कीजिये प्रभो! मैं कभी भी अपने प्रण से नहीं टलूंगा। पापी पेट भरने के लिए मैं किसी जीव को जरा भी नहीं मताऊँगा।" ___ महाराजश्री ने श्रावकों से कह कर उसके बकरों के दाम दिलवा दिये। माधू खटीक का जीवन उस दिन जो बदला तो उसकी सारी आस्थाएँ ही बदल गयीं। ज़िन्दगी की रौनक बदल गयी । वह महाराजश्री के चरणों में गिर कर अपने कुकृत्यों के लिए क्षमायाचना करता अश्रु-बिन्दुओं से उनके चरण कमल प्रक्षालित कर रहा था। हिंसा पर अहिंसा की इस विजय का सारे शिष्य एवं श्रावक-समुदाय पर बड़ा व्यापक प्रभाव हुआ। कोई गुनगुना उठा तभी-- संगः संता किं न मंगल मातनोति (सन्तों की संगति क्या-क्या मंगल नहीं करती ?) माधू घर आया तो उसका आचरण बदला हुआ था। उसने एक छोटी-सी दुकान लगाकर पाप की कमाई से छुटकारा पाकर घर में बरकत करने वाली खरे पसीने की कमाई लाने की राह तलाश ली थी। उस राह पर बढ़ गया वह। अब उसकी पत्नी उस पर नाराज नहीं रहती। बदलती आस्थाओं के साथ वह उसकी सच्ची जीवन-संगिनी बन गयी है; हर पल प्रतिक्षण हीर-पीर की भागीदार। . तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'क्या चौथमलजी महाराज पधारे हैं ?' उनके उपदेशों का प्रभाव था कि हज़ारों राजकर्मचारियों ने रिश्वत लेने का त्याग किया। हज़ारों ने दारू-मांस छोड़ा । व्यापारियों ने मिलावट न करने की और पूरा माप-तौल रखने की प्रतिज्ञाएँ लीं। वेश्याओं ने अपने घृणित धन्धे छोड़े। कठोर-से-कठोर दिलवाले लोग भी उनके जादू-भरे वचनों से मोम की तरह पिघल जाते थे। - रिखबराज कर्णावट मेरे गाँव भोपालगढ़ की बात है। लगभग पचास वर्ष पहले जब मैं बच्चा था प्रसिद्ध वक्ता चौथमलजी महाराज पधारे । मुझे याद है सारा-का-सारा गाँव महाराजश्री के प्रवचन सुनने उमड़ पड़ता था। एक छोटे से गाँव में हजारों स्त्री-पुरुषों का अपना कामधन्धा छोड़कर एक जैन मुनि का प्रवचन सुनने आ जाना एक असाधारण घटना थी। सैकड़ों अजैन भाई-बहिन अपने को जैन व महाराज के शिष्य कहलाने में गौरव अनुभव करने लगे थे। महाराजश्री की प्रवचन-सभा में गाँव के जागीरदार से लेकर गाँव के हरिजन बन्धु तक उपस्थित रहते थे। कुरान की आयतें सुनकर मुसलमान भाई धर्म का मर्म समझने में प्रसन्नता अनुभव करते थे। समस्त ग्रामवासियों का इस तरह का भावात्मक एकीकरण हो जाने का कारण महाराजश्री के प्रति सबकी समान श्रद्धा थी। अनेक वर्षों तक उनका प्रभाव बना रहा। जब कभी ग्रामवासी जैन लोगों को मुनियों के स्वागतार्थ जाते हुए भारी संख्या में देखते तो बड़ी श्रद्धा-भावना से पूछते, “कांई चौथमलजी बापजी पधारिया ?" (क्या चौथमलजी महाराज पधारे हैं ? )। इस प्रकार का अमिट प्रभाव प्रसिद्ध वक्ताजी ने अपने प्रवचनों से सर्वत्र पैदा किया था। जोधपुर में महाराजश्री के दो चातुर्मास हुए। दूसरे चातुर्मास में मैं जोधपुर रहने लगा था। महाराजश्री के परिचय में भी आया। मुझ-जैसे साधारण व्यक्ति को भी महाराजश्री ने, जो स्नेह प्रदान किया वह मेरे लिए अविस्मरणीय है। जोधपुर शहर में भी ऐसा वातावरण था जैसे सारा शहर महाराजश्री का भक्त बन गया हो। विशाल व्याख्यान-स्थल पर भी लोगों को बैठने की जगह मुश्किल से मिल पाती। हज़ारों नरनारी, जिसमें सभी जातियों और सभी वर्गों के लोग होते थे, महाराजश्री का उपदेश सुनने बिला नागा आते थे। किसान, मजदूर और हरिजन भी इतना ही रस लेते थे जितना बुद्धिजीवी, सरकारी अहलकार एवं व्यापारी । महाराजश्री की प्रवचन-शैली इतनी आकर्षक एवं जनप्रिय थी कि उनके उपदेश का एक-एक शब्द बड़ी तन्मयता से चौ. ज. श. अंक १११ For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 लोग सुनते थे । उनके उपदेश का प्रभाव था कि हज़ारों राजकर्मचारियों ने रिश्वत लेने का त्याग किया । हज़ारों ने दारू-मांस छोड़ा । व्यापारियों ने मिलावट न करने की व पूरा माप-तौल रखने की प्रतिज्ञाएँ लीं । वेश्याओं ने अपने घृणित धन्धे छोड़े । कठोरसे-कठोर दिलवाले लोग भी उनके जादूभरे वचनों से मोम की तरह पिघल जाते थे । समाज-उत्थान के बड़े-बड़े काम भी उनके उपदेशों से हुए । अनेक विद्यालयों की स्थापना हुई । वात्सल्य - फण्ड स्थापित हुए । अनेक अगते कायम हुए। जोधपुर में सं. १९८४ से पर्युषण के दिनों में नौ दिनों तक सारे व्यापारियों ने अपना काम-काज बन्द रखकर धर्म-ध्यान के लिए मुक्त समय रखने का निर्णय लिया गया । यह निर्णय आज तक भी कायम है। सभी सम्प्रदायों के लोग इस निर्णय का पालन करते हैं । प्रसिद्ध वक्ता चौथमलजी महाराज के उपकारों की गणना करना कठिन है । मारवाड़, मेवाड़, मालवा में किये गये उनके उपकारों के उल्लेख से कई ग्रन्थ भरे पड़े हैं । मैंने तो अपने गाँव भोपालगढ़ तथा अब निवास स्थान जोधपुर के स्वल्प संस्मरणों का उल्लेख किया है । स्वाध्यायी के नाते उनके साहित्य को भी पढ़ा है । व्याख्यानों में सुनायी जानेवाली 'चौपियों' में उनके द्वारा रचित 'चौपियें' अक्सर सुनायी जाती है । उनके द्वारा रचित भजन, समाज-सुधार के गायन भी सबसे अधिक हैं। किसी भी क्षेत्र को उन्होंने अछूता नहीं छोड़ा । गहन आध्यात्मिक विषयों पर अपनी लेखनी चलायी तो ऐतिहासिक तथ्यों से ओतप्रोत कथानक गद्य-पद्य भी लिखे । वास्तव में जैन दिवाकरजी एक युग पुरुष थे । उन्होंने जाति-पांति के बन्धनों को गोड़ा, अस्पृश्यता का निवारण किया, व्यसन एवं बुराई में पड़े लोगों को निर्व्यसनी बनाया । शुद्ध समाज के निर्माण में उनका अद्भुत योगदान रहा । उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व कभी भुलाया नहीं जा सकता । ( एक संपूर्ण संत पुरुष : पृष्ठ १०५ का शेष ) कथनी और करनी का ऐसा विलक्षण समायोजन अन्यत्र दुर्लभ है । उनकी वाणी में एक विशिष्ट मन्त्रमुग्धता थी । कैसा भी हताश - निराश व्यक्ति उनके निकट पहुँचता, प्रसन्न चित्त लौटता । 'दया पालो' सुनते ही कैसा भी उदास हृदय खिल उठता । उसे लगता जैसे कोई सूरज उग रहा है और उसका हृदय कमल खिल उठा है, सारी अँधियारी मिट रही है, और उजयाली उसका द्वार खटखटा रही है । कई बार मैं यह सोचता कि फलाँ आदमी आया, गुरुदेव से कोई बात न की, न पूछी और कितना प्रसन्न है ! ! ! जैसे उसकी प्रसन्नता के सारे बन्द द्वार अचानक ही खुल गये हैं । ऐसी विलक्षण शक्ति और व्यक्तित्व के धनी थे जैन दिवाकर महाराज । उस त्यागमूर्ति को मेरे शत-शत, सहस्रसहस्र प्रणाम ! ११२ For Personal & Private Use Only तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन और मरण एकाकार 'विवेकशील मनुष्य का सबसे पहला कर्त्तव्य यही है कि वह अपने जीवन को ऐसी ऊंची भूमिका पर पहुँचाये कि जहाँ जीवन और मरण एकाकार हो जाएँ । मृत्यु के पश्चात् उज्ज्वल भविष्य की कल्पना उसे निश्चिन्तता प्रदान कर सके। -मुनि चौथमल For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-रहस्यों की खोज "अध्यात्म का एक बहुत बड़ा रहस्य जो अध्यात्म के सूत्रों से उजागर हुआ है, वह है--राग का क्षण, द्वेष का क्षण हिंसा है; और अ-राग का क्षण, अ-द्वेष का क्षण अहिंसा है। ___ "अध्यात्म का एक महत्त्वपूर्ण रहस्य यह भी है कि किसी के लिए कोई जिम्मेवार नहीं है। सारी घटनाओं के लिए जो अंतिम उत्तरदायी है, वह अपनी आत्मा है, अपना अध्यवसाय है। - मुनि नथमल हम किसी व्यक्ति के साथ बीस वर्ष जी लेते हैं, पर उसे पहचान नहीं पाते। दूर के व्यक्ति को पहचानना कुछ आसान होता है, किन्तु जिस व्यक्ति के पास रहते हैं, उस व्यक्ति का पता लगाना, उसे जान पाना बहुत कठिन होता है। अध्यात्म का विषय इतना निकट, इतना अभिन्न है, इसीलिए यह रहस्य बना हुआ है; किन्तु इस रहस्य का उद्घाटन किये बिना हमारी कोई गति भी नही है। आज तक दुनिया में जितना विकास हुआ है वह रहस्यों के उद्घाटन के द्वारा ही हुआ है। भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भौतिक वैज्ञानिकों ने रहस्यों का उद्घाटन किया और आज वे अणु-विस्फोट की भूमिका तक पहुँच गये। मानसिक जगत् में मनोवैज्ञानिकों ने बहुत सारे रहस्यों का उद्घाटन किया और वे अवचेतन मन की भूमिका तक पहुँच गये। अन्य किसी भी क्षेत्र में जब रहस्यों का उद्घाटन हुआ तब शक्ति का स्रोत उनके हाथों में आ गया। रहस्यों का उद्घाटन किये बिना शक्ति का स्रोत उपलब्ध नहीं होता; और शक्ति का स्रोत उपलब्ध हए बिना संसार का विकास हो नहीं सकता। आज का सारा विकास, भौतिक जगत् का सारा विकास बिजली और ईंधनों पर निर्भर है। पेट्रोल की एक समस्या उत्पन्न होती है और सारे राष्ट्र डगमगा जाते हैं, 'चिन्तामग्न हो जाते हैं। उनके सारे शक्ति-स्रोत सूखने लग जाते हैं। आप कल्पना करें कि यदि आज विश्व में पेट्रोल न हो, बिजली न हो, आण्विक इंधन न हो तो क्या यह विकास टिक सकता है ? कभी नहीं। यह सब कुछ बिजली के आधार पर चल रहा है। हम इस बात को न भूलें कि हमारी शक्ति के विकास का एक स्रोत बिजली है। जैसे वर्तमान का सारा विकास बिजली पर निर्भर है, वैसे ही अध्यात्म-शक्ति का विकास भी बिजली पर निर्भर है। यह अध्यात्म का रहस्य है। चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारा शरीर विद्युत् का शरीर है। मुझे इसकी बहुत चर्चा करने की जरूरत नहीं होगी। जैन दर्शन को जानने वाला भलीभाँति जानता है कि हमारी सारी अभिव्यक्तियाँ तैजस शरीर के माध्यम से होती हैं। यदि तैजस शरीर न हो तो शरीर का संचालन नहीं हो सकता। कोई बोल नहीं सकता, कोई अंगुली भी नहीं हिला सकता, कोई श्वास नहीं ले सकता, कोई खा नहीं सकता, कोई खाने को पचा नहीं सकता। हमारी सारी ऊर्जा, सारी शक्ति जो प्रगट होती है, वह तैजस शरीर के द्वारा ही होती है। यह सारा विद्युत्-मण्डल, यह विद्युत् का शरीर, यह तैजस शरीर -- यह एक द्वार बनता है शक्ति के अवतरण का और अध्यात्म के निकट तक पहुँचने का। तैजस शरीर के द्वारा हम ऐसी शक्तियाँ उपलब्ध करते हैं जो वर्तमान विश्व के लिए भी आश्चर्यकारक हो सकती हैं। इन्हीं शक्तियों को प्राचीन साहित्य में 'लब्धि' कहा गया है। इन्हें 'योगजविभूति' भी कहा गया है। ये लब्धियाँ, ऋद्धियाँ, योगज विभूतियाँ तैजस शरीर के माध्यम से प्राप्त होती हैं। __ जैन आगम प्रज्ञापना में दो प्रकार के मनुष्यों का वर्णन प्राप्त है - ऋद्धि-प्राप्त मनुष्य और अऋद्धि-प्राप्त मनुष्य । जिस मनुष्य को ऋद्धियाँ प्राप्त हैं, विशेष शक्तियाँ उपलब्ध हैं वह ऋद्धि-प्राप्त मनुष्य है। उसकी शक्तियाँ सचमुच विस्मयकारी होती हैं। ____ अध्यात्म की चर्चा करते समय मुझे एक भेद-रेखा भी खींचनी होगी कि हम किसे बाह्य मानें और किसे अध्यात्म। प्राचीन आचार्यों ने एक भेद-रेखा खींची है। भगवान् महावीर ने कहा - 'अध्यात्म को जानने वाला बाह्य को जानता है और बाह्य को जानने वाला अध्यात्म को जानता है । इसका तात्पर्य है कि हमारे सामने दो स्थितियाँ स्पष्ट हैं - एक है बाह्य जगत् की और एक है अध्यात्म जगत् की। एक है हमारे बाहर का संसार और एक है हमारे भीतर का संसार। बाहर के संसार का नाम है - समाज और भीतर के संसार का नाम है -- व्यक्ति । व्यक्ति और समाज -- ये दो हमारे जीवन के पहलू हैं। हम जब-जब बाह्य जगत् से जुड़ते हैं, इसका तात्पर्य है कि हम दूसरे से जुड़ते हैं। जहाँ दूसरे के साथ हमारा सम्बन्ध स्थापित होता है, वहाँ समाज बनता है। व्यक्ति समाज बन जाता है। जहाँ हम अकेले रहे, किसी के साथ हम जुड़े नहीं, अकेलापन हमारा सुरक्षित रहा, वहाँ हम व्यक्ति ही रहे; समाज नहीं बने। हम समाज का जीवन भी जीते हैं और व्यक्ति का जीवन भी । व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली घटनाएँ भिन्न प्रकार की होती हैं। हम दोनों प्रकार का जीवन जीते हैं -- वैयक्तिक और सामाजिक । हमारा जीवन दोनों आयामों वाला जीवन है। हमारा वैयक्तिक जीवन आध्यात्मिक जीवन है, आन्तरिक जीवन है और सामाजिक जीवन बाहरी जीवन है। यह बाह्य दुनिया में होने वाला जीवन है। हम दोनों प्रकार के जीवन जीते हैं और दोनों के रहस्यों की खोज करते हैं। हम बाह्य जगत् (सामाजिक जीवन) की जो घटनाएँ हैं उनकी तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या करते हैं और आन्तरिक जगत् (व्यक्तिगत जीवन) की जो घटनाएँ हैं उनकी भी व्याख्या करते हैं। अन्तर्जगत् चेतना का जगत् है, केवल चेतना का जगत् है । यहाँ केवल चेतना होती है और कुछ नहीं होता। इसे हम आनन्द कहें, शक्ति कहें, ज्ञान कहें, कुछ भी कहें यहाँ केवल चेतना है। उस चेतना में जो कुछ है वह आनन्द भी है, शक्ति भी है, ज्ञान भी है। यह सारी चेतना है और कुछ नहीं है। बाहर का जगत् नाना प्रकार का जगत् है। यहाँ अनेक द्रव्य हैं, पदार्थ हैं, अणु-परमाणु का संघटन है। भीतर केवल चेतना है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। एक है चेतना का जगत् और एक है पदार्थ का जगत् । जब हम चेतना के जगत् की ओर बढ़ते हैं, वहाँ जो भी निर्णय प्राप्त करते हैं, जहाँ पहुँचते हैं, वह है हमारा अध्यात्म । चेतना से हटकर, दूसरों के साथ जुड़कर, हम जो कुछ करते हैं वह है हमारा भौतिक जगत्, वस्तु-जगत् । रहस्य की खोज के लिए हमें कुछ गहराई में उतरना पड़ता है। कई बार ऐसा होता है कि निमित्त बनता है और रहस्य का उद्घाटन हो जाता है। कई बार ऐसा होता है कि निमित्त नहीं बनता, अनायास ही अतल गहराई में डुबकी लगाने का मौका मिलता है और रहस्य का उद्घाटन हो जाता है। आपने रहस्य का उद्घाटन का सिद्धान्त जाना है और अनेक घटनाएँ भी सुनी हैं। एक व्यक्ति पहाड़ के पास बैठा था। झरना बह रहा था। एक हिरनी आयी। उसने लम्बे समय तक अपनी एक टांग को पानी में डुबोये रखा। दूसरे दिन भी आयी। तीसरे और चौथे दिन भी आयी। चार दिन तक वह लंगड़ाते-लंगड़ाते आयी और पाँचवें दिन वह ठीक ढंग से चलने लगी। उस व्यक्ति ने सोचा - यह रोज क्यों आती रही ? उसने पता लगाया। हिरनी के पैर को देखा। उसका पैर ज़ख्मी था। हड्डी टूट-सी गयी थी। दो-चार दिन के पानी के उपचार से वह पैर ठीक हो गया। व्यक्ति ने उस उपचार को पकड़ा। प्राकृतिक चिकित्सा का प्रारंभ हो गया। जल के उपचार, मिट्टी के उपचार का प्रारंभ हो गया। ___ एक व्यक्ति बैठा था। उसने देखा बच्चा रो रहा है। उसका श्वास फूल रहा है। श्वास गहरा आ रहा है, पेट फल रहा है, और सिकुड़ रहा है। वह ला-ला-ला की अव्यक्त ध्वनि भी कर रहा है। व्यक्ति ने ध्यान दिया। सोचा, इस ध्वनि के साथ कुछ हो रहा है। उसने प्रयोग किया। ध्वनि-चिकित्सा का विकास हो गया। व्यक्ति ने ध्वनि-चिकित्सा का विकास किया शब्दों के उच्चारण के द्वारा। इस पद्धति से बीमारियों को मिटाना जाना। चौ. ज. श. अंक ११७ For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक आदमी के सिर में भयंकर दर्द रहता था। वह वैद्यों के पास गया। डाक्टरों के पास गया। काफी चिकित्सा करायी; पर सब व्यर्थ । वह जीवन से घबरा गया। उसका जीना दूभर हो गया। एक बार किसी व्यक्ति के साथ उसकी लड़ाई हुई। प्रतिपक्षी ने गुस्से में आकर तीर फेंका। जैसे ही वह तीर पैर में चुभा, सिर का दर्द तत्काल मिट गया। वह आश्चर्य में पड़ गया। उसने सोचा -- इतने उपचार भी मेरे सिर-दर्द को नहीं मिटा पाये और आज एक तीर लगते ही वह मिट गया, मानो कि वह कभी हुआ ही न हो। वह रहस्य को समझ नहीं सका। वह वैद्यों के पास गया। अपनी रामकहानी सुनायी। सभी अचंभे में पड़े रहे। वैसा ही प्रयोग प्रारंभ किया। दूसरे आदमी के सिर में दर्द आया उसे तीर चुभोया और वह ठीक हो गया। तीसरे, चौथे, पाँचवें व्यक्ति पर भी प्रयोग किया और सिर दर्द ग़ायब हो गया। यह तथ्य स्थापित हो गया कि सिर में दर्द होने पर पैर के अमुक स्थान में तीर चुभाने से दर्द मिट जाता है। ‘एक्यूपंक्चर' की चिकित्सा पद्धति की यही कहानी है। हमारा शरीर विद्युत् का शरीर है। इसमें बिजली की प्रधानता है। हम माने, न मानें, यह बहुत ही स्पष्ट है कि बिजली के असन्तुलन के कारण हमारे शरीर में अनेक बीमारियाँ हो जाती हैं। तैजस शरीर के अस्त-व्यस्त होने पर शरीर में विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। यदि हम तैजस शरीर की समुचित व्यवस्था कर लें, बिजली का उचित संतुलन स्थापित कर लें और समीकरण कर लें तो अनेक चीजों को हम स्वयं समाप्त कर सकते हैं । अनेक स्थितियाँ स्वयं समाहित हो सकती हैं। यह सारी चर्चा मैं इसलिए कर रहा हूँ कि रहस्यों की खोज किये बिना, रहस्यों का उद्घाटन किये बिना, दुनिया में विकास नहीं हो सकता और शक्तियाँ उपलब्ध नहीं हो सकतीं। प्राचीन आचार्यों ने अनेक रहस्य खोजे। आज हम उन सिद्धान्तों को तो समझते हैं, पर वे रहस्य याद नहीं रह पाये। उनकी विस्मृति हो गयी। विस्मृति के कारण उन रहस्यों की हम ठीक से व्याख्या भी नहीं कर सकते और उन सबका प्रयोग भी नहीं कर सकते। इस प्रसंग में मैं एक घटना की चर्चा करूँगा। अभी-अभी मैंने एक बात पढ़ी थी कि उत्तर की ओर सिर कर नहीं सोना चाहिये; अर्थात् दक्षिण की ओर पैर कर नहीं सोना चाहिये। यह बात हमारे यहाँ प्रचलित भी है। कुछ इसे अन्धविश्वास भी मानते हैं। वे कहते हैं सोते समय पैर चाहे दक्षिण में हों, उत्तर में हों, पश्चिम में हों, पूर्व में हों, क्या फर्क पड़ता है ? कहीं तो सिर करना ही होगा। कहीं तो पैर करने ही होंगे ! किन्तु आज प्रत्येक चीज की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है। विज्ञान रहस्यों के उद्घाटन के पीछे इस तरह पड़ा हुआ है कि आज कोई भी व्यक्ति किसी चीज को अन्धविश्वास कहता है तो वह उसका दुःसाहस है। पुराने जमाने में कह सकता था, आज नहीं कह सकता। अभी-अभी इसकी वैज्ञानिक ११८ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या पढ़ी तो आश्चर्य हुआ। हमारे शरीर में दो प्रकार के विद्युत् हैं - एक है पॉजिटिव्ह और एक है निगेटिव्ह । एक है धन विद्युत् और एक है ऋण विद्युत् । शरीर का ऊपर का जो भाग है-- आँख, कान, नाक, सिर, मुंह -- इन सब में धन विद्युत् है। नीचे का जो भाग है - पैर, जाँघ आदि इन सबमें ऋण विद्युत् है। व्यक्ति ब्रह्मण्ड से, जगत् से भिन्न नहीं होता। जब इससे सम्बन्ध जुड़ता है तब व्यक्ति समाज बन जाता है। हम ऐसे जगत् में जीते हैं जहाँ वातावरण का प्रभाव होता है, परिस्थिति का प्रभाव होता है। हम इन सबसे प्रभावित होते हैं। विश्व में दो ध्रुव माने जाते हैं। एक है उत्तरी ध्रुव और दूसरा है दक्षिण ध्रुव । जो उत्तरी ध्रुव है उसमें बिजली का अटूट भण्डार है। वहाँ इतनी बिजली है जहाँ जाने पर ऐसा लगता है कि मानो सैकड़ों सूर्य उग आये हों। बहुत चकाचौंध है। पता ही नहीं लगता कि कहीं अंधकार है। दक्षिणी ध्रुव में भी इतनी ही विद्युत् है। उत्तरी ध्रुव में धन विद्युत् है और दक्षिणी ध्रुव में ऋण विद्युत् । जब आदमी उत्तर की ओर सिर करके सोता है तब उसके पैर दक्षिण की ओर होते हैं। दक्षिण से जो विद्युत का प्रवाह आता है वह ऋणात्मक होता है और मनुष्य के पैर की विद्युत् भी ऋणात्मक होती है। जहाँ दो ऋणात्मक विद्युत् परस्पर मिलती हैं, वहाँ प्रतिरोध होता है, टक्कर होती है। इसी प्रकार जब धन विद्युत् से धन विद्युत् मिलती है तब प्रतिरोध होता है। तब वे एक-दूसरे को सहारा नहीं देतीं, किन्तु एकदूसरे को हटाने का प्रयास करती हैं; इसलिए जो व्यक्ति दक्षिण की ओर पैर करके सोता है, उसकी ऋण विद्युत् दक्षिणी ध्रुव से आने वाली ऋण विद्युत् से टकराती है। उस स्थिति में व्यक्ति के मन में चिन्ता उत्पन्न होती है, बुरे-बुरे स्वप्न आते हैं और शरीर में बीमारियाँ तथा विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। इसीलिए वैज्ञानिकों ने यह प्रतिपादन किया कि दक्षिण की ओर पैर कर नहीं सोना चाहिये। इससे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की बीमारियाँ होती हैं। हम इस बात को न भूलें कि रहस्यों का उद्घाटन करने पर जो बात हमारी समझ में सही दृष्टि से आती है और जिस पर हमारा सही विश्वास होता है; वह केवल मान्यता मात्र से नहीं होता। अब मैं अध्यात्म के रहस्यों की भी चर्चा थोड़ी करना चाहता हूँ। धर्म का मूल सूत्र है - पाप मत करो; पाप से बचो। पर कैसे बचा जा सकता है, यह प्रश्न है। कितना चंचल है मन ! कितना चंचल है शरीर! कितनी चंचल है वाणी ! इनसे कुछ-न-कुछ हो ही जाता है। हम पापों से कैसे बचें? क्या उपाय है उनसे बचने का ? अध्यात्म के रहस्य का उद्घाटन किये बिना यह समझ में नहीं आ सकता। यह प्रश्न समाहित नहीं हो सकता। वह यह मान ही नहीं सकता कि पापों से आदमी बच सकता है और उस दुनिया में रहकर आदमी पापों से बच सकता है, जहाँ पाप करने के लिए हजारों उत्तेजनाएँ निरन्तर प्राप्त होती रहती हैं। ऐसी स्थिति में पापों से कैसे बचा जा सकता है ? चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर ने इसका उपाय बताते हुए कहा - 'एक कछुआ है । जब कोई कठिन स्थिति पैदा होती है, पक्षी उसे नोचने आते हैं, सियार आदि उसे खाने आते हैं, जब कोई असुरक्षा उत्पन्न हो जाती है, भय उत्पन्न होता है, तब तत्काल वह अपनी खोल में चला जाता है । प्रकृति ने उसे ऐसी खोल भी दी है जो उसके लिए ढाल का काम करती है । प्राचीनकाल में जब तलवारों और भालों से युद्ध होता था तब योद्धा अपने हाथों में ढाल रखते थे । वह भी कछुए की खोल से ही बनती थी। कछुआ अपनी खोल के भीतर जाने के बाद सब प्रकार से सुरक्षित बन जाता था। क्या हमारे पास भी ऐसी कोई ढाल है जिसमें पहुँचकर हम पापों से बच सकें? हमारे मन में वासना उभरती है । हमारे ऊपर वासना का आक्रमण होता है, क्रोध का आक्रमण होता है, आवेश का आक्रमण होता है । क्या कोई उपाय है इन आक्रमणों से बचने का ? हाँ, है । भगवान् ने कहा 'जैसे कछुआ बाहरी आक्रमण से बचने के लिए अपनी ढाल में चला जाता है, वैसे ही तुम अध्यात्म में चले जाओ । बच जाओगे सभी आक्रमणों से । अध्यात्म में चले जाओ, चेतना के पास चले जाओ, भीतर चले जाओ, अन्दर प्रवेश कर लो, सुरक्षित हो जाओगे | जब तक मन बाहर भटकता है, तब तक वासनाएँ उभरती हैं, आवेश उभरते हैं। और जो स्थितियाँ चिन्ता, भय और दु:ख उत्पन्न करने वाली हैं वे सारी की सारी उभरती हैं, उभर सकती हैं । तुम भीतर चले जाओ, चेतना के जगत् में चले जाओ, चेतना का नैकट्य प्राप्त कर लो, सुरक्षित हो जाओगे, पूर्ण सुरक्षित । कोई खतरा नहीं, कोई भय नहीं । यह एक ज्वलन्त शक्ति है । इसका अनुभव किया जा सकता है । एक बात वह होती है जो माननी पड़ती है और एक बात वह होती है जो माननी नहीं पड़ती; किन्तु जिसकी अनुभूति की जा सकती है । अध्यात्म की बात मानने की बात नहीं है । यह अनुभूति में लाने की बात है। यदि आप चाहें तो आज भी ऐसी स्थिति का निर्माण कर सकते हैं और आज रात को सोने से पहलेपहले उसका अनुभव कर सकते हैं। जैसे ही मन में कोई विचार आया, विकल्प आया, बुरा चिन्तन उभरा, आप तत्काल अपने भीतर चले जाएँ, मन को भीतर ले जाएँ। ऐसा लगेगा कि आप दूसरी दुनिया में पहुँच गये हैं और सारे विचार, सारे विकल्प और सारे चिन्तन बाहर रह गये हैं। अब इनका आक्रमण आप पर नहीं हो सकता । यही है प्रेक्षा ध्यान । इसका अर्थ है अपने आपको देखने लग जाना । जिस क्षण में आप अपने आपको देखने लग जाते हैं, चेतना के क्षेत्र में चले जाते हैं, फिर आप आक्रमण से मुक्त हो जाते हैं। किसी का आक्रमण हो नहीं सकता । अध्यात्म के द्वारा हम इनसे बच सकते हैं । हम उसी अध्यात्म की चर्चा कर रहे हैं, जो अध्यात्म हमें इन सारे बाहरी आक्रमणों से बचा सकता है और इन सारे प्रभावों से अप्रभावित रख सकता है । आज हम उस अध्यात्म से थोड़ा दूर तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ १२० ――― For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भटक गये हैं। आज बताने वाले नहीं रहे। अध्यात्म के रहस्य भी आज अज्ञात बन गये हैं। इसका कारण क्या बना ? एक आदमी चलता है। पैर से दबकर जीव मर जाता है। हम कहते हैंहिंसा हो गयी। उसने जीव को मार डाला, हिंसा हो गयी। यह हमारा निर्णय हुआ। यह व्यवहार का निर्णय है, बाहरी दुनिया का निर्णय है। भगवान् महावीर ने या किसी मनस्वी आचार्य ने यह तो नहीं माना। उन्होंने तो यही कहा—'बंध होता है-अध्यवसाय से। एक होता है अध्यवसाय और एक होती है घटना। दोनों दो बातें हैं। अध्यवसाय अन्तर्जगत् का निर्णय है; और घटना बाह्य जगत् में घटित होती है। आचार्य भिक्षु ने यह कहा था कि मारने वाला हिंसक होता है। जो मारता है अर्थात् जिसका मारने का अध्यवसाय है वह हिंसक है। जीव जीता है या मरता है, इससे कोई सम्बन्ध नहीं है। जीता है तो कोई दया नहीं होती और मरता है तो कोई हिंसा नहीं होती। जीव मरता है या नहीं मरता, यह गौण बात है, दूसरी बात है। मारने का जो संकल्प है, अध्यवसाय है, परिणाम हैयह मुख्य बात है। हिंसा है मारने का अध्यवसाय, न कि किसी का मर जाना। अध्यात्म के जगत् में पहुँचकर जब हम रहस्यों को देखते हैं तब हमारी सारी साधनापद्धति बदल जाती है। फिर हम घटना को मुख्य मानकर व्यवहार नहीं चलाते; किन्तु अन्तर को मुख्य मानकर व्यवहार चलाते हैं। एक है सामाजिक जीवन । सामाजिक जीवन के निर्णय व्यवहार के आधार पर होते हैं और व्यवहार के आधार पर ही व्यक्ति जीवन चलाता है। एक है व्यक्ति का जीवन । इसमें निर्णय का सारा आधार होता है आन्तरिक जीवन; इसीलिए यह कहा गया कि दिन हो या रात, कोई देख रहा हो या न देख रहा हो कोई फर्क नहीं पड़ता। जिस स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता वह आन्तरिक स्थिति होती है। अन्तर आता है व्यवहार के जगत् में। व्यवहार को मानकर चलने वाला, आचरण करने से पहले यह देखेगा कि प्रकाश है या अन्धकार, कोई देख रहा है या नहीं देख रहा है। इस आधार पर उसका आचरण होगा, अगला कदम उठेगा। __स्वप्न क्यों आता है ? हम नींद में स्वप्न क्यों देखते हैं ? मानसशास्त्रियों की व्याख्या है कि हमारे मन की जो दमित वासनाएँ होती हैं, उनको प्रगट होने का जब मौका नहीं मिलता तब वे स्वप्न में प्रगट होती हैं, और इसीलिए हमें स्वप्न आते हैं। किसी सीमा तक यह सचाई है। कभी-कभी ऐसा होता है कि सोते समय जो बात मन में रह जाती है, सपने में वही दृश्य हमें दिखायी देता है। यह बहुत बड़ी सचाई है अध्यात्म की। क्रोध आता है। वहाँ तक पहुँच कर आप स्थिति को समाप्त करें। उसे दबायें नहीं उस पर नियन्त्रण न करें। व्यवहार की बात तो ठीक है। मैं आपको व्यवहार से सर्वथा मुक्त होने की बात नहीं कहता। हमारी चौ. ज. श. अंक १२१ For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियन्त्रण की शक्ति है, हमारा विवेक है। हम बाह्य जगत् में जीते हैं, इसलिए व्यवहार को भी मानकर चलते हैं। कुछ नियन्त्रण भी होता है, दमन भी होता है, दबाव भी होता है; किन्तु अध्यात्म की चर्चा करते समय यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि यह मात्र व्यवहार की बात है, यह कोई अध्यात्म की बात नहीं। अध्यात्म की बात तो यह है कि हम मूल तक पहुँच जाएँ। सारी समस्याओं का मूल है -- राग और द्वेष । प्रचलित भाषा में कहा जा सकता है -- हिंसा। चाहे परिग्रह का प्रश्न है, चाहे अब्रह्मचर्य का प्रश्न है, चाहे चोरी का प्रश्न है, चाहे झूठ बोलने का प्रश्न है - इन सबको हमारे आचार्यों ने हिंसा माना है। इसे उलटकर देखें तो अहिंसा से भिन्न कोई महाव्रत नहीं है। दो शब्दों में सब कुछ आ गया -- हिंसा और अहिंसा। अहिंसा क्या है ? राग आदि को उत्पन्न न करना अहिंसा है। आप अहिंसा की बात को, अहिंसा की घटना को हिंसा के साथ मत देखिये। घटना को मिटाने का प्रयत्न भी मत कीजिये। उस क्षण को देखें जिस क्षण में राग उत्पन्न हो रहा है। जिस क्षण में राग उत्पन्न हो रहा है वही क्षण वास्तव में जागृत रहने का क्षण है। प्रेक्षा-ध्यान का सूत्र है-- अप्रमाद। प्रेक्षा-ध्यान का सूत्र है -- जागरूकता । किसके प्रति जागरूकता? अतीत के प्रति जागरूक रहने की ज़रूरत नहीं है। भविष्य के प्रति भी जागरूक रहने की ज़रूरत नहीं है। जागरूक रहें वर्तमान क्षण के प्रति और वर्तमान क्षण के प्रति जागरूक रहने का तात्पर्य यह है कि कोई बीज होगा वह बोया जाएगा वर्तमान के क्षण में। बाद में तो फल लगता है, बाद में तो परिणाम आता है, बाद में एक वृक्ष बनता है। आप वृक्ष को नहीं उखाड़ सकते। आप फल को नहीं रोक सकते। आप केवल यहीं देखें कि बीज बोया जा रहा है या नहीं बोया जा रहा है। हमें जागरूक रहना है वर्तमान के उस क्षण के प्रति जिस क्षण में बीज की बुवाई होती है। यह राग का क्षण, यह द्वेष का क्षण; यह राग का बीज, यह द्वेष का बीज जब बोया जाता है उस क्षण के प्रति यदि हम जागरूक नहीं होते हैं तो परिणामों के प्रति जागरूक होने का कोई अर्थ नहीं होता। अध्यात्म का एक बहुत बड़ा रहस्य जो अध्यात्म के सूत्रों से प्रतिपादित हुआ है, वह है -- राग का क्षण, द्वेष का क्षण हिंसा है। और अ-राग का क्षण, अ-द्वेष का क्षण अहिंसा है। बहुत विचित्र घटनाएँ घटित होती हैं। मन में कोई भी विकल्प उठा, एक विचार आया और हमने उसकी उपेक्षा कर दी। इसका परिणाम यह हुआ कि वह बीज बो दिया गया और वह बीज जब बड़ा होगा तो निश्चित ही अपना परिणाम लायेगा। हम दुनिया की घटनाओं को देखें। पचास-साठ वर्ष तक जिस व्यक्ति का जीवन यशस्वी रहा, जिस व्यक्ति का पूर्वार्द्ध पूर्ण तेजस्वी और उदितोदित रहा, वही व्यक्ति अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में पतित हो गया, नष्ट हो गया, हमें आश्चर्य १२२ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है कि यह कैसे हुआ ? जो व्यक्ति पचास-साठ वर्ष तक यशस्वी और तेजस्वी जीवन जी लेता है वह आगे के वर्षों में पतन की ओर कैसे जा सकता है ? हम सामान्यतः इसकी व्याख्या नहीं कर सकते; किन्तु ऐसी घटनाओं के पीछे भी कुछ कारण अवश्य होते हैं। यदि हम सूक्ष्मता से ध्यान दें, गहराई से सोचें तो यह तथ्य स्पष्ट होगा