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________________ एक अलग शैली जैन मनियों के जीवन की एक शैली है, एक प्रक्रिया है-अनोखी, अलग, मौलिक; शास्त्रोक्त आचार के प्रति एकनिष्ट होकर एक मर्यादा में जीना । वार्तालाप से लेकर व्याख्यान तक शास्त्रोक्त तत्त्वों का समीक्षण-विवेचन करते जाना बिना इस बात का पता लगाये कि श्रोता या वक्ता उसे समझ रहा है या नहीं। एक अन्धी परम्परा जिसमें “स्वाध्याय करना" मात्र एक उपचार है । सही है कि जैनतत्त्व-दर्शन गहन-गंभीर है, फिर भी उसकी अपनी सरलताएँ हैं, सीधे और निष्कण्टक मार्ग हैं; किन्तु जैन मुनि अपने बंधे-बधाये वाक्यों द्वारा विशाल जनसमूह पर यह प्रभाव डालने का प्रयत्न करते हैं कि यह सब उनके वश की बात नहीं है । धर्म की इस किलेबन्दी को तोड़ा लोकाशाह ने । उन्होंने पहली बार जैनतत्त्व को सर्वहारा के पटल पर उपस्थित किया, उसे जनमानस का विषय बनाया। उन्होंने वीतरागविज्ञान को उपासरों की चहरदीवारी से बाहर लाकर उसे एक निर्विकार नया आकार प्रदान किया। उनके इस क्रान्तिकारी कदम से परम्परितों में भारी उथलपुथल हुई। भ्रान्तियों का दुर्ग ढह गया, और जैनदर्शन का एक लोकसुलभ रूप सामने आया । स्थानकवासी जैन मुनियों ने लोंकाशाह के इस पवित्र अभियान को सदैव बढ़ाया, और जैन तत्त्व-दर्शन को जनता-जनार्दन तक पहुँचाने में एक ऐतिहासिक रोल अदा किया । विगत चार सौ वर्षों में वीतराग-विज्ञान को जिन सत्पुरुषों ने भारतीय लोकजीवन तक पहुँचाया उनमें प्रसिद्ध वक्ता जैन दिवाकर श्री चौथमलजी का नाम सर्वोपरि है। उनकी अपनी एक अलग ही प्रवचन-शैली थी, जो श्रोता के चित्त को चमत्कृत करती थी और उसे एक विशिष्ट आत्मीयता में बांध लेती थी। जैन तन्व-दर्शन की जैसी सरल व्याख्या-समीक्षा उन्होंने की है, उससे जैनधर्म की परिधि बढ़ी है और आम आदमी को इस बात की सूचना मिल सकी है कि जैनधर्म केवल कुछ मुट्ठी भर लोगों की संपत्ति या अधिकार नहीं है वरन वह एक लोककल्याणकारी साधना-परम्परा है जो धर्म, सम्प्रदाय, सता, सम्पदा इत्यादि के किसी भेद पर आधारित नहीं है बल्कि लोक-मंगल की व्यापक-निर्मल भावना पर खड़ी हुई है। मुनिश्री चौथमलजी महाराज की प्रवचन-शैली सरल, उदाहरणों और बोध-कथाओं से भरपूर, महावरों और कहावतों का खजाना लेकर चलने वाली शैली थी। समन्वय में उनकी सघन आस्था थी, इसीलिए उनकी प्रवचन-सभाओं में सभी वों के लोग आते थे और एक व्यापक समभाव का अनुभव करते थे। उनका साहित्य पांडित्यपूर्ण नहीं था, बल्कि सत्य को खोज कर उसे सीधी-सच्ची भाषा में प्रस्तुत करने वाला था । वस्तुतः वे दिवाकर थे, क्योंकि उनकी धूप और रोशनी ने कभी यह भेद नहीं किया कि वह किस तक पहुँचे, और किस तक नहीं । अमीरउमरावों और ग़रीब-गुरबों सब तक उनकी वाणी पहुँची और उसने उन्हें बिना किसी भेदभाव के उपकृत किया। क्या हम उस महापुरुष के ऋण से कभी उऋण हो पायेंगे ? - सौभाग्य मुनि 'कुमुद चौ. ज. श. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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