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एक नि:स्पृह महापुरुष
सौभाग्यवश मुझे उस निःस्पृह महामानव के सान्निध्य के कई मौके मिले, और जब भी ऐसा हुआ तब मुझे हर बार कोई-न-कोई ताज़गी या नवीनता मिली । पता नहीं उनमें कौन-सा विलक्षण आकर्षण था कि क्या जैन, क्या जैनेतर सभी उनके निकट तक पहुँचने के लिए लालायित रहते थे । सभी का मन अक्सर उनकी मर्मस्पर्शी वाणी सुनने के लिए उत्कण्ठित रहता था । मेरे जीवन के पहले सत्रह वर्ष वैष्णवपुरी यानी नाथद्वारा में ही बीते । पूज्य गुरुदेव का शुभागमन भी वहाँ कई बार हुआ । उस वैष्णव - बहुल नगरी में जैन तत्त्व-दर्शन की चर्चा, और फिर वह भी सार्वजनिक रूप में बड़ा जोखिम भरा काम था, लेकिन अदम्य साहस के धनी उस महामानव ने उस असम्भव को भी सम्भव कर दिखाया और अद्भुत प्रवचन वहाँ दिये । उनकी प्रवचन सभाओं में सभी आस्थाओं के लोग आते थे, और शनैः शनैः उन्हें अपना आत्मीय मानने लगे थे ।
पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में पं. मुनिश्री शेषमलजी का आचार्य-पद- समारोह भी यहीं संपन्न हुआ था । यह भी उस मनस्वी संत की दिव्यता का एक ज्वलन्त प्रमाण है । वस्तुतः वे 'स्व' की पूजा-अर्चना की कामना से उदासीन संपूर्णतः निःस्पृह महापुरुष थे, उनकी कथनी-करनी एक थी, “फूट डालो, और सत्ता में रहो " (डिवाइड एण्ड रूल) की दुर्नीति में उनका कतई विश्वास नहीं था । परहित उनका प्रथम और अन्तिम जीवन-लक्ष्य था । वे उस पर तिल-तिल समर्पित थे । आज भी उस महापुरुष की ओजपूर्ण शिक्षाएँ हमारे जीवन का मार्ग आलोकित किये हुए हैं ।
प्राणि - मात्र के कल्याणार्थ हुए उनके सदुपदेश समाज के ग़रीब, साधनहीन, कमजोर और असहाय वर्ग के उत्थान की निरन्तर प्रेरणा देते रहे; किन्तु अब यह विचारणीय है कि हमने उनके बाद उनकी इस वैचारिक धरोहर को कितना सक्रिय रक्खा ? क्या अब तक हमने जो किया है, उसका कोई हिसाब हमने लिया है ? क्या हमने कभी इस बात पर विचार किया है कि मुनिश्री की आज के जीवन कितनी प्रासंगिकता है ? क्या उनके उपदेश आज हमारे जीवन में कोई नयी रोशनी और आभा उत्पन्न करने में समर्थ हैं ? यह मूल्यांकन उनके गुण-गान से संभव नहीं होगा, इसके लिए हमें त्याग करना होगा, सर्वजन हिताय समर्पित होना होगा । फतेहलाल संघवी, जावरा
वे
अक्षर- पुरुष थे
जिन मानवों की करुणा 'स्व' से उठ कर 'पर' तक पहुँचती है, जिनका जीवन-लक्ष्य आत्म-कल्याण के साथ जन-कल्याण भी है, और अखिल मानवता के प्रति भेद-रहित होकर न्योछावर हो जाना ही जिनका ध्येय है, वे ही महामानव हैं । ऐसे महामानवों में मुनिश्री चौथमलजी महाराज का नाम अविस्मरणीय है । जनता
तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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