कि जो बीज बोया गया था, उसका प्रायश्चित्त नहीं हुआ, वह वृक्ष बन गया, घटना घटित हो गयी। प्रायश्चित्त यही तो है कि जिस क्षण मन में राग का संस्कार उत्पन्न हुआ, जिस क्षण मन में द्वेष का संस्कार उत्पन्न हुआ, उसे धो डालो, सफाई कर दो, परिवर्तन कर दो; फिर वह सतायेगा नहीं। बीज को नष्ट कर दिया, वह वृक्ष नहीं बन पायेगा । प्रायश्चित्त नहीं होता है तो बीज को पनपने का मौका मिल जाता है, अंकुरित होने का मौका मिल जाता है । कालान्तर में वह वृक्ष बन जाता है, उसके फल लग जाते हैं, उसकी जड़ें जम जाती हैं । अब हमारे वश की बात नहीं रहती । हमें उसके फल भगतने ही पड़ते हैं । फल भगतने के लिए हमें बाध्य होना पड़ता है । अध्यात्म का बहत बड़ा रहस्य है कि हम उस क्षण के प्रति जागरूक रहें जिस क्षण में राग और द्वेष के बीज की बवाई होती है । हम अहिंसक हैं । हमने बहुत स्थूल रूप से मान लिया कि किसी को न मारना अहिंसा है; किन्तु राग-द्वेष के बीजों की बुवाई होती जाएगी तो अहिंसा कैसे हो सकेगी ? व्यवहार के जगत् की बात तो ठीक है । कोई आदमी अगर किसी को नहीं मारता है तो वह कानून की पकड़ में नहीं आयेगा । कानून उसे पकड़ेगा नहीं, सतायेगा नहीं, क्योंकि वह ऐसा कोई काम नहीं कर रहा है, जो कानून की सीमा में आ सके । कानून का सूत्र है – कार्य । ऐसा कार्य जो पकड़ में आ सके। अध्यात्म का सूत्र है - अध्यवसाय। कार्य हो, न हो, अध्यवसाय मात्र जिम्मेवार हो जाता है । ऐसा अध्यवसाय, ऐसा संकल्प, ऐसा विचार, ऐसा परिणाम, जो हिंसाप्रधान हो, वह आया, आपने कुछ किया नहीं, फिर भी आप उस हिंसा से बंध गये । आप अपने-आपको वैसा प्रस्तुत कर सकते हैं कि हमने कुछ किया तो नहीं, फिर हम उस घटना के प्रति उत्तरदायी कैसे ? अध्यात्म इसे स्वीकार नहीं करता कि आपने क्रिया-रूप में कुछ किया या नहीं । वह वहाँ तक पहुँचता है कि आपने ऐसा सोचा या नहीं, ऐसा चिन्तन किया या नहीं । अध्यात्म का सारा निर्णय होता है चिन्तन के आधार पर, परिणाम और अध्यवसाय के आधार पर । कानून का सारा निर्णय होता है कार्य के आधार पर । यदि यह बात हमारी समझ में ठीक से आ जाती है तो जागरूकता का क्षेत्र खुल जाता है, जागरूकता की सीमा बढ़ जाती है, फिर हम परिणाम के प्रति उतने जागरूक नहीं होते जितने कि मूल के प्रति जागरूक हो जाते हैं । जब मन पर थोड़ा प्रमाद छाता है, हमारी जागरूकता चली चौ. ज. श. अंक १२३ For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाती है परिस्थिति पर, परिणाम पर । हम सोचने लग जाते हैं -- उसने मेरी शिकायत कर दी, उसने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया; उसने मेरा अपमान कर डाला । हमारा सारा चिन्तन बाह्य जगत् पर चला जाता है। यह नहीं सोचा जाता कि राग का क्षण हमने कैसे जिया था ? द्वेष का क्षण हमने कैसे जिया था ? अर्थात् हम अध्यात्म से हटकर बाहर के निर्णय पर चले जाते हैं । भगवान् महावीर ने एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया कि समूची जिम्मेवारी, समूचा दायित्व आत्मा पर है । उन्होंने कभी नहीं कहा कि आत्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई शत्रु है या मित्र है । उनका सूत्र यही रहा कि आत्मा ही मित्र है । बाहर मित्र की क्या खोज कर रहे हो । उन्होंने कभी नहीं कहा कि दूसरा कोई तुम्हें बन्धन में डालता है, बन्धन में फंगाता है । यह बंध और मोक्ष का दायित्व, यह पुण्य और पाप का दायित्व, यह मुख और दुःख का दायित्व -- सारा दायित्व आत्मा का है । आत्मा ही सब कुछ करने वाला है । क्या हम अध्यात्म के इस रहस्य की गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं कि यह सारा दायित्व हम पर है ? हमेशा हम प्रत्येक बात का दायित्व दूसरों पर डाल देते हैं और हम जब तक दूसरे पर दायित्व नहीं डाल देते तब तक मन बेचैन रहता है। हम बहाना ढूंढ लेते हैं कि अमुक ने ऐसे किया, अमुक ने वैसे किया । ऐसा कर हम अपने-आपको हल्का अनुभव करते हैं । और सोचते हैं कि चलो, अपना काम हो गया, किन्तु अध्यात्म का रहस्य इससे भिन्न है । अध्यात्म का महत्त्वपूर्ण रहस्य यह है कि किसी के लिए कोई जिम्मेवार नहीं । सारी घटनाओं के लिए जो अन्तिम जिम्मेवार है, वह अपनी आत्मा है, अपना अध्यवसाय है ।' ___मैंने अध्यात्म के दो-तीन रहस्यों की चर्चा की है। यह चर्चा बहुत विस्तार मांगती है, पर मैंने संक्षेप में उसको प्रस्तुत किया है । यदि ये दो-तीन रहस्य, जिनका उद्घाटन हमारे मन में हो सके, हमारे जीवन में हो सके तो और रहस्य खोजने की ज़रूरत नहीं है । मैंने ऊपर जिन रहस्यों की चर्चा की है, वे सब खोजे गये रहस्य हैं । हमारे तीर्थंकरों ने, हमारे आचार्यों ने इनकी खोज की थी । जो खोजे गये रहस्य हैं, उनकी मात्र स्मृति मैंने प्रस्तुत की है। आपको थोड़ी-सी याद दिलानी है। इन रहस्यों के प्रति हमारा ध्यान केन्द्रित हो और नये रहस्यों को खोजने की एक तड़प, एक भावना, सघन श्रद्धा मन में जागृत हो, पुरुषार्थ उस दिशा में आगे बढ़े तो मुझे लगता है कि इस संसार में भोगी जाने वाली बहुत सारी व्याधियों और मानसिक संकट से हम बच सकते हैं और कछुए की भाँति अपने लिए ऐसी ढाल बना सकते हैं जिसमें जाकर सारे आक्रमणों, अतिक्रमणों से बचकर अपने-आपको सुरक्षित अनुभव कर सकते हैं । 'आत्मा में प्रकाश है तो भौतिक प्रकाश भी हमारे काम आ जाता है। आत्मा का प्रकाश न हो तो बाहर का कोई भी प्रकाश काम नहीं आ सकता। १२४ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र ही मन्दिर है चारित्र से मन पवित्र हो तो मन की पवित्रता आकृति पर झलकती है ; जैसे मथा हुआ नवनीत दही से अलग ऊपर तिरने लगता है । - उपाध्याय मुनि विद्यानन्द चारित्र ही मन्दिर है अर्थात् मन्दिर के समान पवित्र है। मन्दिर भगवान की प्रतिमा के मांगल्य से उपयुत है, मंगल-भवन है। धर्म और आत्म-संस्कार को नित्य नवीन करने के लिए मन्दिरों में जाने की विधि है । धर्म-भावना और आत्म-संस्कार से चारित्र की रत्नवेदी का निर्माण होता है । पुष्प की मुस्कान को देखते-देखते व्यक्ति स्वयं मुस्काने लगता है और जिनेश्वरों की वीतराग-मुद्रा के दर्शन करने से मन पर उनकी गुणावली का संक्रमण होता है। यह तद्गुण संक्रमण जब आचरण का अभिन्न अंग बन जाता है तब व्यक्ति मन्दिर-स्वरूप बन जाता है। इसी अर्थ में चारित्र को मन्दिर कहा गया है। सम्यक चारित्र के देवालय समान पीठ पर भगवान बिराजते हैं । मनुष्य अपने चारित्र से 'आत्म मन्दिर' का निर्माण करने में स्वतन्त्र है। अपने ही त्यो से वह इसे मदिरालय भी बना सकता है । प्रतिक्षण अपने देह को 'आत्मा' का पवित्र आगार मानकर ‘मन्दिर' समान रखे, यह चारित्रवान् व्यक्ति का नैतिक कर्त्तव्य है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को लोक उसके आचरण की कसौटी पर रखते हैं। वह अपनी दिनचर्या कैसी रखता है, इसी आधार पर 'वह क्या है ?' का निष्कर्ष फलित होता है; अत: मन्दिर जाने वाले के प्रति यदि चारित्रवान् होने का अनुमान कोई करे, तो उसकी युक्ति को असंगत नहीं कहा जा सकता । 'यत्र धुमस्तत्र वह्नि' जहाँ धुआँ है, वहाँ अग्नि है, यह तो व्याप्तिसाहचर्य का नियम है । इस प्रकार 'जहाँ चारित्र है, वहाँ मन्दिर है' कहना उपचार से चारित्रशील को मन्दिर-समान अभिहित करना है। जैसे मन्दिर से देवालयत्व को पृथक् नहीं किया जा सकता, वैसे चारित्र के प्रासाद को पवित्रता में मन्दिर के उपमान से हीन नहीं किया जा सकता । चारित्र का पालन आत्मना किया जाता है । वह बाह्य प्रदर्शन का अलंकार न होकर आन्तरिक शील की आधारशिला है। जैसे स्फटित मणि में छाया संक्रान्त होती है, उसी प्रकार चारित्र में से व्यक्ति की पवित्रता झलकती है। मोक्ष के साथ चारित्र का अविनाभावी सम्बन्ध है । जो लोग मन्दिर से लौटकर अपने व्यवसाय में विशुद्ध नहीं रहते, मिलावट करते हैं अथवा वस्तु के मूल्यांकन में अनौचित्य रखते हैं, 'चारित्र और मन्दिर' से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । कहा है चौ. ज. श. अंक १२५ For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न काष्ठे विद्यते देवो न पाषाणे न मृण्मये । भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम् ।। (देवता न काष्ट में है, न पत्थर में और न मिट्टी में, वह तो मनुष्य के अपने भावों में बिराजमान है; अत: भाव ही देवत्व की प्रतिष्ठा में मुख्य है)। 'प्रातःकाल घूमने से स्वास्थ्य उत्तम रहता है', इस सूत्र का लाभ उठाने के लिए यदि कोई बन्द गाड़ी में बैठकर मैदान हो आये तो क्या सूत्र का भाषित उसे फलेगा? इसी प्रकार मन्दिर जाने मात्र को धार्मिकत्व का लक्षण मानने वाला और जीवन-व्यवहार में भिन्न आचरण करने वाला क्या आस्तिक' कहा जा सकेगा ? उद्यान में जाने वाला अनायास ही पुष्पों के सौरभ को प्राप्त करता है और लौटते समय एक-दो पूष्प उसके हाथ में होते हैं । यदि मन्दिर जाने वाला सर्वज्ञ भगवान् के दर्शन कर खाली हाथ, खाली मन लौट जाता है तो उसकी जड़ता को देने योग्य पुरस्कार किसके पास है ? मन्दिर और भगवान् की प्रतिमा तो भाव-राशि को उद्वेलित करने के साधन मात्र हैं वहाँ से भावों में (परिणामों में) दिव्यता प्राप्त करने की प्रवृत्ति नहीं ला सके तो मन्दिर जाने को ही साध्य मान बैटने की भूल का संशोधन कब करोगे ? यह तो छिलका खाने और रस फेंकने जैसी बात हुई । जैसे शिल्पकार पत्थर में से सर्वांगपूर्ण मूर्ति का आविर्भाव कर लेता है, वैसे ही चारित्र की साधना करने वाला अपने व्यक्तित्व में अलौकिक सौन्दर्य की उद्भावना करता है । चारित्र से मन पवित्र हो तो, मन की पवित्रता आकृति पर झलकती है, जैसे मथा हुआ नवनीत दही से अलग ऊपर तिरने लगता है । इस प्रकार मनुष्य का वास्तविक देवालय उसका चारित्र है। मन्दिर, गिरिजाघर, मस्जिद और उपासना-गृह उस चारित्र लब्धि के नामान्तर हैं । यदि इनमें नियमित उपस्थिति देने वाला भी चारित्रहीन है तो वह उसकी अपनी अयोग्यता है । 'समयसार' की पन्द्रहवीं गाथा __ "कोई भी शब्द आगम, व्याकरण और शब्दकोश द्वारा सम्यग्ज्ञान से 3 परीक्षित होने पर ही ग्राह्य होता है, अन्यथा वह भद्र तथा स्व-पर-उद्धारक नहीं बल्कि अनर्थ का कारण होता है। यह पन्द्रहवीं गाथा अध्यात्म-क्षेत्र और जैन जगत् के विद्वानों के मध्य सदैव, जटिल तथा गूढ़ समस्या का विषय रही है। आज से ही नहीं आचार्य प्रवर अमृतचन्द्र जैसे महान् प्रतिभा संपन्न के समय से ही है। उन्होंने भी इस गाथा को दूसरी पंक्ति की पहली अर्द्धाली 'अपदेस संत मज्झं' आचार्य कुन्दकुन्द के स्वल्पाक्षरविशिष्ट शैली का अर्थ नहीं किया। अवश्य ही उन्हें भी इस अर्द्धाली का स्पष्ट अर्थ ज्ञात नहीं हुआ अथवा उसे संदिग्ध समझकर छोड़ दिया। अन्यथा इस पंक्ति १२६ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अर्थ उनसे नहीं छूटता। आचार्य जयसेन ने अपनी तात्पर्यवृत्ति में इस अर्धाली का अर्थ तो किया, परन्तु एक शब्द बदल दिया अथवा किसी प्रति में लिपिकार के कारण पाठ ही ऐसा प्राप्त हुआ होगा। वह अर्भाली है 'अपदेस सुत्त मज्झं' आचार्य जयसेन ने इस पाठ का अर्थ 'सुत्त' शब्द को 'जिण-सासणं' का बलात् विशेषण मान कर किया है और उत्तरवर्ती पं. जयचन्द आदि सभी बुद्धिजीवी वर्ग को 'सुत्त' पाठ ने अनेक विद्वानों के मस्तिष्क की यात्रा की और आखिर उलझा ही रक्खा। जयसेन ने 'सुत्त' शब्द का अर्थ 'श्रुत' मान कर उसका विशेषण भावश्रुत और द्रव्यश्रुत के रूप में किया। क्या मोमबत्ती दोनों सिरों पर जल सकती है? कोई भी अर्थ आगम, व्याकरण और शब्दकोश द्वारा सम्यग्ज्ञान से परीक्षित होने पर ही ग्राह्य होता है अन्यथा रूप में शब्द नाम मात्र यदि भ्रान्तिवश ग्रहण किया जाए तो वह भद्र तथा स्व-पर-उद्धारक नहीं बल्कि अनर्थ का ही कारण होता है। इस अर्थ को पं. वंशीधर न्यायालंकार ने क्लिष्ट कल्पना माना है। उनकी दृष्टि से इस गाथा में ये सब 'अप्पाणं' का विशेषण होना चाहिए; 'जिण सासणं' का नहीं। डा. ए. एन. उपाध्ये ने भी 'अपदेससंतमझं' पाठ को ही ठीक माना है। पं. जुगल किशोर मुख्तार ने इस विषय पर एक लेख 'अनेकान्त' मासिक में प्रकाशित करवाया था और इस गाथा के सही अर्थ बतानेवाले को पुरस्कार देने की घोषणा भी की थी। अभी तक स्थिति वैसी ही रही है। जब हम जैन नगर, जगाधरी (हरियाणा राज्य) में चातुर्मास थे आचार्य श्री तुलसीजी और प्राकृत भाषा तथा दर्शन शास्त्र के सुप्रसिद्ध विद्वान् मुनि श्री नथमल ने 'समय का स्वाध्याय करते समय १५ वीं गाथा के बारे में वहाँ तीन पत्र भेजे थे। उस समय इस पंक्ति का अर्थ और 'अपदेस-सुत्त-मज्झं' पाठ का समुचित समाधान हम नहीं कर सके। उन्होंने हमें तत्काल पत्र द्वारा सुझाव दिया था कि प्राचीन प्रतियों द्वारा 'समयसार' ग्रंथ का प्रामाणिक पाठ के साथ संपादन होना परम आवश्यक है। हमने भी उसके बाद ही समूचे भारत के ग्रंथ-भण्डारों से 'समयसार' की हस्तलिखित प्रतियों का संकलन किया और पाठ-भेद एवं अर्थ पर गम्भीर अनुचिन्तन, अन्वेषण के साथ रोमन्थन किया और निर्दिष्ट पाठ के सम्बन्ध में इस निष्कर्ष पर पहुँच गये हैं, अन्वय अर्थ--इस प्रकार किया है, और इस तरह इसे बीसवीं शताब्दी की हमने एक बड़ी उपलब्धि मानी है। प्राकृत भाषा और 'समयसार' के अनुचिन्तकों से सुझाव अपेक्षित हैं। _ -आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयसार' (गाथा १५) में 'गागर में सागर' की कहावत को चरितार्थ किया है यानो--स्वल्पाक्षरों के द्वारा पारिणामिक तथा क्षायिक भाव को दर्शाया हैजो भव्य आत्मदर्शी है वह जिनशासनदर्शी है जो पस्सदि अप्पाणं अबद्ध पुठं अणण्णमविसेसं। अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।।। -आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार, १।१५ सान्वय अर्थ--(जो) जो भव्य पुरुष (अप्पाणं) आत्मा को (अबद्धपुळं) बंधरहित और पर के स्पर्श से रहित (अणण्णं) अनन्य-अन्यत्व-रहित (अविससं) अविशेष-विशेष-रहित-उपलक्षण से नियत तथा असंयुक्त (अपदेस) - प्रदेशरहितअखण्ड (संत) २– शान्त-प्रशान्त रस से आपूर्यमाण (मज्झं) ३-अपने अन्दर (पस्सदि) चौ. ज. श. अंक १२७ For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध ज्ञानचेतना का अनुभव करता है वह ( सव्वं ) सम्पूर्ण ( जिण) केवली -प्रणीत ( सासणं ) शासन - स्वसमय और परसमय को ( पस्सदि ) देखता है- जानता है । १. अपदेस - अप्रदेश - निरंश, अवयवरहित । अपएस - अप्रदेश-प्रदेशरहितत्वे अवयवाभावात् निरंशे निरन्वये । अभिधान राजेन्द्र . - जो किसी का न तो प्रदेश है, न अवयव है, न अंश है और न किसी का अन्वय है । प्रत्येक आत्मा असंख्यात प्रदेशी, स्वतन्त्र और अखण्ड यानी अपने आप में पूर्ण है । परसमय वचन ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । गीता, १५/७ २. संत - शान्त - ( प्राकृत तथा पाली में संत का शान्त । दंत का दांत बनता है ) । नव रसों में से एक (प्राकृत, पाली, अपभ्रंश, कन्नड, हिन्दी और मराठी कोश ) । संता - शान्त - रूपा - बोध पाहुड -गा. ५१ संत - शान्त ( Repose) पाली धम्मपद ; ७ ७ संत - शान्त - रस, विशेषण : पाइअसहमहण्णवो, पृ. ८३९ उवसंतो–उपशान्तः; कार्तिकानुप्रेक्षा; गा. ३७७ उवसंतोमि - उपशान्तोऽस्मि प्रतिक्रमण, १२ उपसंतखीणमोहो; पंचास्तिकाय, गा. ७० संत - सज्जन; भगवती आराधना, गा. ६८, पृ. १६३ पसंतप्पा - प्रशान्तात्मा; प्रवचनसार, गा. २७२ जैन शौरसेनी में उपशान्त का उवसंत बन जाता है। -आर. पिशल पैरा ८३ इच्छमि भंते । संति भत्ति । शान्ति भक्ति अंचलिका धम्म तित्थयर संत; प्राकृत जयमाला ।।५।। प्रशान्तात्मने नमः; सिद्धचक्र पाठ । १३६ शुद्धं शिवं शान्तम् ; सामायिक पाठ, अमित गति, २० नमः शान्ताय तेजसे; भर्त हरि, नीति. १।१ शान्तो निःस्पृहनायकः; वाग्भट्टालंकार, ५।३२ शान्तो रसो विजानीयाद्; संगीतसमयसार - ४१६९ जय परम शान्त मुद्रा समेत - हिन्दी संत असंत भरम तुम्ह जानहु -तुलसी, रामायण, ७।१२१ । ३ ३. मज्झं - में मइ मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह अम्हं ङसा ।। ८ । ३ । ११३ ।। अस्मदोङ सा षष्ठयेकवचनेन सहितस्य एते नवाऽऽदेसा भवन्ति । - अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग-६, पृ. ६३ 'मज्झं' शब्द प्राकृत भाषा में उत्तम पुरुष सर्वनाम, षष्ठी विभक्ति का एक वचन सम्बन्ध कारक बनता है तथा बहुवचन में 'मज्झाणं' है । (आर. विशल, कम्पेरेटिव ग्रामर ऑफ दि प्राकृत लैंग्वेजेज' पैरा ४१५, मेक्समूलर भवन, न्यू डेल्ही) । ४. 'पस्सदि' - जो पस्सदि - यः कर्त्ता पश्यति जानात्यनुभवति । १२८ - समयसार, ( आत्मग्राहकं दर्शनमिति कथिते । ) –वृ. द्रव्यसं. गा. ४४ तात्पर्य. १।१५ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानक अर्थात् इमारत नहीं, आत्मालय स्थानकवासी शब्द में स्थानक का अर्थ कोई मकान, इमारत या भवन नहीं है वरन् इसका वास्तविक अर्थ है-आत्मा का स्थान । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रमय जीवन ही आत्मा का स्थान है, इसमें निवास करने वाला ही स्थानकवासी कहलाता है। उपाध्याय मधुकर मुनि एक समय था जब जैन परम्परा की धारा अक्षुण्ण रूप में समग्र भारत में प्रवाहित थी। श्रमण भगवान् महावीर से लेकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी तक यह स्वर्णयुग रहा, तत्पश्चात् जैन परम्परा दो उपधाराओं में विभक्त हो गयो - दिगम्बर, श्वेताम्बर । जैन परम्परा की दिगम्बर धारा का श्रमण संघ विचरणार्थ दक्षिण की ओर चला गया और श्वेताम्बर धारा का श्रमण संघ उत्तर-पश्चिम की ओर विचरण करता रहा । आगम-विहित विधि-विधान के अनुसार मर्यादा-चर्या एवं सुव्यवस्थित साधना के बल पर श्वेताम्बर धारा का संघ सर्वत्र पूजित गौरवान्वित होता रहा । जैनेतर समाज पर भी इस संघ का अच्छा प्रभाव बना रहा । साधु-जीवन को मर्यादाओं को अप्रमत्त सुरक्षित रखते हुए संघ के संत इतस्ततः सुदूरपूर्व विचरण करके जैनधर्म के सिद्धान्तों का प्रचारप्रसार करते रहे । · · · किन्तु एक ऐसा युग भी आया जब समय ने करवट ली, और शिथिलता पनपने लगी। साधना और स्वाध्याय में निरन्तर संलग्न श्रमणवर्ग लोकैषणा की ओर झुकने लगा। वह स्वयं के लिए 'अणगार' शब्द का उपयोग करते हुए भी 'चैत्यवासी' बनने लगे। जिनभक्ति और जिनपूजा के नाम पर द्रव्य एकत्रित कराया जाने लगा। यन्त्र, तन्त्र तथा मन्त्र के माध्यम से वह अपनी पूजा-प्रतिष्ठा बढ़ाने में व्यस्त हो गया। श्रमणों के इस शिथिलाचार से युगयुगों से चली आती साधु-मर्यादा खतरे में पड़ गयी। जैनधर्म के वास्तविक सिद्धान्त तिरोहित होने लगे। इस विषम स्थिति में एक ऐसी क्रान्ति की आवश्यकता थी जो श्रमणों में पुनः शास्त्रसम्मत मर्यादाओं की प्रतिष्ठा करे और उसे अपनी पवित्रता के पुराने परिवेश में लौटाये । धर्मप्राण लोंकाशाह ने इस क्रान्ति का नेतृत्व किया। स्थानकवासी समाज इसी क्रान्ति की देन है। ___ 'स्थानकवासी' नामकरण नया हो सकता है, किन्तु इसमें जो मर्यादा-व्यवस्था है वह शुद्ध सनातन साधु-संस्था का ही सही रूप है; अतः यह असंदिग्ध है कि स्थानकवासी जैन समाज कोई नवीन स्थापना नहीं है अपितु चली आ रही महावीरकालीन साधु-संस्था का ही एक संस्करण है । 'स्थान' शब्द के साथ 'क' प्रत्यय जोड़ने से 'स्थानक' शब्द बनना है; तदनुसार 'स्थानक में जो वास करता है, वह स्थानकवासी है। चौ. ज. श. अंक १२९ For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि 'स्थानक' क्या है ? स्थानक यहाँ किसी मकान, भवन या इमारत का पर्याय नहीं है वरन् इसका अर्थ है 'आत्मा का स्थान' सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रमय जीवन ही आत्मा का स्थान है, इसमें निवास करने वाला कहलाता है 'स्थानकवासी।' स्थानकवासी जैन समाज में साधु-संस्था को ही प्रमुखता दी गयी है। इस समाज का संचालन साधु-संस्था के आधार पर ही होता है, अतः इसका एक अन्य नाम 'साधुमार्गी' है। साधुओं का मार्ग साधु-मार्ग कहलाता है तदनुसार इस मार्ग पर चलनेवाले, इसे अपनानेवाले 'साधुमार्गी' कहलाते हैं। शास्त्रानुसार साधुमार्ग वह है जो विशुद्ध ज्ञान और क्रिया के साथ सम्यक्चारित्र में आस्था रखता है; स्वभावतः इस मार्ग के अनुगामी साधुमार्गी कहे जाते हैं। इस तरह स्थानकवासो' और 'साधुमार्गी' दोनों शब्द एकार्थवाची हैं, इनके अलग-अलग अर्थ नहीं हैं। ध्यातव्य है कि स्थानकवासी जैन समाज के श्रमणवर्ग ने सदैव अपनी क्रिया-निष्ठा को सावधानी से सुरक्षित रखा है, इसीलिए इसकी प्रतिष्ठा समग्र भारत में तथा अन्यत्र बढ़ी-चढ़ो रही है। किन्तु आज इस समाज के श्रमणवर्ग में भी पुनः क्रिया-शैथिल्य और प्रमाद बढ़ने लगा है । जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के मिस आज के साधुवर्ग में विपरीत साधनों का उपयोग उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में इस समाज का भविष्य क्या होगा, यह गंभीरतापूर्वक विचारणीय है। प्रतिक्रमण प्रतिलेखन प्रतिक्रमण और प्रतिलेखन के दीप जब तक निर्धूम और निष्कम्प जल रहे हैं आलोकित कर रहे हैं मेरे अभ्यन्तर के ब्रह्माण्ड को! कषायों के सांपअन्धकार में कुण्डली-आसन पर बैठ, हमें कभी भी भयाक्रान्त नहीं कर सकेंगे मेरे प्रभु ! तुम्हारा तेजोवलय विष्णु का सुदर्शन बनकर काट रहा है हमारे जन्म-जन्मान्तरों की ग्रंथियों को, निर्ग्रन्थ का मलय पुलकाकुल' किये दे रहा है प्राण-प्राण को; तृष्णाओं का दावानलशान्त है, प्रशमित है, प्रज्ञा-प्रसून खिल उठा है हृदय की कुँआरी धरती पर ! एक नयी सृष्टि के जन्म का शंखनाद सुन रहे हैं हम सब ! -रत्नेश 'कुसुमाकर' तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज और सिद्धान्त "सिद्धान्त-हीनता जैसे एक बहुत बड़ा खतरा है और अराजकता है, वैसे ही सिद्धान्त-विपर्यय भी एक भयंकर अभिशाप है । जहर को न समझना भयावह है; किन्तु जहर को अमृत मान लेना तो सीधा विनाश-पथ ही है। मुनि मोहनलाल 'शार्दूल' चीन के सुप्रसिद्ध संत कन्फ्यूशियस ने कहा है-'रक्त का विषाक्त हो जाना कोई बात नहीं; किन्तु सिद्धान्त का विषाक्त हो जाना सर्वनाश है।' इसी प्रकार भगवान् महावीर ने एक मर्मोद्धाटन किया है कि 'वे अन्धकार से और गहन अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं, जो मन्दबुद्धि हैं और हिंसा में आसक्त हैं। वे मोह (अज्ञान) में डूबे हुए न आर रह पाते हैं, न पार पहुँचते हैं।' वैदिक वाणी है'दुर्बुद्धि ही मनुष्य को भटकाती है और पीड़ित करती है।' सभी बाधाएँ दुर्मतिजनित हैं । सन्मति के समक्ष कोई अड़चन नहीं ठहरती। विपत्तियाँ और विघ्न मढ़ के लिए हैं, विवेकी के लिए नहीं। इन सब बातों से स्पष्ट होता है --सिद्धान्त का समाज के लिए बहुत बड़ा महत्त्व है। मौलिक आधार हर क्षेत्र में सिद्धान्त एक मौलिक आधार है। सिद्धान्त के बिना किसी भी विषय में व्यवस्थित रूप से कार्य नहीं हो सकता। गणित, विज्ञान, ज्योतिष, काव्य, सनालोमा, धर्म और राज्य आदि सभी के अपने-अपने दर्शन हैं, अपने-अपने सिद्धान्त हैं । सिद्धान्तहीन होने पर किसी का भी कोई स्वरूप नहीं रहता और न उसकी प्रामाणिकता रहती है । प्रामाणिकता विनष्ट हो जाने पर वस्तु ध्वस्त हो जाती है। हर क्षेत्र का स्थायित्व और विकास सिद्धान्त पर निर्भर है। छोटे-मोटे जितने कारखाने हैं, सब अपनी-अपनी व्यवस्था पर चलते हैं। उनकी व्यवस्था भंग हो जाए तो उनकी गति भी बन्द हो जाती है। संसार का 'सर्वस्व' प्राकृतिक और मनुष्य-निर्मित सिद्धान्तों पर टिका है। विज्ञान की इतनी समग्र प्रगति, उसकी सिद्धान्त परिपक्वता में है। एक नियम के द्वारा ही अणुबम जैसी महान् विस्फोटक शक्ति मनुष्य के नियन्त्रण में है। उसका जो प्रकृतिगत विधान है वह न रहे तो वह कभी भी दुनिया को धूल में मिला दे। भ्रान्त सिद्धान्त सिद्धान्त-हीनता जैसे एक बहुत बड़ा खतरा है और अराजकता है, वैसे ही सिद्धान्त-विपर्यय भी एक भयंकर अभिशाप है। मिथ्या सिद्धान्त सब उलट-फेर कर चौ. ज. श. अंक १३१ For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देते हैं । सिद्धान्तहीनता से भी सिद्धान्त विपर्यास अधिक विनाशक होता है। ज़हर को न समझना भयावह है पर ज़हर को अमृत मान लेना तो सीधा ही विनाश का पथ है । गलत मान्यताओं और मिथ्या धारणाओं से समाज छिन्न-भिन्न हो जाता है । उसकी सारी सांस्कृतिक कड़ियाँ ही टूट जाती हैं । सामाजिक पतन, सामाजिक विघटन और सामाजिक व्याकुलता, भ्रान्त सिद्धान्तों का परिणाम होता है । समाजोत्थान और समाज कल्याण के लिए सिद्धान्तों का सही और आदर्शवादी होना बहुत ज़रूरी है । मिथ्या मूल्यांकन स्थापित होते ही समाज का ढाँचा बिगड़ने लगता है । यह किसी से छिपा हुआ तथ्य नहीं है । सिद्धान्तों की सही पहचान समाज के प्रेय और श्रेय के लिए ऊँचे तथा उदार सिद्धान्तों की आवश्यकता है । महान् सिद्धान्तों के आधार पर ही कोई समाज तथा देश सर्वांगीण उन्नति कर सकता है। महान् सिद्धान्तों की पहचान यह है कि वे सर्वजनोपयोगी हों, अर्थात् सबके विकास, हित एवं उदय में सहायक हों। जिनसे बिना भेदभाव सर्वसाधारण को लाभ पहुँचता हो । जो सिद्धान्त चन्द लोगों के हित में और शेष जनता के अहित में हों; वे महान् सिद्धान्तों में सम्मिलित नहीं किये जा सकते । ऐसे सिद्धान्त जो कुछ लोगों को अधिकार से वंचित करते हैं और हीन बनाते हैं, वे चिरकाल तक चल नहीं सकते । वे मानवता के लिए कलंक होते हैं, उन्हें मिटाना पड़ता है । स्वार्थ- बुद्धि से विनिर्मित तुच्छ और परमार्थ- प्रेरित सिद्धान्त उदात्त होते हैं । भारतीय संस्कृति की विशेषता भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि उसके सांस्कृतिक दिव्य दृष्टाओं ने बहुत ही महान् और उदार सिद्धान्तों का निर्माण किया है । प्राणिमात्र के सुख की और हित की परिकल्पना की । मित्ति से सव्व भूएसु वैरं मज्झण केइ - हमारी सब के साथ मैत्री है किसी के साथ कोई वैर नहीं । मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे -- सबको मित्रता की दृष्टि से देखें । ये कितने व्यापक और महान् सिद्धान्त हैं । सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चन् दुख भाग् भवेत् ।। सब सुखी बनें, सब नीरोग हों, सब कल्याण-मंगल पायें, कोई भी दुःखी न हो इस प्रकार की पवित्र और उदार भावनामय भारतीय संस्कृति के गौरवपूर्ण सिद्धान्त हैं । इन्हीं श्लाघ्य सिद्धान्तों के बल पर भारतीय संस्कृति फूली - फली है; विश्व पटल पर अपनी मौलिक छाप अंकित कर सकी है। संकीर्ण सिद्धान्त जब-जब संकीर्ण, भेदमूलक, स्वार्थरत सिद्धान्तों की रचना होती है, समाज टुकड़े-टुकड़े हो कर बिखर जाता है। एक समय था जब स्त्री शूद्रो नाधीयाताम्-(शेष पृष्ठ १३५ पर) तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ १३२ For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामन्त्र णमोकार : कुछ प्रश्न-चिह्न "प्रश्न यह उठ सकता है कि उच्च पदधारी आचार्य और उपाध्याय अपने से नीचे पदवालों को कैसे नमस्कार करेंगे? इसके अलावा क्या आचार्य, उपाध्याय अथवा साधु स्वयं को भी नमस्कार करेंगे, क्योंकि 'सव्व' में तो वे स्वयं भी आ जाते हैं। 0 प्रतापचन्द्र जैन णमोकार मन्त्र महान् सुखकारी और शान्ति का ज्ञाता है, जो चारों ही जैन परम्पराओं को समान रूप से मान्य है। इस लोक में यही एकमात्र ऐसा मन्त्र है, जो सर्वव्यापी और सर्वहितंकर है, क्योंकि बगैर किसी भेदभाव के सभी महापुरुष इसमें आते हैं, जिन्होंने राग, द्वेष, काम आदि जीत लिये हैं और जो समूचे जग के ज्ञाता-दृष्टा हैं, भले ही फिर उन्हें बुद्ध, वीर, हरि, हर, ब्रह्मा, ईसा, अल्लाह किसी भी नाम से जाना जाता हो। स्व. डा. नेमिचंद्रजी, आरा ने तो अपनी खोजपूर्ण पुस्तक 'मंगल-मन्त्र णमोकार--एक अनुचिंतन' के आमुख में यहाँ तक लिखा है कि "इसमें समस्त पाप, मल और दुष्कर्मों को भस्म करने की शक्ति है। णमोकार मन्त्र में उच्चरित ध्वनियों से आत्मा में धन और ऋण दोनों प्रकार की विद्युत्-शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनसे कर्म-कलंक भस्म हो जाता है। यही कारण है कि तीर्थंकर भगवान भी विरक्त होते समय सर्वप्रथम इसी महामन्त्र का उच्चारण करते हैं। वैराग्यभाव की वृद्धि के लिए आये देव भी इसीका उच्चारण करते हैं। यह अनादि है। प्रत्येक तीर्थंकर के कल्प-काल में इसका अस्तित्व रहता है।" । प्रचलित णमोकार मन्त्र में निम्नलिखित पैंतीस अक्षर हैं और उसमें अरिहन्त से लेकर समस्त साधुओं तक को नमस्कार करने का विधान है : णमो अरिहंताणं । णमो सिद्धाणं। णमो आइरियाणं। णमो उवज्झामाणं । णमो लोए सव्व साहूणं। इस अनुचिन्तन में स्व. डॉक्टर साहब ने विद्वत्तापूर्ण शैली में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि "पैंतीस अक्षरोंवाला यह मन्त्र समस्त द्वादशांग जिनवाणी का सार है। इसमें समूचे ऋतुज्ञान की अक्षर-संख्या निहित है। जैन दर्शन के तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य, गुण, पर्याय, नयनिक्षेप, आश्रव और बन्ध आदि भी इस मन्त्र में विद्यमान हैं।” स्व. डॉक्टर साहब ने इस मन्त्र को इसी रूप में अनादि बताया है, परन्तु आगे चल कर उन्होंने यह भी लिखा है कि "कुछ विद्वान् इतिहासकारों का अभिमत है कि साधु शब्द का प्रयोग साहित्य में अधिक पुराना नहीं है और ‘साहूणं' पाठ इस बात का द्योतक है कि यह मन्त्र अनादि नहीं है।" चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस शंका के समाधानार्थ आदरणीय डॉक्टर साहब ने लिखा है कि साधु भी परम्परागत अनादि हैं परन्तु इस आधार पर महामन्त्र के वर्तमान प्रचलित रूप को अनादि मान लेना सही लगता है क्योंकि - (१) कलिंग सम्राट् खारवेल द्वारा निर्मित हाथीगुंफा पर जो लेख है वह पुरातत्त्व, प्राचीनता और इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उस लेख में जो कि ब्राह्मी लिपि में है यह मंत्र केवल निम्नलिखित चौदह अक्षरों में अंकित है, प्रचलित पैंतीस अक्षरों में नहीं : 'नमो अर हंतानं। नमो सब सिधानं।" (जैन सन्देश--छठा शोधांक) शिलालेख में उसके लेखन की तिथि नहीं मिलती; परन्तु इतना स्पष्ट है कि यह शिलालेख ई. पू. दूसरी शताब्दी का है यानी, अब से दो हजार दो सौ वर्ष पुराना। हो सकता है, अन्य कुछ अक्षरों की भाँति इसकी तिथि भी भग्न हो गयी हो। इस मंत्र का इससे पुराना लेख शायद ही अन्यत्र कहीं उपलब्ध हो और यह रूप है भी ऐसा जो अनादि हो सकता है विद्वान् इतिहासकारों की शंका से परे। इसकी लिपि भी प्राचीनतम ब्राह्मी है। (२) मंत्र को इस प्राचीन रूप में आचार्य और उपाध्याय भी जप सकते हैं, जब कि उसके प्रचलित रूप को लेकर प्रश्न यह उठ सकता है कि उच्च पदधारी आचार्य और उपाध्याय अपने से नीचे पदवालों को कैसे नमस्कार करेंगे? इसके अतिरिक्त क्या आचार्य, उपाध्याय अथवा साधु अपने स्वयं को भी नमस्कार करेंगे, क्योंकि 'सव्व' में तो वे स्वयं भी आ जाते हैं। ऐसा लगता है कि मंत्र को प्रचलित वर्तमान रूप कालान्तर में दे दिया गया। