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संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी, गुजराती, राजस्थानी और मालवी के वे अधिकृत विद्वान् थे और अपने लेखन और प्रवचनों में इनका बराबर उपयोग किया करते थे। 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन', 'भगवान् महावीर का आदश जीवन', 'जम्बकुमार', 'श्रीपाल', 'चम्पक', 'भगवान नेमिनाथ चरित्र', 'धन्ना चरित्र', 'भगवान् पार्श्वनाथ', 'जैन सुबोध गुटका' आदि अनेक गद्य-पद्य कृतियों का प्रणयन आपने किया। ___ इन साहित्यिक सांस्कृतिक-कृतियों पर किसी शोध-छात्र को कार्य करना चाहिये। शताब्दि-वर्ष में उनके साहित्य का अधिकाधिक एवं व्यवस्थित प्रचार-प्रसार होना चाहिये, उस पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित करना भी सामयिक होगा। __ वे वाग्मिता के अन्यतम धनी थे। उनकी वाणी में श्रोताओं को उद्वेलित कर देने वाली अद्वितीय चुम्बकीय शक्ति थी। गहरे पैठ जाने वाली उपदेशात्मक प्रवृत्ति से अभिप्रेरित होकर उन्होंने अज्ञानियों, अशिक्षितों, भूले-भटकों, संशयग्रस्तों के मन में सच्चरित्रता और निष्ठा का अखण्ड दीपक प्रदीप्त किया।
पचपन चातुर्मासों में उन्होंने अपने विशाल शास्त्रीय ज्ञान का सरलतम और सहज बोधगम्य धारा प्रवाहमयी प्रकृति से प्राप्त, सर्व जनहिताय, स्वभावसिद्ध वक्ता की अनूठी अपूर्व वक्तृत्व शक्ति का सामंजस्य उपस्थित किया। उत्तर भारत के अधिकांश जनपदों का विहार करके उन्होंने जनता-जनार्दन में सुधारवादी चेतना उत्पन्न की। उदयपुर, अलवर, रतलाम, कोटा, किशनगढ़, देवास, इन्दौर, सैलाना, जावरा टौंक आदि के नवाब और राजे-महाराज उनसे प्रभावित रहे। उपदेशों द्वारा उन्होंने अनेक हृदयों में अहिंसा की प्रवृत्ति को पनपाया। इस दृष्टि से उनके अनेक संस्मरण जन-जीवन में व्याप्त हैं।
( मूर्तिमन्त अनेकान्त : पृष्ठ ३९ का शेष ) कराकर सदाचारपूर्ण जीवन की ओर प्रेरित किया। आपने सामाजिक कुरीतियों में भी सुधार कराकर समाज को आर्थिक कष्ट से मुक्ति दिलाई है।
कोटा में तीनों जैन संप्रदायों के साधओं का, जिनमें महाराजश्री भी सम्मिलित थे, एक साथ बैठकर प्रवचन देने की घटना अपनी विशिष्टता रखती है। वर्तमान में जैन संगठन का यह एक आदर्श उदाहरण है। इसीका अनुकरण उपाध्याय मुनिश्री विद्यानन्दजी के इन्दौर चातुर्मास के समय हमने प्रत्यक्ष देखा है।
साधुपद की गरिमा सर्व प्रकार की दीवारों- सांप्रदायिक विचारों के परित्याग में ही है। साधु वही धन्य है जो कर्तरिका (कैंची) के समान समाज को छिन्न-भिन्न न कर सूचिका (सुई) के समान जोड़ने का काम करता है। जैसे मारनेवाले से बचानेवाला महान् है, उसी प्रकार तोड़नेवाले से जोड़नेवाला महान् है । महाराजश्री इसके आदर्श उदाहरण थे। वे अत्यन्त सहृदय और उदार थे। करुणा उनके रोम-रोम से टपकती थी। उन्हें देखकर और सुनकर ऐसा मालूम पड़ता था मानो सर्वधर्मसमन्वयात्मक अनेकान्त का मूर्तिमान रूप हो।
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तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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