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि धीरे-धीरे क्षीण हो रही स्मरणशक्ति के कारण जब श्रुतज्ञान घटने लगा तो तत्कालीन आचार्यों ने जिनवाणी की रक्षार्थ जो भी याद रह गया था, उसे प्राकृत भाषा में शास्त्रबद्ध करा दिया और ईसा बाद निर्वाण संवत् ६८३ में षट्खण्डागम् नाम के सूत्र-ग्रन्थ की रचना की गयी। (जैनधर्म, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री; पृष्ठ २५६) इस मूल-ग्रन्थ में महामन्त्र णमोकार मंगलाचरण के रूप में प्रचलित पैतीस अक्षरों में सर्वप्रथम पाया जाता है। इससे पूर्व और आदि से यह मन्त्र हाथीगुफा के शिलालेख में अंकित चौदह अक्षरों का ही रहा होगा। शायद इसी आधार पर स्व. डॉ. हीरालालजी ने आचार्य पुष्पदन्त को इस महामन्त्र का आदिकर्ता बता दिया हो। डॉ. हरीन्द्र भूषण जैन के मतानुसार भी श्रत की हो रही विस्मृति से होनेवाली हानि को रोकने के लिए शास्त्रलेखन का कार्य वि. सं. ५१० से पूर्व ही शुरू हो चुका था। (जैन अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास; डॉ. हरीन्द्र भूषण जैन, पृष्ठ ११)। यहाँ एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि णमोकार मंत्र के साथ ही आगे बोले जानेवाले चार मंगलों (मंगली) में आचार्य और उपाध्याय का अलग से १३४ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लेख न होकर उन्हें साधुओं में ही मान लिया गया और उनकी बजाय चौथे स्थान पर केवली-प्रणीत-धर्म को शामिल कर लिये जाने से पाथ इस प्रकार हो गया अरहंता मंगलं। सिद्धा मंगलं। साहू मंगलं । केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगरं ॥ इस प्रकार इस महामन्त्र का आदि चौदह अक्षरों का ही ठहरता है । यदि यह मान लिया जाए कि यह महामंत्र श्रावकों के जपने का है श्रमण तो श्रावकों को इससे संस्कारित करते हैं। स्व. ज्योतिषाचार्यजी ने भी लिखा है कि तीर्थंकर भगवान् (तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करनेवाले राजा का महापुरुष) भी इसका उच्चारण श्रावक अवस्था में ही विरक्त होते समय करते हैं, तब तो यह चाहे चौदह अक्षरों का रहा हो चाहे पैतीस अक्षरों का हो, कोई अन्तर नहीं पड़ता। हमें तो कृतज्ञ होना चाहिये उस आचार्यों का कि मंत्र का यह संशोधन ऐसा अद्भुत और चमत्कृत करनेवाला हुआ कि यह केवल मन्त्र न रह कर द्वादशांगरूप एवं भाषा-विज्ञान का आधार भी बन गया है, जैसा कि स्व. डॉ. नेमिचंद्रजी, आरा ने अपनी अनूठी, अनुपम और खोजपूर्ण कृति में बड़ी खूबी के साथ सिद्ध किया है। " (समाज और सिद्धान्त : पृष्ठ १३२ का शेष) स्त्री और शूद्र को वेदज्ञान का अधिकार नहीं है; करार दे दिया गया था। ऊँचनीच की भावना पर उठे इस सिद्धान्त ने समाज-भेद में बहुत बड़ा पार्ट अदा किया और शेष में उसकी अवज्ञा-भावना को समाप्त करना पड़ा। इतना होने पर भी आज तक समाज को उसके कटफल भोगने पड़ते हैं; इसलिए अणुव्रत-संहिता में एक नियम है कि मैं जाति-वर्ण के आधार पर किसी को अस्पृश्य या उच्च-नीच नहीं मानूंगा। प्राचीन समय की भाँति वर्तमान में भी समाज में कुछ ऐसी मान्यताएँ स्थापित हो रही हैं, जो मनुष्य को उल्टी दिशा में अग्रसर करती हैं। पैसेवाला ही बड़ा योग्य है--यह भ्रान्त धारणा समाज में बड़ी हो गहित और विपरीत भावना फैलाती है। धर्म और सदाचार के लिए तो यह कुठाराघात ही है। जब लोगों की दृष्टि द्रव्य पर टिक जाती है तब वे न्याय, अन्याय कुछ नहीं समझते। वर्तमान की ग़रीबी, भ्रष्टाचार, चोर-बाज़ारी, मिलावट आदि समस्याएँ इसी मिथ्या मान्यता की जड़ से फूटी हैं। इनका समाधान तभी होगा जब यह भ्रान्त धारणा समाप्त होगी। मनुष्य का मूल्य उसके सद्गुण और सद्व्यवहारों पर होगा। हमारे मनीषी धर्माचार्य युग-युगों से समाज में सही सिद्धान्तों की स्थापना के लिए सत्प्रयत्न करते रहे हैं और कर रहे हैं। सामाजिक क्रान्ति और कल्याण के लिए शोभन सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा बहुत ज़रूरी है। चौ. ज. श. अंक १३५ For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति : विश्व-संस्कृति को अन्तरात्मा मुनि महेन्द्र कुमार 'कमल' संस्कृति मानव से जड़ी हई है। यद्यपि इस विराट् विश्व में मानव के अतिरिक्त देव-दानव, पशु-पक्षी आदि अनंत प्राणधारी हैं। उन सबकी नियत वृत्ति है, प्राप्त का भोग करना उनके जीवन का लक्ष्य है; लेकिन मानव की अपनी अनूठी विशेषता है। वह प्राप्त का भोग करने के साथ-साथ अपने विकास के चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने का भी अधिकारी है। इसके लिए उसने जो सिद्धान्त निश्चित किये, आचार-विचार की प्रक्रिया स्वीकार की, चिन्तन-मनन किया, उन सबका समवेत नाम है- संस्कृति; अतः संस्कृति का अर्थ और उद्देश्य हुआ सुख, शान्ति, समता एवं समन्वय का संतुलित विकास। अतीत में अनेक युग बदले, अभी बदल रहे हैं और अनागत में भी बदलते रहेंगे; लेकिन संस्कृति के स्वरों में परिवर्तन नहीं आया है और न आने वाला है। वह तो अनिकेतन-अनगार की तरह अन्तर्मुखी होकर अहर्निश अपनी विशिष्ट कल्याणकारी परम्पराओं द्वारा सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय सक्रिय है सर्वे सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माकश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥ संस्कृति का लक्ष्य है 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का प्रसार करना । वह शरीर को भी स्वस्थ देखना चाहती है और आत्मा को भी बलिष्ठ। उसकी दृष्टि में न तो तन उपेक्षणीय है और न मन अवगणनीय। उसे व्यक्ति का उदय भी इष्ट है और समष्टि का विकास भी; इसलिए अन्य शब्दों में हम यों कह सकते हैं- संस्कृति अर्थात् सर्वोदय। रूपरेखा, उद्देश्य, लक्ष्य में अन्तर नहीं होने से यद्यपि संस्कृति के स्वरूप आदि में भेद-कल्पना संभव नहीं है; फिर भी वैदिक संस्कृति, बौद्ध संस्कृति, पाश्चात्य संस्कृति आदि नामकरण होने का उन-उनकी दार्शनिक चिन्तन-मनन की विशेष पद्धतियाँ और उस पर आधारित आचार-व्यवहार की प्रक्रियाएँ हैं। यही दृष्टि जैन संस्कृति के नामकरण का आधार है। जैन संस्कृति यानी वीतरागता की संस्कृति, आत्मपुरुषार्थ को जाग्रत करनेवाली संस्कृति, पुनर्जन्म के नाश के उपायों को बतानेवाली संस्कृति, लोकषणाओं से अतीत निराकुल आनन्द का आदर्श उपस्थित करनेवाली संस्कृति । अन्य संस्कृतियाँ जहाँ भोगप्रधान हैं, दैहिक जीवन में अधिक सुख-सामग्री का भोग करना लक्ष्य है, वहीं जैन संस्कृति का ध्येय है निवृत्ति-परकता। इसमें त्याग पर सबसे अधिक बल दिया गया है। इसकी प्रत्येक क्रिया में त्याग के बीज निहित हैं। तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें जो जितना अधिक त्याग करता है, उसका उतना ही ऊँचा स्थान माना जाता है। बड़े-बड़े सम्राटों को त्यागियों के समक्ष झुकते और गुणगान करके अपने को कृतकृत्य समझते हुए बताया गया है, न कि किसी योगी, त्यागी को भोगी की प्रशंसा करते हुए। यह कहना तो सत्य है कि जैन संस्कृति में निवृत्ति पर सबसे अधिक बल दिया गया है, लेकिन इसके अनेकान्त दर्शन की अनुयायी होने के कारण प्रवृत्ति को भी उचित स्थान प्राप्त है। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों ही जीवन की दो विधाएँ हैं; जिनका उद्देश्य जीवन को पावन बनाना है। दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। प्रवृत्ति में भी निवृत्ति के तत्त्व निहित हैं और निवृत्ति में प्रवृत्ति के। ___कोई भी समाज या व्यक्ति एकमात्र प्रवृत्ति की भूल-भुलैयों में जीवित रह कर वास्तविक निवृत्ति नहीं साध सकता। यदि वह किसी तरह की निवृत्ति को न माने और प्रवृत्ति-चक्र का ही महत्त्व समझे तो यह निश्चित है कि वह संस्कृति के सामान्य धरातल का भी स्पर्श नहीं कर पायेगा। यही स्थिति प्रवृत्ति का आश्रय लिये बिना निवृत्ति के निराधार आकाश में रहनेवालों की होगी। दोष, बुराई, ग़लती से तब तक कोई नहीं बच सकता, जब तक वह दोष-निवृत्ति के साथ-साथ सद्गुणों और कल्याणमय प्रवृत्ति की ओर अग्रसर न हो। रोगी को स्वस्थ होने के लिए कुपथ्यत्याग के साथ पथ्य-सेवन करना भी आवश्यक है। दूसरी संस्कृतियों की तरह जैन संस्कृति के दो रूप हैं--एक बाह्य और दूसरा आन्तर। बाह्य रूप वह है, जिसको उस संस्कृति के अनुयायियों के अतिरिक्त दूसरे लोग भी आँख, कान आदि बाह्य इन्द्रियों से जान सकें; लेकिन संस्कृति का आन्तर रूप ऐसा नहीं है। आन्तर रूप अनुभूतिगम्य है। उसका साक्षात् दर्शन, आकलन तो वह कर सकता है जो उसे जीवन में तन्मय कर ले, आत्मसात् कर ले। जैन संस्कृति के बाह्य रूप में उन अनेक वस्तुओं का समावेश होता है, जो प्रकट हैं और जिनके लिए व्यक्ति की कायिक और वाचनिक प्रवृत्ति होती है। जैसे खान-पान , उत्सवत्यौहार, भाषा-प्रयोग, दैनिक जीवन में काम आने वाले उपकरण, उपासना-विधि आदि । इनका आन्तर रूप के साथ संबन्ध होता है और अनुयायि-वर्ग उस प्रवृत्ति को करके अपनी निष्ठा भी व्यक्त करता है, लेकिन यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि जहाँ और जब बाह्य अंग हो वहाँ और तब आन्तर रूप होना ही चाहिये, क्योंकि आन्तर रूप इतना व्यापक है कि किसी एक दो बाह्य अंगों से उसकी यथार्थता का अनुमान नहीं लगाया जा सकता । इस स्थिति में प्रश्न यह है कि जैन संस्कृति का आन्तर रूप क्या है ? इसका उत्तर ऊपर दिया जा चुका है कि निवृत्ति निवर्तक धर्म जैन संस्कृति की आत्मा है । निवृत्ति के सामान्य अर्थ का भी संकेत किया गया है-'त्याग', लेकिन 'त्याग' शब्द में भी एक चौ. ज. श. अंक १३७ For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहस्य गभित है कि सुख जीवन-मात्र का स्वभाव है और वर्तमान जीवन में जो सुख प्राप्त हो रहा है, वह क्षणिक एवं पराश्रित है, अतः वास्तविक सुख प्राप्त करने के लिए लौकिक पदार्थों के प्रति मूर्छा का त्याग करना एवं आत्मज्ञानमूलक अनासक्त भाव की क्रमशः वृद्धि करके निराकारता में रमण करना ; अर्थात् पुनः पुनः जन्म और देह धारण न करना पड़े ; ऐसी साधना करना । जैन संस्कृति के उक्त आन्तर रूप', त्याग, निवृत्ति को ध्यान में रखकर अनादिकाल से अनेकानेक साधकों ने चिन्तन, मनन एवं आचरण द्वारा आचार और विचार के क्षेत्र में अन्वेषण करके जो सिद्धान्त निश्चित किये, उनमें त्याग-प्रत्याख्यान की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है। यदि गणना की जाए तो उनकी संख्या काफी बड़ी होगी और दृष्टिकोण की विभिन्नताओं से नानारूपता दोखेगी; लेकिन सामान्य रूप से सरलता से समझने के लिए जैन संस्कृति के मुख्यतः चार सिद्धान्त हैं : अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त, आत्मा और कर्म का अस्तित्व । सामान्यतया अहिंसा का अर्थ है--'न हिंसा अहिंसा' यानी हिंसा न करना व प्रमाद और कषाय के वशीभूत होकर किसी भी प्राणी के प्राणों का हनन करना हिंसा है; अतः की स्पष्ट व्याख्या यह हई कि प्रमाद एवं कषाय के वश स्व-पर के प्राणों का घात न करना, वियोग न करना; किन्तु रक्षा करना । प्राणों का वियोग सिर्फ शारीरिक और वाचिक प्रवृत्ति द्वारा ही नहीं; किन्तु वैर, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, लोभ, लालच आदि मानसिक विकृतियों द्वारा भी होता है । इन सब विकृतियों से निवृत्त होने का नाम अहिंसा है। यद्यपि अहिंसा में त्याग का आशय गभित है, लेकिन अपने प्रवृत्तिमूलक दृष्टिकोण के द्वारा विश्व के समग्र चैतन्य को यह समानता के धरातल पर ला खड़ा करती है । समग्र जीवधारियों में एकता देखती है, समानता पाती है, उन्हें जीवन जीने और सुख-प्राप्ति की कला सिखाती है। प्रत्येक युग में आधिपत्य और आर्थिक एकाधिकार की प्रवृत्ति ने हिंसा को जन्म दिया है । अभाव, असमानता एवं असंतोष की अग्नि सुलगायी है। इसका एकमात्र कारण परिग्रह है। परिग्रह का अर्थ है - प्राप्त वस्तु पर स्वामित्व स्थापित करने के अतिरिक्त अप्राप्त अनुपयोगी वस्तुओं में भी मूर्छा रखना, उनको अपना मान लेना, लेकिन विश्व के सम्पूर्ण भोगोपभोग के साधन धन, सम्पत्ति, वैभव पर न तो किसी का अधिकार हुआ है न होने वाला है और मान लो कि अधिकार हो भी जाए तो सबका उपयोग करना सम्भव नहीं है क्योंकि दैहिक जीवन-काल परिमित है और वैभव आदि अपरिमित । इसलिए इस स्थिति का निराकरण करने का उपाय यही है कि अपरिग्रह-वृत्ति का अंगीकार किया जाए। परिग्रह की कारा का परित्याग करके अपरिग्रह के अनन्त आकाश में विहार किया जाए, जिसका परिणाम होगा कि विश्व की समस्त संपत्तियाँ स्वमयमेव पाद-प्रक्षालन के लिए प्रतीक्षा-रत रहेंगी। १३८ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सारी स्थिति को समझकर ही जैन संस्कृति के सिद्धान्तों में अपरिग्रह की श्रेष्ठता को स्वीकार किया गया है कि मानव-समाज में धन, सम्पत्ति, वैभव का प्राधान्य न हो, जीवन का केन्द्र-चक्र केवल धन के पीछे घूमने लगे और मानवता की रक्षा एवं कल्याणकारी कार्यों की गति रुक न जाए, मानव अपनी पारमार्थिकता को समझे और तृष्णा के जाल से दूर रहे। ___इतिहास इस बात का साक्षी है कि व्यक्ति ने अपने एकांगी दृष्टिकोण से मूल्यांकन करके लोमहर्षक युद्धों में अपनी लिप्सा की पूर्ति की, फिर भी शान्ति नहीं हुई । दूसरी बात यह है कि प्रत्येक पदार्थ के स्वरूप, गुण-धर्मों का निर्णय एक निश्चित दृष्टि से नहीं किया जा सकता । यदि उसके पूर्ण रूप को समझना है तो भिन्न-भिन्न दृष्टि-बिन्दुओं से देखना-परखना होगा, इसलिए जैन संस्कृति के एकांगिक दृष्टियों का निराकरण करने, विविध और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली मान्यताओं का समन्वय करने, सत्य की शोध करने, संक्लेश को मिटाने और चिन्तन के विभिन्न आयामों व सिद्धान्तों को मुक्तामाला के समान एक सूत्र में अनुस्यूत करने के लिए अनेकान्त, स्याद्वाद को सिद्धान्त रूप में स्वीकार करके घोषित किया है-- पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष कपिलादिषु । युवितमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रह :।। जैन संस्कृति किसी अलौकिक ब्रह्मलोक से आये हुए या में रहने वाले ईश्वर को विश्व के कर्ता-हर्ता और धर्ता के रूप में न मान कर, ज्ञान, दर्शन' आदि अनन्त गुणों से युक्त स्वतन्त्र मौलिक तत्त्व आत्मा को कर्ता और भोक्ता मानती है। वह स्वयं कृत कर्मों के कारण ही सुख-दुःख की अनुभूति करती है। जैनों द्वारा मान्य आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व एवं कर्म-सिद्धान्त अन्य दार्शनिकों के सिद्धान्तों से भिन्न है। भूत-चैतन्यवादियों के अतिरिक्त शेष दार्शनिकों ने आत्मा के अस्तित्व को मानकर भी आत्मिक भावों और क्रियाओं को ही कर्म कहा है; जबकि जैनों ने भावों एवं क्रियाओं तथा उनके निमित्त से आत्मा के साथ संबद्ध होने वाले पौद्गलिक द्रव्य को भी कर्म माना है। यह संश्लिष्ट द्रव्य आत्मा के विकास में बाधा डालता है और संसार में भ्रमण करता है; लेकिन कर्म-बन्ध नष्ट होने पर आत्मा मुक्त हो जाती है, पुनः संसार में भ्रमण नहीं करती है। कर्मवाद का यह सिद्धान्त मानव को ईश्वर-कर्तृत्व एवं ईश्वर-प्रेरणा जैसे अन्धविश्वास से मुक्त करता है और आत्मा की स्वतन्त्रता का, स्व-पुरुषार्थ का ध्यान दिलाता हुआ इस रहस्य को प्रकट करता है कि प्रत्येक आत्मा में नर से नारायण बनने की असीम शक्ति निहित है। जैन संस्कृति के पूर्वोक्त सिद्धान्त अनादिकाल से जैन परम्परा में मान्य हैं। तीर्थंकरों ने उपदेश द्वारा ही नहीं, आचरण द्वारा भी इन सिद्धान्तों को ओजस्वी चौ. ज. श. अंक १३९ For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप दिया है तथा उत्तरवर्ती काल में श्रमण और श्रावक वर्ग भी उन आदर्शों को उत्प्राणित करने का प्रयत्न करते रहे हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि अनेक कठिनाइयों के बीच भी उन्होंने अहिंसा, संयम, तप, त्याग आदि आदर्शों के हृदय को संभालने का प्रयत्न किया है और जब कभी सुयोग मिला तभी त्यागी तथा राजा, मंत्री, व्यापारी आदि गृहस्थों ने अपने-अपने ढंग से इसका प्रचार किया है। परिणाम यह हुआ कि सिद्धान्ततः सर्वभूत दया को सभी के मानने पर भी जहाँजहाँ और जब-जब जैन लोगों का किसी-न-किसी प्रकार का प्रभाव रहा, सर्वत्र साधारण जनता में प्राणि-रक्षा के संस्कार अत्यधिक प्रबल बने हैं। उनके आचारविचार स्वयं की प्राचीन परम्पराओं एवं सांस्कृतिक सिद्धान्तों से बिल्कुल पृथक् हो गये। तपस्या के बारे में भी यही हुआ कि जैन तपस्या की देखा-देखी उन्होंने एक या दूसरे रूप में अनेकविध सात्त्विक तपस्याएँ अपनायीं। जन्मजात मांस-भक्षी और मद्यपायी जातियों ने कुव्यसनों के रोकने में सहायता दी और वे स्वयं भी खुले आम मद्य-मांस का उपयोग करने में सकुचाती हैं; शिष्टता, सभ्यता के विपरीत समझती हैं। अनेकान्त एवं कर्म-सिद्धान्त की चर्चा का परिणाम यह हुआ कि कट्टर से कट्टर विरोधी सम्प्रदायों और दार्शनिकों ने अपने सिद्धान्त के विवेचन एवं लोक व्यवस्था और व्यवहार की यथार्थता को स्पष्ट करने के लिए इन्हें स्वीकार किया है, इनसे प्रेरणा ली है। जैन संस्कृति का उद्देश्य मानवता की भलाई है और उसके सिद्धान्तों में मानवीय भावनाओं का समावेश है; लेकिन कोई भी संस्कृति केवल अपने इतिहास एवं यशोगाथाओं के सहारे जीवित नहीं रह सकती है और न ही प्रशंसनीय हो सकती है। यह तभी संभव है जब उसका अनुयायि-वर्ग तदनुरूप प्रवृत्ति करे, और प्राणिमात्र के योग-क्षेम की ओर अग्रसर हो; अतः हमारा कर्तव्य है कि बाह्य-रूप के विकास द्वारा ही जैन-संस्कृति के सुरक्षित होने के भ्रम को त्यागकर अतीत की तरह वर्तमान में भी उसके हृदय की रक्षा का प्रयत्न करें, उसे जीवन-वृत्ति का अभिन्न अंग बनायें। व्यक्ति व समाज का धारण, पोषण और विकास करनेवाली प्रवृत्तियों को स्वीकार करने एवं विकृत धारणाओं, कार्यों का त्याग करने में ही जैनत्व का गौरव गभित है। 'जो किसी से उधार ले आयेगा, उससे लेने के लिए भी वह आयेगा, इसी प्रकार तुम किसी के प्राण लोगे तो वह भी अवसर मिलने पर तुम्हारे प्राण लेगा। अगर तुम किसी के प्राण नहीं लोगे तो तुमसे कोई बदला लेने नहीं आयेगा। किसी भी प्रकार का बदला न चुकाना पड़े, ऐसी स्थिति प्राप्त हो जाना ही मोक्ष कहलाता -मुनि चौथमल १४० तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : उत्पत्ति और अस्तित्व स्व. पं. 'उदय' जैन धर्म, साधारणतया एक संप्रदाय, पंथ, सामुदायिक मान्यता और सामाजिक व्यवस्था के मानदण्ड के रूप में व्यवहृत होता है । धर्म एक ऐसी व्यवस्था है, जो किसी मानवसमुदाय की कामनाओं की पूर्ति में योग दे सके और तृप्त कर सके । उस-उस समूह की जीवन जीने या व्यवहार-निर्वाह की प्रणाली को भी धर्म कह सकते हैं । और शान्ति और व्यवस्थापूर्वक जीवन-यापन की कला का नाम भी धर्म है। धर्म की अनेक व्याख्याएँ हैं । वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं । जो धारण किया जाता है वह धर्म है। जिससे आत्मा की उन्नति और कल्याण की सिद्धि होती है, वह आचरण-प्रणाली धर्म कहलाती है। ये सब ठीक हैं । धर्म की पारिभाषिक व्याख्याएँ हैं। सभी धर्मों, मान्यताओं एवं विद्वानों की व्याख्याएँ भिन्न-भिन्न हैं। व्यवस्थाएँ पृथक्-पृथक् हैं और पालन-क्रियाएँ अलग-अलग हैं । कई विद्वान् धर्म की उत्पत्ति भय के कारण मानते हैं। कई इच्छित लाभों की प्राप्ति के लिए धर्म का उत्पादन मानते हैं । सामान्यतया विशिष्ट महापुरुषों , अवतारों, अपौरुषेय शक्ति और भगवानों द्वारा प्ररूपित मानव-हितैषी मार्गों के रूप में उत्पन्न धर्म माना गया है ; अर्थात् तीर्थंकर तथा अवतारों ने धर्म की उत्पत्ति की है। ऋषियों, महषियों मसीहाओं, पैगंबरों आदि द्वारा धर्म-प्रवर्तन ऐतिहासिक सत्य है, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। कहना न होगा कि सभी जीव जीना चाहते हैं। सभी में जिजीविषा है; जहाँ जीने की इच्छा है, वहाँ जीवन है और जीवन विस्तार के दृश्य भी आलोकित हैं। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई पसंद नहीं करता अतः यह आवश्यक हो गया कि जीने में एक जीव दूसरे जीव को अपना योग दे, सहकार करे। जब यह भावना जीवों में पैदा होती है धर्म के रूप का आविर्भाव होता है । किस तरह जीना और किस प्रकार का सहयोग देना इन विचारों से धर्म की उत्पत्ति का आभास मिलता है। कई विद्वान् कहते हैं कि धर्म तीर्थंकरों और महापुरुषों द्वारा प्रवर्तित है, लेकिन वस्तुस्थिति यह नहीं है। जब जीव का युगल बनता है और युगलों से समाज-रचना होती है ; तब से सहज ही उनको एक-दूसरे के साथ रहने, बसने, उठने, बैठने, सोने, खेलने, कूदने, हंसने, पढ़ने, लिखने एवं उत्कर्ष करने के लिए व्यवस्थाएँ देनी होती हैं । ऐसी व्यवस्थाएँ जो सहभावी सामाजिक जीवन-यापन के शान्तिपूर्ण अवसर दे सके, आगे जाकर धर्म कहलाती हैं। विनय, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सत्य, ईमानदारी, चौ. ज. श. अंक १४१ For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय-प्रतिबद्धता आदि व्यवस्थाएँ धर्म के रूप में अवतरित हुईं। ऐसी व्यवस्थाओं में जबजब विशृंखलताएँ पैदा होती हैं-शान्ति और अव्यवस्था फैलती है; तव महापुरुष उन्हीं सन्मार्गों का पुन: आव्हान करते हैं। वे मार्ग भी समय-समय पर धर्म बन जाते हैं; लेकिन भिन्न-भिन्न समय और क्षेत्र के ये रूढ़ मार्ग प्रायः अव्यवस्था और अशान्ति फैलाते हैं। ___जीवों की सहज वृत्ति जीते रहने की है । अमर बनने की है। अमरता की भावना ने स्वर्ग की और उसो कार मोक्ष की कल्पना कर डाली है। धर्म का विकसित रूप इसी से भासित होता है। धर्म, समाज में रहनेवाले प्राणियों की व्यवस्था और शान्ति बनाये रखने के निमित्त पैदा हुआ और प्रसारित होता आ रहा है। जहाँ-जहाँ पशु-समाज, पक्षी-समाज, जलचरसमाज और अन्य प्राणि-समाज तथा मानव-समाज है वहाँ सभी जगह जीवन जीने की कला के रूप में धर्म विद्यमान है। धर्मज्ञान और विज्ञान वर्तमान है; अत: कहना न होगा कि प्रत्येक प्राणी के जीवन जीने के साथ धर्म का प्रादुर्भाव निश्चित है। भगवान् महावीर ने इसीलिए 'परस्परोऽपग्रहो जीवानाम्' का मूल मंत्र फूंककर धर्म की व्याख्या की है। धर्म की उत्पत्ति जिजीविषा एवं व्यवस्था तथा शान्तिमय जीवन जीने की कला के उद्गम के साथ अस्तित्व में आयी है । ___ जब तक किसी भी पृथ्वि-पिण्ड पर जीवन वर्तमान रहेगा; धर्म रहेगा। धर्म शाश्वत है, धर्म अविभाज्य है। धर्म सहभावी है । और धर्म जीवन का आधार है । जीव बिना धर्म नहीं है । अजीव बिना भी धर्म नहीं । जीव और अजीव के मिश्रण में धर्म है, धर्म या धर्म रहेगा। जीव और अजीव के पृथकत्व में भी सत्ता रूप धर्म कायम है, था और रहेगा। धर्म की कैसी भी व्याख्या हो, धर्म के साथ कितने ही शब्द जोड़ दिये जाएँ, धर्म का कितना भी परिवर्तन कर दिया जाए; लेकिन धर्म के बिना जगत् की गति नहीं, स्थिति नहीं और परिवर्तन नहीं। उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यमय सत् लक्षणवाले द्रव्य के अस्तित्व में धर्म सदा वर्तमान है । मुक्ति की कल्पना और मुक्ति के स्वरूप में धर्म की स्थापना है। ___ धर्म का अस्तिकाय रूप को भी हम देखें तो लोक के सम्पूर्ण भाग में वह वर्तमान है। धर्म का जो भेद हमने पंथ के रूप में मान रखा है, वह धर्म का विकृत रूप है। ऐसे धर्म के कर्म, नियम आचरण और प्रवर्तन अलग-अलग होते हैं, लेकिन सब जीवों के जीवन से संबन्धित सही धर्म सब का एक है, अखण्ड अनादि तथा अनन्त है। धर्म के अस्तित्व को कभी खतरा नहीं। खतरा है, धर्म के विकृत रूप और उस रूप के प्रचारकों के अस्तित्व का। मानव-समाज के अखण्ड रूप को विभाजित करने वाले ऐसे धर्म बदलते रहते हैं और एक दूसरे को नष्ट करने के लिए मानवों का संहार तक करते रहते हैं। ऐसे धर्मों का बहिष्कार करना और सहभावी जीवनदायी धर्म का प्रसार करना हमारा परम कर्तव्य है। १४२ त्तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सरी : एक विचारणीय पक्ष क्या यह संभव नहीं था कि पूरे जैन समाज को एक प्रतिनिधि सभा बुलाकर पर्युषण के संबन्ध में एक सर्वसम्मत निर्णय लिया जाता, जो हमारी सामाजिक एकता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम होता ? - सौभाग्यमल जैन पत पूर जैन समाज में पर्युषण पर्व का महत्त्व स्वीकृत है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में 'पर्युषण' तथा दिगम्बर सम्प्रदाय में 'दशलक्षण' पर्व के नाम से विख्यात यह एक आध्यात्मिक पर्व है । इसके अन्तिम दिन क्षमायाचना की जाती है। अविस्मरणीय काल से मानव एक-दूसरे के प्रति अपनी की हुई भूल, अविनय, अपराध के लिए क्षमा की याचना करता तथा दूसरे को क्षमादान करता है। इस अत्यन्त कोमल भावना से परिपूर्ण आध्यात्मिक पर्व को मनुष्य जितने शद्ध हृदय से पालन करे, उतना ही उसका कल्याण होगा यह संदेह से परे है, किन्तु वर्षों से इस पर्व ने भी एक रूढि और औपचारिकता का स्थान ले लिया है। यही कारण है कि नाम पर भी मतभेद कायम है। जिस वर्ष अधिक मास होता है उस वर्ष पर्युषण कब मनाया जाए? यह प्रश्न चिन्तनीय हो जाता है। वैसे म्बर परम्परा में ही संवत्सरी को कुछ समदाय चौथ को तथा कुछ लोग पंचमी को मनाते ही हैं। चतुर्थी तथा पंचमी का अन्तर तो प्रति वर्ष का ही है। यदि वास्तव में देखा जाए तो पर्युषण पूरे वर्ष मनाया जाए तो कोई हानि नहीं है। इसमें भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? किन्तु मनुष्य इतना आध्यात्मिक तो है नहीं कि पर्युषण पर्वजसा व्यवहार पूरे वर्ष तक रख सके । सामाजिक एकता के लिए यह आवश्यक है कि पूरा जैन समाज एक ही समय पर्युषण मनाये। यदि यह संभव न हो तो कम-से-कम यह तो किया ही जा सकता है कि श्वेताम्बर तथा दिगम्बर परम्परा अलग-अलग दिनों में मना लें, किन्तु इस वर्ष तो यह देखा गया कि श्वे. स्थानवासी परम्परा में एकाध अपवाद को छोड़कर पूरे समाज ने एक समय ही पर्युषण मनाया। किन्तु श्वे. देरावासी समाज में किसी ने द्वितीय श्रावण में किसी ने भाद्रपद में पर्युषण मनाया। दिगम्बर परम्परा ने भी पर्युषण पर्व भाद्रपद में ही मनाया। यह सुखद विषय है कि स्थानकवासी समाज में द्वितीय श्रावण या भाद्रपद संबन्धी पुरातन मतभेद के बाद भी एकता के लिए अधिकतर साधु-मुनिराज ने द्वितीय श्रावण में ही पर्युषण मनाने का तय कर लिया। क्या यह संभव नहीं था कि पूरे जैन समाज की एक प्रतिनिधि सभा बुलाकर पर्युषण के संबन्ध में एक निर्णय लिया जाता, जो सामाजिक एकता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदन होता, किन्तु अब तो पर्युषण मना लिये गये हैं अतः अब यह प्रश्न अतीत का हो गया है । __ अगस्त १९७७ की अगर भारती' में कविरल अमर मुनिश्री का एक अत्यन्त विश्लेषणात्मक लेख प्रकाशित हुआ जिसका शार्षक है 'पर्युषण कब ? एक चिन्तन'। उक्त लेख में श्रद्धेय मुनिजी ने शास्त्रीय उद्धरण तथा प्राचीन परिपाटी का विश्लेषण करके यह प्रतिपादित किया है कि चातुर्मास (वर्षावास) की परम्परा भगवान् महावीर ने ही प्रारंभ की थी। उनके पूर्व कोई परम्परा नहीं थी । महाविदेह क्षेत्र में आज भी नहीं है। तात्पर्य यह है कि हमारी परम्परा में देशकालानुसार परिवर्तन होता रहा है। श्रद्धेय मुनिश्री के मतानुसार जैन मान्यता में अधिक मास का प्रश्न असंगत है । वर्षावास के चौ. ज. श. अंक १४३ For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल में अधिक मास नहीं माना जाता; किन्तु वर्षों से लौकिक मान्यता के कारण जैन समाज ने भी चातुर्मास काल में वृद्धि मान ली तथा यह विवाद उत्पन्न हो गया। मैं शास्त्रों का अध्येता नहीं, किन्तु एक साधारण बुद्धि का व्यक्ति होने के नाते यह जानता हूँ कि पृथ्वी या सूर्य (जो भी गति करता हो) वर्ष भर में चक्कर लगाता है। वर्ष के काल को मानव ने सुविधा के लिए १२ भाग करके नामकरण कर दिये हैं। केवल यही नहीं उन १२ भागों के नाम भी निश्चित कर दिये वरन् १-१ भाग के ३०-३० भाग करके भी उनके नाम निश्चित कर दिये। यह सारी प्रक्रिया मानव-कृत है। यदि मास तथा दिन के नाम शाश्वत या किसी प्राकृतिक शक्ति द्वारा निश्चित किये होते तो भाषा-भेद के पश्चात् भी पूरे विश्व में एक से नाम ही होते । मानव द्वारा निश्चित इन नामों के पीछे इतना विवाद अल्पबुद्धि में नहीं आता नाम निश्चित कर्ता मानव को हम ज्योतिषी कह सकते हैं। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है जैन ज्योतिष के हिसाब से श्रावण या भाद्रपद अधिक मास नहीं होता। शायद इस मान्यता के पीछे प्राचीन जैन ज्योतिष के विद्वानों अथवा आचार्यों को यह भय होगा कि आगामी काल में मनुष्य अपनी मान्यता के प्रति अधिक आग्रह रखेंगे और यह आध्यात्मिक पर्व भी विवाद का कारण बन जाएगा। इस कारण उन्होंने यह व्यवस्था की कि चातुर्मास काल में श्रावण या भाद्रपद की वृद्धि नहीं होती है। ___ जैसा कि ऊपर लिखा गया है संवत्सरी (श्वे. परम्परा) के संबन्ध में ही चतुर्थी या पंचमी का विवाद प्रति वर्ष का प्रश्न है अभी बम्बई से प्रकाशित गुजराती 'जैन प्रकाश के पर्यषणांक के पष्ठ ५४२ पर एक लेख प्रकाशित हआ है जिसमें अहमदाबाद (गजरात) में आयोजित भारतीय पंचांग परिषद् द्वारा निश्चित ४० राष्ट्रीय त्यौहारों का विस्तृत समाचार पत्रों में प्रकाशित होना बताया गया है। उस समाचार में यह भी निर्देश था कि संवत्सरी भाद्र शुक्ल चतुर्थी को मान्यता दी गयी है। इस समाचार पर से भारतीय पंचांग परिषद् से पत्र-व्यवहार करने पर इसके अध्यक्ष का २१ जुलाई ७७ का पत्र गुजराती 'जैन प्रकाश' के संपादक को प्राप्त हुआ है उस उत्तर में उन्होंने स्पष्ट बताया है कि चतुर्थी तथा पंचमी दोनों का उल्लेख हमने कर दिया है, किन्तु यदि प्राचीन शास्त्रीय उद्धरण हमें भेजे जाएँ तो हम ऐसा प्रयत्न करेंगे कि जिससे निर्णय सर्वग्राही बन सके । उक्त समाचार में निहित प्रश्न को गंभीरता से लिया जाना चाहिये तथा जैन समाज को गहराई से सोच-विचार कर एक तिथि निश्चित करना चाहिये ताकि भारतीय समाज तथा राष्ट्र के सन्मुख हम इस आध्यात्मिक पर्व के संबन्ध में एक्य प्रकट कर सकें। एक आदर्श, एक धर्माचार्य, एक सिद्धान्त के बाद भी हम अपने आध्यात्मिक पर्व के संबन्ध में अनाग्रही न बन सके यह हमारे लिए अत्यन्त हास्यापद स्थिति है। इस या ऐसे ही संदर्भो में जब तक हम एक नहीं होंगे तब तक सरकार हमें नहीं मानेगी और इसी कारण इस महान आध्यात्मिक पर्व पर भी हम राष्ट्रीय अवकाश स्वीत नहीं करा सकेंगे। मुझे स्मरण है कि संवत्सरी पर्व पर अवकाश न होने के कारण एक स्थान के श्वेताम्बर जैन समाज के एक सदस्य को एक फौजदारी मुकदमे के निर्णय के लिए उपस्थित होना पड़ा था तथा दुर्भाग्य से उसे कैद की सजा हुई थी परिणाम यह हुआ कि उनको सांवत्सर प्रतिकमण (यदि किया हो) जेल के भीतर ही करना पड़ा होगा । इन सारी विषम परिस्थितियों में कभीकभी हृदय में यह विचार आता है कि क्या अंग्रेजी ज्योतिष के हिसाब से निश्चित तारीख तथा महीने हम नहीं अपना सकते ताकि अधिक मास या तिथि वृद्धि-क्षय का प्रश्न ही समाप्त हो जाए। यदि हमारा नेतृत्व एक मत नहीं हुआ तो वह दिन दूर नहीं जब युवा-वर्ग उपयुक्त विचार को अपना समर्थन देने लगे। १४४ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. अयोध्याप्रसाद गोयलीय के जन्म-दिन (७ दिस. १९७७) पर विशेष गोयलीयजी : बेटे के आईने में • आदरणीय ताऊजी और पिताजी दिल्ली में एक साथ गिरफ्तार हुए। दादी ने अपने दोनों बेटों को जी-भर कर आशीर्वाद दिया और कहा-“मैंने तुम्हें इसीलिए (आज के लिए) जना था” । जनता ने जयजयकार की। मुझे लिफाफे पर रखी दुअन्नी की बात समझ में नहीं आयी। टफ्तर में मैनेजर से बातचीत के दौरान पूछा तो उन्होंने बताया-"मंत्रीजी, व्यक्तिगत डाक में 'ज्ञानपीठ' का पोस्टेज खर्च नहीं करते हैं। दुअन्नी टिकिट के लिए दी है। 0 श्रीकान्त गोयलीय पूर्वज जन्म पिताजी का जन्म रविवार, ७ दिसम्बर १९०२ को बादशाहपुर (जिला गुड़गाँवा, राज्य हरियाणा) में हुआ था। आपके माता-पिता श्रीमती जावित्रीदेवी और श्रीरामशरणजी थे। खानदानी व्यवसाय बज़ाजे का करते थे। बाबा शास्त्रों के विद्वान् थे। शास्त्र की बारीकियाँ समाज को बताते थे। वे अपनी सरलता, सादगी एवं उच्च विचार के लिए विख्यात थे। जनश्रुति है कि वे दिगम्बरावस्था में जिनदर्शन करते थे। दादी बहुत बहादुर, मेहमान-नवाज़, मधुभाषी और कहानी कहनेगढ़ने में बहुत प्रवीण थीं। पिताजी ने अपने पूर्वजों एवं हमारे बाबा-दादी के गुणों को विरसे में पाकर उन्हें और निखारा। पिताजी जब ३॥ साल के थे, तभी बाबा का साया उनके सिर से उठ गया था। पुश्तैनी मकान और व्यवसाय को मज़बूरन छोड़कर पिताजी और दादी कोसीकलाँ (मथुरा) आगये। वहाँ पिताजी के मामा-मामी एवं नानी ने उन्हें बहुत स्नेह दिया। पिताजी के मामा लाला भगवन्तलालजी बहुत आन-बान के व्यक्ति थे। वे कोसी के श्रेष्ठ नागरिक थे। अध्ययन पिताजी की प्रारम्भिक पाठशाला चौरासी (मथुरा) थी। वहाँ आप गुरुजनों एवं विद्यार्थियों के बीच चरित्र के विलक्षण गुणों से सर्वप्रिय बन गये। हस्तलिखित पत्र 'ज्ञानवर्द्धक' के सम्पादक बने । यही पत्र आपके साहित्य रूपी वृक्ष का बीज बना। चौ.ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु पंडित उमरावसिंह न्यायतीर्थ ने उन्हें लेखनी और वाणी का आशीर्वाद दिया। चौरासी में उन्होंने मध्यमा (संस्कृत-हिन्दी) तक का अध्ययन किया। अनुभव : जीवन-सूत्र प्रकाश-स्तम्भ पिताजी अपने ननिहाल में थे। उम्र १५-१६ वर्ष होगी। लालटेन में तेल भर रहे थे। अंधेरा हो चला था। तेल की धार और लालटेन के मुंह में ज़रा-सा मेल बिगड़ा। तेल जमीन पर फैल गया। किरासन तेल मात्रा के अनुपात में फैलता ज्यादा है। मामाजी पास लेटे हुए थे। उन्हें खबर मिली तो लेटे-ही-लेटे धीरे-से कहा-“कमायेगा, तो नहीं गिरायेगा।" - पिताजी ने उसी समय संकल्प किया, कमाकर दिखाना है और अपनी कमाई का तेल भी गिराकर दिखा देना है। यह संस्मरण पिताजी अपनी ज़िन्दगी में बहुत दफ़े दुहराते हुए कहते-“कमाना तो उसी समय से शुरू कर दिया था, लेकिन आज तक अपनी कमाई का तेल ज़मीन पर गिरा नहीं सका हूँ"। जीविका/राजनीति में प्रवेश अपने पूर्वजों के नाम को रौशन करने के लिए पिताजी दिल्ली आगये। बाबा की बुआ (बैरिस्टर चम्पतरायजी की बहन मीरो) के वात्सल्यपूर्ण निर्देशन में उन्होंने एक छोटा-सा मकान लिया और बजाजे का पुश्तैनी कार्य संभाला। उनकी मिठास और ईमानदारी पर ग्राहक रीझे रहते थे। कारोबार चल निकला । सुबह-शाम सामायिक, स्वाध्याय और जिन-दर्शन उनका स्वभाव हो गया। पहाडी धीरज (दिल्ली) में ताऊजी (श्री नन्हेंमलजी जैन) के सहयोग से 'जैन संगठन लाइब्रेरी सभा' की स्थापना की और उसके मंच से सामाजिक, राजनैतिक और साहित्यिक उत्सव किये। हिन्दी-उर्दू साहित्य एवं भारतीय इतिहास के उद्धरण उनके भाषणों में प्रवाह लाते। वे वाणी के जादूगर हो गये। दिल्ली के पहाड़ी धीरज और चाँदनी चौक ने उन्हें अपना राजनैतिक नेता माना। चाँदनी चौक की विशाल जनसभा में धाराप्रवाह भाषण दे रहे थे। 'देहलवी टकसाली जुबान और मौके के चुस्त शेर' भीड़ को भारतमाता की बेड़ियाँ तोड़ने पर जोश भर रहे थे। पुलिस-उच्चाधिकारी ने अदालत में कहा था-"गोयलीय साहब को सभा में गिरफ्तार करना बहुत मुश्किल था। आप अवाम पर छाये हुए थे। पूरी भीड़ हम पर टूट पड़ती; अतः हमने मीटिंग ख़त्म होने पर ही गोयलीयजी को गिरफ्तार करना मुनासिब समझा।" आदरणीय ताऊजी (लाला नन्हेंमलजी जैन) और पिताजी दिल्ली में एक साथ गिरफ्तार हुए। दादी ने अपने बेटों को जी भरकर आशीर्वाद दिया और कहा, "मैंने तुम्हें इसीलिए (आज के लिए) जना था।" जनता ने जयजयकार की। १४६ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताऊजी और पिताजी दिल्ली के प्रथम नमक-सत्याग्रही थे। दिल्ली में सबसे पहले नमक बनाकर उन्होंने बेचा । महामना मालवीयजी ने स्वयं उनसे नमक खरीदा था। पिताजी ने ३ साल की 'सो' क्लास बामशक्क्क़त कैद सहर्ष मंजूर की। जेल में वे मूंज बँटते, चक्की चलाते। छह माह पिताजी ने रोटी नमक और पानी से लगाकर खायी। उनके मौन सत्याग्रह पर जेल अधिकारियों का ध्यान गया। अलग से बिना प्याज की सब्ज़ी बनने लगी। जेल में समय का उपयोग अध्ययन में किया। सर इक़बाल की 'बांगेदरा' और 'बालेजबरील' जेल में पढ़ डाली। अल्लामा इक़बाल का 'कलाम-ओ-फ़लसफ़ा', उनकी भाषा, वाणी और ज़िन्दगी का ओढ़नाबिछौना हो गया। मास्टर काबुलसिहजी और क़ौमी श्री गोपालसिंह उनके मौण्टगुमरी और मियाँवाली जेल के ख़ास साथियों में थे। शहीदों के शहीद भगतसिंह की सीट पर पिताजी को १२ घंटे रहने का फ़ा हासिल है। ___कारावास के अनुभवों को पिताजी ने अपनी कहानी की पुस्तकों ‘गहरे पानी पैठ' 'जिन खोजा तिन पाइयां' 'कुछ मोती कुछ सीप' और 'लो कहानी सुनो' (सभी भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित) में पिरोया है । ये अनुभव अब साहित्य की बहुमूल्य थाती हैं। उनके जेल से छूटने का दिल्लीवासी बहुत बेताबी से इन्तज़ार कर रहे थे। भव्य स्वागत-योजना थी। कारावास पिताजी आत्मशुद्धि के लिए गये थे। जेल से वे चुपचाप घर आ गये। लाला शंकरलाल' और श्री आसफअली घर पर मिलने आये। पिताजी के त्याग एवं देशसेवा की सराहना की । श्री देवदास गांधी ने गाँधी आश्रम में पिताजी को सर्विस देनी चाही; किन्तु उन्होंने देशसेवा का मुआवज़ा स्वीकार नहीं किया। उनका दिल्ली के क्रान्तिकारियों से बहुत घनिष्ट सम्पर्क था। अपने ओजस्वी विचारों से वे आजीवन कारावास जाने वाले थे । पालियामेन्ट में साइमन कमीशन पर बम फेंका जाएगा, इसकी जानकारी उन्हें बहुत पहले से थी। राजनैतिक शिष्यों में क्रान्तिकारी श्री विमल प्रसाद जैन और श्री रामसिंह प्रमुख हैं। वे श्री अर्जनलालजी सेठो से बहुत प्रभावित थे। सेठोजी पर उनके लिखे संस्मरण ('जैन जागरण के अग्रदूत' भारतीय ज्ञानपीठ काशी) बहुत सजीव एवं मार्मिक बने हैं। चाचा सुमत उनका परिचय एवं स्नेह श्री सुमतप्रसादजी जैन से हुआ। उस समय वे सेंट स्टीफेन्स कालेज के होनहार छात्र थे । वे अंग्रेजी-उर्दू कविता के बहुत बड़े प्रशंसक एवं पारखी थे। ग़ालिब और इक़बाल के दीवान उन्हें कण्ठस्थ थे। पिताजी चौ. ज. श. अंक १४७ For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनसे शेर सुनते थे। शेर सुनाते नहीं थे। उनके लिखे खतूत कीमती शेरों के खजाने होते हैं। वक्त की बेबसी और परेशानी पर उनके पढ़े हुए शेर अपना सानी नहीं रखते हैं। उनके ख़त हमारे घर की धरोहर है। पिताजी ने 'शेर-ओ-शाइरी' उन्हीं को नज़र की है। पिताजी ने अपनी उर्दू पुस्तकों और कथा-कहानी में जगह-जगह उनकी तारीफ की है। बेशुमार शानदार मुशाइरे आपके बँगले पर हुए हैं। अनेक शुअरा उनके दस्तरखान पर तोश फ़र्मा चुके हैं। उनकी कोठी पर महीनों मेहमान रहे हैं। उनसे पिताजी को अपने अनुज सा स्नेह रहा है। उनसे, चाचीजी (श्रीमती सत्या जैन) और अपने भतीजों से पिताजी को बेहद मोहब्बत थी। ताऊजी : श्री नन्हेंमलजी जैन 'जैन संगठन सभा' ने एक और घनिष्ठ हितैषी दिया है। वे हैं ताऊजी लाला नन्हेंमल जी जैन। पहले यह परिचय प्रगाढ़ प्रेम में और फिर भाई के रिश्ते में परिणत हो गया। कुछ ही दिनों में दोनों दो शरीर एक प्राण जैसे सखा हो गये। शानदार दावत देने का उन्हें बहुत शौक़ था। वे बहुत बड़े मुन्तज़िम थे। उनकी व्यवस्था हर तरह से मील का पत्थर होती । उनमें गजब की भविष्य-दृष्टि थी। वे बहुत उदार और सुन्दर थे। मेरे जन्म पर उन्होंने पहाड़ी धीरज पर बढ़िया दावत की थी। ख़र्च करने में उनका हाथ खुला हुआ था। सन् १९२५ से आज तक ताऊजी के परिवार से वही पारिवारिक रिश्ता निभ रहा है। जैनेन्द्रजी पिताजी से उनका परिचय सन् १९२५ से है । पिताजी के शब्दों में"जैनेन्द्रजी सभा में आते। हर विषय पर अपनी मौलिक राय देते। सभा में बैठते लगता कोई बड़ा आदमी बैठा हुआ है। जैनेन्द्र की ‘पर्सनेलेटी' बहुत ही शानदार है। जैनेन्द्र पर किसी का रौब ग़ालिब नहीं होता। वह पैदायशी बड़ा आदमी है। वह गाँधी के पास हो गाँधी को अहसास होगा, सामने जैनेन्द्र बैठा हुआ है। जैनेन्द्र को क्रोध नहीं आता। जैनेन्द्र पहले एक शब्द पर कहानी, उपन्यास लिखने की क्षमता रखते थे, अब एक वाक्य शुरू का दूसरा व्यक्ति कहे और जैनेन्द्र जी उस पर उपन्यास, कहानी लिख देंगे। क्या ख बसूरत ढंग से जैनेन्द्र अपनी कहानियाँ सुनाते हैं। हमेशा से देश-विदेश के बड़े आदमी जैनेन्द्र के पास आते रहे हैं । जैनेन्द्र ने मुझे हमेशा स्नेह दिया है। साहित्य में मुझे प्रोत्साहन दिया है। जैनेन्द्र-साहित्य को जैनेन्द्र की जुबानी सुनो तब उसका लुत्फ़ देखो। कैसा ही समारोह हो, जैनेन्द्र सब पर छा जाते हैं।" पिताजी की तबियत में बेहद मज़ाक़ रहा है । वे उन दिनों 'वीर' के सम्पादक थे। जैनेन्द्रजी की शादी हुई ही थी। पिताजी 'वीर' के लिए लेख लेने जैनेन्द्रजी के घर गये थे। जैनेन्द्रजी की पत्नी ने पिताजी को पहले कभी देखा नहीं था। १४८ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्रजी की पत्नी ने पूछा-"कौन ?" "चपरासी ! 'वीर' के लिए लेख लेना था। पिताजी ने उत्तर दिया । “वीर से चपरासी लेख लेने आया है," यह कहते जैनेन्द्रजी की पत्नी अन्दर गयीं । थोड़ी देर में जैनेन्द्रजी बाहर आये। पिताजी को देख हँसते हुए बोले"अरे भई गोयलीय ! आओ, आओ। मज़ाक छोड़ो । अन्दर आओ।" सन् १९४३-४४ में पिताजी डालमियानगर में नियम से अंग्रेज़ी चाचाजी से (परिष्कृत सुरुचि और स्वर के मालिक श्री नेमीचन्दजी जैन, एम. एस-सी., साहू जैन प्रतिष्ठान) पढ़ रहे थे । पढ़ाई की गति बहुत अच्छी चल रही थी। तभी श्री जैनेन्द्रजी डालमियानगर पधारे । बातों-बातों में पिताजी ने कहा-“जैनेन्द्रजी, मैं आजकल अंग्रेज़ी पढ़ रहा हूँ।" जैनेन्द्र-"अंग्रजी, हरगिज मत पढ़ना।" गोयलीय-"क्यों ?" जैनेन्द्र-“क्लर्क होकर रह जाओगे।" गोयलीय-"बहुत ठीक" (बात बहुत जॅचने पर पिताजी यही कहते थे)। उसी दिन से पिताजी ने अंग्रजी का अभ्यास छोड़ दिया । सन् १९४४ से १९६९ तक उन्होंने डालमियानगर में २५ पुष्पों से सरवस्ती की वन्दना की । यदि वे अंग्रेज़ी के पठन-पाठन में लगे रहते, संभवतः वे इस साहित्य-सृजन से वंचित हो जाते । इस साहित्य-सेवा का श्रेय वे बहुत हद तक जैनेन्द्रजी को देते । जैनेन्द्रजी के सम्मानित होने पर वे बहुत गौरव महसूस करते थे। डालमियानगर में १ अप्रैल १९४१ से ५ जुलाई १९६८ तक पिताजी साहू शान्तिप्रसादजी के प्रेमाग्रह पर डालमियानगर में रहे। वहाँ आप श्रम कल्याण पदाधिकारी थे। दो-दो विशाल लायब्रेरी एवं श्रमिक एमनीटीज़ एवं मनोरंजन-विभाग के कार्य को उन्होंने बहुत कुशलता से निभाया। वे सांस्कृतिक उत्सव (क्षमावणी-उत्सव, परिहास और मूर्ख-सम्मेलन), साहित्यिक उत्सव (तुलसी जयन्ती, रवीन्द्र-जयन्ती, कवि-सम्मेलन एवं कवि दरबार) एवं होली का जलसा करते । अब ये सब यहाँ की रीत हो गये हैं। सभी उत्सव निश्चित समय यानी 'गोयलीय टाइम' पर होते। 'गोयलीय टाइम' यहाँ मशहूर रहा है। सार्वजनिक निमन्त्रण, ऑफिस, फैक्ट्री-गेट, क्लब में लगा दिये जाते। उसे ही देखकर, पढ़कर सब अपने को निमन्त्रित समझते । जौकदर-जौक लोग उत्सव में आते । गोष्ठी में सभी बाअदब और बातहज़ीब बैठते । सम्मेलन का संचालन इतने प्यारे ढंग से होता कि बीच में से उठने का कोई नाम चौ. ज. श. अंक १४९ For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं लेता था। पिताजी के लतीफ़े, फड़कते शेर, जुमले, सभा में मस्ती का सरूर ला देते । सभा-संचालन में वे अपने सहयोगियों को आगे बढ़ाते । सारा श्रेय अपने सहयोगियों को देते। 'भारतीय ज्ञानपीठ' ___ सन् १९४४ में 'भारतीय ज्ञानपीठ (काशी) प्रकाशन' की स्थापना साहूदम्पति से करवायी। पिताजी इसके १४।। वर्षों तक अवैतनिक मंत्री रहे। भारतीय ज्ञानपीठ और गोयलीयजी एक आत्मा की तरह रहे। स्वप्न में भी पिताजी को 'भारतीय ज्ञानपीठ' और उसके मासिक पत्र 'ज्ञानोदय' का हित और प्रसार दिखायी देता। हमेशा 'भारतीय ज्ञानपीठ' प्रकाशन-स्तर और पुस्तकों का मैटर गेटअप, बुकशेल्फ़ में रक्खी अन्य सभी पुस्तकों से बेहतर हो, इसी की योजना और मेहनत होती। भारतीय वाङमय के मनीषी चिन्तकों ने पिताजी के सत्प्रयत्न की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। प्रकाशित पुस्तकों के लेखक अपने को धन्य समझने लगे। पुस्तकों की रॉयल्टी एवं तनख्वाह लेखकों तथा ज्ञानपीठ स्टाफ़ को निश्चित समय पर मिले, इस प्रयास में वे हमेशा सफल रहे। 'ज्ञानोदय' मासिक पत्र भी पिताजी के सम्पादन में प्रकाशित हुआ। श्रमणसंस्कृति का प्रतीक 'ज्ञानोदय' प्रबुद्ध जनता का डाइजेस्ट हो गया। 'ज्ञानपीठ' का 'सन्मति मुद्रणालय' पिताजी की भविष्य-दृष्टि ने खुलवाया। पिताजी ने अपने को हमेशा 'ज्ञानपीठ' का प्रहरी माना। इसे भाई साहब श्री अखिलेश जी शर्मा (सम्पादक 'नया जीवन' और 'विकास') की जुबानी सुनिये “सन् १९५३ में भारतीय ज्ञानपीठ कार्यालय (काशी) का जाना हुआ। वहाँ गोयलीयजी डालमियानगर से पधारे हुए थे। गोयलीयजी अपने कार्यालय में थे। आराम का वक्त था। वे अपने बिस्तर पर विश्राम कर रहे थे। उसी समय 'ज्ञानपीठ' के तत्कालीन मैनेजर आये। आदेशानुसार तकिये के पास रखा लिफाफ़ा और रखी हुई दुअन्नी उठा ली। मुझे लिफाफे पर रखी दुअन्नी की बात समझ में नहीं आयी। कार्यालय में मैनेजर से बातचीत के दौरान पूछा। मैनेजर ने बताया"मंत्रीजी, व्यक्तिगत डाक में ज्ञानपीठ का पोस्टेज खर्च नहीं करते हैं। दुअन्नी टिकट के लिए दी है।" पिताजी ने नवम्बर १९५८ में भारतीय ज्ञानपीठ' से इस्तीफा दे दिया। त्यागपत्र देने के बाद पिताजी ने ज्ञानपीठ के सभी मातहत स्टाफ एवं कर्मचारी (मैनेजर से चपरासी तक) को पत्र लिखकर उनके अथक सहयोग एवं परिश्रम की सराहना की; जिसमें उन्होंने अपने श्रम और अपनी सेवा को साधारण बताते हुए यह शेर लिखा था 'यह चमन यूं ही रहेगा और हजारों जानवर। अपनी-अपनी बोलियाँ सब बोलकर उड़ जाएंगे ।। १५० तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् १९५९ में वे सपरिवार मसूरी गये। सिन्ध पंजाब होटल (कुलड़ी) में एक माह रहे। वहाँ उन्होंने सेवोय होटल में 'कोल्ड-ड्रिंक' पिलवाया। महापंडित राहुलजी और डॉ. श्री सत्यकेतुजी से मिलाने ले गये। दोनों परिवार का हार्दिक स्वागत आज भी स्मृति-पटल पर अंकित है। आदरणीय राहुलजी का स्नेह और प्रोत्साहन पिताजी को शेर-ओ-शाइरी से निरन्तर मिलता रहा है। राहुलजी ने दिल्ली की सार्वजनिक सभा में (इसी) दिल्ली के अयोध्याप्रसाद गोयलीय की उर्द शाइरी की खिदमत का ज़िक्र किया। "उर्दू अमर हो” शीर्षक से 'सरस्वती' में पिताजी पर लेख (सम्भवत: जुलाई-अगस्त १९५८) लिखा । अन्यत्र ग्रंथों में यहाँ तक कि अपनी आत्मकथा में भी उन्होंने पिताजी की विशिष्ट मूक साहित्य-साधना का महृदयता से उल्लेख करने की कृपा की है। पिताजी राहुलजी का ज़िक्र हमेशा अदब के साथ करते । उन्होंने अपने 'शाइरी के नये दौर' ग्रन्थ को भेंट करते हुए लिखा है'श्रद्धेय राहुलजी, उच्च शिखर पर स्वयं ही नहीं बैठे, अपितु तलहटी में भटकते हुओं को भी उबारते रहते हैं। आपकी महानता, मानवता और विद्वत्ता के प्रति 'शाइरी के नये दौर' के समस्त दौर श्रद्धापूर्वक समर्पित-- है एक दरे-पीरे-मुगाँ तक ही रसाई । हम बाद परस्तों का कहाँ और ठिकाना ।। उर्दू कैसे सीखी : पिताजी की जुबानी “मेरे अज्ञात हितैषी ! न जाने इस वक्त तुम कहाँ हो ? न मैं तुम्हें जानता हूँ और न तुम मुझ जानते हो, फिर भी तुम कभी-कभी याद आते रहे हो। बकौल फ़िराक़ गोरखपुरी मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें। और हम भूल गये हों, तुझे ऐसा भी नहीं ।। तुम्हें तो २७ जनवरी १९२१ की वह रात स्मरण नहीं होगी, जबकि तुमने मुझे अन्धा कहा था। मगर मैं वह रात अभी तक नहीं भूला हूँ। रौलेटएक्ट के आन्दोलन से प्रभावित होकर मई १९१९ में चौरासी-मथुरा-महाविद्यालय से मध्यमा की पढ़ाई छोड़कर मैं आ गया था और कांग्रेसी कार्यों में मन-ही-मन दिलचस्पी लेने लगा था। उन्हीं दिनों सम्भवतः २६ जनवरी १९२१ ई. की बात है, रात को चाँदनी-चौक से गुजरते समय बल्लीमारान के कोने पर चिपके हुए कांग्रेस के उर्दू पोस्टर को खड़े हुए बहुत से लोग पढ़ रहे थे। मैं भी उत्सुकतावश वहाँ पहुंचा और उर्दू से अनभिज्ञ होने के कारण तुमसे पूछ बैठा-"बड़े भाई ! इसमें चौ. ज. श. अंक १५१ For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या लिखा हुआ है ?" तुमने फ़ौरन दन्दान शिकन जवाब दिया-"अमाँ अन्धे हो इतना साफ़ पोस्टर भी नहीं पढ़ा जाता।" जवाब सुनकर मैं खिसियाना-सा खड़ा रह गया। घर आकर गैरत ने तख्ती और उर्दू का कायदा लाने को मजबूर कर दिया।". . . . शाइरी से शौक़ ___ पहाड़ी धीरज (दिल्ली) के जिस महल्ले में रहते थे, वहीं शेरसिंह 'नाज़' रहते थे। उनके साथ पिताजी मशायरों में जाने लगे तथा शाइरी का शौक़ होने लगा। उन दिनों दिल्ली के गली-कूचों में शाइरी का ज़ोर था। वे भी उस रंग में डूबने लगे। 'दास' तखल्लुस (उपनाम) से शाइरी करने लगे । उनकी शाइरी मन्दिरों एवं स्वागत-समारोहों में गायी जाने लगी। उनकी कविताओं का संकलन 'दास-पुष्पांजलि' बहुत पूर्व प्रकाशित हो चुका है (अब अप्राप्य)। उनकी रगों में राष्ट्रीयता और जिन-भक्ति का लहू दौड़ा है। वे जन्मजात कवि थे और उर्दू शाइरी में जीते थे। उनकी नज्म का यह नमूना अपने आप में बेमिसाल है 'मकताँ हैं बेमिसाल हैं और लाजवाब हैं। हुस्ने सिफ़ाते दहर में खुद इन्तख्वाब है। पीरी में भी नमूनमे अहदे शबाब हैं। गोयाके जैन क़ौम के एक आफ़ताब हैं। यह नज्म पिताजी ने बैरिस्टर चम्पतरायजी जैन के लिए २१ फरवरी १९२७ को दिल्ली के स्वागतार्थ जलसे में कही थी। बैरिस्टर साहब के सौन्दर्य एवं दमकते हए व्यक्तित्व को देखते हुए गोयलीयजी की उपमा 'पीरी में भी नमूनमे अहदे शबाब हैं' का जवाब नहीं है। उनका जीवन एक ऐसे तपस्वी और साधक का जीवन रहा है, जिसने जीवन में आये झंझावात को चुपचाप सहा है, ऊसर-बीयाबान माहौल में चुपचाप 'बहुजनहिताय, बहुजन सुखाय' के साहित्य तक में हिन्दी कहानियाँ, अनुभव, संस्मरण एवं उर्दू कविताओं का जल चढ़ाया। पिताजी अपने जीवन की संध्या में भी यही कहते रहे 'अभी मैं कलम ही माँज रहा हूँ।" उनका प्रकाशित साहित्य १. मौर्य साम्राज्य के जैन वीर, २. राजपूताने के जैन वीर, ३. 'दास'पुष्पांजलि, ४. शेर-ओ-शाइरी, ५. शेर-ओ-सुखन (५ भाग), ६. शाइरी के नये दौर (५ भाग), ७. शाइरी के नये मोड़ (५ भाग), ८. नग्मये हरम, ९. उस्तादाना कमाल, १०.हँसो तो फूल झड़ें, ११. गहरे पानी पैठ, १२. जिन खोजा तिन पाइयाँ, १३. कुछ १५० तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोती कुछ सीप, १४. लो कहानी सुनो, १५. जैन जागरण के अग्रदूत, १६. मुग़ल बादशाहों की कहानी खुद उनकी ज़बानी। प्रथम तीन पुस्तकें सन् '३० से पहले दिल्ली से प्रकाशितम हुई थीं जो अब अप्राप्य हैं। 'शेर-ओ-शाइरी' से लेकर 'जैन जागरण के अग्रदूत' तक सभी पुस्तकें 'भारतीय ज्ञान पीठ' काशी से प्रकाशित हुई हैं तथा अप्राप्य हैं।' मुग़ल बादशाहों की कहानी वाली पुस्तक विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी से प्रकाशित हुई है । अप्रकाशित पाण्डुलिपियाँ १. शराफ़त नहीं छोडूंगा; २. हैदराबाद दरबार के रहस्य; ३. पाकिस्तान के निर्माताओं की कहानी खद उनकी ज़बानी; ४. उमर खैय्याम की रुबाइयात; ५. बेदाग़ हीरे--विषयवार अशआर (२ भागों में)। उनकी ग्रन्थ-भूमिकाओं के लेखक १. रायबहादुर गौरी शंकर हीराचन्द ओझा -- 'राजपूताने के जैनवीर' २. श्री विशेश्वरनाथ 'रेऊ' - 'मौर्य साम्राज्य के जैन वीर' ३. श्री जैनेन्द्रकुमार - ‘कथा-कहानी और संस्मरण' ('गहरे पानी पैठ' का पूर्व नाम) ४. महापंडित राहुल सांकृत्यायन -- 'शेर-ओ-शाइरी' ५. डा. अमरनाथ झा -- 'शेर-ओ सुख़न (भाग १)' ६. श्री क. ला. मि. प्रभाकर -- जैन जागरण के अग्रदूत' पुरस्कार/सम्मान १. 'शेर-ओ-शाइरी', 'शेर-ओ-सुख़न' तथा 'कुछ मोती कुछ सीप' उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत । २. 'मुग़ल बादशाहों की कहानी खुद उनकी जुबानी' हरियाणा राज्य द्वारा पुरस्कृत । ३. हरियाणा राज्य में उनकी मूक साहित्य-सेवा के लिए चण्डीगढ़ में सार्वजनिक अभिनन्दन (दुशाला ओढ़ाकर एवं ५०० रु. भेंट-स्वरूप देकर) किया। उस स्वागतसमारोह में उन्होंने अपने स्वागत का जवाब देते समय कुछ वाक्यों में यह भी कहा था ‘क्या हमारी नमाज़, क्या हमारे रोजे । बख्श देने के सौ बहाने हैं ।' ४. स्वतंत्रता सेनानी होने से केन्द्रीय सरकार एवं उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ताम्रपत्र से सम्मानित किया। पिताजी पत्रों का उत्तर तत्काल देते थे। पत्र की भाषा स्पष्ट, किन्तु सहृदयतापूर्ण होती थी। वे अपनी सीमा-परिधि लिखने में तनिक संकोच नहीं करते चौ. ज. श. अंक १५३ For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे। 'मैं शतरंज खेलता हूँ, ताश नहीं' यह उनका खास मुहावरा उनके पत्रों में साफ़ झलकता है। उन्हें अच्छा पहनने और बढ़िया खाने-पीने का शौक़ था। अचकन-चूड़ीदार पायजामे में उनका व्यक्तित्व उभर जाता। लगता हुजूर कोई शेर कहेंगे। खद्दर के कुर्ते और महीन धोती में उनका सौम्य और सुन्दर शरीर एक दिलेर रईस की शोभा बढ़ाता। उन्हें असग़र अली (लखनऊ) के हिना का खास शौक़ था। उसका फ़ाया वे कान में ज़रूर लगाते । उन्ह उड़द की दाल, भरवाँ आलू, मटर-गोभी, काबली चने, पालक-बथुए का साग और बेसनी रोटी बेहद पसन्द थी। फलों में संतरा और आम की पसन्द थी। तेज़ मसाले का समोसा हो, धनिये की चटनी हो, मूंग की दाल का हलवा हो, टमाटर-संतरे का सैंडविच हो और रेडियो पर सुरैया-शमशाद के नग्मे हों और गोयलीय के लाडले बेटे हों फिर गोयलीय साहब उस महफ़िल के पीरे-मुंगा हो जाते। बच्चों को लतीफ़े, किस्से, शेर, अपने दोस्तों के टोकरों भर के गुण और एहसानात इस तरह से सुनाते, लगता घर में शहनाई बज रही है। बातचीत में हमारी अम्मा शेर और जुमले कहती तो हम लोग कहते--'पिताजी बेअदबी माफ़, आप भी हज़रत दाग़ और सुदर्शनजी की तरह अपनी साहित्यिक दुनिया में अम्मा से शेर, लतीफ़े और मुहावरे के लिए अम्मा से सलाह लीजिये'। इस पर पिताजी मुस्कराते हुए अपने खास अन्दाज़ में कहते, 'हाँ भाई ! बेटे तो आखिर अपनी माँ के हो' । हमारी माँ ने हमारे पिताजी को पूर्ण बताया। अम्मा ने पिताजी की चादर को हमेशा बड़ा बताया। पिताजी के घर को हवेली बना दिया। पिताजी ने आज तक अम्मा के रहते अपने हाथ से एक गिलास पानी नहीं पिया। पिताजी के वस्त्रों को माँ बड़े चाव से धोतीं। उनकी सेवा करतीं। उनके लिए व्रत-त्यौहार करतीं। उफ्, हमें क्या मालूम था, अम्मा पर उनके बिछोह की मार पड़ेगी। पिताजी स्वाभिमान की अन्तिम पंक्ति थे। दर्द का यह शेर तरदामनी पे शेख हमारे न जाइयो। दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वजू करें। उनके जीवन पर सही उतरता है। उन्होंने अपने अत्यन्त सीमित साधनों में पांचों बच्चों को उच्च शिक्षा दी, बच्चों का अच्छी तरह से विवाह किया, मकान बनवाया । सर्विस से निवृत्त होने के बाद, ६ वर्षों तक सहारनपुर की रौनक बढ़ायी। खानपान, रहन-सहन का वही ऊँचा स्तर। कहीं तबियत में तंगदिली नहीं। मेहमानों की चरणधूलि पड़ते देख उसी तरह से चहकना, सत्कार करना पिताजी का स्वभाव था। पिताजी ने कभी भी महंगाई नहीं गायी। उनके ४ में से ३ लड़के अच्छी १५४ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तनख्वाह पाते थे, किन्तु कभी लड़कों से एक पैसा नहीं लिया; बल्कि हमेशा उन्हें देते ही रहे। उनके जीने में एक सलीका था, एक तरीका था। उनकी हर चीज़ व्यवस्थित होती थी। उनकी रखी हुई चीज़ अँधेरे में मिल जाती । उनका ट्रंक लगाना अपने आप में निहायत खूबसूरत उपमा थी। इस खूबसूरती पर चचा प्रभाकर रीझ गये और 'गोयलीय का ट्रंक; एक सलीका : एक तरीका' संस्मरण लिखा । दिनकरजी ने ठीक ही कहा था, "ब्रह्मा ने गोयलीय को बनाकर, उस साँचे को ही तोड़ दिया।" (बन्धुवर केदार के माध्यम से सुना) । वे मीर, ग़ालिब, मोमिन, इक़बाल और असर लखनवी के शेर अपनी बातचीत में 'कोट' करते थे। व्यथा पीर की और ज़बान की सुथराई हज़रत दाग़ की उन्हें पसन्द थी। वे अपने ज़बाने-मुबारक़ से शेर पढ़ते तो शेर का एकएक लफ्ज़ फूल की जगह फूल और बिजली की जगह बिजली बरसाता । वे १२ घंटे प्रतिदिन कुर्सी-टेबुल पर बैठकर लिखने की क्षमता रखते थे। न कोई अदा, न कोई नख़रा। बिसमिल्लाह का दादरा बज रहा हो, इक़बाल के नग्मे गूंज रहे हों; सहगल, शमशाद, सुरैया के तराने फ़जाँ में तैर रहे हों, पिताजी जेठ की दुपहरी में लिखे जा रहे हैं। बच्चे शोर मचा रहे हैं, उन्हें पता नहीं अगल-बगल क्या हो रहा है। जेठ की चिलचिलाती धूप गर्मी में इस शेर पर यह भीगी रात, यह ठंडा समाँ, यह कैफ़े बहार। यह कोई वक्त है, पहलू से उठके जाने का ?-दिल शाहजहाँपुरी दाद देते हुए कहते हैं, "हज़रते दिल का शाइराना कमाल देखिये कि उक्त शेर में न तो वस्ल और बोसो-कनार के अल्फाज़ आये हैं न कहीं छेड़छाड़ है, न कोई पोशीदा राज़ की तरफ़ इशारा किया है। फिर भी शेर मुंह बोलती तस्वीर बन गया है। पढ़ते हुए महसूस होता है, मसूरी में शानदार कोठी में ठहरे हुए हैं, और माशूक पहलू में है। धीमी-धीमी फुहारें गिर रही हैं, चाँदनी खिली हुई है और रेशमी रजाई में लिपटे पड़े हैं। अचानक माशूक उठकर जाने का ख़याल ज़ाहिर करता है तो उसके इस भोलेपन पर अनायास मुंह से निकल पड़ता है यह कोई वक्त है, पहलू से उठके जाने का ?" उस्ताद असर लखनवी के इस शेर पर हम उसी को ख दा समझते हैं। जो मुसीबत में याद आ जाए ।। उन्होंने लिखा-"खुदा की तलाश में लोग वनों-पर्वतों की खाक छानते हैं। मन्दिरों-मस्जिदों में भटकते हैं। मगर खुदा नहीं मिलता । अगर किसी को मिलता भी है तो वह उसे पहचानता नहीं और इस तरह उसके दर्शनेच्छु दुनिया में भटकते चौ. ज. श. अंक १५५ For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए अपनी ज़िन्दगी बरबाद कर देते हैं । ऐसे ही भटके हुए लोगों के लिए देखिये 'असर' खुदा की कितनी आसान पहचान बताते हैं ।" उनके बोलने - चालने का एक खास तरीका था। जिस दुकान में जाते दुकानदार आपको बहुत इज्ज़त से बैठाता । उसकी कुशल-क्षेम पूछते । पुरलुत्फ बात कहते । दुकान में सभी लोग मस्त हो जाते । महीने का सारा सामान एक बार ख़रीदते । भुगतान नगद करते । मोल-भाव में आप ज्यादा विश्वास नहीं करते थे । वे दुकानदार की भावना का बहुत ध्यान रखते थे । उधार से पिताजी को सख्त नफ़रत थी । सहारनपुर में रिक्शे से जाते समय स्कूटर से पिताजी के हाथ में बहुत चोट आयी। उस समय भी उन्होंने स्कूटर वाले का मुंह नहीं देखना चाहा और उस अनजान व्यक्ति को क्षमा कर दिया। उनका कहना था-- स्कूटर वाले को देखकर मैं क्यों अपने परिणाम बिगाड़ता ।' D उनकी पुस्तकें जब छपकर उनके सामने आती, प्रत्येक पुस्तक को अपने सामने २-३ दिन तक रखते और उसे बीसों बार उलट-पलटकर देखते । किताब की अशुद्धि, भूल, गेटअप, बाइंडिंग, प्रिंटिंग इत्यादि सभी चीजों पर फिर से विचार करते । अशुद्धि को तत्काल दुरुस्त करते । शब्दकोश देखने में जरा भी विलम्ब नहीं करते। उन्हें ग्रन्थ प्रकाशन एवं प्रिंटिंग प्रेस का बहुत अच्छा ज्ञान था । इस मामले में श्रीकृष्णप्रसादजी दर को अपने से बीस मानते थे । वे बोलते, वातावरण सुवासित हो उठता । बच्चे सही भाषा बोलें, मुहावरों और व्याकरण का शुद्ध उपयोग हो, शब्दों का चयन सुन्दर हो, व्यर्थ का शब्दपलोथन न हो, इसका वे बहुत ध्यान रखते । बच्चों को बढ़िया फ़िकरा, लतीफ़ा, मुहावरा सुनाने पर नगद इनाम देते थे। बच्चे की तारीफ़ सबके सामने करते । उनकी बोली मुहब्बत की बोली थी। जो उनसे एक बार मिला, वह उनका हो गया । वे / और वे श्री विष्णु 'प्रभाकर' के शब्दों में, “जिस काम के लिए ज़रा भी संकेत किया कि काम पूरा हो गया । ऐसे जन विरले होते हैं । कहाँ मिलेंगे अब ? सचमुच वे सब कुछ स्वान्तः सुखाय करते थे । " काका हाथरसी की निगाह में, “उर्दू हिन्दी के सितारे थे, परमप्रिय हमारे थे । ' श्री यशपाल जैन की भावना में, 'गोयलीयजी में अनेक दुर्लभ गुण थे । वह बहुत ही स्पष्ट वक्ता, परिश्रमशील और मिलनसार थे। ज़िन्दगी उन्होंने बड़े स्वाभिमान 16 ( शेष पृष्ठ १६१ पर) १५६ For Personal & Private Use Only तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जब गोम्मटसार प्रकाशित हुआ' .... किन्तु अब ? - लक्ष्मीचन्द्र जैन प्रस के तकनीकी विकास के साथ ही धर्म-ग्रन्थों के जीर्णोद्धार की समस्या प्राचीनकाल जैसी नहीं रही; किन्तु आश्चर्य है कि जिन कठिन परिस्थितियों में आज से प्रायः ५५ वर्ष पूर्व 'गोम्मटसार' तथा 'लब्धिसार' जैसे सिद्धान्त-ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ, वे अब और भी उलझी हुई प्रतीत होती हैं । इन ग्रन्थों को जैनधर्म के सिद्धान्तों का किला कहा जाता है । यत्र-तत्र गणित के प्रतीकों से गुंथी हुई भाषा ही इनकी किलेबन्दी है जो 'षट्खण्डागम', 'महाबन्ध' और 'कषायप्राभृत' की परम्परानुवंशी है । सभवतः इनकी सामग्री 'काइबर्नेटिक्स (जो समस्त विज्ञानों का विज्ञान है) को अंशदान दे सकती है। इनके गणितीय सौंदर्य की तुलना श्रमणबेलगोल की गोम्मटेश्वर मूर्ति-कला के शिल्प-शौर्य से ही हो सकती है; अतएव इन ग्रन्थों का प्रकाशन भी एक चुनौती ही है, जिसे कोई भी प्रकाशक स्वीकार नहीं कर सका। इनमें प्रतीकों की भरमार है और सैकड़ों पृष्ठ गणितीय सामग्री और प्रतीकों से पूरी तरह आच्छादित हैं । फिर जिन पण्डितों ने इस प्रकाशनकार्य को हाथ में लिया और उन्हें शुद्ध रूप में पवित्र प्रेस के पवित्र साँचों में ढालने में सफलता प्राप्त की , उनकी कहानी इस लेख के साथ जोड़ना अप्रासंगिक न होगा। उनकी साहसिक गाथा ग्रन्थ-प्रस्तावना में अंकित है । ग्रन्थ-परिचय : 'गोम्मटसार' में मूल प्राकृत गाथा आचार्य श्री नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती-कृत व संगृहीत (७३३ जीवकाण्ड, ९६२ कर्मकाण्ड श्लोकमय) है। गाथा के नीचे संस्कृत छाया, उसके नीचे केशव वर्णी-कृत' 'जीव तत्त्वप्रदोपिका' नाम की संस्कृत टीका, उसके नीचे अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कृत 'मंद प्रबोधिका' नाम की संस्कृत टीका ('ज्ञान मार्गणा' के कुछ अंश तक) और उसके नीचे (पं. श्रीलाल के अनुसार) प्रसिद्ध भाषा टीकाकार श्री पं. टोडरमलकृत ५०००० श्लोकमय भाषा-वचनिका है (पं. हुकुमचन्द्र भारिल्ल के अनुसार यह ३८००० श्लोकमय है । ) यह ग्रन्थ ५० पौंड के पवित्र देशी कागज में बड़े, मध्यम, सब तरह के टाइपों में पवित्र प्रेस में जीवकाण्ड २ खण्ड तथा कर्मकाण्ड २ खण्ड में प्रकाशित हुआ। जीवकाण्ड में १३२९ पृष्ठ (प्रत्येक २९४ २० सें.मी.) तथा कर्मकाण्ड १२०० पृष्ठ (प्रत्येक २९४ २० सें.मी.) और 'अर्थ संदृष्टि' ३०८ पृष्ठ (प्रत्येक २९४ २० सें. मी.) साइज में प्रकाशित किये गये । उस समय (लगभग १९१९ ई.) इनकी लागत प्रकाशन का खर्च प्रायः १४२८० रु. वी. नि. से. २४४६ तक आ चुका था। प्रकाशित प्रतियों की संख्या इस प्रकार थी चौ. ज. श. अंक १५७ For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवकाण्ड : प्रथम खण्ड ४५६; द्वितीय खण्ड १२६० कर्मकाण्ड : प्रथम खण्ड १४९२; द्वितीय खण्ड १५०० उक्त संख्या बतलाती है कि प्रकाशक का संघर्ष आर्थिक और सामाजिक रहा होगा। इसी प्रकार 'लब्धिसार' में मूल प्राकृत गाथा आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत व संग्रहीत (६४९ एलोकमय) है। गाथा के नीचे संस्कृत छाया, उसके नीचे केशव वर्णी कृत 'जीवतत्त्व प्रदीपिका' नाम की संस्कृत टीका तथा उसके नीचे पंडित टोडरमल-कृत 'सम्यग्ज्ञान चंद्रिका' नाम की हिन्दी टीका दी गयी है जो १३००० श्लोक प्रमाण है। यह ग्रन्थ ७६६ पृष्ठों में है तथा इसकी 'अर्थ संदृष्टि' २०७ पृष्ठों में है, जिनकी साइज २५४ १९ सें. मी. है। लागत का ब्यौरा उपलब्ध नहीं है; किन्तु अनुमानतः यह खर्च उस समय ६००० रु. रहा होगा। __ ग्रन्थ-प्रकाशन संस्था : इन ग्रन्थों का प्रकाशन करनेवाली संस्था का नाम 'भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी' संस्था है। इसके संपादक पं. गजाधरलाल जैन न्यायतीर्थ और श्रीलाल जैन, काव्यतीर्थ है । मुद्रक 'श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ, जैन सिद्धान्त प्रकाशक (पवित्र) प्रेस, नं. ८ महेंद्रवासलेन, श्याम बाजार, कलकत्ता हैं । संरक्षक हरीभाई देवकरण गांधी नाम की प्रसिद्ध फर्म है, जिसके मालिक श्रीमान् सेठ हीराचन्द शोलापुर हैं। संपादकों ने स्वीकार किया है कि उक्त पाँच सिद्धान्त खण्डों के प्रकाशन का श्रेय उक्त फर्म के श्रेष्ठिद्वय की असाधारण सहायता को है। इस संस्था के महामंत्री पं. पन्नालाल बाकलीवाल हैं, जो प्रकाशक भी हैं । पं. पन्नालाल 'जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय' के जन्मदाता थे और उन्होंने छापे का आदि-प्रचार किया था; ऐसा वर्णन संस्था के मंत्री श्रीलाल जैन ने त्रैमासिक विवरण (वी. वि. २४४४ से ४६ तक) में किया है। पंडित पन्नालाल ने बम्बई से संबन्ध विच्छेद कर लिया और इस संस्था की नींव “जैन धर्म प्रचारिणी सभा" के नाम से बनारस में डाली । यह लगभग १९१२ ई. को बात होगी। उन्हें सर्वप्रथम दो हजार रुपयों का अनुदान सेठ नेमीचन्द बहालचन्द से प्राप्त हुआ । उन्होंने 'आप्त परीक्षा', 'पात्र परीक्षा', 'राजवातिक', जैनेन्द्र प्रक्रिया' आदि अनेक ग्रंथों का प्रकाशन दो-तीन वर्षों में कर दिया। धनाभाव और सामाजिक संघर्ष की स्थिति का पुनः सामना करने हेतु संस्था के मंत्रियों ने दौड़े की योजना बनायी और संस्था के संस्थापक और संरक्षक के रूप में उन्हें सेठ हरीभाई देवकरण फर्म के मालिक सेठ बालचन्द्रजी व उनके वर्तमान छोटे भाई हीराचन्द्र ने आश्रय दिया। यद्यपि शोलापुर में सेठजी ने ५०००) रु. की सहायता स्वीकार की थी, पर कलकत्ता पहुँचने पर उन्होंने १५०००) रु. की स्वीकृति दे दी। यह सभवतः द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व की बात रही होगी। १५८ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्री पं. पन्नालाल ने यह आश्वासन पाकर तथा बंगाल में जैनधर्म प्रचार की सदिच्छा से कलकत्ता प्रस्थान किया । उस समय वह विश्व-कोष प्रेस के मालिक श्री नगेन्द्रनाथ बसु के यहां रु. २५ मासिक भाड़े का मकान लेकर संस्था का सामान लाकर पं. गजाधरलाल तथा पं. श्रीलाल के साथ व्यवस्थित हो गये। पवित्र प्रेस की स्थापना : विरोधियों के आक्रमण और उसके परिहार के मध्य, इन मंत्रियों ने प्रेस की कठिनाइयों से ऊबकर निजी प्रेस खोलने का विचार किया। इसके साथ ही सरेस गलाने का प्रश्न सामने आया। अभी तक ग्रंथ दूसरे के यहाँ छपते थे इसलिए स्पर्श-दोष समझकर ही वे चुप थे, पर अब तो एक अपवित्र वस्तु को बाजार से स्वयं खरीद कर लाने और गलाने तथा काम में लाने तक की नौबत आ गयी थी। ___ आखिर एक घटना ने उन्हें नया रास्ता बतला दिया। सहायक महामंत्री की ऐड़ी में घाव हो गया। उसके लिए विलायती रूई की आवश्यकता हुई । डाक्टर के यहाँ रूई के बंडल में सरेस की कोमलता दृष्टिगत हुई । रूई का एक रूलर बनाया गया और प्रयोग सफल हुआ बिजली से चलने वाली 'अमृत बाजार पत्रिका' की मशीन पर ये रूलें चलने लगीं। इस प्रकार नवीन प्रेस खरीदने की तैयारी हुई। इस समय तक मंत्रियों ने अवैतनिक रूप में ही कार्य किया था। बाद में पं. गजाधरजी ने फार्म के हिसाब से ही काम किया। गोम्मटसार का प्रकाशन : इस 'सिद्धान्त राज' के छपाने की सम्मति सेठ बालचन्द हीराचन्द, शोलापुर से प्राप्त की गई। छपाने में तकमीना पन्द्रह सोलह हजार बांधा गया और कागजों का रुपया सेठजी ने देना स्वीकार किया। कुछ रुपये ‘अर्थ प्रकाशिका' और 'हरिवंश पुराण' की बिक्री से प्राप्त हुए थे। शेष रुपयों का प्रबन्ध करने के लिए पाँच हजार विज्ञापन पृथक् छपाकर बाँटे गये। अखबारों में आंदोलन किया गया, प्राइवेट पत्रों द्वारा ग्राहक बनने की विनती की गयी और भी भिन्न-भिन्न किस्म के प्रयास किये गये। विरोधियों ने भी अपना कर्त्तव्य-निर्वाह किया और लिखना शुरू किया, “गोम्मटसारजी छपाने की जरूरत नहीं है, रायचन्द्र और शास्त्रमाला में निकल तो गया है, पन्द्रहसोलह हजार रुपया खर्च करना पहाड़ खोद चूहा निकालना है, आदि।” परन्तु विरोधियों का भीतरी अभिप्राय संभवत: यह था कि इस ग्रन्थ के प्रकट होते ही यह संस्था चिरस्थायी हो जाएगी और पण्डितों का सिक्का जैन समाज पर जम जाएगा। ___ सेठ साहब की शर्त थी और वह उचित भी थी कि जब तक चार सौ ग्राहक न बन जाएँ, काम प्रारम्भ न किया जाए। इन तीन मंत्रियों के अध्यवसाय से ६-७ माह के भीतर ही चार सौ ग्राहक बन गये और उनकी सूची शोलापुर भेज दी गयी। विरोधियों का मुँह बन्द हो गया, जो वह रहे थे कि रकम अटक जाएगी और इतने बड़े ग्रन्थ को कोई नहीं खरीदेगा । श्रीलाल जी ने लिखा है कि अहमदाबाद निवासी सेठ माधवालाल भोगीलाल धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्हों ने 'गोम्मटसार' के छपने के समाचार पाते ही संस्था को हर प्रकार से उत्साहित किया। उन्होंने लिखा कि यदि चार सौ ग्राहक पूरे न होंगे चौ. ज. श. अक १५९ For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो हम २१ प्रतियों के ग्राहक बन जाएँगे फिर भी चार सौ के स्थान पर पाँच सौ बन गये और उक्त सेठ ने प्राय: ४००) रु. न्यौछावर २१ प्रतियों के भेज ही दिये। जिस समय विज्ञापन छपाकर ग्राहक बनाये गये उस समय कागज का भाव चार आने पौंड था और छपाई भी सस्ती थी, किन्तु यूरोपीय महायुद्ध के कारण जो हिसाब १५ या १६ हजार का बना था वह अब २८-३० हजार का दृष्टिगत होने लगा । यद्यपि पतला लगाकर और छपाई महीन अक्षरों में कराकर पूर्व योजनानुसार छपाई हो सकती थी; यद्यपि प्रकाशक का मंतव्य था कि ऐसा महान् ग्रंथ सदा नहीं छपता, और मोटे अक्षरों के बिना सर्वसाधारण के हित में भी नहीं आ सकता। फिर से ग्राहकों को पत्र लिखे गये कि संस्था उन्हें लागत मूल्य जो आयेगी उस पर ही उन्हें व्ही. पी. छुड़ाना होगी। दस-पाँच ग्राहकों को छोड़ शेष तैयार हो गये । अन्त में प्रथम खण्ड ७५ फार्मों का पचास पौंड वजन के कागज पर ५) रु. के न्यौछावर में प्रकाशित हो गया। इस समय कागज का भाव छह आने पौंड हो गया था, किन्तु निजी प्रेस में छपाई का खर्च कम पड़ा था। तृतीय और चतुर्थ खण्ड में सवा दस आने पौंड का कागज लगा, और वह भी छह-छह आठ-आठ माह बीत जाने पर प्राप्त हो पाता था। प्रथम दो खण्डों का मूल्य १७) रु. और अन्तिम दो खण्डों का मूल्य २३) रु. रखा गया। ___ इतना बड़ा ग्रन्थ हस्तलिखित रूप में ५००) रु. में भी प्राप्त नहीं हो सकता था। ग्रन्थ प्रकाशित हो गये; किन्तु जन्मदायिनी संस्था चिरस्थायी हुई या नहीं, ज्ञात नहीं। अब ये ग्रन्थ केवल मंदिरों में ही उपलब्ध हैं, वे भी कहीं-कहीं। ग्रंथराज का पुनः प्रकाशन (?) लेखक को इस ग्रन्थ के दर्शन १९५९ में हुए, इन्दौर के उदासीन आश्रम में पंडित बंशीधरजी के निर्देश पर । धवला ग्रन्थों के गणित की सीढ़ियों के पूर्व 'गोम्मटसार' के मंच पर पहुँचना आवश्यक है। कर्म-विज्ञान का शोधार्थी इन ग्रन्थों के बिना अपंग है । शोधार्थियों को सहज में ग्रन्थ प्राप्य हो सके, लेखक ने योजना बनाकर प्रकाशित की तथा 'ज्ञानपीठ' काशी को एवं स्व. साहु शान्तिप्रसादजी को भी पत्र लिखे। उन्होंने 'गोम्मटेश्वर समिति' को लिखने के लिए सुझाव दिया। वहाँ से कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। लेखक ने 'यूनेस्को' तथा 'इंटरनेशनल मेथामेटिकल यूनियन' को भी इस ग्रन्थ के प्रकाशन हेतु पहल की , किन्तु सफलता नहीं मिली। 'उषा ऑफसेट प्रिंटर्स, बम्बई' से इन ३८१० पृष्ठों के ग्रन्थ-प्रकाशन के खर्च का आकलन इस प्रकार प्राप्त हुआ है : डबल डेमी १९.५ कि. ग्रा., प्राकृतिक शेड पेपर, दो रंगों का रेशमी कवर; १०० प्रतियाँ ८००००) रु. १००० " ११६०००) रु. ५००० , ३२४०००) रु. १६० तीर्थकर । नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जापान से निम्नलिखित एस्टीमेट प्राप्त हुआ-- एलीफेक्स प्रतियाँ फोटो प्रतियाँ १०० १०० १००० 'गोम्मटसार' (२८३७ पृ.) येन-१,१००,००० ३,५००,००० ५,८००,००० 'लब्धिसार' (९७३ पृ.) येन- ४००,००० १,५००,००० २,०००,००० (१ रुपमा लगभग ५० येन का होता है । ) यह लेख तीर्थंकर' के सम्पादक के अनुरोध पर लिखा गया । वे अभी मैसूर सेमीनार से लौटे और श्रमण बेलगोला के भट्टारक स्वामीजी के विशेष परिचय में आये हैं। संभव है इससे प्रेरणा पाकर इस ग्रन्थ के पुनः प्रकाशन का बीड़ा उठाया जाए-विशेष रूप से गोम्मटेश्वर के महामस्तकाभिषेक के पुनीत अवसर पर ज्ञान के हर अलौकिक दीपक को फिर से प्रज्वलित किया जा सके। वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में अब यह कार्य निस्संदेह ही अत्यन्त सरल है, किन्तु क्या सचमुच इतना सरल है ? (गोयलजी बेटे के आईने में : पृष्ठ १५६ का शेष) के साथ बितायी। कभी और कहीं भी अनाचार-अत्याचार के आगे नहीं झुके । हमेशा सीना तान कर रहे । लगन उनमें हद दर्जे की थी। जिस चीज़ के पीछे पड़ते थे, उसे बिना लिए छोड़ते नहीं थे। बड़े ही अध्ययनशील थे। · · · गोयलीयजी क्रान्तिकारी व्यक्ति थे। समाज को सुधारने में उन्होंने बहुत बड़ा योगदान दिया।" - - - - आदरणीय रायकृष्णदास के बहुमूल्य शब्दों में, " . . . वे अपने आप में एक संस्था थे। ज्ञान की मूर्ति थे साथ ही शालीनता के आगार थे।" . . . . भैया साहब श्री नारायणजी चतुर्वेदी ने पिताजी के बारे में कहा--"वे हिन्दी के सम्मानित और मान्य लेखक थे। उर्दू के मर्मज्ञ काव्य-प्रेमी होते हुए भी उन्हें हिन्दी से बड़ा प्रेम था। 'सरस्वती' के वे सम्मान्य लेखक थे और उसके विशेष कृपापात्र थे। व्यवसाय में रहकर भी अपनी उत्कट साहित्यिक अभिरुचि और हिन्दी-प्रेम के कारण वे व्यवसाय की व्यस्तता से भी हिन्दी की सेवा करने का समय निकाल लेते थे। उनके उच्च चरित्र और मृदु स्वभाव के कारण वे बड़े लोकप्रिय थे।" आइये, आज उनके किस्से को यहीं रहने दें। नींद तो अब उड़ ही चुकी है। चौ. ज. श. अंक For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .."एक दीप ईमान का 0 बाबूलाल जैन 'जलज' रहे न नाम-निशान धरा पर, अंधकार अज्ञान का। अगर जला लें, मन-मंदिर में, एक दीप ईमान का।। परम्पराओं के जंगल में, भूल गये अपनी मंजिल । युग के अंधे चौराहों पर, बिखर गये मन के शतदल ।। माग्य-सितारा चमक उठेगा, नवयुग के निर्माण का। अगर जला लें, मन-मंदिर में, एक दीप ईमान का ।। भ्रम का कुआ खोदते फिरते, चमत्कार के अभ्यासी। अन्तर्मन का मैल छुड़ाने, फिरते हैं काबा-काशी।। धर्म-कर्म से टूटा मानव, लेता शरण अँधेरे की। परस न पाती दुर्बल आत्मा, स्वर्णिम किरण सबेरे की। नयी चेतना से भर जाए, कुंठित मन इंसान का। अगर जला लें, मन-मंदिर में, एक दीप ईमान का। जिस दिन फूटेगा भीतर से, एक गीत सच्चाई का। बन जाएगा कीर्तिमान नव, मानव की ऊँचाई का ।। कठिन प्रश्न हल हो जाएगा, भूख-प्यास-बीमारी का। बीज न बोयेगा जब कोई, छल-प्रपंच-मस्कारी का ।। हो जाए चिर मिलन अलौकिक, धर्म-कर्म-विज्ञान का। . अगर जला लें, मन-मंदिर में, एक दीप ईमान का। ज्योति-पर्व हर साल मनाते, बीत गयीं घड़ियाँ । तम-पहाड़ की फटी न छातो, लाखों छोड़ी फुलझड़ियाँ ।। सरल नहीं है तिमिर ठेलना, सुख-सुहाग की बातों से। सिद्ध न होते मंत्र कर्म के, सपनों की सौगातों से ।। शाश्वत रूप सँवर जाएगा, आत्म-तेज बलिदान का। अगर जला लें, मन-मंदिर में, एक दीप ईमान का। गौरीशंकर की चोटी हो, चाहे हो खंदक - खाई। रात और दिन झांका करती, आत्मज्योति को परछाई ।। आत्म-दीप की एक किरण ने, जब-जब तम को ललकारा। हुआ सत्य उद्भूत धरा पर, वही ज्ञान-गंगा-धारा ।। खुल जाता है द्वार स्वयं ही, विश्व-प्रेम कल्याण का। अगर जला लें, मन-मंदिर में, एक दीप ईमान का। १६२ तोर्यकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसोटी - इस स्तम्भ के अन्तर्गत समीक्षार्थ पुस्तक अथवा | पत्र-पत्रिका की दो प्रतियाँ भेजना आवश्यक है ___ जैन सिद्धान्त सूत्र : ब्र.कु. कौशल : आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज ट्रस्ट, दिल्ली : मूल्य-दस रुपये : पृष्ठ ३५८ : डिमाई-१९७६ । __ आलोच्य कृति विदुषी लेखिका की प्रथम कृति नहीं है, इसके पूर्व उसकी और-और कृतियाँ हैं और उसने 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' जैसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त-कोश के संकलनसंपादन में क्षु. श्री जिनेन्द्र वर्णी के साथ काम किया है। मानना चाहिये, सहज ही, कि 'जैन सिद्धान्त सूत्र' उसी की एक कड़ी है अथवा प्रश्नोत्तर शैली में 'मिनी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' है। पुस्तक में आठ अधिकार हैं, जिनमें क्रमशः न्याय, द्रव्य गुण पर्याय, भाव व मार्गणा गुणस्थान, तत्त्वार्थ, स्याद्वाद, नय-प्रमाण आदि पर गहन विचार हुआ है। वर्णीजी ने इसे 'जैन दर्शन का प्रवेश-द्वार' कहा है। संपूर्ण ग्रन्थ प्रश्नोत्तरों के रूप में है, जिसका मूल आधार पं. गोपालदास बरैया की 'जैन सिद्धान्त-प्रवेशिका' है । इसमें जैन तत्त्व की गूढ़ताओं को जिस सहन-सुगम ढंग से रखा गया है और प्रतिपाद्य का जैसा समस्त-संक्षिप्त-प्रांजल निरूपण किया गया है उसे देखते यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि उक्त कृति श्रावकीय स्वाध्याय का एक विश्वसनीय साथी है । यद्यपि भाषा-प्रयोग यत्र-तत्र शिथिल और सदोष हैं तथापि इसके साहित्येतर होने के कारण उसकी चभन इतनी तीखी नहीं है। फिर भी हमें आश्वस्त होना चाहिये कि ये भूले आगामी संस्करण में, जो जल्दी ही होगा, सुधार ली जाएँगी। जैन आगम साहित्य : देवेन्द्र मुनि शास्त्री : श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राजस्थान) : मूल्य-चालीस रुपये : पृष्ठ ७६८ : डिमाई-१९७७ । प्रस्तुत ग्रन्थ आगमों और तत्संबन्धी व्याख्या-ग्रन्थों का एक शोधपरक मन्थन है। ग्रन्थ का चरित्र तुलनात्मक है, इसीलिए वह सफलतापूर्वक जैन, बौद्ध और वैदिक दर्शनों को विभिन्न संदर्भो में एक विशिष्ट वस्तुनिष्ठा के साथ रख पाने में समर्थ है । ग्रन्थ के ७ खण्ड हैं - जैन आगम साहित्य का अनुशीलन, अंग साहित्य का पर्यावलोकन, अंगबाह्य आगम साहित्यका समीक्षण, आगमोंका व्याख्यात्मक साहित्य, दिगम्बर जैन आगम माहित्य, जैन बौद्ध वैदिक दार्शनिक मतों का तुलनात्मक अध्ययन, तथा आगम साहित्य के सुभाषित। परिशिष्टों में पारिभाषिक शब्द-कोश, ग्रन्थगत विशिष्ट शब्द-सूची, संदर्भ ग्रन्थ-विवरण, तथा शब्दानुक्रमणिका देकर विद्वान् लेखक ने ग्रन्थ को अधिक उपयोगी बना दिया है। इसका संप्रदायातीत होना और बिना किसी पूर्वग्रह या दुराग्रह के जैन साहित्य को सम चौ. ज. श. अंक ... For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालीन संदर्भो में संयोजित करना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । मनीषी साधु-लेखक ने अकथ श्रमपूर्वक इस विशद ग्रन्थ का आयोजन किया है, किन्तु वह अंग्रेजी के अनावश्यक मोह से बच नहीं पाया है । सूच्य है कि जब पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का बहुमूल्य ग्रन्थ 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' प्रकाशित हुआ था तब कई लोगों ने सुझाव दिया था कि इसका अंग्रेजी संस्करण भी लाया जाए किन्तु स्व. ओझाजी ने यह कहकर इसके आंग्ल संस्करण से इनकार कर दिया था कि जिसे इसका उपयोग करना होगा वह हिन्दी सीखेगा; और हुआ भी यही । इस ग्रन्थ का उपयोग करने के लिए प्राच्य विद्या और भाषा-विज्ञान के बीसियों यूरोपीय विद्वानों ने हिन्दी सीखी । क्या हम इतने महत्त्व के नहीं हैं कि हमारे द्वारा प्रणीत साहित्य पढ़ने के लिए भारतीय भाषाओं के अध्ययन का लोभ विदेशियों के मन में उत्पन्न हो? हमें विश्वास है हमारे विद्वान् साधु-लेखक इस ओर ध्यान देंगे और अंग्रेजी के व्यर्थ के व्यामोह से मुक्त होंगे । प्रस्तुत ग्रन्थ न केवल उपयोगी है वरन् प्रथम बार इस तरह की सहज तुलनात्मक मुद्रा में तथ्यों को संयोजित करने में सफल हुआ है। छपाई सुघड़, गेटअप आकर्षक और मूल्य उचित है। विद्वत् अभिनन्दन ग्रन्थ : संपादक-मण्डल - सर्वश्री लालबहादुर शास्त्री, बाबूलाल जैन जमादार, विमलकुमार सोरया, बाबूलाल फागुल्ल, निहालचन्द जैन : अखिल भारतीय दिगम्बर जैन शास्त्रि-परिषद् के निमित्त चांदमल सरावगी चेरिटेबल ट्रस्ट, गौहाटी : मूल्य – इक्यावन रुपये : पृष्ठ ७२३ : क्राउन - १९७६ । __ समीक्ष्य ग्रन्थ शास्त्रि-परिषद् का १०० वाँ पुष्प है और महत्त्वपूर्ण इसलिए है कि इसमें लगभग ७३७ व्यक्तियों का परिचय है । आचार्य शान्तिसागर महाराज से लेकर ब्र. कु. मंजू शास्त्री तक विभिन्न ज्ञान-क्षेत्रों से इसमें विद्वानों को चुनकर संयोजित किया गया है। माना, ऐसे कामों में संपादकों को काफी परेशानियाँ भोगनी होती हैं और आवश्यक सामग्री कई-कई स्मरणपत्रों के बाद ही उपलब्ध होती है; किन्तु अन्ततः जो फसल आती है वह गौरवशाली होती है, और कई पीढ़ियों तक एक चिरस्मरणीय संदर्भ के रूप में काम आती है । सामग्री के आकलन में जो कठिनाइयाँ आती हैं, आम पाठक को उसका अनुमान लग ही नहीं पाता । मसलन कुछ लोग अपने परिचय भेजते ही नहीं हैं, कुछ ऐसा करने में अपनी हेटी मानते हैं, और कुछ तो यह मानकर ही चलते हैं कि वे काफी महत्त्व के हैं, उन्हें छोड़कर चल पाने का साहस ही कौन कर पायेगा; अतः वे लिखें-न-लिखें, उत्तर दें-न-दें, उन्हें सम्मिलित कर ही लिया जाएगा; ऐसे अनेक कारणों से संपादकों को निराश होना होता है और कई बार वे उदासीन भी हो उठते हैं। यही कारण है कि ऐसे ग्रन्थों की योजना काफी महत्त्वाकांक्षिणी होती है, किन्तु जब वे प्रकाशित होते हैं तब बहुत दीन-हीन-निस्तेजफीके-फस्स, पूरी जानकारी देने में असमर्थ-असहाय । प्रस्तुत ग्रन्थ पर भी कमोबेश यह बात लागू होती है। किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि संपादकों ने अपार परिश्रम किया है और वे अभिनन्दनीय हैं। इतना होते हुए भी हम विद्वान् संपादकों का ध्यान इस ओर अवश्य आकर्षित करेंगे कि परिचय अव्यवस्थित हैं, दुहरावटों से भरपूर हैं, भाषा कई जगह दोषपूर्ण है, संयोजन अ-वैज्ञानिक है । कुछ लोग छूटे भी हैं, और कुछ अनावश्यक रूप से १६४ तीर्थकर । नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मिलित हैं; तथापि ग्रन्थ एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ है और प्रथम बार विभिन्न आध्यात्मिक तबकों की जानकारी देने में सफल हुआ है। फिलहाल, दिगम्बर जैन मुनियों, आर्यिकाओं, क्षुल्लकों, ऐलकों, ब्रह्मचारियों और विद्वानों की इतनी विपुल जानकारी देनेवाला अन्य ग्रन्थ हमारे सामने नहीं है। फिर भी इसके आगे की राह खुली हुई है और एक अधिक प्रशस्त संदर्भ की, जिसका चरित्र ऐसा ही हो, प्रतीक्षा की जाना चाहिये । आशा यह भी की जानी चाहिये कि जब प्रस्तुत ग्रन्थ का द्वितीय संस्करण प्रकाशित होगा तब खामियों को दूर कर लिया जाएगा और नयी या छूट-छोड़ दी गयी जानकारी सम्मिलित कर ली जाएगी । ग्रन्थ में ५ खण्ड हैं - आचार्य, मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी वर्ग के जीवन-परिचय'; परम्परागत संस्कृति के वर्तमान साहित्यिक विशिष्ट विद्वानों के परिचय; जैन विद्वानों, निष्णातों, साहित्यकारों और कवियों के अकारादिक्रम से संयोजित जीवनपरिचय तथा साहित्य और संस्कृति पर कुछ चुने हुए लेख । लेख, हमारे विनम्र मत में, इसलिए अधिक उत्कृष्ट होने थे कि यह विद्वानों का एक विशद परिचय-ग्रन्थ है । ग्रन्थ की जन्म-कथा इस प्रकार है- १९६८ में बीजारोपण, १९६९ में अंकुरण तथा १९६९१९७६ में पल्लवन-पुष्पन-फलन । ग्रन्थ की छपाई व्यवस्थित, निर्दोष है, गेटअप नयनाभिराम है । मूल्य पर चिपकी लगी हुई है, इसे उघाड़ कर देखा गया है। आचार्य तुलसी दक्षिण के अंचल में : साध्वी कनकप्रभा : आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) : मूल्य - पचास रुपये : पृष्ठ- ९९० : डिमाई -१९७७ ।। हिन्दी में वैसे भी यात्रा-साहित्य अधिक नहीं है, और फिर पद-यात्राओं के विवरण तो आचार्य विनोबा भावे के अलावा किसी अन्य के उपलब्ध नहीं हैं । जैन साधुओं के विवरणों की न तो कोई परम्परा ही है और न ही आज तक इनकी उपयोगिता पर किसी का ध्यान ही गया है । आलोच्य ग्रन्थ इस दृष्टि से एक सुखद और महत्त्वपूर्ण उपक्रम है । यह आकार में बृहद् तो है ही, शैली और प्रस्तुति में भी विशिष्ट है । इसमें तेरापन्थ के आचार्यप्रवर और भारत में एक विशिष्ट आन्दोलन-अणुव्रत-के प्रवर्तक आ. तुलसी की २७ फरवरी १९६७ से २८ जनवरी १९७१ तक की राजस्थान, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, तामिलनाडु, केरल, कर्णाटक, आन्ध्र, मध्यप्रदेश, और उड़ीसा की यात्राओं और चातुर्मासों का संस्मरणात्मक-प्रेरक वर्णन-विवरण है । ये विवरण जहाँ एक ओर किंचित् व्यक्तिपरक - इसीलिए यथार्थ भी हैं, वहीं दूसरी ओर एक सांस्कृतिक पुलक लिये हुए हैं । इनके द्वारा कई श्रमण-श्रेष्ठताएँ उजागर हुई हैं और हम आश्वस्त हुए हैं कि यदि धर्म अपनी किसी सक्रिय भूमिका में उतर सके तो वह भारत के लोकचरित्र को एक निर्मल धरातल प्रदान कर सकता है । कई निष्कर्ष भी हमारे सामने आये हैं, मसलन आचार्यश्री का यह कथन कि "उत्तर भारत में जैनत्व के संस्कार इतने परिपक्व नहीं हैं, जितने कि दक्षिण भारत में हैं" । जहाँ तक समीक्ष्य ग्रन्थ की भाषा-शैली का प्रश्न है वह सरस, सहज, मर्मस्पर्शी और प्रशस्त है । विदुषी साध्वीप्रमुखा ने तथ्यों के आकलन में कोई कोर-कसर नहीं रहने दी है, और इसे सर्वांगता प्रदान करने में अथक परिश्रम किया है । उक्त ग्रन्थ के अन्य कोई लाभ हों-न-हों इतने फायदे तो हैं ही कि जैन साधुओं का आकिंचन्य, उनकी निष्कामता चौ. ज. श. अंक १६५ For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उनकी सादगी जनता-जनार्दन को प्रत्यक्ष देखने को मिली है, तथा साधुओं को अपने देश का व्यापक स्वाध्याय करने का मौका सुलभ हुआ है। साधु-जिसे ज्ञान की आँख कहा गया है - जब देश में अपने विशिष्ट साधु-परिकर के साथ घूमता है तब लगता है कोई अपलक कैमरा घूम रहा है जो सत्य को बिना किसी रंगत या लाग-लपेट के कह सकेगा ; इसीलिए समीक्ष्य ग्रन्थ में भाषा-नीति जैसे पेचीदे सवाल पर भी सहज विचार हुआ है, और सारे देश की एक बेलौस झाँकी-झलक मिली है । ग्रन्थ रोचक है, ज्ञानवर्द्धक है । हमारे विनम्र विचार में यदि यह ग्रन्थ जैन श्रमणों के लिए प्रेरक सिद्ध हो सके और वे भी अपने यात्राविवरणों को इस तरह उपलब्ध करा सकें तो भारतीय साहित्य में यह उनका एक विशिष्ट और बहुमूल्य अवदान होगा और इससे सदाचार की शक्तियाँ एकत्रित होकर अभिनव बल प्राप्त कर सकेंगी । वस्तुतः इस बहुमूल्य उपलब्धि के लिए हमें आचार्यश्री तुलसी तथा उनकी विदुषी साध्वी-प्रमखा कनकप्रभाजी का कृतज्ञ होना चाहिये कि जिन्होंने इस क्षेत्र में इतना प्रशस्त नेतृत्व किया है । कुल में, ग्रन्थ पठनीव, संकलनीय और अनुसरणीय है । जहाँ तक मुद्रण और सज्जा का प्रश्न है आदर्श साहित्य संघ के व्यवस्थापक श्री कमलेश चतुर्वेदी इसके विशेषज्ञ हैं, और उक्त कृति इसका एक उत्कृष्ट प्रमाण है । जैन न्याय का विकास : मुनि नथमल, संपादक - मुनि दुलहराज : जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर : मूल्य – बीस रुपये : पृष्ठ - १७९ : रॉयल' - १९७७ । आलोच्य ग्रन्थ मुनिश्री नथमलजी के जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र में प्रदत्त चार व्याख्यानों का एक संकलनीय संग्रह है, जो न्याय जैसे सूक्ष्म, गूढ-गहन, जटिल विषय को एक सहज परिवेश और भाषा-शैली में संपूर्ण प्रामाणिकता के साथ सफलतापूर्वक प्रस्तुत करता है। मुनि नथमलजी की एक विशिष्टता है कि वे जिस किसी विषय को प्रतिपादन के पटल पर न्योतते हैं, उसकी गहराइयों में यात्रा करते हैं और ऐसा करते हुए अपने पाठक या श्रोता को अपनी अंगुली नहीं छुड़ाने देते। वे सहज ही उसका विश्वास संपादित कर लेते हैं और बातचीत-जैसी शैली में प्रतिपाद्य विषय के सारे सूत्र-स्रोत उसके हवाले कर देते हैं। प्रस्तुत कृति इसकी एक. जीवन्त गवाही है। विद्वान् व्याख्यानकार का यह निष्कर्ष कि जैन परम्परा में तर्क का विकास वौद्धों के बाद हुआ - कई हस्ताक्षरों की जरूरत रखता है। यह महत्त्वपूर्ण है और इस पर पर्याप्त कार्य होना चाहिये। ग्रन्थ में जिन विषयों पर विचार हुआ है, वे हैं - आगम युग का जैन न्याय, दर्शन युग और जैन न्याय, अनेकान्त व्यवस्था के सूत्र, नयवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगी न्याय, प्रमाण-व्यवस्था, अनुमान, अविनाभाव, भारतीय प्रमाणशास्त्र के विकास में जैन परम्परा का योगदान तथा परिशिष्ट । निःसंदेह, ग्रन्थ सर्वथा उपयोगी है - विद्वानों के लिए, सामान्य स्वाध्यायी के लिए, ग्रन्थालयों के लिए। मुद्रण निर्दोष है, सज्जा सादा और स्वाभाविक, तथा मूल्य उचित। CO तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार-परिशिष्ट स्व. मुनिश्री चौथमलजी द्वारा विषम परिस्थियों में भी अहिंसा का व्यापक प्रचार जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमल जन्म-शताब्दी वर्ष का शुभारंभ - 'जब विश्व में हिंसक प्रवृत्तियाँ पनपने लगती हैं और उसके क्रूर प्रहारों से चारों ओर भय और अशान्ति का वातावरण व्याप्त हो जाता है, ऐसे समय में महान् सन्त-पुरुषों के अहिंसा-सिद्धान्त के सुदृढ़ स्त-भ पर ही विश्वशान्ति को स्थापित किया जा सकता है। आज देश में असात्त्विक प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं । सन्त और समाज मानवीय उद्देश्यों से प्रेरित होकर देश को सात्त्विकता की ओर मोड़ सकते हैं। जैन दिवाकर मुनि श्री चौथमलजी ने अपने समय में विषम एवं विरोधी परिस्थितियों में भी अहिंसा का व्यापक प्रचार किया ।' उक्त उद्गार जैन कांफ्रेंस के मध्यप्रदेशीय शाखा के अध्यक्ष श्री सौभाग्यमल जैन ने इन्दौर-स्थित महावीर चौक में जैन दिवाकर जन्मशताब्दी-वर्ष के शुभारम्भ (२३ नवम्बर, ७७) पर आयोजित समारोह में व्यक्त किए। → जैन दिवाकर विद्या निकेतन का भूमि-पूजन करते हुए श्री सागरमल बेताला और श्रीमती सुशीलाबाई बेटाला। (न्यू पलासिया, इन्दौर; १ दिसम्बर, १९७७) For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार : शीर्षक-रहित; संक्षिप्त, किन्तु महत्त्वपूर्ण -जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज- गुजराती संस्करण के प्रकाशन पर जोर स्थान) के तत्त्वावधान में आचार्य श्री दिया। मनि श्री हस्तीमलजी और जयन्ततुलसी के ५३ वें दीक्षा-दिवस के उपलक्ष्य विजयजी 'मधुकर' के सारगभित प्रवचन में त्रिदिवसीय (३० दिसम्बर, ७७ से हुए। १ जनवरी.७८) 'जैन पत्र-पत्रिका' प्रद- -जवाहर विद्यापीठ कानोड़ (उदयपुर) शनी' का आयोजन किया जारहा है, जिसका तथा जैन शिक्षण संघ के संस्थापक-संचालक मुख्य उद्देश्य पत्र-पत्रिका-जगत् में जैन पत्र- पं. उदय जैन का असामयिक निधन गत पत्रिकाओं के महत्त्वपूर्ण योगदान को जनता २७ नवम्बर को हृदयगति रुक जाने से के सामने प्रकट करना है। प्रदर्शनः वः हो गया। उनके द्वारा संस्थापित संस्थाओं हो। संयोजक श्री रामस्वरूप गर्ग, पत्रकार है। में बालमन्दिर से लगाकर महाविद्यालय ___ -श्रीमद राजेन्द्रसूरीश्वर की जन्म- की शिक्षा दी जाती है। सार्द्ध शताब्दी के उपलक्ष्य में अ. भा. श्री . -सुख्यात लेखक, विचारक और संपादक राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की ओर से श्री जमनालाल जैन की द्वितीय सुपुत्री गत ३० नवम्बर को रतलाम में मुनिश्री श्री रेखा का शुभ विवाह गत २२ नवम्बर जयन्तविजयजी 'मधकर' के सानिध्य में को प्रमुख सर्वोदय-कार्यकर्ता श्री मणिलाल 'श्री राजेन्द्र ज्योति' नामक बृहद् ग्रन्थ का संघवी के सुपुत्र श्री दिनेश के साथ नालपुर विमोचन-समारोह संपन्न हुआ। (कच्छ) में अत्यन्त सादगीपूर्ण वातवरण इस अवसर पर डॉ. नर्मःचन्द जैन ने में संपन्न हुआ। दोनों पक्षों की ओर से 'अभिधान राजेन्द्र' कोश की बढ़ती मांग .. ता माग अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया गया। को देखते हुए इसके हिन्दी, अंग्रेजी और →समारोह का उद्घाटन करते हुए श्री पं. मुनिश्री रामनिवासजी महाराज के मिश्रीलाल गंगवाल ने कहा कि सन्त का मंगलाचरण से प्रारंभ हुए समारोह में जीवन समाज, राष्ट्र और विश्व-मानवता श्री हस्तीमल झेलावत ने 'जैन दिवाकर के हित में समर्पित होता है। इस शताब्दी- विद्या निकेतन' की रूपरेखा प्रस्तुत की। महोत्सव के प्रसंग पर हम अपने जीवन की श्री योगेन्द्र कीमती ने अध्यात्मिक गीत विकृतियों को दूर करने का संकल्प करें। प्रस्तुत किया। समारोह का संचालन श्री सत्कर्म द्वारा ही हम उनके जीवन को आत्म- फकीरचन्द मेहता ने किया। सात् कर सकेंगे। जैन दिवाकर जन्म-शताब्दी-समारोह इस अवसर पर जैन दिवाकरजी के सुशिष्य के महत्त्वपूर्ण चरण के रूप में इन्दौर के कविवर्य श्री केवल मुनि महाराज को 'धर्म- पूर्वी क्षेत्र (न्यू पलासिया) स्थित भूखण्ड विभूषण' की उपाधि से अलं त किया गया। पर 'जैन दिवाकर विद्या निकेतन' को मालव-केशरी मनि श्री सौभाग्यमलजी स्थापना की जा रही है, जिसकी भूमिमहाराज ने इस अलंकरण की घोषणा की। पूजन-विधि श्री सगनमल भंडारी की अध्यइस अध्यात्मिक सम्मेलन में मुनिश्र मोहन- क्षता में गत १ दिसम्बर को श्री सागरमल लालजी 'शार्दूल और मनिश्रः यतीन्द्र बेताला तथा श्रीमती सुशीलाबाई बेताला विजयजी महाराज ने भी जैन दिवाकरजी द्वारा संपत्र की गयी। इस प्रकार श्री केवल के जीवन पर प्रकाश डाला। समारोह की मुनि की प्रेरणा और श्री फकीरचंद मेहता अध्यक्षता श्री सुगनमल भंडारी ने की। आदि के प्रयत्न से योजना का शुभारंभ हुआ। १६८ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जैन मित्र के वयोवृद्ध संपादक श्री उल्लेखनीय सेवाओं को दृष्टि में रखकर मूलचन्द किसनदासजी कापड़िया की ९५वीं जैन भारती प्रकाशन, बड़ौत (मेरठ) ने वर्षगांठ पर उनका अभिनन्दन करने के उन्हें अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट करने का लिए श्री कापड़ियाजी अभिनन्दन-ग्रन्थ निश्चय किया है। प्रकाशित किया जा रहा है। -दिल्ली प्रशासन द्वारा बाल अधि-वरिष्ठ लेखक और संपादक पं. नियम १९६१ के अन्तर्गत शकुन प्रकाशन परमेष्ठीदासजी जैन की विशिष्ट सेवाओं के संचालक श्री सुभाष जैन को प्रथम श्रेणी को ध्यान में रखकर उनके अभिनन्दन का का ऑनरेरी मजिस्ट्रेट मनोनीत किया है। आयोजन करने का निश्चय किया गया है। इस अवसर पर एक अभिनन्दन-ग्रन्थ भी -जैन मठ, मूलबिद्री में ३१ दिस प्रकाशित किया जा रहा है। को भगवान् महावीर भवन का शिलान्यास सुप्रसिद्ध उद्योगपति श्री श्रेयांसप्रसाद जैन -सुप्रसिद्ध समाजसेवी, वयोवृद्ध और द्वारा किया जा रहा है । 'जैन-जगत्' के संपादक श्री रिषभदासजी रांका का पूना में उनके निवास स्थान पर -अ. भा. दिगम्बर जैन युवा-परिषद गत १० दिसम्बर को ७५ वर्ष की आयु में बड़ौत द्वारा दिगम्बर जैन युवा सम्मेलन निधन हो गया। वे पिछले दो वर्षों से ब्लेडर किसी तीर्थक्षेत्र पर आयोजित किया के कैंसर से पीड़ित थे। फिर भी अपने जायेगा। अंगीकृत संपादन व सेवा-कार्य में तत्पर थे। -बारहवाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार बंगला -इन्दौर में म. प्र. तृतीय अणुव्रत- उपन्यासकार श्रीमती आशापूर्णादेवी को सम्मेलन के निमित्त प्रकाशित 'अणुव्रत- उनके उपन्यास 'प्रथम प्रतिश्रुति' पर प्रदान ज्योति' का विमोचन गत ११ दिसम्बर को किया गया है ।। मुनिश्री मोहनलालजी 'शार्दूल' के सान्निध्य में संपन्न हुआ। -१९७७ का लक्ष्मीदेवी जैन पुरस्कार सर्वश्री वीरेन्द्रकुमार जैन (बम्बई), डा. --'वीर', मेरठ का साहू शान्तिप्रसाद देवेन्द्रकुमार शास्त्री (नीमच), डा. भागजैन स्मृति-विशेषांक फरवरी, ७८ में प्रका- चन्द्र जैन (दमोह), डा. नरेन्द्र भानावत शित किया जा रहा है। (जयपुर) और डा. राजेन्द्र गर्ग (मेरठ) को जैन कालेज बड़ौत (मेरठ) के प्रांगण -'जैन जगत', बम्बई स्व. श्री शान्ति- में १८ दिसम्बर को पूज्य उपाध्याय मुनिश्री प्रसाद जी जैन और स्व. रिषभदासजी विद्यानन्दजी के सान्निध्य में आयोजित रांका की स्मृति में शीघ्र ही 'श्रद्धांजलि- समारोह में प्रदान किया गया । केन्द्रीय अंक' प्रकाशित कर रहा है। विदेश मंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी मुख्य अतिथि थे। -आगमपथ, दिल्ली द्वारा फरवरी में स्व. ब्र. शीतलप्रसाद-स्मृति-अंक प्रका- -जैन विश्व भारती लाडनूं के अन्तर्गत शित किया जा रहा है। तुलसी आध्यात्म नीडम् के तत्त्वावधान में एक अष्ट दिवसीय प्रेक्षा ध्यान शिविर -पं बाबूलालजी जैन जमादार की आचार्य श्री तुलली के सान्निध्य में और चौ. ज. श. अंक १६९ For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री नथमलजी के निर्देशन में १८ नये आजीवन सदस्य रु. १०१ दिसम्बर को संपन्न हुआ। इसमें विभिन्न । राज्यों के १०८ साधकों ने भाग लिया। ३१७. सेठ श्री गगलभाई आलचन्द । शिविर-निदेशक मुनिश्री नथमलजी ने रतन पोल, नगर सेठ मार्केट 'आध्यात्मिक चेतना द्वारा व्यक्तित्व का पो. अहमदाबाद-३८०-००१ रूपांतर' विषय पर प्रतिदिन मध्याह्न में होनेवाले प्रवचन साधकों को नया जीवन- ३१८. श्री बाबूलाल चादमल गगवाल दर्शन देने में बहुत उपयोगी सिद्ध हुए। पो. चन्द्रावतीगंज (सांवेर) . जि. इन्दौर (म.प्र.) .. -मुनिश्री नगराजजी, डी. लिट् के सान्निध्य में उपाध्याय मनिश्री महेन्द्रकुमार ३१९. श्री भेरूलाल पटेल 'प्रथम' द्वारा कलकत्ते में २४ वें विश्व मांगलिया शाकाहारी-सम्मेलन के प्रतिनिधियों के इन्दौर (म.प्र.) मध्य स्मति विलक्षणता के यौगिक प्रयोग किये गये, जिन्हें देख कर विदेशी प्रति-- ३२०. श्री महीपाल भरिया निधियों को सहज ही स्मति हो गयी कि बिशप्स हाउस मानव-मस्तिष्क को भी टेप रिकार्डर, कम्प्य पो. बॉ. नं. १६८ टर तथा कैमरा बनाया जा सकता है। पो. इन्दौर ४५२००१ (म.प्र.) -कलकत्ते में मनिश्री नगराजजी के ३२१. श्री एन. सुगालचन्द जैन सान्निध्य में भारतीय संस्कृति में अपरि २१४, ट्रिप्लीसेन हाई रोड ग्रह-दर्शन' विषयक विचार-परिषद् का पो. मद्रास ६००-००५ कार्यक्रम संपन्न हुआ, जिसमें मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' भी सम्मिलित हुए। (महाराष्ट्र) में जैनमनि श्री संतबालजी के सान्निध्य में संत-सेवक-सम्मेलन संपन्न हुआ। -अहिंसा इन्टरनेशनल, नई दिल्ली के तत्त्वावधान में श्रीराम भारतीय कला-केन्द्र -दिव्य ध्वनि प्रतिष्ठान के अध्यक्ष डॉ. के कलाकारों द्वारा श्रीमती कुन्था जैन-रचित कुलभूषण लोखंडे के अमेरिका में अन्त'बेल्ट भगवान् महवीर (अंग्रेजी) को गत राष्ट्रीय ध्यान केन्द्र में आचार्य हेमचन्द्र २६ दिसम्बर को मंच पर प्रस्तुत किया गया। और योग' विषय पर छह व्याख्यान हुए। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता लोकसभाध्यक्ष डॉ लोखंडे की प्रेरणा से भारत में २९-३० श्री के. एस. हेगड़े ने की और केन्द्रीय विधि- दिसम्बर को इण्टर असोसिएशन रिलीजस मंत्री श्री शान्तिभूषण ने उद्घाटन किया। फ्रीडम का एक प्रतिनिधि-मंडल धर्म तथा संस्कृति के अध्ययन के लिए आ रहा है। -बम्बई में मानव दर्शन प्रोडक्शन की 'महासती मैना सुन्दरी' फिल्म का शूटिंग -ग्राम डेरी (जावरा)-स्थित बलाई वारसोवा-बीच स्थित जहाज पर संपन्न हुआ। समाज में आयोजित एक भोज के अवसर पर श्री मानव मनि की प्रेरणा में ५० गाँवों - -अ. भा. संत-सेवक समद्यम परिषद् के लगभग १००० लोगों ने शराब-माँस के तत्त्वावधान में गत १० दिसम्बर को आदि बुराइयों का त्याग कर अच्छा जीवन अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र, महावीरनगर, चिंचणी बिताने की सामूहिक प्रतिज्ञा की। " १७० तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पत्र-पत्रिकाएँ-विशेषांक : अभिमत अद्वितीय पड़ा है। डा. नेमीचन्दजी ने विशेषांक का ऐसा विषय चुना जो आज तक अछूता ''तीर्थंकर' के अनेक विशेषांकों में यह था । इसमें बताया गया है कि जैन पत्रअद्वितीय विशेषांक है, जिसमें अत्यन्त पत्रिकाओं का इतिहास १०२ वर्ष का इतिपरिश्रमपूर्वक सन् १८७५ से १९७७ तक हास है । इस लम्बे युग में कितनी पत्र१०२ वर्ष की लगभग ४०० से अधिक पत्रिकाएँ जन्मी, पनपीं, अद्यलौ जीवित हैं जैन-पत्र-पत्रिकाओं का अकारादिक्रम व या अतीत में विलीन हो गयीं - इन सबका कालक्रम से खोजपूर्ण विवरण प्रकाशित समयानुक्रम, नामानुक्रम, भाषानुक्रम, किया गया है । डा. ज्योतिप्रसादजी जैन ने प्रान्तानुक्रम, अवध्यनुक्रम' से विवरण इस 'मेरी पत्रकारिता के पचास वर्ष' तथा श्री अंक में दिया गया है । यह बहुत बड़ी कमी अगरचन्दजी नाहटा ने 'जैन पत्रिकाएँ : थी जिसकी पूर्ति संपादकजी ने बहुत बड़ा पहला पुरहा' में जैन पत्र-पत्रिकाओं और श्रम के साथ की है । अंक में पत्रकारिता के उनके संपादकों, प्रकाशकों आदि के संबन्ध संबन्ध में अनेक विद्वान् पत्रकारों के संस्मरण : में ऐतिहासिक परिचय एवं समीक्षात्मक क्षिात्मक एवं जैन पत्रों के विकास संबन्धी पठनीय विवेचन प्रस्तुत किया है। भाषा की एवं पत्र-संपादकों के लिए मननीय सामग्री दृष्टि से मराठी और गुजराती जैन पत्र 47 दी है । साथ ही श्री रमा जैन की स्मृति पंत्रिकाओं का उदभव, परम्परा और विकास- में उनके संस्मरण आदि भी दिये हैं । अंक कथा तथा अन्य अंग्रेजी, उर्दू, कन्नड़, ६. बड़ा सुन्दर, संग्रहणीय एवं पत्र-संपादकों को तमिल, बंगला, संस्कृत, हिन्दी भाषाओं की पत्रिकाओं की इसमें अवधि एवं राज्या- संपादकजी धन्यवादाह हैं । दिशाबोध करनेवाला है । इसके लिए नसार सारणी है । पुराने विशिष्ट सामाजिक पत्र सनातन जैन, ज्ञानोदय, जैन ... -वीर-वाणी, जयपुर; दिसम्बर, ७७ प्रकाश, जैन मित्र आदि पर स्वतंत्र लेख पठनीय हैं। पं. नाथूरामजी प्रेमी, श्री कापड़ियाजी व पं. परमेष्ठीदासजी की पत्रकारिता- पस्तत विशेषांक के आरम्भ के ६१ संबन्धी सेवाओं का उल्लेख तथा महिला माहला- पृष्ठों में विशिष्ट विद्वानों के पत्र-पत्रिकाओं पत्रकार चन्दाबाईजी की स्मृति में यह अक पर खोजपर्ण लेख हैं जिनमें डा. ज्योतिप्रसाद समर्पित किया गया है । इसी में श्रीमती । । जैन का लेख विशेष रूप से पठनीय है। रमा जैन की जीवन-झांकी, व्यक्तित्व • तत्पश्चात् २० पृष्ठों में जैन पत्र-पत्रिकाओं एवं कृतित्व का परिचय-सामग्री जोड़ कर । र की भावी भूमिका पर एक परिचर्चा दो विशेषांक को अधिक प्रभावशाली बना गयी है। इसके पश्चात विशिष्ट विद्वानों के दिया है । इस विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण विचार दिये गये हैं। तत्पश्चात् ४० पृष्ठों विशेषांक के प्रकाशन हेतु उभय विद्वान् में जैन पत्र-पत्रिकाओं के बारे में परिचयासंपादक-बन्धु धन्यवादाह हैं। त्मक टिप्पणी दी गयी है । रमा जैन की ' -सन्मति-वाणी, इन्दौर; दिसम्बर, ७७ स्मृति में भी सामग्री है । प्रमुख संपादकों के परिचयात्मक लेख हैं। पूरा अंक पठनीय सन्दर्भ ग्रन्थ हैं । साज-सज्जा आधुनिक है । डा. नेमीचन्द - प्रस्तुत विशेषांक एक संदर्भ ग्रन्थ है, जैन की सूझ-बुझ व श्रम सराहनीय है। जिसे तैयार करने में वडा परिश्रम करना -जैनपथ प्रदर्शक, विदिशा; १६ दिस., ७७ चौ. ज. श. अंक १७१ For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बड़े अभाव की पूति दरअसल बुनियादी सवाल यह है कि प्रस्तुत विशेषांक प्रकाशित कर 'तीर्थ- वर्तमान में निरन्तर कोई डेढ़ सौ पत्रिकाएं कर' ने एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। साहित्य, समाज या संस्कृति के प्रति क्या विशेषांक में आरम्भ के ६१ पष्ठों में कोई योग कर पा रही हैं ? अतिशयोक्ति की विशिष्ट विद्वानों के पत्र-पत्रिकाओं पर खोज- ऊँचाई तक उड़ान किये जाने के बाद भी पूर्ण लेख हैं, जिनमें डा. ज्योतिप्रसाद जैन साकार उत्तर देना कठिन है। जैन पत्रिका लेख विशेष रूप से पठनीय है। तत्पश्चात् । नात काओं का इससे अधिक कोई योग नहीं है २० पष्ठों में जैन पत्र-पत्रिकाओं की भावी कि वे नामों की एक लम्बी फेहरिश्त बना भूमिका पर एक परिचर्चा दी गयी है। इसके सकती हैं। बाकी अधिकांश तो समाज की पश्चात विशिष्ट विद्वानों के विचार दिये रूढ़ियों, परम्पराओं व संस्थाओं से प्रतिबद्ध गये हैं। तत्पश्चात ४० पष्ठों में जैन पत्र- होकर एक निश्चित सुर निकालने का अनिपत्रिकाओं के बारे में परिचयात्मक टिप्पणी वाय कष्ट भोग रही हैं । कई इश्तहार से दी गयी है। इसी अंक में रमा जैन की स्मति अधिक नहीं हैं । न उन्नत स्तर का ध्यान में लेख दिये गये हैं। अंक में प्रमख संपादकों. है और न समाज के हित-अहित का कोई के बारे में लेख दिये गये हैं। परा अंक संक- चिन्तन है । अपने घोसला का रहवासा बने लन एवं पढ़ने योग्य है । प्रकाशन सुन्दर है । रहने के बाद भी जैन पत्रिकाओं ने समाज व इसके काटनेने संस्कृति के उभय सवालों पर निर्भीक जो प्रयास किया है, उसके लिए वे प्रशंसा चिन्तन किया होता तो शायद समग्रता की के पात्र हैं। जोड़ कुछ उपलब्धि तक पहुँच पाती, किन्तु ऐसा नहीं है । -वीर, मेरठ ; १५ नवम्बर ७७ जैन पत्रिकाओं पर समाज का भारी धन एक अछते विषय पर विवेचन व शक्ति व्यय हो रही है । यदि सभी पत्रि'तीर्थकर' ने जैन पत्र-पत्रिकाएँ विशेषांक काओं के वार्षिक व्यय को जोड़ा जाये तो प्रकाशित कर समाज को एक अछुते विषय कम-से-कम पच्चीस लाख रुपये का आंकड़ा पर विवेचन करने के लिए बाध्य कर दिया तो सरलता से अंकित किया जा सकता है। है । प्रस्तुत विशेषांक से एक महत्त्वपूर्ण लेकिन यदि जैन पत्रिकाएँ अपनी उपयोतथ्य स्पष्ट हुआ है कि जैन पत्र-पत्रिकाओं गिता साबित करें, तो कई गने रचनात्मक ने एक शताब्दी पूर्ण कर ली है । इस कार्य किये जा सकते हैं । पत्रकार समाज को शताब्दी के अन्तराल में निकली अधिकांश बदल सकता है, जैन पत्रकार ऐसा प्रयत्न जैन पत्रिकाएँ (पत्र शब्द भी जोड़ना उप करें तब न । युक्त नहीं है) दिवंगत हो चुके हैं, कतिपय आशा है कि 'तीर्थंकर' का उक्त विशेआज लंगडी फौज की सदस्य हैं एवं कछ षांक समाज में नयी परिचर्चा को जन्म देगा. एसो अवश्य हैं, जिन पर संतोष प्रकट किया जिसकी गूंज समाज के हर मंच पर ध्वनित जा मकता है। जैन पटल के जैन पत्रकारों होगी और जैन पत्रकारिता वर्तमान का आपसी रिशा नहीं के बराबर है, शताब्दी के प्रति ईमानदार बनाने में कामकेवल परिवर्तन में पत्रिकाओं का ले-देकर याब हो जाएगी । लेते हैं । इसके सिवाय उन्होंने एक घोंसले __-शाश्वत धर्म, मन्दसौर ; १० दिस., ७७ में एकत्र होकर आपसो सुख-दुःख पर विचार करने की कोई कोशिश नहीं की । अधिकांश पालन परिश्रम पूर्णतः सफल- सार्थक के घोंसले ही अलग-अलग हैं । और वे एक- विशेषांक बहुत सुन्दर है । यह आपकी दूसरेके घोंसलों को बिखेरने में जुटी हुई हैं। लगन, सूझबूझ, प्रतिभा तथा परिश्रम का १७२ तीथकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल है । आप त्रुटियों की सूचना देने को करने के लिए राशि-राशि धन्यवाद! क्या लिखते हैं पर वह तो कहीं नजर नहीं ही अच्छा होता यदि आप लोगों जैसा कोई आयीं और अच्छाई की तो कोई सीमा ही दूरदर्शी एवं साहसी व्यक्ति अब इन पत्रिनहीं है। क्या मैं इससे अच्छा कुछ पाता? काओं के व्यक्तित्व का परिचय भी लिख कव्हर से सामग्री तक सभी मनोज्ञ है। डाले और इसी आधार पर उनका समूहीजैन पत्र-पत्रिकाओं का काल, स्थान व करण भी करे । नामानुक्रमिका और ग्राफ सभी यथोचित श्रीमती रमा जैन का पूर्ण परिचय प्राप्त हैं । आपका परिश्रम पूर्णतः सफल हुआ कर हृदय उनके प्रति असीम श्रद्धा और है, सार्थक हुआ है। फिर भी आपकी आज्ञा- गौरव से भर उठा है। अपने विलक्षण कार्यों नुसार एक-दो कमियों का उल्लेख करूँगा। से भारतीय नारी-जाति के इतिहास को _इस अंक में श्रीमती रमाजी का रंगीन कितना महिमान्वित किया है उन्होंने ! चित्र इतना अधिक रंगीन है कि उनकी शाली- और आपका संपादकीय ? वह तो जहाँ नता को नष्ट करता है । इससे तो अच्छा भी है अपूर्व है, अभिनव है, कल्याणमय है । होता वह रंगीन नहीं होता । दूसरी कमी -राजकुमारी बेगानी, कलकत्ता 'ले आउट' में स्थान का अत्याधिक उपयोग । इस संबन्ध में आपसे मेरा मतभेद हो सकता विचारोत्तेजक उपयोगी सामग्री है। फिर भी मैं कहूँगा कि जैन पत्र-पत्रिकाओं तीर्थंकर' का रमा जन स्मतिपतिकी कव्हर के जो ब्लाक अपनी सामग्री सहित जैन पत्र-पत्रिकाएँ-विशेषांक विद्वान के साथ स्पेस न देकर छापा है उससे वह संपादक की सामयिक सुझबझ, लगन एवं मन पर कोई 'इम्प्रेशन' नहीं डाल पाता। परिश्रम का सूपरिचायक है । जैन पत्रकावैसे आपने दौड़-धूप करके जो यह सब रिता के इतिहास, विकास, स्वरूप, क्षमता सामग्री बटोरी, वह 'नेपोलियनिक' है। एवं आवश्यकताओं के क्षेत्र में अभी कितना -गणेश ललवानी, कलकत्ता कुछ होना अपेक्षित है, इस संबन्ध में विचारो त्तेजक उपयोगी सामग्री से पूरित इस विशेएक सदी का इतिहास समाहित । षांक के प्रकाशन के लिए विद्वान् संपादक बिलकूल आशा के अनुरूप इस विशेषांक बधाई के पात्र हैं। साहित्यिक एवं सांस्कृके सौन्दर्य ने मझ-जैसी भावुक को तो एक तिक क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण अवलम्ब स्व. बार मन्त्रमुग्ध ही कर दिया । कितनी देर रमाजी की स्मति में संयोजित सामग्री भी तक तो देखती रही कव्हर पर विभिन्न उपयक्त है। भाषी पत्रिकाओं की कतरन से लिखित -डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ 'तीर्थंकर' शब्द को ! विश्वकोश खोलने पर कुछ निश्चित ही नहीं कर पायी क्या पहले पढ़, क्या बाद में । क्योंकि एक ही सांस में सारा विशेषांक देख दीपावली की कार्य-व्यस्तता जो थी । गया। जैन पत्र-पत्रिकाओं का वह विश्वकोश सभी लेख एक-से-एक उत्कृष्ट । विशेषांक है। उसमें अतीत का इतिहास है, वर्तमान के इस छोटे से कलेवर में कितनी निपूणता का विश्लेषण है और भविष्य की कल्पना से समाहित किया है आपने एक सदी के है। सीमित पृष्ठों में आपने 'गागर में सागर दीर्घ इतिहास को । जैन पत्र-पत्रिकाएं की कहावत चरितार्थ कर दी है। बड़ा क्या थीं, क्या हैं और उन्हें क्या होना चाहिये; परिश्रम किया है आपने, और बड़ी ही सभी कुछ एक बारगी ही उभर कर स्पष्ट सूझबूझ दिखाई है । इस अंक को पढ़ कर हो गया है। 'इंडेक्सिग' पर अथक परिश्रम पाठकों का ज्ञानार्जन तो होगा ही, भावी चौ. ज श. अंक १७३ For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दायित्व का बोध भी होगा । मुझे पूरा श्रेष्ठ प्रयास विश्वास है कि पाठक इस अंक को एक बार पढ कर पटक नहीं देंगे, सहेज कर रखग। है। जैन पत्र-पत्रिकाओं का इतिहास संक हिन्दी पत्रकारिता में आपका प्रयास श्रेष्ठ मेरी हार्दिक बधाई, अभिनन्दन ! लन कर उनकी प्रगति हेतु दिये गये सुझाव -यशपाल जैन, नई दिल्ली शायद आज का नेतृत्व न माने पर यह संग्रहणीय निश्चित है कि भविष्य समन्वय का है । विशेषांक संग्रहणीय बन गया है। वस्तु को यथोचित स्थान पर रखने की तथा कई महत्त्व की गलतियाँ भी रह गयी हैं। उसे संजोने की जो कला आप में है, वह कुछ नयी जानकारी भी फिर कभी दंगा। आपको चूमने लायक है। ... मेरी राय में रमा जैन संबन्धी सामग्री -बाबूलाल पाटोदी, इन्दौर अलग अंक में देनी चाहिये थी। वह अंक बड़ी प्रसन्नता महत्त्व का बन जाता । असंगति नहीं लगती। विशेषांक के दर्शन कर बड़ी प्रसन्नता -अगरचन्द नाहटा, बीकानेर हुई । · ·आपने इस अंक में प्रेमीजी को उभारने का प्रयास तो किया है, जो सराहप्रत्याशा से कई गुना अधिक समृद्ध नीय है; पर पं. जगलकिशोरजी मुख्तार जैन पत्रकारत्व विशेषांक मेरी प्रत्याशा को कैसे भूल गए? उनका स्वरूप प्रेमीजी से से कई गुना अधिक समृद्ध निकला है ।। " कुछ कम नहीं रहा है । वे कलम के धनी रहे प्रत्येक लेख पढ़ जाने का लोभ होता है, पर हैं और उनकी कलम की वर्चस्विता को अपनी समय-सीमा में वह कर नहीं पा रहा। प्रेमीजी तक मानते थे । आशा है, इस ओर जिस जैन समाज के लिए तुम खप रहे हो, - दृष्टिपात करेंगे। वह इस पूरी जड़ व्यवस्था का केवल अंग -कुन्दनलाल जैन, दिल्ली नहीं, बल्कि इस जड़त्व की 'जड़' में बैठा है। सर्वथा अनुपम इस जड़त्व को तोड़ने के लिए ज्ञान काफी विशेषांक सचमुच बहुत बड़े अभाव की नहीं, उस ज्ञान को तलवार हो जाना पूर्ति है । सर्वथा अनुपम, महत्त्वपूर्ण, सुन्दर, पड़ेगा। संग्रहणीय । इस श्रेष्ठ एवं अत्युपयोगी विशे___ तुम्हारी यह प्रतिभा, साधना और समय षांक के लिए अन्तर हृदय से सप्रसन्न सादर किसी व्यापक अखिल भारतीय रेज' की शतश: साधुवाद ! . सांस्कृतिक पत्रिका निकालने में लगे, तो -मुनि महेन्द्रकुमार 'कमल', रतलाम तुममें इतनी शक्ति है कि तुम एक सांस्टतिक 'रिनेसाँ'-पुनरुत्थान को लाने को अपूर्व सूझबूझ मशाल खड़ी कर सकते हो। विशेषांक देख-पढ़कर मन आनन्दित मेरी सलाह है कि अब तीर्थंकर' को ही हो गया। सच मानिए, एक-एक अंक आजीवन सदस्यता-शुल्क का मूल्य चुकाता एक व्यापक सांस्कृतिक - आध्यात्मिकसाहित्यिक पत्रिका में परिणत कर दो। है। पत्रकारिता के क्षेत्र में आपकी सूझ-बूझ उसमें विशिष्ट जैन सामग्री को उच्च स्थान : अपूर्व है, आप जैन समाज को वरदान हैं। पर दो तो जैन विद्या अधिक व्यापक बौद्धिक -नेमीचन्द जैन, शिवपुरी (म.प्र.) जगत तक पहुँचेगी और तब यह पत्र अखिल चुम्बकीय आकर्षण भारतीय महत्त्व भी प्राप्त कर सकता है। अन्य लेखन-कार्यों में अत्यधिक व्यस्त -वीरेन्द्रकुमार जैन, बम्बई होने पर भी विशेषांक पढ़ने के लोम को मैं १७४ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवरण न कर सका । जब तक उसे न पढ़ा, परिचय क्या आत्मपरिचय ही दे डाला है। तक तक चैन न पड़ा । प्रत्येक पृष्ठ पर पर वह ऐसा नहीं , जो पाठकों को आकर्षित आपकी प्रतापपूर्ण प्रतिभा झलक रही है। न करें। आप इतना बढ़िया लिखते हैं और इतना -डा. दरबारीलाल कोठिया, वाराणसी सुन्दर संपादन करते हैं कि पाठक को वह चुम्बक की तरह आकर्षित कर लेता है। उत्कर्षांक कई बार आपकी संपादन-कला को देखकर विशेषांक अपनी पूर्व परम्परा में एक मन में विचार आता है कि मैं भी इतना उत्कर्ष चिह्न है। संपादकीय 'बाद | एक सुन्दर संपादन कर पाता तो कितना अच्छा सदी के' हमें विशेषांक का सार प्रदान करता होता । वस्तुतः आपकी कलम में जादू है। है। इसमें जैन पत्र-पत्रिकाओं का एक सदी इतने श्रेष्ठ विशेषांक के लिए मेरे हृदय के का शोधपूर्ण सिंहावलोकन है। अन्य लेखों में कोटि-कोटि साधुवाद स्वीकार करें। माणकचन्द कटारिया की परिचर्चा उस -देवेन्द्र मुनि शास्त्री, बंगलोर भूमिका को प्रस्तुत करती है, जो हमें प्राप्त करनी है। चिरस्मरणीय इस विशेषांक में 'रमा जैन स्मृति पूर्ति' विशेषांक देख और पढ़कर आपकी अंश भी एक श्रद्धांजलिपूर्ण अभिनन्दन-ग्रन्थ सफलता के लिए बधाई भेजता हूँ। यह अंक का रूप प्रस्तुत करता है। विशेषांक का एक संदर्भ ग्रन्थ के रूप में अपनी उपयोगिता परिशिष्ट अपनी निराली शान के साथ के लिए हमेशा याद किया जायेगा। कृतिकार यशस्वी संपादकों को एक भाव -सुबोधकुमार जैन, आरा भीनी श्रद्धांजलि है । 'तीर्थंकर' के इस सुपाठ्य सामग्री से भरपूर उत्कर्षांक के लिए बधाई ! __-डा. जयकिशनप्रसाद खंडेलवाल, आगरा विशेषांक बहुत सुन्दर बन पड़ा है । पढ़ने योग्य बहुत सामग्री है । प्रयास सफल महान और अनुपम देन रहा है। _ विशेषांक तो आपकी एक महान् व ___ -सतीश जैन, दिल्ली अनुपम देन है । 'जैन पत्र-पत्रिका-प्रदर्शनी' मील का पत्थर का आयोजन मुख्यतः उसी से प्रेरित है। विशेषांक देख कर और आपके संपादकीय आप ही इस आयोजन के प्रमुख प्रेरक हैं। के अलावा उसके अनेक लेख पढ़ कर हार्दिक -रामस्वरूप गर्ग, पत्रकार; लाडनूं प्रसन्नता हुई । अंक के साथ बहुत परिश्रम आपने किया है और कहाँ-कहाँ से सामग्री बड़ा उपादेय कार्य जुटाई है। यह अंक संग्रहणीय ही नहीं किन्तु विशेषांक में आपने बड़े परिश्रम से पत्रजैन पत्र-पत्रिकाओं के इतिहास को लिखने पत्रिकाओं से संबन्धित सामग्री संकलित कर के लिए मील के पत्थर का काम देगा। वड़ा उपादेय कार्य किया है। उसके लिए विभिन्न स्थानों, विभिन्न कालों, विभिन्न मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये । यह परिस्थितियों और विभिन्न भाषाओं में अंक सब के लिए लाभदायक और संग्रहप्रकाशित इतने पत्र-पत्रिकाओं का संकलन- णीय है। इसके द्वारा एक स्थायी रूप से पत्रपरिचय और सुधरी भाषा का प्रयोग एवं पत्रिकाओं संबन्धी जानकारी सब के लिए एक-सी धारा सभी स्तुत्य है, इसके लिए उपयोगी सिद्ध होगी। । । । हृदय से बधाई! कुछ लेखकों ने तो पत्रों का -व्योहार राजेन्द्रसिंह, जबलपुर चो. प.श. अंक १७५ For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश स्तम्भ वैसे तो आजकल चाहे जिस ग्रन्थ के विषय में 'संग्रहणीय' लिख देते हैं । पर 'तीर्थंकर' के विशेषांकों की परम्परा में यह (भी) एक सार्थक, सोद्देश्य और संग्रहणीय ग्रन्थ बनाया गया है । आपका श्रम आगामी कई पीढ़ियों को प्रकाश-स्तम्भ-सा मार्गदर्शन कराता रहेगा । - सुरेश 'सरल', जबलपुर उपयोगिता अपरिहार्य विशेषांक देखकर मन प्रसन्न हो उठा । भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में आप का यह अथक परिश्रम अविस्मरणीय रहेगा। शोध के क्षेत्र में इस सन्दर्भ ग्रन्थ की उपयोगिता अपरिहार्य है । . श्रीमती रमारानी स्मृति खण्ड भी कई पक्ष उजागर करता है उनके व्यक्तित्व के । उनको समर्पित एक स्मृति ग्रन्थ ही निकलता चाहिये, प्रारूप उसका नयापन लिये हो । पुनः बधाई इस अनुष्ठान की सम्पूर्ति के लिए । -डा. प्रेमसुमन जैन, उदयपुर अद्भुत - असाधारण विशेषांक अद्भुत है, असाधारण है । प्रत्येक पृष्ठ संग्रहणीय है । आप में संपादन की अनूठी क्षमता और सूझबूझ है । मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें । - कन्हैयालाल सेठिया, कलकत्ता आशातीत उपलब्धि विशेषांक में सामग्री का संयोजन अद्भुत है । इतने अच्छे अंक की आशा नहीं की जा सकती थी । पर आशा से बहुत ऊपर की उपलब्धि हुई है । मैं तो प्रसन्नता से गद्गद हो गया । बहुत-बहुत बधाइयाँ !! - बालचन्द्र जैन, जबलपुर अनुप्रेक्ष्य स्थान विशेषांक देखकर हृदय गद्गद हो उठा । उसे पढ़कर लगा कि एक सही और सफल पत्रकार ने जैन पत्र-पत्रिकाओं को समाचार - १७६ पत्र - जगत् में अनुप्रेक्ष्य स्थान बना दिया है । इस श्रम-साध्य कार्य में आपने अपने ललाट से कितना पसीना बहाया होगा, यह सहज अनुमेय है । आपकी कर्मठ क्रियाशीलता अविस्मरणीय है । पुण्यशीला स्व. रमाजी की भी स्मृतियाँ आपने इसी में संजो दी हैं । धर्म, साहित्य और समाज की उन्नति तथा प्रचार-प्रसार में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान कौन भूल सकता है । आपने उसे तारोताजा कर दिया । इस सब के लिए आपको बधाइयाँ ! -डा. भागचन्द्र जैन 'भास्कर', नागपुर संपादन- कलाकी ऊँचाइयों को छूनेवाला विशेषांक क्रम क्रम पढ़ा । इसके उत्तरार्ध में छपी श्रीमती रमा जैन- स्मृतिपूर्तिवाली सामग्री और परिशिष्ट के रूप में दी गयी सारी सामग्री मैंने विशेष रुचि के साथ पढ़ी। जैन पत्र-पत्रिकाओं से संबन्धित सामग्री का भी अधिकांश पढ़ा । अपने इस विशेषांक के रूप में 'तीर्थंकर' ने संपादनकला की जिन ऊँचाइयों को छुआ है, उसके लिए मैं समूचे 'तीर्थंकर' - परिवार का और उसके संपादक - मण्डल का हृदय से अभिनन्दन करता हूँ और परम मंगलमय परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि भारत के पत्र- जगत् में 'तीर्थंकर' अपनी उज्ज्वल प्रखर सेवा द्वारा अद्वितीय बनता चला जाए । - काशिनाथ त्रिवेदी, इन्दौर सर्वप्रथम साहसिक प्रयास विशेषांक को गहराई से पढ़ा । यह मेरे ख़याल से भारत में पहला प्रयास 'तीर्थंकर' के माध्यम से आपने किया होगा । आपके इस साहसिक प्रयास के लिए किन शब्दों में अभिनन्दन करूँ ? 'तीर्थंकर' ने पाठकों ज्ञान में वृद्धि ही नहीं की, किन्तु व्यापकता का भी अध्ययन के लिए समय-समय पर अवसर दिया । For Personal & Private Use Only - मानव मुनि, इन्दौर तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर :और तीन वर्षक(मई १९७५ से अप्रैल १९७७) वर्ष ४ (मई १९७४ से अप्रैल १९७५) आत्मज्ञान : एक समग्र समाधान : अकेली (कहानी) : कु. मयूरा शाह, शाह जे. कृष्णमूर्ति, अगस्त, पृ.३ अक्टूबर, पृ.२९ आप निन्दा करते हैं, किसकी ? : अनाम (कविता) : कन्हैयालाल सेठिया, अगरचन्द नाहटा, अक्टूबर, पृ.२१ दिसम्बर, पृ.४ ___ आहार; मनुष्य के लिए : मनुष्य, ___ अनुत्तर योगी : तीर्थंकर महावीर आहार के लिए : उपाध्याय' मुनि विद्यानन्द, (प्रथम खण्ड) : वीरेन्द्रकुमार जैन, जनवरी, पृ.१३ (समीक्षा), अप्रैल, पृ.३९ ईश्वर (कविता) : कन्हैयालाल अनेकान्त : डा. प्रभाकर माचके, फरवरी, सेठिया, मार्च, पृ.५ उजले पुरखे, मैले वंशधर : संपादकीय, अनेकान्त-आकाश-गंगा (कविता): नवम्बर, पृ.७ भवानीप्रसाद मिश्र, नवम्बर, पृ.१२ ऋषभदेव : एक परिशीलन (शोधअनेकान्तवाद : एक समीक्षात्मक प्रबंध) : देवेन्द्र मुनि शास्त्री, (समीक्षा), टिप्पणी : डा. आ. ने. उपाध्ये, मई, प.२३ माचे, पृ.३३ अन्धकप (धारावाहिक नाटक) एक द्रव्य : एक क्रिया : भगवान् महावीर राजेश जैन. मार्च, पृ.१९ ने कहा था, सितम्बर, आवरण-पृ.४ ___ अपग विचार ! (कविता) : कन्हैया- एक बार तो इन्सान इसे जान ले लाल सेठिया, फरवरी, पृ. ५ । (कविता) : मैकडोनाल व्हाइट, जून, अप्पदीपोभव ! (अनत्तर योगी: पृ.३४ तीर्थंकर महावीर-द्वितीय खण्ड का एक एक बुढ़िया और बाहबली (बोधअध्याय) : वीरेन्द्रकुमार जैन, अप्रैल. पृ. ८ कथा) : नेमीचन्द पटोरिया, मार्च, पृ.२८ अबोध (कविता) : कन्हैयालाल सेठिया, ओ वर्धमान ! (कविता) : डा. नवम्बर, पृ. ४७ प्रभाकर माचवे, दिसम्बर, पृ.५ __ अर्थवत्ता! पड़ी रही माटी, चला गयी 'ओम्' : एक ललित समीक्षण : महात्मा गागर (कविता) : कन्हैयालाल सेठिया, भगवानदीन, मई, पृ.१५ अप्रैल, पृ.४ ___ कथाकोशः (आराधना-कथा-प्रबंध) : अहिंसा अर्थात् कायरता (?) : भानी- संपा. डा. आ. ने. उपाध्ये, (समीक्षा), राम ‘अग्निमुख', दिसम्बर, पृ.२४ मार्च, पृ.३२ __ आओ करें क्रोध : संपादकीय, मार्च, कर्मग्रंथ (प्रथम भाग) : देवेन्द्र सूरि, (समीक्षा), मार्च, पृ.३३ आजकल के पण्डित (बोधकथा) : ___ कलम (काव्य) : कल्याणकुमार जैन नेमीचन्द पटोरिया, फरवरी, पृ.३ 'शशि', (समीक्षा), अगस्त, पृ.३१ __ आत्मचिन्तन (कविता) : योगेन्द्र ___ कहाँ से, कहाँ तक : जून, जुलाई, दिवाकर, अगस्त, पृ.१६ सितम्बर, आवरण-पृ.२-३ ___ आत्मजयी वर्द्धमान महावीर : सर्व- किताब खोलो (कविता) : सुरेश पल्ली राधाकृष्णन्, अप्रैल, पृ.१९ 'सरल', जुलाई, पृ.२४ चौ ज. श. अंक १७७ For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ.२९ किस संबोधन से पुकारूं तुम्हें (कविता) : जीवन-भाष्य :जे. कृष्णमूर्ति, (समीक्षा), मुनि रूपचन्द्र, जनवरी, पृ.२३ अगस्त, पृ.३० कुमुद की भाँति निर्लिप्त बन ! : जूझो : स्वयं में, स्वयं से : भगवान् भगवान् महावीर ने कहा था, दिसम्बर, महावीर ने कहा था, जून, आवरण-पृ.४ आवरण-पृ.४ जैन आचार्यों की सांस्कृतिक देन : डा. _ 'क्रोध' : डा. प्रभाकर माचवे, मार्च, विलास आदिनाथ सांगवे, जून, पृ.२५ । पृ.१३ * क्रोध : अपने को देखने के दौरान : .. जैन दर्शन : राजनीति को परिशुद्ध करे वीरेन्द्रकुमार जैन, मार्च, पृ.१५ • (टिप्पणी) : 'रत्नेश' कुसुमाकर, जनवरी, क्यों करता है रोष : भगवान् महावीर ने __ जैन दर्शन : मनन और मीमांसा : मुनि कहा था, मार्च, आवरण-पृ.४ नथमल, (समीक्षा), फरवरी, पृ.३३ __ खराद (मुक्तक) : कल्याणकुमार जैन जैनधर्म : पं. नाथूराम डोंगरीय जैन, 'शशि', (समीक्षा), मार्च, पृ.३३ (समीक्षा), अप्रैल, पृ.४३ गीता में निर्वाण : श्री अरविन्द, नवम्बर जैनधर्म : रतनचन्द जैन, (समीक्षा) : आवरण-पृ.२-३ ___ चन्द्रवाड़-भूगर्भ से बोलता एक नगर : जुलाई, पृ.३२ जयकुमार जैन, अक्टूबर, पृ.२६ जैनधर्म का मौलिक इतिहास (द्वितीय चपल मन का मृग बिंघे (गीत) : खण्ड) : आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज, (समीक्षा), जनवरी, पृ.३२ कन्हैयालाल सेठिया, जून, पृ.१४ __ चलो तो मंजिल आ जाए : माणकचन्द जैन महावीर, मेरे महावीर : वीरेन्द्र कुमार जैन, नवम्बर, पृ.२३ कटारिया, मार्च, पृ.८ ___ चार बोध कविताएँ : दिनकर सोनवलकर, ___ जैन मूर्तिकला-विचार और निखार और : अगरचन्द नाहटा, जून, पृ.३१ नवम्बर, प.३ चाह गयी, चिन्ता मिटी (बोधकथा) : जैन लक्षणावली : संपा. बालचन्द्र नेमीचन्द पटोरिया, जुलाई पृ.२३ ।। सिद्धान्तशास्त्री, (समीक्षा), जुलाई, चाहे जो कुछ हो (बोधकथा) : नेमीचन्द पृ.३१ पटोरिया, मई, आवरण-पृ.२ __ जैसे अन्धे को प्रकाश, वैसे प्रज्ञाहीन को छोडें : भषण के साथ दुषण, वसन के शास्त्र :भगवान् महावीर ने कहा था, अगस्त, साथ वासना (बोधकथा) : नेमीचन्द्र आवरण-पृ.४ पटोरिया, अगस्त, पृ.१७ ___ जोड़ें; किन्तु जुड़ें भी : संपादकीय, __ जियें या जूझें : विरोधाभासों से जनवरी, पृ.६ (टिप्पणी) : गुलाबचन्द जैन, जनवरी, ज्ञान में सुख, अज्ञान में दुःख (बोधपृ.२५ कथा); नेमीचन्द पटोरिया, नवम्बर, जियो, जीने दो : संपादकीय, दिसम्बर, पृ.१६ तार झनझना उठे. भलाई के लिए " जीवन एक बन्द पुस्तक ! : माणकचन्द (बोधक) : देवेन्द्र मुनि शास्त्री, फरवरी, कटारिया, जुलाई, पृ.८ ___ जीवन की अवधि (कविता): भवानी- तीन छोटी कविताएँ : डा. श्यामसुन्दर प्रसाद मिश्र, सितम्बर, पृ.५ घोष, अक्टूबर, पृ.५ पृ.७ १७८ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन काँटे : आशा तृष्णा, उच्छृंखलता : भगवान् महावीर ने कहा था, जुलाई, आवरण-पृ.४ तीर्थंकर महावीर : मधुकर मुनि, रतन मुनि, श्रीचन्द सुराना 'सरस', (समीक्षा), जनवरी, पृ. ३३ तीर्थंकर महावीर : डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, (समीक्षा), अप्रैल, पृ. ४२ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा ( चार खण्ड) : स्व. डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य, (समीक्षा), अप्रैल, पृ. ४० तीर्थंकर वर्धमान महावीर : पद्मचन्द शास्त्री, (समीक्षा), अक्टूबर, पृ. ३३ सर्वोदय-मार्ग : डा. (समीक्षा), अप्रैल, तीर्थंकरों का ज्योतिप्रसाद जैन, पृ.४२ तीसरा स ंदर्भ : संपादकीय, सितम्बर, दिव्य पुरुष: साध्वी चन्द्रावती, (समीक्षा), दिसम्बर, पृ. ३३ देवगढ़ की जैनकला : डा. भागचन्द्र जैन, (समीक्षा), मार्च, पृ. ३१ देवाधिदेव भगवान् महावीर (गुजराती), मुनिराज श्री तत्त्वानन्दविजयजी, (समीक्षा), मार्च, पृ. ३३ देह और विदेह, साधना का मार्ग तो पानी बिच मीन पियासी, अनासक्ति का ऑक्सीजन (बोधक) : देवेन्द्र मुनि शास्त्री, दिसम्बर, पृ. ३ दोष कहाँ, रोष कहाँ ( बोधकथा ) : नेमीचन्द पटोरिया, नवम्बर, पृ. १ धर्म: निराकुलता की जननी : उपाध्याय मुनि विद्यानन्द, अक्टूबर, पृ. ३ चौ. ज. श. अंक धर्म और दर्शन (टिप्पणी) : (श्रीमती) आशा मलैया, अगस्त, पृ. २८ पृ.७ त्याग २,भोग १, : माणकचन्द कटारिया, कथा ) अगस्त, पृ. ९ दान की कहानी : महात्मा भगवानदीन, दिसम्बर, पृ.१५ ध्यान और सामायिक : आचार्य रजनीश, जुलाई, पृ. ३ नमः समयसाराय, ज्ञान- सिन्धु से ( कविता ) मिश्रीलाल जैन, सितम्बर, : पृ.६ नयी किरण, नया सवेरा (उपन्यास) : मिश्रीलाल जैन, (समीक्षा), जुलाई, पृ. ३१ निर्ग्रन्थ निमाई ( बोधकथा ) : नेमीचन्द पटोरिया, जनवरी, आवरण-पृ. २ निर्वाण ( कविता ) : वीरेन्द्रकुमार जैन, नवम्बर, पृ. ५ निर्वाण की अनुभूति : श्री अरविन्द, नवम्बर, पृ.११ निर्वाण है स्वस्थ होना : भानीराम 'अग्निमुख', नवम्बर पृ. १३ नीति पहले, राजनीति बाद में (बोधनेमीचन्द पटोरिया, जनवरी, आवरण-पृ. ३ नीलामी धर्मचक्र की : संपादकीय, अक्टूबर, पृ. ६ नौकाओं की चिंता ( कविता ) : भवानीप्रसाद मिश्र, मार्च, पृ. ५ पर्युषण - उ - उत्तमता का खोज-पर्व : डा. नेमीचन्द जैन, सितम्बर, पृ. ११ पश्चिमी दर्शन का इतिहास ( त्रिचराणिकाएँ) : डा. सुरेन्द्र वर्मा, अक्टूबर, आवरण-पृ.२-३ पाप प्रसन्न है ! : माणकचन्द कटारिया, जून, पृ. ११ पावा : दलील सही, दलील गलत : कन्हैयालाल सरावगी, मई, पृ. २८ पास रखिये; उसे जो करे आपकी निन्दा : डा. कुन्तल गोयल, फरवरी, पृ. २९ प्रतिलेखन - सतत् जागरूकता का सूत्र : भानीराम 'अग्निमुख' जनवरी, पृ. १६ For Personal & Private Use Only १७९ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद=हिंसा; अप्रमाद=अहिंसा : भारतीय विश्वविद्यालय और जैन भगवान् महावीर ने कहा था, अप्रैल, विद्या (टिप्पणी) : डा कोमलचन्द सोगानी, आवरण-पृ.४ मई, पृ ३ __परम धार्मिक खोज : हीरालाल शर्मा, भावनायोग - एक विश्लेषण : प्रोक्ताजुलाई, पृ.२९ आचार्य श्री आनन्दऋषि, संपा. श्रीचन्द प्रश्नचिह्नों का स्वर्ण मुकूट : संपादकीय, सुराना 'सरस', (समीक्षा), मार्च, पृ.३२ जून पृ.५ भाषा, धर्म और संस्कृति के वैयाकरण __ प्रसंग : इन्हें भुलाएं कैसे ? अगस्त, आचार्य हेमचन्द : अगरचन्द नाहटा, जुलाई. आवरण-पृ.२-३ पृ.२५ ___ भक्तामर (हिन्दी-अनुवाद) । उपाध्याय भीड़ कहीं कुचल न दे ! ; माणकचन्द विद्यानन्द मुनि, दिसम्बर, जनवरी, फरवरी, कटारिया, दिसम्बर, पृ. ११ मार्च, अप्रैल, आवरण-पृ.२ __बेचारा पुण्य ! : माणकचन्द कटारिया, भगवान् अरिष्ट नेमि और कर्मयोग मई, पृ.९ श्रीकृष्ण - एक अनुशीलन : देवेन्द्र मुनि बेडी बेडी है; चाहे सोने की, चाहे शास्त्री, (समीक्षा), मार्च, पृ.३३ लोहे की : भगवान् महावीर ने कहा था, भगवान पार्श्व - समीक्षात्मक अध्ययन फरवरी, आवरण-पृ.४ (शोध-प्रबंध) : देवेन्द्र मुनि शास्त्री, मथ रहा कब से जाने तक (कविता) (समीक्षा), मार्च, पृ.३३ कन्हैयालाल सेठिया, जुलाई, पृ.१५ भगवान महावीर आधुनिक संदर्भ में : ___ मनोचिकित्सा और महावीर : भानीराम संपा. डा. नरेन्द्र भागवत, (समीक्षा), 'अग्निमुख', अक्टूबर, पृ.९ नवम्बर, पृ.५४ ___ भगवान महावीर - एक अनुशीलन : ___ महावीर और कला : संपादकीय, देवेन्द्र मुनि शास्त्री, नवम्बर, पृ.५३ फरवरी, पृ.६ भगवान् महावीर - एक इण्टरव्यू : ___ महावीर का अहिंसा-दर्शन : मिजी लक्ष्मीचन्द्र जैन, दिसम्बर, पृ.१९ अण्णाराय, अप्रेल, पृ. ३५ ___ भगवान् महावीर का निर्वाण-महोत्सव महावीर का पुनर्जन्म : संपादकीय, और सरकार : चीमनलाल चकुभाई शाह, जुलाई, पृ.५ अप्रैल, पृ.२३ महावीर का निर्वाण-स्थल मध्यमा ___ भगवान महावीर के हजार उपदेश : पावा : डा. नेमिचन्द्र शास्त्री, नवम्बर, गणेश मुनि शास्त्री, (समीक्षा), जनवरी, पृ.३९ पृ.३३ महावीर का नैतिकता-बोध : डा. भय से घिरे हैं आप : माणकचन्द । कोमलचन्द सोगानी, अप्रैल, पृ. ३१ कटारिया, अक्टूबर, पृ.१५ । ___ महावीर का सत्य - मेरा असत्य : भव को अपना अनुभव दो हे ! भानीराम 'अग्निमुख', जुलाई, पृ.१६ (कविता) : कन्हैयालाल सेठिया, मई पृ.५ महावीर कितने ज्ञात, कितने अज्ञात : भारत की आध्यामिक क्रान्ति के जमनालाल जैन, नवम्बर, पृ. ४८ अग्रदूत वर्द्धमान महावीर : सिद्धेश्वर शास्त्री महावीर की भाषा-क्रान्ति : डा. नेमीचित्राव अप्रैल, पृ.२७ चन्द जैन, नवम्बर, पृ. ४३ १८० तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की मंगलमय क्रान्ति : डा. वर्द्धमान महावीर एवं देवशास्त्र-गुरुमहावीर सरन जैन, नवम्बर, पृ. ३३ पूजा : मिश्रीलाल जैन, (समीक्षा), अप्रैल, महावीर की विरासत : माणकचन्द पृ.४२ कटारिया, अप्रैल, पृ.१५ वर्द्धमान का मुक्ति मार्ग : माणकचन्द ___ महावीर : जीवन और मक्ति के कटारिया, नवम्बर, पृ.१७ सूत्रकार : जयकुमार जलज, फरवरी, प.१९ वर्द्धमान महावीर का स्मरण (संदर्भ ___महावीर-साहित्य (पुस्तकें और पत्र- १९७४; तीन नवगीत) : नईम, नवम्बर, पत्रिकाएँ) १९७४, जनवरी, पृ. १९ वर्षायोग : आत्मिक, सामाजिक और __ महावीर-साहित्य १९७४ (पूति), सांस्कृतिक विकास का प्रयोग : उपाध्याय फरवरी, पृ. ३२ मुनि विद्यानन्द, जुलाई, समाचारमिथ्यात्व : चिन्तन के नये क्षितिज : परिशिष्ट.प.१ डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, मई, पृ.२५ वाणी कुष्ठित है : माणकचन्द कटारिया, ___'मक्तिदूत' : अहं-कीलित करुणा-कथा : जनवरी, प.८ जमनालाल जैन, अगस्त, मई, पृ. १९ विवाहपण्णातिसूत्तं (भाग १) : ___ मुर्दे के समान. . . : ऋषि तिरुवल्लुवर संपा. पं. बेचरदास जोशी, (समीक्षा), की वाणी, मार्च, आवरण पृ.३ नवम्बर, पृ.५३ ___ मोक्ष : सबको क्यों नहीं (बोधकथा) : वीतरागता : जैसा दुःख, वैसा सुख : नेमीचन्द पटोरिया, दिसम्बर, आवरण भगवान् महावीर ने कहा था, नवम्बर, आवरण-पृ.४ _ 'मैं' से महावीर तक (काव्य) : सुरेश वीरायन (महाकाव्य) : रघुवीरशरण 'मरल', (समीक्षा), अगस्त, पृ.३१ 'मित्र', (समीक्षा), दिसम्बर, पृ.३२ मौत मुस्कराती ; नींद टूटने पर : कन्हैया- वैशाली में भूकम्प फिर : वीरेन्द्रकुमार लाल मिश्र 'प्रभाकर', फरवरी, पृ.१० जैन, मार्च, पृ.२८ यज्ञ-पुरुष का अवरोहण ('अनुत्तरयोगी : शास्त्र, शब्द, रूप · ज्ञान नहीं है : तीर्थंकर महावीर' के प्रथम खण्ड का दूसरा भगवान् महावीर ने कहा था, अक्टूबर, अध्याय) : वीरेन्द्रकुमार जैन, जून, पृ.१५ आवरण-पृ.४ यदि अहिंसा कुछ है तो सामाजिक है : शोधन ही प्रतिशोध बन गया (गीत): जैनेन्द्र कुमार, जून, पृ.३ कन्हैयालाल सेठिया, जनवरी, पृ.५ यात्रा : भीतर की ओर (बोधकथा) : श्रमण महावीर : मुनि नथमल, नेमीचन्द पटोरिया, अक्टूबर, पृ.१९ (समीक्षा), जनवरी, पृ.३१ । राजस्थान का जैन साहित्य : एक ऐति- श्री गणेशप्रसाद वर्णी स्मृति-ग्रन्थ : हासिक अवलोकन : मुनि महेन्द्रकुमार संपा. डा. पन्नालाल साहित्याचार्य, 'प्रथम', मई, पृ.१८ (समीक्षा), मार्च, पृ.३२ । रेखाएँ ही रेखाएँ हर गलियारे पर सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक (कविता) : जिनेश्वरदास, अक्टूबर, में : मुनि नथमल, (समीक्षा), जनवरी, पृ.१३ पृ.३२ , वर्द्धमान कैसे हम : संपादकीय, अप्रैल, सद्गुण साधु, दुर्गुण असाधु : भगवान् महावीर ने कहा था, मई, आवरण-पृ.४ चौ. ज. श. अंक १८१ For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय द्वार है सत्य का : भानीराम सिरिवाल चरिउ (मल : नरसेनदेव) : 'अग्निमुख', सितम्बर, पृ. १३ । संपा.-अनु.-डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, (समीक्षा), समयसार-आत्मा के अशरीरीभाव माचे, पृ.३१ की बीजानभूति : ब्र. हरिलाल, सितम्बर, सीमा : खुशियों की माँ (बोधकथा) : पृ.२८ नेमीचन्द पटोरिया, अप्रैल, आवरण-पृ.३ समयसार-आत्मानुसंधान : चारुकीर्ति सुनेंगे ही सुनेंगे, कुछ करेंगे भी : माणकभट्टारक स्वामी, सितम्बर, पृ.२९ । चन्द कटारिया, फरवरी, पृ.१२ समयसार-‘णाणं णरस्स णारो' : डा. सूरज निकला हो और आँखें न हों तो देवेन्द्रकुमार शास्त्री, सितम्बर, पृ.३० (?) : भगवान् महावीर ने कहा था. 'समयसार-नाटक' में रस-विवेचन : जनवरी, आवरण-पृ.४ डा. प्रकाशचन्द जैन, सितम्बर, पृ. २४ स्याद्वाद : बिन्दु-बिन्दु सिन्धु : मुनि समयसार : प्राणों का प्राण, चक्षओं का बुद्धमल्ल, मई, पृ.१२ चक्षु; सितम्बर, पृ.३ । समयसार : विषकुम्भ और अमृत वर्ष ५ (मई १९७५ से अप्रैल १९७६) कुम्भ : जमनालाल जैन, सितम्बर, पृ.३१ अतिमुक्त (पुराण कथा-संग्रह): समयसार : संदर्भ-ग्रंथ; सितम्बर, गणेश ललवानी, (समीक्षा), सितम्बर, पृ. १८ पृ. ३८ 'सम्यक्'-खो गया है : माणकचन्द ____ अतिथि देवोभव (बोधकथा) : नेमीचन्द कटारिया, सितम्बर, पृ.१९ पटोरिया, सितम्बर, आवरण-पृ. ३ सम्यग्दृष्टा : 'स्व' का आसन : डा. ___ अतीत में कुछ क्षण (जन संख्या १९११ जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल, सितम्बर, के अनुसार जैन स्त्रियों की तुलनात्मक पृ.३१ स्थिति), अगस्त, पृ. ४; (पर्युषण और सल्लेखना : एक अनुचिन्तन : मुनि बादशाह अकबर का फरमान, सितम्बर, बुद्धमल्ल, जुलाई, पृ.११ सह-अस्तित्व का समर्थन, स्यादवाद, अनुभव : भीतर के, बाहर के :अयोध्यासात्र (टिप्पणियाँ) : लक्ष्मीचन्द्र जैन प्रसाद गोपलीय, अगस्त, पृ. १३ 'सरोज', अगस्त, पृ. २५ ____ अनेकान्त के बिना अहिंसा कितनी पंग सह-अस्तित्व : सब, सबके लिए : माणकचन्द कटारिया, सितम्बर, पृ. ७ प्रकाशचन्द्र पाँड्या, अगस्त, पृ. १३ अनेकान्त : आधुनिक संदर्भ में : डॉ. सामाजिक व्याकरण : संपादकीय, निजामुद्दीन, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ३ ।। अगस्त, पृ.५ ___ अपरिग्रह : आधुनिक संदर्भ में : डा. 'सार-सार को गहि रहे' : श्रीमती प्रेमसुमन जैन, अगस्त, पृ. १७ (डा.) कुन्तल' गोयल, अक्टूबर, पृ.२३ अपरिग्रह : मूर्ति का : माणकचन्द कटा साँथिया : एक अनुचिन्तन (टिप्पणी), रिया, अगस्त, पृ. ७ हीरालाल जैन, जनवरी, पृ.२७ 'अभिधान-राजेन्द्र' कोश में आगत कुछ ___ सृजनपरक अहिंसा : संपादकीय, मई, शब्दों की निरुक्ति : डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, जून-जुलाई, पृ. १४७ १८२ तीर्थकर : नव दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अभिधान-राजेन्द्र' कोण : कुछ विशेष- इतिहास-पुरुषों की श्रृंखला में महावीर : ताएँ : राजमल लोढा, जून-जुलाई, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर; दिसम्बर, पृ. ९५ पृ. १५ ___'अभिधान राजेन्द्र' कोश : संदर्भ-ग्रन्थ ; ___ इम्तहान, रस-ग्रहण, संभावनाएँ, पछजून-जुलाई, पृ. १०५ ताना (बोध कविताएँ) : दिनकर सोनवर_ 'अभिधान-राजेन्द्र' : तथ्य और प्रशक्ति : कर, जून-जुलाई, पृ. १४४ । मुनि जयप्रभविजय, जून-जुलाई, पृ. ५८ ___एक अन्तिम पत्र अयोध्याप्रसाद गोयलीय का - वीरेन्द्रकुमार जैन के नाम : अब भी गुलाम : संपादकीय, मई, पृ.७ जनवरी, प. २६ अहिंसा : आकाश-सी व्यापक : भगवान् एक नया मोर्चा : विक्रमकुमार जैन, महावीर ने कहा था, आवरण-पृ. ५ सितम्बर, पृ. ३३ आओ लड़ें : संपादकीय, अप्रैल, पृ. ७ और अब : संपादकीय, अक्टूबर-नवम्बर आचार्य कुन्दकुन्द और शंकराचार्य : प. ५ श्यामनन्दन झा, अप्रैल, पृ. २३ कथनी अलग, करनी अलग (खिड़की : __ आदमी भूल गया प्यार, सहज संतुलन, पाठनीय मंच), अप्रैल, पृ. ३ संभावनाएँ, अकिचन, प्रार्थना के लिए, कम काम, कम दाम (बोधकथा) नेमीअकेलेपन का संगीत (बोधकविताएं): चन्द पटोरिया, अक्टबर-नवम्बर, आवरणदिनकर सोनवलकर, जनवरी, पृ. ९ __ आतुरजन, परितप्त होते हैं, करते हैं कम्युटिंग : शशिरंजन पांडेय, (समीक्षा), व्यर्थ ही (!) : भानीराम 'अग्निमुख', दिसम्बर, पृ. ४० फरवरी, पृ. २२ _ कल्पसूत्र : एक अध्ययन : डा. नेमीचन्द आत्मनिरीक्षण : उपलब्धियों के बीच जैन, जन-जलाई. प. ६३ (टिप्पणी) : फतहचन्द अजमेरा, अगस्त, कविवर प्रमोदरुचि और उनका ऐति हासिक "विनतिपत्र' : शा इन्द्रमल भगवानजी __ आत्मबोध (कविता) : रवीन्द्र पगारे, जून-जुलाई, पृ. ४९ अगस्त, पृ. ३ कहाँ, किधर : संपादकीय, दिसम्बर, एक आत्मीय हस्ताक्षर, जो अब खतों पर नहीं होगा (रमा जैन) : डा. नेमीचन्द ' कहाँ से कहाँ तक' : मार्च, आवरणजैन, अगस्त, पृ. २३ पृ. २-३ आत्मशिल्प : सिक्के के दो पहलू : - काल-चक्र के तुरंग धावे (गीत) : डा. फरवरी, आवरण-पृ. ४ छैलबिहारी गुप्त, जून-जुलाई, पृ. १८० आरम्भिक जैनधर्म : पं. कैलाशचन्द्र जैन, कोलाहल (हिंसा के नये औजार-२) (समीक्षा), अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ६८ माणकचन्द कटारिया, फरवरी, पृ. ७ । आरामदेह जिन्दगी का कूड़ा (हिंसा के क्रोध : किसिम-किसिम के, जनवरी, नये औजार-१) : माणकचन्द कटारिया, पृ. ३ । जनवरी, पृ. ११ - क्रोध : पाषाण/पृथ्वी/धूलि जल पर इकतारे पर अनहद राग (बोधकविता- खिंची रेखाएँ; अप्रैल-आवरण , पृ. ४ संग्रह) : दिनकर सोनवलकर, (समीक्षा), क्या बूढ़े होना अभिशाप है ? : परिपूर्णामार्च, पृ. ४४ नन्द वर्मा, मार्च, पृ. २७ चौ. ज. श. अंक १८३ For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या करें हम रूप पर अभिमान (गीत) : जैनधर्म और भगवान महावीर : डॉ. खतरे : कितने (?) : संपादकीय, देवेन्द्रकुमार जैन, (समीक्षा), सितम्बर, मार्च, पृ. ७ पृ. ३९ गजराती जैन साहित्य : एक विहंगाव- जैनधर्म : व्यापकता और नैतिकता का लोकन : गुणवन्त अ. शाह, दिसम्बर, सवाल (टिप्पणी) : बी. टी. बजावत, पृ. २३ मार्च, पृ. ३५ __ घटनाएँ, जो भुलाये नहीं भूलती : जैन पत्र-पत्रिकाएँ : कैसी हों? : अगरअयोध्याप्रसाद गोयलीय, अक्टूबर-नवम्बर, चन्द नाहटा, जनवरी, पृ. २८ पृ. २४ जैन वाङमय की अपूर्व देन 'आत्मा ' : ___ चलो, पार इन सबके : भानीराम बलवन्तसिंह मेहता, अगस्त, पृ. ३५ 'अग्निमुख', अप्रैल, पृ. ३८ जैन साहित्य : कब से, कितना, कैसा? : चिन्तन; लीक से हट कर : निरंजन डॉ. नेमीचन्द जैन, सितम्बर, पृ. २५ जमादार, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ९७ जैन साहित्य में राजनीति : कन्हैयालाल छिमा : तेरे रूप कितने, फरवरी, पृ. ३ सरावगी, अक्टूबर-नम्बर, पृ. ५७ जड़ : सन्तोष तप की, लोभ मोह की, जैसे शरीर में सिर, वक्ष में जड, वैसे जनवरी, आवरण-पृ. ४ साधत्व में ध्यान : भगवान महावार ने जय राजेन्द्र तुम्हारी (कविता) : कहा था, जून-जुलाई, आवरण-पृ. ४ मनि जयन्तविजय 'मधुकर', जून-जुलाई, ज्योतिष एवं श्रीमद राजेन्द्रसरि : पृ. २६ मुनि जयन्तविजय ‘मधुकर', जून-जुलाई, जिन्दगी : घेरों से बाहर : भानीराम 'अग्निमुख', मार्च, पृ. ११ ज्ञाता, अनेकान्त (क्षणिकाएँ) : कन्हैयाजीवन के आमन्त्रण (बोधकथाएँ) : लाल सेठिया, अप्रैल, आवरण-पृ. ३ निहालचन्द्र जैन, (समीक्षा), जनवरी, ज्ञान-समाधि : मुनि नथमल, जून जुलाई, पृ. १७४ जीवन-परिवर्तन : एक प्रश्न-चिह्न : ___टूटा सिलसिला (गीत) : कन्हैयालाल माणकचन्द कटारिया, अप्रैल पृ. ११ _ सेठिया, जनवरी, पृ. १६ जीवनव्यापी अनेकान्त : जमनालाल तपोधन श्री राजेन्द्रसूरिजी : मुनि जैन, दिसम्बर, पृ. ३३ जयवन्तविजय ‘मधुकर', जून-जुलाई, पृ. ४० जीवन-शिल्पी श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : तर-तम त्रिकोण, प्रति-प्राण, संकल्पमाणकचन्द कटारिया, जून-जुलाई, पृ. १३ । जैनदर्शन : पारिभाषिक शब्दों के शक्ति, कुर्वन्नेवेह (कविताएँ) : भवानी प्रसाद मिश्र, अप्रैल, पृ. १५ माध्यम से : डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, जून-जुलाई, पृ. १२६ _ 'तीन थुई' सिद्धान्त का परिचय : जैन-दर्शन में शब्द-मीमांसा : डॉ. जून-जुलाई, पृ. ११२ देवेन्द्रकुमार शास्त्री, जून-जुलाई, प. १३९ तोथंकर-जीवन-दर्शन : डा. प्रद्युम्न__जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण : कुमार जैन, (समीक्षा), जनवरी, पृ. ३० देवेन्द्र मुनि शास्त्री (समीक्षा), जनवरी, थोड़े दुख-दरद भी जरूरी है : कान्ति भट्ट, मार्च, पृ. १७ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशपुर के पुरातात्त्विक जैन अवशेष : डा. सुरेन्द्रकुमार आर्य, अगस्त, पृ. २७ दहेज (खिड़की - पाठकीय मंच ) मार्च, पृ. ३ : ४ देह नाव, विदेह मल्लाह : भगवान् महावीर ने कहा था, मई, आवरण-पृ. अन्धे शासक ( बोध कथा ) : अयोध्या - प्रसाद गोयलीय, दिसम्बर, पृ. २० धर्म के द्वार चार: क्षमा, सन्तोष, सरलता, कोमलता : भगवान् महावीर ने कहा था, अक्टूबर-नवम्बर, आवरण-पृ. ४ नदी की तलाश ( कविता ) : जयकुमार जलज, दिसम्बर, पृ. ७ नाभिक प्रकाश, अटपटी बात, अस्मिता ( कविताएँ ) : डा. सुरेन्द्र वर्मा, मार्च, प्र. २१ निरर्थक हैं : बिना अंवें में पका घड़ा, बिना साधना में खपा तपी, मार्च, आवरणपृ. ४ निर्वाण वर्ष कहीं ऐसा न हो कि विक्रमकुमार जैन, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ३५ नैतिकता के नये मूल्यों की तलाश : कमलेश्वर, मई, पृ. ९ परमाणु सिद्धान्त : डा. एम. जी. परमेश्वरन, (समीक्षा), सितम्बर, पृ. ३९ पाप-पुण्य उपाध्याय मुनि विद्यानन्द, अप्रैल, पृ. ३१ पार्श्वनाथ यात्रा, बर्बरता से मनुजता की ओर, जून-जुलाई, पृ. १५५ प्रगतिशील जैन मनीषा : वीरेन्द्रकुमार जैन, फरवरी, पृ. ११ प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ : डा. ज्योतिप्रसाद जैन, (समीक्षा), अगस्त, पृ. ३९ डा. पुरुष-पुराण : विवेकी राय, (समीक्षा), सितम्बर, पृ. ३७ 'प्राण दे दूंगा, लूंगा नहीं' : अयोध्याप्रसाद गोयलीय, सितम्बर, पृ. १५ चौ. ज. श. अंक फिर देखो ( कविता ) रत्नेश 'कुसुमाकर '' मई, पृ. ५ भक्तामर : अनु. उपाध्याय मुनि विद्यानन्द, मई से फरवरी, आवरण-पृ. २ भक्तामर स्तोत्र : आत्मशक्ति का साक्षात्कार : डा. देवेन्द्रकुमार जैन, फरवरी, पृ. १५ भगवान महावीर, उपदेश और परम्परा ( मराठी ) : डॉ. विद्याधर जोहरापूरकर, (समीक्षा), अगस्त, पृ. ३९ भगवान् महावीर : एक मुक्त चिन्तन : राजकुमार शाह, अप्रैल, पृ. १९ भगवान् महावीर के सन्देशों में लोकमंगल : बाबूलाल पटोदी, अक्टूबर-नवम्बर, ४३ भगवान् महावीर स्मृति ग्रन्थ : संपा. डा. ज्योतिप्रसाद जैन, (समाक्षा), अप्रैल, पृ. ५० भयभीत मैं अभय कहाँ ? : वीरेन्द्रकुमार जैन, दिसम्बर, आवरण- पृ. ४ भारतीय नीतियों का पुनर्विवेचन : कन्हैयालाल सरावगी, अगस्त, पृ. ३० भी ( कविता ) : रत्नेश 'कुसुमाकर', पृ. ६ भीड़भरी आँखें मुनि रूपचन्द्र, (समीक्षा), दिसम्बर, पृ. ३९ मई, भूख : दवानल-सी : विक्रमकुमार जैन, मार्च, पृ. ३३ भोला पंडित की बैठक : डा. बरसानेलाल चतुर्वेदी, (समीक्षा), फरवरी, पृ. ३० बदलते संदर्भों में महावीर की भूमिका : यशपाल जैन, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. २७ बीज मन्त्र ! : निर्ग्रन्थ ( कविता ) : कन्हैयालाल सेठिया, मई, पृ. ५ बोधक्षणिकाएँ (पर्युषण): दिनकर सोनवलकर, सितम्बर, पृ. १३ मगर आसमाँ एक है ( कविता ) : मुनि चौथमल, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ३१ १८५ For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन : मित्रता सब में सबकी : डा. कमलचन्द डा. पन्नालाल जैन, (समीक्षा), पृ. ३९ सोगानी, सितम्बर, पृ. २१ महावीर : अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य : मूर्ति-प्रतीक' (कविता): राजेश जैन, डा. नेमीचन्द जैन, अक्टूबर-नवम्बर, अगस्त, पृ. १२ पृ. ४९ ___ यतिक्रान्ति का घोषणापत्र 'कलमनामा' : महावीर : अहिंसा और सह-अस्तित्व : मुनि देवेन्द्र विजय : जून-जुलाई, पृ. १९ माणकचन्द कटारिया, अक्टूबर-नवम्बर, ___रत्नराज से राजेन्द्रसूरि (जीवन-चित्र): जून-जुलाई, पृ. ७९ ___ महावीर और बुद्ध : चीमनलाल चकु रमा जैन : एक बिदाञ्जलि (कविता): भाई शाह, अप्रैल, पृ. १६ । लक्ष्मीचन्द्र जैन, सितम्बर, पृ. ३० ___ महावीर का अपरिग्रह, : कितना ग्राह्य ? राजेन्द्रकोश में 'अ' : मुनि जयन्तविजय (टिप्पणी): डा. निजामुद्दीन, मई, पृ. २३ 'मधुकर' (समीक्षा), अक्टूबर-नवम्बर, महावीर का दिगम्बरत्व : डा. निजामु- . पृ. ६७ द्दीन. अप्रैल, पृ. ४४ - राजेन्द्रसूरि का समकालीन भारत : ___ महावीर का धर्म-दर्शन : आज के संदर्भ जून-जुलाई, पृ. ९१ में : वीरेन्द्रकुमार जैन, अक्टूबर-नवम्बर, राजेन्द्रसूरि : जिनके कलमनामे ने रूढ़ियों के सर कलम किये : डा. नेमीचन्द जैन, ___ महावीर की ओळखाण (राजस्थानी) : मई, पृ. १५ डा. शान्ता भानावत, (समीक्षा), राजेन्द्रसूरि-जीवनवृत्त : जून-जुलाई, सितम्बर, पृ. ४० पृ. ३५ ___ महावीर की भाषा : डा. भगवतीलाल ___रूप-स्वरूप, अनुभूति, राजमार्ग-बीहड़ पुरोहित, अप्रैल, पृ. २७ (क्षणिकाएँ): कन्हैयालाल सेठिया, मार्च, महावीर की महत्ता : डा. प्रभाकर प. २२ माचवे, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ३७ लोटा खाली करो (बोधकथा): नेमी__ महावीर के विदेशी समकालीन : डा. चन्द पटोरिया, मई, प. २७ भगवतशरण उपाध्याय, जून-जुलाई, पृ.१५९ वचनदूतम् (काव्य) : मूलचन्द शास्त्री महावीर जीवन में ? : माणकचन्द (समीक्षा), मार्च, पृ. ४५ कटारिया, (समीक्षा), माचे, पृ. ४३ वडढमाण चरिउ : एक बहमल्य अप__ महावीर-युग की महिमामयी महिलाएँ : भ्रंशकाव्य, (समीक्षा), अप्रैल, पृ. ४७ श्रीमती हीराबाई बोरदिया, (समीक्षा), वर्धमान रूपायन : श्रीमती कुन्या जैन, अगस्त, पृ. ३९ (समीक्षा), फरवरी, पृ. २९ महिला-वर्ष : परिनिर्वाण : हम : हमारा वर्धमान रूपायन (पुस्तक-परिचर्चा): दायित्व : मंजु कटारिया, सितम्बर, पृ. ३१ मार्च, पृ. ३७ माध्यम नहीं हैं शब्द (गीत): नईम, वापसी : अंधेरों से रोशनी में (बोधजून-जुलाई, पृ. १४६ कथा) नेमीचन्द पटोरिया, अप्रैल, आव___ मानवता के मन्दराचल भगवान् महा- रण-पृ. २ ।। वीर : जमनालाल जैन, (समीक्षा), वापसी खुद की, खुद में : संपादकीय, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ६८ सितम्बर, पृ. ५ १८६ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिना तेरी गति लखि न परे : श्रीचन्द सन्त-साहित्य और जैन अपभ्रंश-काव्य : जैन (समीक्षा), अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ६७ डा. राममूर्ति त्रिपाठी, जून-जुलाई, पृ. १८९ विश्वपुरुष राजेन्द्रसूरि : संपादकीय, संतोष ही कल्पवृक्ष (दृष्टान्त-कथा): जून-जुलाई, पृ. ७ श्रीमद् राजचन्द, मार्च, पृ. २९ वीरेन्द्रकुमार जैन : कुछ क्षेत्र में ही संदर्भ : तीर्थंकर महावीर (तीन नवमुझे वृन्दावन दिया गया · · · : राम- गीत): नईम, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. १४ । नारायण उपाध्याय, मई, पृ. २१ सिन्दूर-प्रकर : सोमप्रभाचार्य, (समीक्षा), वैराग्य : एक चिन्तन : डा. नेमीचन्द जनवरी, पृ. ३१ जैन, मार्च, पृ. २३ संपूर्ण राजेन्द्रसूरि-वाङमय : जूनशक्तिपुञ्ज 'अम्माजी' : नीरज जैन, जुलाई, पृ. ४३ अगस्त, पृ. २५ सम्यक्त्व : श्रेष्ठताओं का सिंहद्वार : ___ शब्द और भाषाः उपाध्याय मुनि भगवान् महावीर ने कहा था, सितम्बर, विद्यानन्द : जून-जुलाई, पृ. ११७ आवरण-पृ. ४ ___ शब्द तारे, शब्द सहारे (कविता): समझ की समस्या : संपादकीय, जनवरी भवानीप्रसाद मिश्र, जून-जुलाई, पृ. १२५ पृ. ५ शब्द-संयम : संपादकीय, अगस्त. समयसार : संपादकीय, फरवरी, पृ. ५ समणसुत्तं (श्रमणसूत्रम्) : (समीक्षा), श्रमण और ब्राह्मण : दलसुखभाई मई, पृ. २५ मालवनिया, जून-जुलाई, पृ. १६५ सहज श्रद्धा : डा. प्रेमसागर जैन, जूनश्रमण महावीर का तपस्या-काल : । जुलाई, पृ. १८१ वीरेन्द्रकुमार जैन, सितम्बर, पृ. १९ सापेक्षता : महावीर और आइन्स्टीन : श्रीमद् राजचन्द्र : एक रेखाचित्र : माणकचन्द कटारिया, मई, पृ. १२ गांधीजी, मार्च, पृ. २८ साहिर्षि श्री राजेन्द्रसूरि : मदनलाल श्रीमद् राजेन्द्रसूरि और पाँच तीर्थ, जोशी, जून-जुलाई, पृ. १०० जून-जुलाई, पृ. ९७ ___ स्त्रियाँ सीमित दायरे में ही क्यों ? : ___ श्रीमद् राजेन्द्रसूरि की क्रान्ति के विविध मा कटारिया, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ३२ पक्ष : 'प्रलयंकर', जून-जुलाई, पृ. ७१ स्वस्तिक की विकास-यात्रा : पद्मचन्द्र श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर की चुनी । ही शास्त्री, सितम्बर, पृ. ३५ ।। हुई सूक्तियाँ : जून-जुलाई, पृ. २७ - हम अनिकेतन अनिकेतन : सौभाग्यमल __ श्रीमद् राजेश्वरसूरि के पद : जन- जैन, (समीक्षा), मार्च, पृ. ४५ जुलाई, पृ. ११३ __हमारी कोश-परम्परा और 'अभिधान श्रीमद विजय राजेन्द्रसूरीश्वर के राजेन्द्र' : इन्द्रमल भगवानजी, जून-जुलाई, विविध स्थानीय मूर्ति-लेख : जून-जुलाई, पृ. १३२ पृ. १०७ ___ हिन्दू और जैन : परिपूर्णानन्द वर्मा, __ श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय आचार्य- जनवरी, पृ. १७ परम्परा : जून-जुलाई, पृ. १०५ हिंसा के नये औजार, जो दिखायी नहीं ___ सन्तन को कहा सीकरी सो काम : दे रहे : माणकचन्द कटारिया, अक्टूबरवीरेन्द्रकुमार जैन, दिसम्बर, पृ. २९ नवम्बर, पृ. ९ चौ. ज. श. अंक १८७ For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ६ (मई १९७६ से अप्रैल १९७७) आँचल और दाग : लक्ष्मीनिवास बिरला, जनवरी-फरवरी, पृ. ५४ अतुल तुला ( संस्कृत काव्य): मुनि नथमल, (समीक्षा), मई, पृ. ५२ __इन्दिरा गांधी का भारत : नियति के ___ अद्भत प्रेमालिंगन (वीर-कथा-प्रसंग): मई, प. ५३ द्वारा पर : महेन्द्र चतुर्वेदी, (समीक्षा), इन्दीवर जैन, अप्रैल, पृ. २२ उपलब्धियाँ : शोध के क्षेत्र में (वीरअनत्तर योगी तीर्थंकर महावीर : निर्वाण-परिचर्चा) : डा. कस्तूरचन्द (पुस्तक-परिचर्चा) : दिसम्बर, पृ. ६९।। कासलीवाल, दिसम्बर, पृ. ४२ अनेकान्त का मानस्तम्भ (अनुत्तर योगी ___एक अचूक नुस्खा (बोधकथा): तीर्थंकर महावीर - खण्ड ३, अध्याय देवेन्द्र मुनि शास्त्री, अगस्त, आवरण५): वीरेन्द्रकुमार जैन, अप्रैल, पृ. २७ । अपनी एक, पड़ोसी की दो (बोधकथा): एक अमर गाथा (बोधकथा) : नेमीचन्द आचार्य रजनीश, मार्च, आवरण-पृ. २ । पटोरिया, सितम्बर, पृ. १२ अविनीत : विनीत: मार्च, आवरण-पृ. ४ एक आयास अनायास (काव्य-संग्रह): अवर और अभय कितने सुखद (मेहमान शिव जायसवाल, कमलाकान्त कमल, एक क्षण) : प्रतापचन्द्र जैन, सितम्बर, आदर्श, श्रीमती मंजु गोविन्द, (समीक्षा), प.३ अगस्त, पृ. ४६ असल में महावीर होने का मतलब है : एक उगता हआ सूर्य (युवा आचार्य आचार्य रजनीश, अप्रैल, आवरण-पृ. २ विद्यासागरजी) : नरेन्द्र प्रकाश जैन, __ अस्वीत सूर्य (काव्य-संग्रह): डा. जनवरी-फरवरी, पृ. ३१ सुरेन्द्र वर्मा, (समीक्षा), अगस्त, पृ. ४७ ए कल्चरल स्टडी ऑफ द निशीथ ___अहिंसा कुछ करने को कहती है : चूर्णि (अंग्रेजी): डा. श्रीमती मधुसेन, माणकचन्द कटारिया, सितम्बर, पृ. २८ (समीक्षा), दिसम्बर, पृ. ८९ अहोदानम्, (खण्ड काव्य) : मुनि विनय- एक ठाँव, जहाँ रुकना जरूरी है : कुमार 'आलोक', (समीक्षा), मार्च, पृ.३७ संपादकीय, जून, पृ. ९ आज : कितना कीमती, कितना बहु- ____ एक बूढ़ी किताब (सम्यग्ज्ञानदीपिका): मूल्य : डा. रामचरण महेन्द्र, सितम्बर, मंपादकीय, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ७ आवरण-पृ. २ एक रोशनदान : अंधेरी दुनिया में आत्मविश्वास (बोधकथा) श्रीचन्द्र (कविता) : उमेश जोशी, जून, पृ. ७ सुराना 'सरस', जनवरी-फरवरी, आवरण- एक सिरे से दूसरे सिरे तक (जैन पत्र पत्रिकाओं के २५०० वें वीर निर्वाणोत्सवआदमी, दोस्त, दुश्मन (क्षणिकाएँ): । वर्ष में प्रकाशित संपादकीय अंश), दिसशशिकर, जून, पृ. ३९ म्बर, पृ.६ __ आध्यात्मिकः नेता : जे. कृष्णमूर्ति, 'कबीर यह घर प्रेम का' : भानीराम मई, पृ. १२ 'अग्निमुख', सितम्बर, पृ. ९ । आप भले जग भला : श्रीमन्नारायण, कब्र की सिखावन (बोधकथा) : (समीक्षा), सितम्बर, पृ. ३६ नेमीचन्द पटोरिया, जून, आवरण-पृ. ३ आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका : संपादक- कम-से-कम अधिक-से-अधिक : संपादउदयचन्द जैन, (समीक्षा), दिसम्बर, पृ.८६ कीय, सितम्बर, पृ. ५ .१८८ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटकडल्ली जैनधर्म-ओण्डु अध्ययन चंदेरिया : एक कर्मठ योगी का स्मारक : (कन्नड़) : संपा. डा. टी. जी. कालघटगी, डा. जगदीशचन्द्र जैन, जनवरी-फरवरी, (समीक्षा), मार्च, पृ. ३६ कही जल छूने में · ·, जून, आवरण- जमीन, अगले कदम के लिए : संपादपृ.४ कीय, मई, प. ९ - क्या यह न्यायोचित है ? ('मार्क्सवाद : जय, अन्तिम · · · की : संपादकीय, जैन दृष्टि में' पर प्रतिक्रिया) डा. धन्नालाल अप्रैल, प. ३ जैन, जुलाई, पृ. ३० ___ जय पराजय (उपन्यास) : सुमंगल___कान्फ्लुएन्स ऑफ अपोजिट्स (अंग्रेजी): प्रकाश, (समीक्षा), सितम्बर, पृ. ३४ बैरिस्टर चम्पतराय, (समीक्षा), अगस्त, जल थोड़ो, नेहा घणू (बोधकथा) : पृ. ४६ भागीरथ कानौड़िया, जुलाई, पृ. १४ । काया : घर योगियों का; दिसम्बर, ज्योतिर्धर जैनाचार्य : पुष्कर मुनि, आवरण-पृ. ४ (समीक्षा), मार्च, पृ. ३६ कुछ अभ्यास का पक्तिया : सठ शकर- जिन्दगी नये सिरे से जानी होगी : लाल कासलीवाल (एस.एस. कासलीवाल): माणकचन्द कटारिया, जनवरी-फरवरी, (समीक्षा), प्रथम खण्ड-अगस्त, पृ. ४३; । पृ. ११ द्वितीय खण्ड, दिसम्बर, पृ. ८४ जीव कुली : शरीर कावड़ : कर्म बोझ, कोई ताली लगती (बोधकथा) : आचार्य । अगस्त, आवरण-पृ. ४ रजनीश, मार्च, आवरण-पृ. ३ जीवन-प्रेरक उद्धरण, जुलाई, पृ. २३ काँव-काँव; कुहू-कुह (बोधकथा): ___ जैन एकता के संदर्भ में-१ (वीर निर्वाणविक्रमकुमार जैन, जुलाई, पृ. २२ परिचर्चा) : मुनि रूपचन्द्र, दिसम्बर, पृ. ४५ खोल दो अवरुद्ध मन की अर्गलाएँ __ जैन एकता के संदर्भ में-२ (वीर-निर्वाण(कविता): हजारी लाल जैन सकरार, परिचर्चा): भान राम 'अग्निमुख', दिसमई, पृ. ५६ म्बर, पृ. ४७ खोज : नये धर्म की : माणकचन्द जैनेतरों की दृष्टि में : क्या खोजा, कटारिया, अगस्त, पृ. १३ क्या पाया (वीर-निर्वाण-परिचर्चा): खोल के बाहर : एक और जिन्दगी : डा. निजामहीन, दिसम्बर, पृ. ३९ संपादकीय, जनवरी-फरवरी, पृ. ७ घृणा या बदले की भावना नहीं थी ? जैन कला एवं स्थापत्य खण्ड, १, २, ३ : (मेहमान एक क्षण): सुरेश 'सरल', - मूल संपा. अमलानन्द घोष, हिन्दी-संपा. " लक्ष्म चन्द्र जैन, (समीक्षा),दिसम्बर,पृ.७९ अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ५ चरम तीर्थंकर श्री महावीर (सचित्र ___ जैन चित्रकला (टिप्पणी): प्रमोदकाव्य) : श्रीमद्विजयविद्याचन्द्रसरिः कुमार, जनवर:-फरवरी, पृ. ४८ (समीक्षा), दिसम्बर, पृ. ३ जैन डायरेक्टर (तमिलनाडु; अंग्रेजी) चैतन्य चिन्तन (बारह भावनाओं पर सपा.-सी. एल. मेहता, (समीक्षा), पृ. ८१ आधारित): जमनालाल जैन, (समीक्षा), जैनधर्म की उदारता : पं. परमेष्ठीदास अप्रैल, पृ. ७० जैन, (समीक्षा), जून, पृ. ३७ छनी हुई धूप यह (कविता) : विक्रम- जैनिज्म-ए स्टेडी (अंग्रेजी) : संपा. डा. कुमार जैन, जनवरी-फरवरी, पृ. ६ टी.जी. कालघटगी, (समीक्षा), मार्च, पृ. ३५ चौ. ज. श. अंक ' १८९ For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में ध्यान : इतिहासिक द गिफ्ट ऑफ लव्ह (अंग्रेजी) : डा. विश्लेषण : मनि नथमल : (१) जनवरी- जे. सी. जैन, (समीक्षा), दिसम्बर, पृ. ८२ फरवरी, १७ ; (२) मार्च, पृ. ११; (३) ___दो सहयात्री : लाभ और लोभ : मई, अप्रैल, पृ. २३ आवरण-पृ. ४ जैन युवा करें क्या ? (खिड़की-पाठकीय धर्म में मोड़ (आया क्या ?,वीर-निर्वाणमंच), जुलाई, पृ. ३ परिचर्चा) : जमनालाल जैन, दिसम्बर, __ जैनविद्या संगोष्ठियाँ : विवरण और पृ. ३४ . मूल्यांकन : डा. कमलचन्द सोगानी, डा. ___नन्दीसेन (पुराण-कथा) : गणेश ललप्रेमसुमन जैन, दिसम्बर, पृ. २२ वानी, सितम्बर, पृ. १७ जैन साहित्य : १९७४-७६ (अनु- ___ नव्य भारत की एक संस्कार लक्ष्मी क्रमण): दिसम्बर, पृ. ५१; पूरक अनु- शुभश्री रमा जैन : वीरेन्द्रकुमार जैन, क्रमणी, अप्रैल, पृ. ५५ मई, पृ. २१ ज्ञान : पठित और ज्ञात : महात्मा नाम में क्या रखा है (मेहमान एक भगवानदीन, अगस्त, पृ. १७ क्षण) : जयकुमार जलज, अक्टूबरतत्त्वार्थ सूत्र : मूलवाचक-उमास्वाति, नवम्बर, पृ. ३ विवेचक-पं. सुखलाल संघवी, संपा. डा. निजता का अन्वेषी गायक-वीरेन्द्रकुमार मोहनलाल मेहता, जमनालाल जन, जैन : रामनारायण उपाध्याय, मई, प. ४७ (समीक्षा), दिसम्बर, पृ. ८५ निःकांक्षा : आँखों की आँख : जुलाई, ताजमहल (काव्य-संग्रह) : कन्हैयालाल आवरण-प. ४ सेठिया, (समीक्षा), अगस्त, पृ. ४७ निर्माण : नये सिरे से (१) संपादकीय, तीन कविताएँ : अनन्तकुमार पाषाण, दिसम्बर. प. ३ अगस्त, पृ. ७ निर्ग्रन्थ (कविता-संकलन) : कन्हैयातीर्थंकर भगवान महावीर (३५ चित्रों . लाल सेठिया, (समीक्षा), दिसम्बर, पृ.८४ का संपुट) : लेखक-संयोजक : मुनि । निर्ग्रन्थ (पुस्तक-परिचर्चा) : अप्रैल, यशोविजय, (समीक्षा), जून, पृ. ३८ । पृ. ५९ __ तीर्थंकर महावीर (महाकाव्य) : डा. निर्वाण : एक छानबीन (१) कन्हैयाछैलबिहारी गुप्त, (समीक्षा), अप्रैल, लाल सरावगी, अगस्त, पृ. ३७; (२) : पृ.७० सितम्बर, पृ. २२ तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदयतीर्थ : डा. हुकुमचन्द भारिल्ल, (समीक्षा), निर्वाणोत्सव : आधुनिकता-बोध का जून, पृ. ३७ मंगलाचरण : ‘प्रलयंकर', दिसम्बर, पृ. १० ___ तीसरा आदमी (बोधकथा) : यशपाल निर्वाण-वर्ष की साहित्यिक उपलब्धियाँ : जैन, जुलाई, पृ. ६ एक विहंगावलोकन : डा. प्रेमसुमन जैन, ___ तुझे मरना है | तू अमर है (बोधकथा): । नेमिचन्द पटोरिया, मई, आवरण-पृ. २ निर्वाण : स्थिति या दशा नहीं ? डा. तोल, फिर बोल : विक्रमकुमार जैन, देवेन्द्रकुमार शास्त्री, अक्टूबर-नवम्बर, मई, पृ. २० पृ. २५ द की ऑफ नॉलेज (अंग्रेजी) : बैरिस्टर नीलांजना (पुराण-कथा) : गणेश चम्पतराम, (समीक्षा), दिसम्बर, पृ. ८८ ललवानी, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. १२ __ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रियता ( बोधकथा ) : नेमीचन्द पटोरिया, जुलाई, आवरण-पृ. २ न्यू डाक्यूमेंट्स ऑफ जैना पेंटिंग (अंग्रेजी): संपा. - डा. मोतीचन्द, डा. उमाकान्त पी. शाह, (समीक्षा), दिसम्बर, पृ. ८७ पतझर में भी हरे-भरे ( कविताएँ ) : दिनकर सोनवलकर : अगस्त, पृ. ११ पर्युषण पर्व-प्रवचन : मधुकर मुनि, (समीक्षा), अक्टूबर-नवम्बर, पृ. २७ पिच्छि- कमण्डलु (पुस्तक-परिचर्चा ) : उपाध्याय मुनि विद्यानन्द, जुलाई, पृ. ३२ पुस्तकें मुस्करा भर देती हैं : डा. जाकिर हुसैन, मई, आवरण-पृ. ३ प्रतिक्रिया : 'निर्माण : नये सिरे से' ( संपादक के नाम पत्र) : बाबूलाल पाटोदी, जनवरी-फरवरी, पृ. ५१ प्रतिदिन का एक विचार : श्रीचन्द रामपुरिया, (समीक्षा), अप्रैल, पृ. ६७ प्रतिबद्धता ( कविता ) : सुरेश 'सरल', मार्च, पृ. १६ प्रपंच, एक लंगोटीका ( बोध कथा ) : भागीरथ कानोड़िया, जुलाई, पृ. १८ प्राकृत : एक समृद्ध भाषा : उपाध्याय मुनि विद्यानन्द, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ९ प्रायोपवेशन : एक तुलनात्मक समीक्षा : डा. हरीन्द्रभूषण जैन, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. १७ प्रेमोपनिषद् : मदर टेरेसा, सितम्बर, पृ. ७ प्रोग्रेसिव्ह जैन्स ऑफ इंडिया (अंग्रेजी ) : सतीशकुमार जैन, (समीक्षा), मार्च, पृ. ३७ भक्ति और पूजा अगस्त, पृ. २९ भगवती सूत्र (भाग १, २) : मूल : सुधर्मा स्वामी, अंग्रेजी अनुवाद : के. सी. ललवानी, (समीक्षा), दिसम्बर, पृ. ८१ भगवान् महावीर : अत्यन्त मूल्यवान : इन्दिरा गांधी, दिसम्बर, आवरण-पृ. ३; अपूर्व और महान् देन : काका कालेलकर, दिस., आ. - पृ. २ चौ. ज. श. अंक भगवान् महावीर, उपदेश और जीवन : श्रीमती राजकुमारी बेगानी, (समीक्षा), मार्च, पृ. ३८ भगवान् महावीर : उपयोगी और व्यावहारिक : ब. दा. जत्ती, दिसम्बर, आवरण- पृ. २; उसकी जरूरत होती है : स्वामी सत्यभक्त, अप्रैल, आवरण-पृ. २, एक जगह त्यागोगे तो : निर्मलकुमार, अप्रैल, आवरण-पृ. २; एक देन, जो हमने ली ही नहीं : माणकचन्द कटारिया, अप्रैल, आवरण- पृ. ३; एक बहुत बड़ी विरासत : फखरुद्दीन अली अहमद, दिसम्बर, आवरणपृ. २ भगवान् महावीर और उनका चिन्तन : डा. भांगचन्द्र 'भास्कर', (समीक्षा), अप्रैल, पृ. ६९ भगवान् महावीर ने क्या कहा ? : मुनि जयन्तविजय 'मधुकर, (समीक्षा), अप्रैल, पृ. ६८ भगवान् महावीर : लोकतंत्र उनकी रग-रग में : डा. प्रद्युम्नकुमार जैन, अप्रैल, आवरण- पृ. ३, विवेक की आँख खुली रखो : जमनालाल जैन, अप्रैल, आवरणपृ. ३, संपूर्ण मान्य : आचार्य विनोबा, दिसम्बर, आवरण- पृ. ३; संपूर्ण यात्रा : व्यक्तित्व से अस्तित्व की ओर मुनि नथमल, अप्रैल, आवरण-पृ. २ भद्रा (पुराण - कथा ): गणेश ललवानी, मार्च, पृ. २१ भारतीय जैन तीर्थ-दर्पण ( संग्रह. ए. सी. जैन ), (समीक्षा), मई, पृ. ५२ भीड़, चितना के क्षण, अहिल्या, तथागत ( कविताएँ ) : कन्हैयालाल सेठिया, जुलाई, ११ पृ. भूमा ( कविता संकलन) : मुनि रूपचन्द्र, (समीक्षा), अक्टूबर-नवम्बर, पृ. २८ भूमि लुप्ता नदी, एक क्वांरी याद ( कविता ) : रत्नेश 'कुसुमाकर', मार्च, पृ. १० For Personal & Private Use Only १९१ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रमभंग : देवेश ठाकुर, (समीक्षा), जून, पृ. ३६ बहरे बादशाह का हुक्म ( बोध कथा ) : हर्षवर्द्धन गोयलीय, जुलाई, आवरण-पृ. ३ बात श्रम की : माणकचन्द कटारिया, मार्च, पृ. १७ बड़ा पापी कौन ? ( बोध कथा ) : विक्रमकुमार जैन, जुलाई, पृ. २० ( बोध कथा ) : बड़ी भी, छोटी भी यशपाल जैन, जुलाई, पृ. ६ बोधकथाएँ : क्या कहती हैं, उद्धरण : नये रिश्ते, नये मोड़ : संपादकीय, जुलाई, पृ. ७ बोध का अंकुर, मन की सीपी में रूपातरित हो मोती ( कविताएँ ) : दिनकर सोनवलकर, दिसम्बर, पृ. २९ मन, एक कुआ (बोधकथा ) : विक्रमकुमार जैन, जुलाई, पृ. २१ मनुष्य की प्रतिष्ठा, मनुष्य के नाते : माणकचन्द कटारिया, अप्रैल, पृ. ७ महावीराज मिशन एण्ड मेसेज (अंग्रेजी) : डी. एस. परमाज, (समीक्षा), अप्रैल, पृ. ६८ महावीर की अहिंसा : जीवन का एकमात्र पर्याय : आचार्य रजनीश, अप्रैल, पृ. १२ महावीर वाणी : डा. भगवानदास तिवारी, (समीक्षा), अप्रैल, पृ. ६७ महावीर-वाणी : श्रीचन्द रामपुरिया, (समीक्षा), अप्रैल, पृ. ६८ महावीर : व्यक्ति नहीं, सत्य : आचार्य तुलसी, जनवरी-फरवरी, पृ. ५६ महावीर : समाधान खोजती घटनाएँ : जमनालाल जैन, जून, पृ. १३ महावीर - साहित्य : १९७४-७६ (अनुक्रमणी) : दिसम्बर, पृ. ६१ महावीर स्वामी की पड़, पुतलियों में 'वैशाली' का अभिषेक' : डा. महेन्द्र भानावत, दिसम्बर, पृ. ९० १९२ महिलाएँ पीछे कैसे रहतीं (वीर-निर्वाणपरिचर्चा ) : राजकुमारी बेगानी, दिसम्बर, पृ. ४४ माटी का स्पर्श, भटका मन, आँख, व्याकुलता ( कविताएं) : रामनारायण उपाध्याय, मई, पृ. ११ मार्क्सवाद : जैन दृष्टि में प्रद्युम्न कुमार जैन, जून, पृ. २७ मार्क्सवाद : जैन दृष्टि में, पुनर्विचार आवश्यक ( प्रतिक्रिया ) : डा. देवेन्द्रकुमार जैन, जुलाई, पृ. २९ मुक्ति की आकांक्षा : अगस्त, पृ. ९ मुनि जिनविजयजी : आजीवन अनुसंधानरत कर्मयोगी : भंवरमल सिंघी, सितम्बर, पृ. १३ मुस्कान बाँटिये : चन्दनमल 'चाँद', (समीक्षा), मार्च, पृ. ३८ मेघ मल्हार (उपन्यास) : डा. सुमति देशमाडे, (समीक्षा), जनवरी-फरवरी, पृ. ५३ मेरी सम्मेद शिखर यात्रा (संस्मरण) : राजकुमारी बेगानी, मार्च, पृ. २७ मेरे पास कपड़े हैं कहाँ ! ( बोधकथा ) : यशपाल जैन, जुलाई, पृ. १२ मैनावती ( पुराण - कथा ) : गणेश ललवानी, अप्रैल, पृ. १३ मैं जवाब की खोज में हूँ (वीर - कथा - प्रसंग ) : इन्दीवर जैन, अप्रैल, पृ. २० 'मैं तुम्हारे मिलन का एकान्त हूँ' (मेरी साधना - डायरी के कुछ पृष्ठ ) : वीरेन्द्रकुमार जैन, जून, पृ. २१ मैं दासानुदास महावीर का : विनोबा, जून पृ. २५ मोह का एक निर्मोही साधक राजचन्द्र : कन्हैयालाल सरावगी, मई, ३४ मृत्यु : एक अनुशीलन : कन्हैयालाल सरावगी, जनवरी-फरवरी, पृ. ३९ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याचना (बोधकथा) : भागीरथ कातौ- वीर स्तव :. गणेश ललवानी दिसम्बर, ड़िया, जुलाई, पृ. १३ . . . . . .. पृ. ३० . . . . . . . . . . _ रथनेमि (पुराण-कथा) : गणेश लल- व्यर्थ है : ज्ञान से खाली तप, तप से वानी, दिसम्बर, पृ. १२ खाली ज्ञान, सितम्बर, आवरण-पृ. ४ • रमा और रश्मि (बोधकथा).: कन्हैया- श्रमण महावीर (अंग्रेजी) : कस्तूरचन्द लाल मिश्र 'प्रभाकर', अगस्त, आवरण-पृ.२ ललवानी (के. सी. ललवानी), (समीक्षा), ___ रस-संख्यान और जैनाचार्य : डा. अप्रैल, पृ. ६९ सुन्दरलाल कथूरिया, मई, पृ. ४० . . श्रमण महावीर चरित्र (महाकाव्य) : रेवती (पुराण-कथा) : गणेश ललवानी, अभयकुमार यौधेय, (समीक्षा), दिसम्बर, जनवरी-फरवरी, पृ. २१ पृ. ८८ लक्ष्य-वेध : लक्ष्य-वध (वीर-कथा __ श्रमण महावीर (अंग्रेजी) : मुनि नथप्रसंग) : इन्दीवर जैन, अप्रैल, पृ. १९ । मल, (समीक्षा), अप्रैल, पृ. ६८ . श्रमण संस्कृति की कविता : गणेश लचीलेपन की उम्र अधिक (बोध ललवानी, दिसम्बर, पृ. ८५ . कथा) : यशपाल जैन, जुलाई, पृ. १२ । श्रावकाचार : क, ख, ग (निर्माण : . लहरों के बीच : सुनील गंगोपाध्याय : नये सिरे से-३) : संपादकीय, मार्च, पृ. ५० (समीक्षा), अक्टूबर-नवम्बर, पृ. २७ ।। श्रावकाचार-संग्रह (भाग १) : संपा.लेकिन पोथी पढ़नेवाले (बोधकथा) : अन.- पं. हीरालाल सिद्धान्तालंकार : विक्रमकुमार जैन, जुलाई, पृ. २१ (समीक्षा), दिसम्बर, पृ. ८०, भाग २ .. वस्तु एक है (बोधकथा) : यशपाल (समीक्षा), मार्च, पृ. ३७ .. जैन, जुलाई, पृ. ६ सदाकत और इन्साफ (बोधकथा).:; वह वन्दनीय है, वह पूज्य है : अप्रैल, हर्षवर्द्धन गोयलीय, जुलाई, पृ. १७ आवरण-पृ. ४ ___समय आ गया कि (बोधकथा) : वर्द्धमान महावीर : निर्मलकुमार, आचार्य रजनीश, मार्च, आवरण-पृ. ३ (समीक्षा), मई, पृ. ५१ समाधि साधना की : भानीराम ‘अग्निवाग्मिता : कुछ विचार-सूत्र : डा. मख'. अक्टबर-नवम्बर, प. २२. शीतला मिश्र, जनवरी-फरवरी, पृ. ३५ ॥ समुद्र-संगम : डा. भोलाशंकर व्यास, , विज्ञान आर अध्यात्म : मुनि अमरेन्द्र- (समीक्षा), जन. प. ३५ विजय : (समीक्षा), मई, पृ. ५२ सम्यक्त्व-मृदंग की आठ थाप : अक्टूबरविदेशों के जैनों के निमित्त संपर्कसेवा . नवम्बर, आवरण-पृ. ४ (वीर-निर्वाण-परिचर्चा) : केशरीमल जैन, ___ सर्वमान्यता की खोज' . (बोधकथा) : दिसम्बर, पृ. ४९ नेमीचन्द पटोरिया, जून, आवरण-पृ. २ विदेशों में (वीर-निर्वाण-परिचर्चा) गणेश ललवानी, दिसम्बर, पृ. ४१ . . सवाल सीधे, जवाब मुश्किल : भानीराम विद्रोही आत्माएँ : खलील जिब्रान, 'अग्निमुख', मई, पृ. १७ (समीक्षा), सितम्बर, पृ. ३५ संपादकीय : एक सृजनशील बेचैनी : विष्णु सहस्रनाम (विनोबाजी की हस्त- डा. शीतला मिश्र, मार्च, पृ. ३३ लिपि में) : (समीक्षा), अक्टूबर-नवम्बर, संयम : देह का कौर; तप : तलवार की धार : जनवरी-फरवरी, आवरण-पृ. ४ पृ. २७ चौ. ज. श. अंक : १९३ For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं की पहचान और उसका विकास : जनवरी-फरवरी, पृ. ५३ अमृता प्रीतम, जनवरी-फरवरी, आवरण- हम उठे कितने ? (वीर-निर्वाण-परि चर्चा), डा. नरेन्द्र भानावत, दिसम्बर, _साधना के आयाम : डा. प्रद्यम्नकुमार पृ. ४८ जैन, अगस्त, पृ. २१ हमारी भूमिका : पच्चीस सौवें महावीरसामाजिक क्रांति की पहल करें कौन ? निर्माणोत्सव के बाद (खिड़की-पाठकीय (खिड़की-पाठकीय मंच), अगस्त, पृ. ३ मंच) : मई, पृ. ३; जून, पृ. ३ । . साम्प्रदायिकता से ऊपर उठो : पं. हमें वहाँ जाना होगा जहाँ (वीर'उदय' जैन, (समीक्षा), दिसम्बर, पृ. ८३ निर्वाणोत्सवोपरान्त परिचर्चा) : माणकचन्द सुनो· · · ! (कविता) : श्रीकान्त कटारिया, दिसम्बर, पृ. ३१ जोशी, जनवरी-फरवरी, पृ. ५ होनी-अनहोनी (बोधकथा) : नेमीसेतु-निर्माण : यशपाल जैन, (समीक्षा), चन्द पटोरिया, जुलाई, पृ. १५ 00 हा/ C के गत वर्षों की सजिल्द फाइलें उपलब्ध पुरानी फाइलें विशेषांक वर्ष १, २ (मई ७१ से अप्रैल ७३): रु. २० | वीर निर्वाण चयनिका (दिस. ७६) : रु. ५ वर्ष ३ (मई ७३ से अप्रैल ७४) : रु. २० | जैन पत्र-पत्रिकाएं (अगस्त-सित.७७): रु.१० | वर्ष ४ (मई ७४ से अप्रैल ७५) : रु. २० | मुनिश्री चौथमल जन्म-शताब्दी (नवम्बर-दिसम्बर, ७७) : रु. ५-०० वर्ष ५ (मई ७५ से अप्रैल ७६) : रु. २० वर्ष ६ (मई ७६ से अप्रैल ७७) : रु. २० । ० डाक-व्यय अतिरिक्त (प्रत्येक फाइल का रु. ५-०० और विशेषांक का रु. ३-००) रहेगा। ० फाइलों का संपूर्ण सेट खरीदनेवालों को डाक-व्यय नहीं लगेगा। ० अगस्त, १९७७ से वार्षिक सदस्य बननेवालों को वार्षिक शुल्क रु. २००० मनीऑर्डर से भेजने पर दोनों विशेषांक प्राप्त हो सकेंगे। ० मनीऑर्डर से अपेक्षित मूल्य आने पर ही फाइलें अथवा विशेषांक रजिस्ट्री से भेजे जाएंगे। प्रबन्ध संपादक, 'तीर्थंकर', ६५, पत्रकार कॉलोनी, __ कनाडिया रोड, इन्दौर-४५२ ००१ (म.प्र.) १९४ तीर्थकर ! नव. दिस. १९७७ For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( संपादकीय : पृष्ठ ८ का शेष ) कोई कुछ देने आया तो उससे दुर्गुण माँगे, धन-वैभव नहीं मांगा, व्यसन माँगे, असन या सिंहासन नहीं माँगा, विपदा मांगी, संपदा नहीं माँगी; उन्हें ऐसे लोग अपना सर्वस्व अर्पित करने आये जिनके पास शाम का खाना तक नहीं था, और ऐसे लोग भी सब कुछ सौंपने आये जिनके पास आनेवाली अपनी कई पीढ़ियों के लिए भरण-पोषण था, किन्तु उन्होंने दोनों से अहिंसा माँगी, जीव दया-व्रत माँगा, सदाचरण का संकल्प माँगा, बहुमूल्य वस्त्र लौटा दिये, धन लौटा दिया; इसीलिए हम संतत्व की इस परिभाषा को भी सजीव देख सके कि संत को कुछ नहीं चाहिये, उसका पेट ही कितना होता है? और फिर वह भूखा रह सकता है, प्यासा रह सकता है, ठंड सह सकता है, लू झेल सकता है, मूसलाधार वृष्टि उसे सह्य है, किन्तु यह सह्य नहीं है कि आदमी आदमी का शोषण करे, आदमी आदमी का गला काटे, आदमी आदमी को धोखा दे, आदमी आदमी न रहे। उसका सारा जीवन आदमी को ऊपर और ऊपर, और ऊपर, उठाने में प्रतिपल लगा रहता है। संतों का सबमें बड़ा लक्षण है उनका मानवीय होना, करुणामय होना, लोगों की उस जुबान को समझना जिसे हम दरद कहते हैं, व्यथा की भाषा कहते हैं। मुनिश्री चौथमलजी की विशेषता थी कि वे आदमी के ही नहीं प्राणिमात्र के व्यथा-क्षणों को समझते थे, उनका आदर करते थे, और उसे दूर करने का प्राणपण से प्रयास करते थे। आयें, व्यक्ति-क्रान्ति के अनस्त सूरज को प्रणाम करें, ताकि हमारे मन का, तन का और धन का आँगन किसी सांस्कृतिक धूप की गरमाहट महसूस कर सके, और रोशनी ऐसी हमें मिल सके जो अबुझ है, वस्तुतः मुनिश्री चौथमल एक ऐसे सूर्योदय हैं, जो रोज-ब-रोज केवल पूरब से नहीं सभी दिशाओं से ऊग सकते हैं, क्या हम सूर्यवंशी होना पसंद करेंगे? 00 चौ. ज. श. अंक १९५ For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • • “किन्तु भूलकर भी आत्महत्या नहीं करूँगा "गरूजी ! मैं आत्महत्या करने के लिए जंगल में जा रहा हूँ।" एक बेझिझक आवाज ने श्री जैन दिवाकरजी महाराज को भीलवाड़ा से आगे बढ़ते हुए चौंका दिया। पीछे से आयी यह अनजानी आवाज एक घबराये हुए निराश युवक की थी। ‘आत्महत्या' शब्द सुनकर श्री गुरुदेव के चरण वहीं रुक गये। करुणार्द्र स्वर में गुरुदेव ने पूछा । “ऐसी कौनसी मुसीबत तुझ पर मंडरा रही है जिससे परेशान होकर तू अपने अमूल्य जीवन का अन्त करना चाहता है ?" बड़े ही आर्त स्वर में वह युवक बोला-"गुरुजी, मेरे पिता ने बहुत तकलीफ बर्दाश्त कर मुझे बी. ए. तक पहुँचाय।। मैंने भी डटकर अध्ययन किया, पेपर भी अच्छे हए, किन्तु कर्मों की माया। सारे उत्तर ठीक होते हुए भी कल जब नतीजा निकला तो अखबार में कहीं भी मेरा नामोनिशान नहीं था, अर्थात् मेरा रोल नम्बर ही नहीं था, आप ही वतायें प्रभु, ऐसी स्थिति में मैं कैसे, किसको मुंह दिखाऊँ ?" महाराज श्री ने सान्त्वना देते हुए कहा-“आश्चर्य और लज्जा की बात है कि एक माधारण असफलता से विचलित होकर तुम मरने के लिए तैयार हो गये; अगर कहीं इससे भी भारी विपत्ति आ जाए तो तुम उसे कैसे सहन करोगे ? तुम जैसे भीरु हृदय युवक से भारत माता क्या अपेक्षा करेगी? तुम उसके पैरों में जकड़ी गुलामी की जंजीरें कैसे काट सकोगे ? देखो वत्स ! आत्मघात किसी समस्या का समाधान नहीं है । तुम्हारे 'कर्मों की माया' सचमुच ही तुम्हारे साथ रहेगी, सफलता और विफलता कर्म की फलश्रुति है। अस्तु, बिना किसी उद्विग्नता के निष्ठापूर्वक और परिश्रम के साथ अपने कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होते रहना ही पौरुष है ?" नितान्त बोधगम्य शैली में उस विद्यार्थी को बोध प्रदान करते हुए महाराज श्री कुछ क्षण आत्मस्थ रहने के पश्चात् आदेशात्मक स्वर में वोले-"वत्स ! अभी तू मेरे साथ सीधे शहर चल और कल का दैनिक पत्र देखकर फिर मेरे पास आना; सम्भव है तेरी समस्या का कोई समाधान सामने आ जाए।” वैसा ही हुआ, दूसरे दिन उप विद्यार्थी के आश्वर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उसने अपने रोल नम्बर को उसी दैनिक पत्र में भूल सुधार' नोट के साथ उत्तीर्ण सूची में देखा। युवक सीधे गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुआ और उसने आभार प्रकट करते हुए श्रीगुरुदेव को एक शुभेच्छु के रूप में बार-बार प्रणाम किया। अपने तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण होने के शुभ संवाद से भी उन्हें अवगत कराया जिन पर प्रसन्न होकर महाराज श्री ने आगे के लिए मार्गदर्शन दिया-"इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिये कि हम क्षणिक आवेश में आकर कोई ऐमा कार्य न करें जिसे सभी परेशानी में पड़ जाएँ और तुम्हारे जैसे मेधावी तथा होनहार युवक को तो और भी सोच-विचार कर कोई कदम बढ़ाना चाहिये ।" “अब चाहे जैसी दुस्सह विपत्ति क्यों न आ जाए उससे निपट लूँगा, किन्तु भूलकर भी आत्महत्या नहीं करूँगा।” इस सुदृढ़ संकल्प के साथ वह उत्तीर्ण छात्र अपने गाँव की ओर चला गय! । For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्दौर डो. एन./६२ म. प्र. लाइसेन्स नं एल-६२ नव.-दिस. 1977 (पहले से डाक-व्यय चुकाये बिना भेजने की स्वीकृति प्राप्त) शाल, एरण्ड : आचार्य, शिष्य - वृक्ष चार प्रकार के हैं 1. एक शाल वृक्ष है और अपने समान विशाल वृक्षों से परिवृत है; 2. एक वृक्ष शालवृक्ष की भाँति महान् है, किन्तु एरण्ड समान तुच्छ वक्षों से घिरा हुआ है। 3. एक वृक्ष एरण्ड के समान तुच्छ है, किन्तु शालवृक्षों की भाँति के महान् वृक्षों से परिवृत है; 4. एक वृक्ष एरण्ड की तरह महत्त्वहीन है और ऐसे ही महत्त्वहीन ___वृक्षों से घिरा हुआ है। / इसी प्रकार आचार्य भी चार प्रकार के हैं - 1. एक आचार्य शालवृक्ष के समान महान् उत्तम गुणों से युक्त है और शाल-परिवार के समान ही श्रेष्ठ शिष्य-परिक र से युक्त है; 2. एक आचार्य शालवृक्ष की भाँति महान् उत्तम गुणों से युक्त तो है, किन्तु एरण्ड समान महत्त्वहीन कनिष्ठ शिष्य-समूह से घिरा हुआ है। 3. एक आचार्य एरण्ड समान कनिष्ठ है, किन्तु शालवृक्ष जैसे उत्तम गुण-संपन्न शिष्य-परिकर से परिवृत है; 4. एक आचार्य एरण्ड की भाँति है और एरण्ड समूह जैसे कनिष्ठ शिष्य परिवार से घिरा हुआ है। श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी (राजस्थान ) द्वारा प्रचारित For Personal & Private Use Only